वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 6-24
From जैनकोष
दर्शनविशुद्धिर्विनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ
शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्ति-
रावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमितितीर्थंकरत्वस्य ।।6-24।।
(88) तीर्थंकरप्रकृति के आस्रव के कारणों में दर्शनविशुद्धिभावना में नि:शंकित अंग का निर्देशन―दर्शनविशुद्धि आदिक जिन जिनके इस सूत्र में नाम दिए गए हैं ये वे सब परिणाम तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव करने के कारणभूत हैं । दर्शनविशुद्धि―जिनेंद्र भगवान के द्वारा उपदेशे गए निर्ग्रंथ मोक्षमार्ग की रुचि होना, जो रुचि निशंकित आदिक 8 अंगों वाली है वह रुचि दर्शनविशुद्धि कहलाती है । जिनेंद्र भगवान ने, अरहंत देव ने जो निर्ग्रंथ रूप मोक्ष मार्ग उपदेशा है उस उपदेश में रुचि होना दर्शनविशुद्धि है । उस दर्शनविशुद्धि के 8 अंग होते हैं । (1) नि:शंकित (2) नि:कांक्षित, ( 3) निर्विचिकित्सा (4) अमूढ़दृष्टि (5) उपवृंघण (6) स्थितिकरण (7) वात्सल्य और (8) प्रभावना । निशंकित अंग में 7 प्रकार का भय दूर हो जाता है । 7 प्रकार के भय अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवों के लगे रहते हैं, जैसे इहलोक भय―इस लोक में हमारा किस तरह गुजारा होगा, हम किस तरह रह पायेंगे, उसके विषय में भय बनाये रहना इहलोक भय है किंतु जिन्होने आत्माके सहज चैतन्यस्वरूप का अनुभव किया है उनका यह दृढ़ निर्णय है कि मेरा सारा लोक तो मेरा आत्मस्वरूप है उस स्वरूप में विकार नहीं, विपत्ति नहीं, किसी पर का प्रवेश नहीं फिर वहां भय की क्या संभावना? स्वरूप को निरखकर ज्ञानी पुरुष निर्भय रहा करते हैं और यह निर्भयता उनका निशंकित अंग है । अथवा जिनेंद्र देव द्वारा कहे हुए वाक्यों में शंका न रहना निशंकित अंग है ।
(89) नि:कांक्षित, निर्विचकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपवृंहण, स्थितिकरण व वात्सल्य अंग का निर्देशन―नि:कांक्षित अंग―तीनों लोक के प्रसंग लेकर उपभोग की आकांक्षा दूर कर देना, मुझे इस लोक में न कुछ चाहिए न परलोक में कुछ चाहिए, समग्र आकांक्षावों को दूर कर देना और खोटे पात्र में भी आकांक्षा न रखना जैसे कि अनेक लोग कुगुरु के प्रति आकर्षित रहते हैं और कुछ आशा भी रखते हैं, उन्हें मोक्ष मार्ग का कुछ प्रयोजन नहीं, यदि किसी के मोक्ष मार्ग का प्रयोजन होवे तो वे विषयों की वांछा कैसे करेंगे? तो विषय भोगों की आकांक्षा दूर होना या कुदृष्टि कुजन्म वाले जीवों को आकांक्षा होना । निर्विचिकित्सा शरीर आदिक अशुचि पदार्थों के अशुचि स्वभाव को जानकर यह शुचि है, पवित्र है, ऐसे मिथ्या संकल्प तो निर्विचिकित्सा हैं, पर उस संकल्प को हटा देना निर्विचिकित्सा है । अरहंत भगवान के प्रयोजन में भी यह अयुक्त है । इसमें घोर कष्ट है । यदि इतनी बात इस आगम में न लिखी होती तो सब कुछ बिल्कुल सही बैठता । इस प्रकार अशुभ भावना का परित्याग करना सो निर्विचिकित्सा अंग है । अमूढ़ दृष्टि अंग―खोंटे नय, खोटे दर्शन के अनेक मार्ग है, और