वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 6-23
From जैनकोष
तद्विपरीतं शुभस्य ।। 6-23 ।।
(87) शुभनामकर्म के आश्रवों के कारण―ऊपर सूत्र में कहे गए जो दो कारण हैं उनके विपरीत कारण बनें तो वे शुभ नाम कर्म का आस्रव करते हैं । जैसे मन, वचन, काय में सरलता करना याने योगों में वक्रता न होना और किसी से विसम्वाद न करना ये शुभ नामकर्म के आस्रव के कारण हैं । यहां भी च शब्द का अनुवृत्ति लेना और उसका अर्थ लेना तो कुछ अन्य भी कारण हैं । जिनसे शुभ नामकर्म का आस्रव होता है । जैसे धार्मिक व्यक्तियों के प्रति आदरभाव होना, शरीर से, मन से और वचन से उनके आदर सत्कार का भाव हों तो शुभ नामकर्म का आस्रव होता है । संसार से भीरुता होना, संसार में राग न जगे किंतु विरक्ति बने, संसार के दु:खों से भयमीतता रहे, यह शुभ नामकर्म का आस्रव कराता है । धर्म कार्यों में प्रमाद न रहे, चारित्र निश्छल रहे, चारित्र में छल, कपट, मायाचार न हो तो ये सब अशुभ नामकर्म के आस्रव के विपरीत भाव हैं, ऐसे ही और भी अनेक शुभभाव समझना चाहिए । उनके होने पर अशुभनामकर्म के आस्रव नहीं रहते हैं । यहाँ तक नामकर्म के आस्रव के कारण बताये गए । इसी बीच एक जिज्ञासा होती है कि क्या शुभ नामकर्म के आस्रव की विधि इतनी ही है या और कोई विशेषपना है ? उसके उत्तर में कहते हैं कि एक तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति है । अप्रमत्त पुण्यरूप जो अनंत अनुपम प्रभाव वाली है और अचिंत्य विशेष विभूति का कारणभूत है, तीन लोक पर विजय करने वाली है ऐसी तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव होने की विधि विशेष का वर्णन करते हैं । तो यहां यदि ऐसा ही है तीर्थंकर प्रकृति का उच्च फल का तेज तो उसका ही आरंभ है, तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव के क्या-क्या कारण हैं यह इस सूत्र में बतलाते हैं ।