वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-18
From जैनकोष
नि:शल्यो व्रती ।। 7-18 ।।
(159) व्रती की अनिवार्य विशेषता―नि:शल्य व्रती होता है, व्रती नि:शल्य होता है । जीव की रक्षा पाप से निवृत्त रहने में है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पापों में जो अपना उपयोग रखता है, धर्म की अवहेलना करता है । कि यह स्वयं भगवान आत्मा है । जानता तो सब है ही कि मैं यह खोटा काम कर रहा हूँ तो उसके ज्ञान में होने से उसके ज्ञान का बल घट जाता है और ज्ञान का बल घट जानें से उसे अनेक प्रकार की विह्वलतायें होती हैं । इससे जिसको अपने जीवन में सुख शांति चाहिए और जो दृढ़तापूर्वक अपना जीवनयापन करना चाहता हो उसका कर्तव्य है कि अपनी शक्ति अनुसार इन 5 पापों से विरक्त होवे । अब कोई पुरुष 5 पापों को ऊपर से तो छोड़ चुका । किसी की हिंसा नहीं करता, किसी से झूठ नहीं बोलता, किसी की चीज नहीं चुराता, किसी परनारी पर दृष्टि नहीं देता, अधिक परिग्रह नहीं रखता या परिग्रह का त्याग कर देता, फिर भी यदि उसके अंदर कुछ शल्य है तो वह व्रती नहीं कहला सकता । यह बात इस सूत्र में कही जा रही है । भव्य का अर्थ है जो अनेक तरह से प्राणि समूह को घाते, हिंसा करे, दुःखी करे, कांटे की तरह जो चुभे उसे कहते हैं शल्य ।
(160) व्रती की मायाशल्यरहितता―वे शल्य तीन तरह के है―(1) माया, (2) निदान, (3) मिथ्या । छल-कपट करना । किसी के प्रति कपट का व्यवहार करने से फायदा क्या, बल्कि उस कपट करने वाले को हानि है । जिस किसी दूसरे के प्रति कपट किया गया उसको हानि होना उसके पाप के अनुसार है, मगर इसने जो बुरा परिणाम किया उससे तो तत्काल ज्ञानबल घट गया और ऐसा कर्मबंध हुआ कि जिसके उदय में यह भविष्य में भी दुःखी रहेगा । जिसके आत्मा का ज्ञान नहीं है वही पुरुष छल कपट की बात सोचता है । जिसको साफ विदित है कि यह जगत भिन्न है, देह भी मेरा नहीं है, मैं अमूर्त ज्ञानमय पदार्थ हूँ, स्वयं सहज आनंदमय हूँ । जैसे आकाश निर्लेप है ऐसे ही मैं आत्मा अमूर्त अपने स्वरूपत: निर्लेप हूँ । इसमें कोई वेदना नहीं, इस आत्मा में कोई बाधा नहीं, इस आत्मा को कोई जानता नहीं । यह आत्मा स्वयं आनंदस्वरूप है । ऐसा जानने वाला पुरुष अपनी ही स्वरूप दृष्टि में मग्न रहता है । बाहर से वह सुख की आशा नहीं रखता । होता ही नहीं कहीं बाहर से सुख । जितना भी सुख होता है वह आत्मा का आत्मा के आनंद गुण से होता है । जब बाहर मेरा कहीं कुछ नहीं है तो किसी पदार्थ के संचय के लिए क्या कपट करना? जीवन मिला है, कर्म भी साथ हैं, जैसा उदय होगा वैसा सहज योग मिलता जाता है । कार्य चलता जाता है, पर किसी भी पदार्थ की तीव्र अभिलाषा रखने में जिसके लिए कपट करना पड़े तो उसका फल यह ही खुद भोगता है, दूसरा नहीं भोगता । जो ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है, व्रती है उसके छल कपट वाला शल्य नहीं होता । यह जीव वास्तविक सद्भूत पदार्थ है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र आनंद आदिक अनेक गुणों का यह समुदाय है । यदि यह सत्य ज्ञानरूप बना रहे तब तो आनंद ही आनंद है । और जहाँ तृष्णा का भाव आया और तृष्णा के कारण से छल कपट करना पड़ता है तो ऐसा कपट वृत्ति रखने वाला पुरुष व्रती नहीं हो सकता ।
(161) व्रती की निदानशल्यरहितता―दूसरा शल्य है निदान । मैं परलोक में राजा बनूं, सेठ साहूकार बनूं या देव बनूं, इस प्रकार का भाव रखना निदान है । निदान तो ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष करता ही नहीं है, व्रती हो तो वह निदान करेगा ही क्यों? जिसको अपने आत्मा की खबर नहीं है वही ऐसी उड़ान लगायेगा कि मैं राजा बनूँ, देव बनूँ क्योंकि उस अज्ञानी को यह खबर नहीं है कि ये राजा देव, सेठ आदि सब दुःखी हैं । जहाँ जहां अज्ञान है वहां वहाँ दुःख है । उन दुःखों की रीति भिन्न-भिन्न है । सेठ लोग और तरह से दुःख महसूस कर रहे हैं, उनके पास धन वैभव है तो इसकी रक्षा कैसे हो, यह बिगड़ रहा