उन अनेक प्रकार के मार्गों में तत्त्व की तरफ लगने वाले उन सब मार्गों में युक्ति न चली, युक्ति से वे ठीक न बैठे, इस प्रकार परोक्षचक्षु से निश्चय करके मोहरहित होना अमूढ़दृष्टि है, याने कुनय में, कुदृष्टि में मोह न होना, उन्हें सही न मानना यह अमूढ़दृष्टि अंग है । उपवृंहण―उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव आदिक भावना के द्वारा आत्मा में, धर्म में, स्वभाव में शील में वृद्धि करना उपवृंहण अंग है । स्थितिकरण―कषाय का उदय आदिक होने पर धर्म के ध्वंस करने वाले कारण कोई आ जायें उस समय आत्मा धर्म से च्युत न होवे उसका नाम है स्थितिकरण । वात्सल्य―रागद्वेष पर विजय पाने वाले भगवंतों ने जो धर्मामृत बताया है उसमें नित्य अनुराग बना रहना वात्सल्य अंग है तथा उस धर्मामृत का पान करने वाले अन्य बंधुवों में निश्चल प्रीति होना वात्सल्य है ।
(90) तीर्थंकरत्वास्रवहेतुवों में दर्शनविशुद्धि में अंतिम प्रभावना अंग का निर्देशन―प्रभावना―सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र इन रत्नत्रयों के प्रभाव से आत्मा का प्रकट करना प्रभावना अंग है । जैसे कहते हैं कि धर्म की प्रभावना करना तो उसमें रत्नत्रय का प्रकाश फैले, लोगों के चित्त में रत्नत्रय की महिमा आये तब वह प्रभावना कहलाता । अन्यथा केवल एक खर्च आडंबर बनाकर लोगों पर यह छाप करना कि हमारा बड़ा प्रभाव है, बहुत बड़े धनिक हैं, इससे धर्म की प्रभावना का कुछ संबंध नहीं । धर्म तो रत्नत्रय है, सो रत्नत्रय की बात दूसरों के चित्त में बैठे तो प्रभावना है । जैसे लोगों को समझाया जाये कि आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है । प्रत्येक पदार्थ अपनी-अपनी सत्ता रखता है । एक का दूसरा कुछ नहीं है, कि फिर ममता का कोई अवकाश ही नहीं फिर आत्मा का जैसा सहजस्वरूप है वह ज्ञान में उतरे ऐसा उपाय बने तो वह प्रभावना है । अपना खुद विशिष्ट चारित्रपालन करके संतुष्ट रहे जिसे देखकर अन्य लोगों के चारित्र के प्रति भावना जगे तो वह प्रभावना अंग है । ऐसे 8 अंग सहित सम्यग्दर्शन होना, पर ऐसा सम्यग्दर्शन होने पर जीवों के कल्याण की भावना होना दर्शनविशुद्धि भावना है ।
(91) तीर्थंकरत्वास्रवहेतु में द्वितीय तृतीय चतुर्थ भावना का निर्देश―तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव के कारणभूत सोलह भावनाओं मे द्वितीय भावना है विनयसंपन्नता । सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र आदिक में मोक्ष के साधन हैं और उनके साधनभूत गुरु आदिक में अपनी योग्य वृत्ति से सत्कार करना, कषाय को हटाना विनयसंपन्नता कहलाती है । विनय के बिना पात्रता नहीं आती, लौकिक कार्यों के सीखने में भी जिस गुरु से सीखे उसके प्रति नम्रता विनयभाव होता है तो वह विद्या सुगमता से आ जाती है । फिर यह तो मोक्षमार्ग की बात है । आत्मा में मानकषाय का अंश न हो तब ही पात्रता जगती है और जब तक काय, वचन, मन की प्रवृत्ति है तब तक नम्रता का होना यह सिद्ध करता है कि इसने मान कषाय पर विजय किया है । विनय से आत्मानुभव की पात्रता निर्विघ्न चारित्र को निभाने की पात्रता