वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-41
From जैनकोष
द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा: ।। 5-41 ।।
द्रव्य के अंशभूत गुणों का सोपपत्तिक लक्षण―जो द्रव्य के आश्रय हैं और स्वयं गुणरहित हैं उन्हें गुण कहते हैं । गुणों में अगर गुण पाये जायें तो वे गुण न रहकर द्रव्य बन जायेंगे, क्योंकि जो गुण वाला है वह द्रव्य कहलाता है । गुण-गुण वाला नहीं हुआ करता । गुण तो द्रव्य की विशेषता की एक इकाई है, इस कारण गुण-गुणरहित ही होते हैं और वे गुण द्रव्य से अलग नहीं हैं । द्रव्य की ही यह एक विशेषता है―जैसे जीव द्रव्य । उसके गुण हैं ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंद । तो यह द्रव्य की ही एक विशेषता हुई । अब ज्ञान गुण में और गुण नहीं है । जब कभी ज्ञान गुण को इस निगाह से देखते हैं कि ज्ञान में अस्तित्त्व गुण है । ज्ञान में ही श्रद्धा की बात होती है, ज्ञान ही ज्ञान रूप रहता, उसे चारित्र कहा गया है । तो ज्ञान में चारित्र भी है । जब इस तरह की दृष्टि करते हैं तो वहां पर वह आधारभूत ज्ञान द्रव्य रूप में निरखा गया है, तब उसमें अन्य गुणों की संभावना की जाती है । वस्तुत: गुणों में गुण नहीं होते । पारमार्थिक बात तो यह है कि गुण कोई पदार्थ नहीं, पर्याय कोई पदार्थ नहीं, इनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है क्योंकि गुण की या पर्याय की यदि स्वतंत्र सत्ता होती तो वह द्रव्य की ही तरह बिल्कुल अलग अपना पूर्ण स्वरूप रखती और उनमें भी गुण पर्याय बन जाती । तो चूंकि गुण और पर्याय द्रव्य से भिन्न प्रदेश में नहीं है? उन गुण पर्यायों में अन्य गुण पर्याय नहीं पाये जाते इस कारण गुण, पर्याय गुण सहित नहीं है किंतु एक द्रव्य सत् को ही जब अन्वय दृष्टि से विशेषता सोचते हैं तो वहाँ गुण विदित होते हैं, और जब काल दृष्टि से विशेषता सोचते हैं तो वह पर्याय बन जाती है । तो द्रव्य की ही ये दोनों विशेषतायें हैं । एक ही समय में इन सब विशेषों को देखें तो गुण कहलाते और समय-समय में होने वाले द्रव्य की विशेषताओं को पर्याय कहते हैं । इस सूत्र में गुण का लक्षण कहा जा रहा है । ये गुण द्रव्य के आश्रय हैं । गुण जहाँ आश्रय पायें वह है द्रव्य । दूसरा विशेषण है निर्गुण । यह विशेषण दिया है कि गुणों में और गुण नहीं होते । यह प्रसिद्ध करने के लिये यदि यहाँ निर्गुणा: शब्द न देते और केवल इतना ही कहते―द्रव्याश्रया गुणा: अर्थात जो द्रव्य के आश्रय रहें उन्हें गुण कहते हैं । तो कार्य पर्याय, आकार ये भी तो कारण द्रव्य के आश्रय रह रहे हैं । जैसे गुण द्रव्य के आश्रय में हैं ऐसे ही पर्याय भी द्रव्य के आश्रय में है । तो उनको भी गुण मान लिया जाने का प्रसंग आता है, क्योंकि कारण द्रव्य के आश्रय में दो अणु वाले आदिक स्कंध हैं । परमाणु तो कारण रूप है और स्कंध कार्य रूप है, तो ये स्कंध भी गुण कहलाने लगते । इस आपत्ति के निवारण के लिये सूत्र में निर्गुणा: शब्द दिया है, दो अणु वाले स्कंध हैं तो उसमें भी गुण पाये जाते हैं । दृश्य स्कंधों में तो पर्यायद्वार से गुण प्रकट समझ में आते । तो ये स्कंध या परिणमन गुण न कहलाने लगे, इसके लिये सूत्र में निर्गुणाः शब्द दिया है । यहाँ एक शंका और होती है कि यदि गुणा: द्रव्याश्रया: इतना ही गुणों का लक्षण कहा जाये तो इस तरह भी सूत्र लघु हो जाता है । इसका उत्तर यह है कि गुणा द्रव्याश्रया ऐसा कहने पर जो पर्यायें हैं घटाकार उनमें गुणपना प्राप्त हो जाता है इसके उत्तर में कहते हैं कि सूत्र में जो द्रव्याश्रया कहा है वहाँ अन्य पदार्थ विषयक बहुब्रीहि समास मत्वर्थ में आया है जिसका भाव है जो नित्य ही द्रव्य में रहता हो वह गुण है । पर्यायें भी द्रव्य में रहती हैं, किंतु वे कदाचित् है । इस कारण द्रव्याश्रया के कहने से पर्यायों का ग्रहण नहीं होता । यों साधारण व असाधारण सब अन्वयी धर्म गुण है और द्रव्य व्यंजन पर्याय व गुणव्यंजन पर्याय, सभी व्यतिरेकी धर्म पर्यायें हैं । अब पर्याय अथवा परिणाम का लक्षण कहते हैं ।