होती है । तीसरी भावना है शीलव्रतेस्वनतिचार―चारित्र के भेद हैं शील और व्रत । व्रत तो अहिंसा आदिक 5 बताये गए हैं और व्रतों के पालन करने में सहायक शील है । जैसे क्रोध का त्याग करना मान का त्याग करना । तो ऐसे शील और व्रतों में निर्दोष प्रवृत्ति रहना, मन, वचन, काय की प्रवृत्ति शुद्ध रहना, शीलव्रतेस्वनतिचार कहलाता है । चौथी भावना है अभीक्ष्या ज्ञानोपयोग । अभीक्ष्ण का अर्थ है निरंतर । ज्ञानोपयोग का अर्थ है ज्ञान में उपयोग रहना । ज्ञान की भावना में निरंतर युक्त रहना सो ज्ञानोपयोग है । ज्ञान के 5 भेद बताये गए हैं―1-मतिज्ञान, 2-श्रुतज्ञान, 3- अवधिज्ञान, 4-मन:पर्ययज्ञान और 5-केवलज्ञान । इन ज्ञानों से ही जीवादिक पदार्थों का निर्णय होता है, आत्मतत्त्व का निर्णय होता है । ज्ञान का फल है अज्ञान का हट जाना, यह जो साक्षात् फल है और परंपरा फल है हित की प्राप्ति होना, अहित का परिहार करना, और जो न हित है न अहित है उन प्रवृत्तियों से उपेक्षा रहना और ज्ञान के परिणमनों का आधार आश्रय सहज ज्ञानस्वरूप है सो इन परिणमनों द्वारा सहज ज्ञानस्वभाव का आश्रय लेना यह है उत्तम ज्ञान में उपयोग । फिर इसमें न ठहर सके तो तत्त्वनिर्णय में उपयोग रखना यह भी ज्ञानोपयोग है । निरंतर ज्ञान में उपयोग रखने को अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग कहते है।
(92) तीर्थंकरत्वास्रवहेतु में संवेग व शक्तितस्त्याग भावना―तीर्थंकर प्रकृति की 16 भावनाओं में पांचवीं भावना है सम्वेग । संसार से भीरुता करना, डरना, हटना सो सम्वेग भावना है । संसार में सर्वत्र कष्ट ही कष्ट है, शारीरिक कष्ट है, मानसिक कष्ट है । जहां बहुत विकल्प आरंभ रहा करते हैं, कहीं इष्ट का वियोग हो, कहीं अनिष्ट का संयोग हो इष्ट का लाभ नहीं हो रहा आदिक नाना प्रकार की स्थितियों से संसार का दु:ख उत्पन्न होता है । वह अति भयानक है कष्टरूप है, उससे नित्य भीरुता होना सम्वेग भावना है । त्याग भावना―दूसरों की शांति के लिए त्याग करना त्याग भावना है । जैसे पात्र के लिए आहार दिया तो पात्र को आहार देना उस पात्र के लिए संतोष का कारण रहा, वह अपनी ज्ञानसाधना में जुटकर संतुष्ट रहता है । पात्र के लिए अभयदान दिया तो उस भव की विपत्तियों को मानो हटा दिया । पात्र के लिए सम्यग्ज्ञान दिया तो वह अनेक भवों के कोटाकोटि दुःखों को हटा देने का कारण बनता है । दानों में प्रधान ज्ञानदान है । यदि किसी आत्मा को अपने स्वरूप का भान होता है और उस स्वरूप में रमण करने का यत्न बनता है तो इसके द्वारा तो अनंतकाल तक के लिए, हमेशा के लिए संसारसंकट समाप्त हो गए । तो यह तीन प्रकार का यथाविधि दिया गया दान त्याग कहलाता है ।
(93) तीर्थकरत्वास्रवहेतु में शक्तितस्त्याग भावना―तपभावना―अपनी शक्ति को न छिपाकर मार्ग का विरोध न कर कायक्लेश करना तप है । तपमें कायक्लेश तो है, पर रागद्वेष उत्पन्न करके या समता परिणाम बिगाड़कर संक्लेश या दुःख मानकर कायक्लेश होना तप नहीं कहलाता । जो मार्ग से अविरुद्ध हो ऐसा ही कायक्लेश तप कहलाता है, और इस दृष्टि से देखा जाये तो कायक्लेश नाम दूसरे लोगों के देखने में पीड़ा, खुद क्लेश नहीं करता सो तपश्चरण अंतरंग बहिरंग दोनों प्रकार के होते हैं । उन तपश्चरणों में अपनी शक्ति न छिपाकर लगना तप कहलाता है । तपश्चरण की भावना रखने वाला साधक जानता है कि यह शरीर तो दुःख का कारण है, विनाशीक है, अपवित्र है, इस शरीर का मनमाना भोग विधि से पोषण करना युक्त नहीं है । आखिर यह शरीर छूटेगा ही और भिन्न है, इस पर उपभोग देने से कष्ट ही है । इस शरीर को भोगों में रमाकर इसका पोषण करना यह युक्त नहीं है । तो ऐसा यह शरीर अशुचि है, उपेक्षा के योग्य है, फिर भी यह मनुष्यभव प्राप्त होना बड़ा कठिन है, इसमें श्रेष्ठ मन मिला है, यहाँ रत्नत्रयगुण का संचय कर लें तो अनंतकाल के लिए हम संसार से पार हो सकते हैं और उन गुण रत्नों का संचय कर सकें इसके लिए यह जरूरी है कि यह भव बना रहे कुछ समय तो धर्मसाधना कर सकेंगे और यह भय बना रहे इसके लिए शरीर का कुछ पोषण आवश्यक है । सो जैसे किसी भृव्य से काम कराने के लिए उसका पोषण किया जाता है ऐसे ही इस शरीर से काम कराने के लिए इस शरीर का भी उपयोग होना उचित है । जैसे आत्मा की भावना बढ़े उस प्रकार इस शरीर से तपश्चरण आदिक का काम निकलता है, ऐसा जानने वाला साधक कायक्लेश में रंच भी क्लेश नहीं मानता और मार्ग के अविरुद्ध अपनी शक्ति को न छिपाकर तपश्चरण करता है ।
(94) तीर्थंकरत्वस्रवहेतु में 8, 9, 10, 11, 12, 13 वीं भावना का निर्देशन―साधु समाधि―अनेक व्रत शीलों से समृद्ध बढ़े हुये मुनिगणों के तप में कोई विघ्न उपस्थित हो तो उन विघ्नों को दूर करना साधुममाधि कहलाती है । जैसे भंडार में आग लग जाये तो प्रयत्न पूर्वक उस अग्नि को शांत किया जाता है ताकि भंडार में रहने वाले रत्न बच जाये, ऐसे ही मुनिराज व्रत शीलों के भंडार वहां कोई विघ्न आ जाये, उन विघ्नों का निवारण करना साधुसमाधि है । वैयावृत्ति―गुणी जनों पर, साधु संतों पर कोई कष्ट आये, रोग आये उसको निर्दोष विधि से हटा देना, उनकी सेवा करना यह वैयावृत्ति है । वैयावृत्ति से उपकृत साधु अपने गुण की उपासना में जुट जाते हैं इसलिए यह वैयावृत्त मोक्षमार्ग में सहायक है । अर्हदभक्ति केवलज्ञान, अनेकचतुष्टय संपन्न निर्दोष परमात्मा अरहंत कहलाते हैं । अरहंत भगवान के गुणविकास का स्मरण करना, उनके प्रति अनुरक्त होना, उनकी भक्ति करना अर्हद्भक्ति कहलाती है । आचार्यभक्ति―साधुजनों को निर्विघ्नतया मोक्षमार्ग में प्रवर्तन के सहायक आचार्य महाराज, जिनको बताया है कि ये संसार से निस्तारक है उनके गुणों में प्रीति होना, उनके रत्नत्रय गुणों का स्मरण होना, उनकी आज्ञानुसार चलना यह आचार्यभक्ति कहलाती है । बहुश्रुतभक्ति―जिन साधुसंतों को बहुत ज्ञान है, ऐसे विपुल श्रुतज्ञानी साधुसंतों के ज्ञानचारित्र की भक्ति करना, उनकी आज्ञा में रहना, उनकी सेवा का भाव रखना बहुश्रुतभक्ति कहलाती है। प्रवचनभक्ति―प्रवचन आगम को कहते हैं । प्रवचन श्रुतदेवता है, उसके प्रसाद से मोक्षमार्ग में गमन करना सरल होता है, ऐसे परम उपकारी प्रवचन की भक्ति करना प्रवचनभक्ति है ।
(95) तीर्थकरत्वास्रवहेतु में आवश्यकापरिहाणि भावना का निर्देशन―आवश्यकापरिहाणि―साधुजनों के 6 आवश्यक होते हैं―सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये 6 आवश्यक क्रियावों का यथासमय बिना नागा स्वाभाविक क्रम से करते रहना आवश्यकपरिहाणि है । इसमें दो शब्द हैं―आवश्यक और अपरिहाणि । आवश्यक कार्यों में कमी न करना आवश्यकपरिहाणि है । प्रथम आवश्यक है सामायिक, समस्त पाप योगों का त्याग करना, चित्त को एकाग्ररूप से ज्ञान में लेना, आत्मा का जो सहज ज्ञानस्वरूप है उस सहज ज्ञानस्वरूप की आराधना रखना सो सामायिक नाम का गुण है । रागद्वेष न होकर समता परिणाम रहना इस स्थिति का नाम सामायिक है, चतुर्विंशतिस्तव―चौबीसों तीर्थंकरों का गुणकीर्तन करना, स्तवन करना चतुर्विंशतिस्तव है । वंदना―मन, वचन, काय की शुद्धि पूर्वक षड्गासन या पद्यासन से अपने ध्येयजनों की वंदना करना, जो वंदना चार बार सिर से नमस्कार करना और 12 अंजुली में आवर्त करना इन क्रियावों पूर्वक वंदना करने को वंदना कहते है । किये हुए दोषों का निवृत्ति का नाम प्रतिक्रमण है । आगामी काल में दोष न होवें इसके लिए सावधानी रखना प्रत्याख्यान है । शरीर से ममत्व त्यागना कायोत्सर्ग है और शरीर से पूर्ण उपेक्षा रखना, कुछ से कुछ क्रियायें ही न करना यह अभ्यासानुसार कुछ समय तक किया जाता है । ये सब कायोत्सर्ग कहलाते हैं ।
(96) तीर्थंकरत्वास्रवहेतु में मार्गप्रभावना व प्रवचनवत्सलत्व भावना का निर्देशन―मार्गप्रभावना―संसार से छुटकारे का मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है । उस मार्ग के ज्ञानद्वारा, चारित्रद्वारा, अन्य उपाय द्वारा प्रभावना करना मार्ग प्रभावना है । जिस ज्ञानसूर्य की किरणों से अज्ञानसमर्थक मतों का प्रकाश दूर हो जाता है, यह मार्ग प्रभावना है । लोगों के यह निर्णय बन जाये कि वास्तविक मार्ग तो सहज आत्मस्वरूप का श्रद्धान् ज्ञान और सम्यक् आचरण है, तो यह है वास्तविक मार्गप्रभावना । तपश्चरण आदिक से भी मार्गप्रभावना बनती है, ऐसा महान उपवास जो बड़े-बड़े धीरों को आसन को भी कंपा देता है ऐसे तपश्चरणों से मार्ग की प्रभावना होती है । जो लोग देखते जानते हैं उनके भी भावों में अतिशयता आती है, और यों तपश्चरणों से भी मार्गप्रभावना होती है । मार्गर्प्रभावना का एक कारण जिनपूजा है । जिनेंद्र भगवान का गुणानुवाद पूजन विधान आदिक द्वारा सद्धर्म का प्रकाश करना मार्ग प्रभावना है । प्रवचनवत्सलत्व―प्रवचन नाम साधर्मीजनों का है । साधर्मीजनों में स्नेह होना प्रवचनवत्सलता है । जैसे गाय अपने बछड़े से प्रकृत्या प्रीति करती है, उस गाय को बछड़े से कोई आजीविका की आशा नहीं है किंतु प्रकृत्या स्नेह होता है ऐसे ही साधर्मी जनों से कोई छल कपट की आशा न रखकर स्वाभाविक रीति से स्नेह करना, धर्मात्माजनों को देखकर स्नेह से भर जाना यह प्रवचनवत्सलत्व है । इस प्रकार ये 16 कारण भावनायें तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव का कारण होती हैं । यहाँ तक नामकर्म के आस्रव के कारण कहे गए हैं । अब क्रम प्राप्त है गोत्रकर्म । गोत्रकर्म दो प्रकारका होता है―( 1) नीचगोत्र और (2) उच्चगोत्र, जिनमें अब नीच गोत्र के आस्रव के कारण कहते हैं ।