है । इतना नुक्सान हो रहा है, यों न जाने कितने-कितने विकल्प करके दुःखी रहते हैं? निर्धन लोग निर्धनता से दु:खी रहते हैं, चैन से नहीं बैठ सकते । तो ये सब संसार के जितने रूपक होते । चाहे सेठ हो, चाहे राजा हो, चाहे मिनिस्टर हो, चाहे राष्ट्रपति हो, जो भी है वह निरंतर दुःख से पीड़ित रहता है । हां मोह के कारण वे अपनी पीड़ा ऐसी नहीं महसूस करते कि मैं दुःखी हूँ, अपने को कल्पना से मानते कि मैं सुखी हूँ, पर हैं वे दुःखी । वास्तविक विवेकी तो वह है जो ऐसा उपाय बनावे कि संसार के संकट सदा के लिए मिट जायें । प्रथम तो यह जानना कि इस शरीर का संबंध ही सारे दुःखों की जड़ है । शरीर का संबंध न हो, केवल आत्मा ही आत्मा हो तो वह तो उसमें मग्न है, पर शरीर का संबंध होने से कितनी ही बाधायें होती हैं । रोग की बाधा, सम्मान अपमान की बाधा, और-और भी अनेक बाधायें हैं । खाली आत्मा हो तो वह क्या सोचेगा कि मेरी कीर्ति बढ़े, पर यह शरीर साथ, लगा है और यह ही लोगों की दृष्टि में है तो उसे निरखकर निरंतर यह विकल्प बनाये रहते हैं कि मेरा यश फैले, नाम हो, प्रशंसा हो । यह सब चक्र इस शरीर का संबंध होने से लगा है ।
(162) आत्मा की पर से अबाधितता―भैया, तो यह जानें कि यह शरीर मेरे से बिल्कुल भिन्न पदार्थ है । मैं आत्मा अपनी सत्ता लिए हुए हूँ । मेरे आत्मा को किसी अन्य पदार्थ से कभी बाधा हो ही नहीं सकती । जितनी बाधा के जितने कष्ट लोग मानते हैं वे अपने आप में अपने विचार, अपने विकल्प बनाने के दुःख हैं । बाहरी पदार्थों से कष्ट किसी जीव को होता ही नहीं है, कैसे हो? जैसे आकाश में आग लगायी जा सकती है । क्या? कभी नहीं लगायी जा सकती । अमूर्त है वह तो ऐसे ही इस आत्मा में कोई कष्ट दे सकता क्या कि इसमें कोई कील ठोक दे या इसे कोई पीट दे, या इसे कोई छुड़ा दे या इसे कोई दाब दे? कुछ भी नहीं किया जा सकता । यह आत्मा अपने में पूर्ण सुरक्षित है लेकिन यही खुद अपने में ज्ञानविकल्प की तरंग उठाकर अपनी ही करतूत से, अपने ही मानसिक विचार से, वासना से, कुबुद्धि से अपने आपको दुःखी करता रहता है । इसको दुःखी करने वाला कोई अन्य पदार्थ हो ही नहीं सकता कभी । यह श्रद्धान जिसके नहीं है वह पद-पद पर कुछ से कुछ सोच-सोचकर दुःखी होता रहता है, ऐसे ही अज्ञानी पुरुष कभी जान ले कि परलोक है तो वह उसका निदान किया करता है―मैं राजा बनूँगा, मैं देव बनूँगा? अरे सोच तो यह सोच कि मैं आत्मा केवल आत्मा रह जाऊँ, जिसके साथ अन्य कोई संपर्क न रहे, बस मैं यह चाहता हूँ । इसको तो अन्य कुछ चाहिए ही नहीं, क्योंकि पर का संबंध बनाना कलंक है, कष्ट है ।
(163) आत्मा के परिपूर्ण स्वरूपास्तित्व के परिचय में निःशल्यता―जब यह आत्मा स्वयं परिपूर्ण अस्तित्व में है, जब यह अनंत ज्ञानानंद में रचा हुआ है तो इसको जरूरत क्या है पर पदार्थ की? किसी भी पदार्थ की सत्ता अधूरी नहीं होती है । जो है वह पूरा है । जैसे किसी मकान की अभी छत नहीं पड़ी तो लोग कहने लगते कि अभी तो यह अधूरा है, पर मकान तो कोई वस्तु ही नहीं है? वस्तु कोई भी अधूरी नहीं होती । क्या है? परमाणु । वस्तु क्या है? जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल एक-एक जो परमाणु है वह है वस्तु । तो कोई वस्तु अधूरी हो तो बताओ? कोई वस्तु आधा ‘‘है’’ बने और आधा ‘‘है’’ न बने ऐसा है नहीं । ‘‘है’’ आधा है ऐसा भी नहीं हो सकता और ‘‘है’’ आधा नहीं है ऐसा भी नहीं हो सकता । जो भी है वह पूरा है । मैं हूँ सो पूरा हूँ, परिपूर्ण हूँ । तो जब मैं अधूरा होता ही नहीं तो मेरे को फिर क्या पड़ा है बाहर कि जिसके लिए माया करें, निदान बांधे । ज्ञानी जीव निदान नहीं बांधते । वास्तविक तथ्य का ज्ञान होना यह बडे ऊँचे भवितव्य की बात है । संसार में सुख दुःख है, पुण्य पाप है, वैभव मिलता है, सब कुछ ठीक है मगर शांति का आधार तो ज्ञान है । शांति का आधार वैभव नहीं । अगर शांति का आधार वैभव होता तो तीर्थंकर चक्रवर्ती जैसे महापुरुष अपने इस वैभव को तजकर क्यों जाते? यहाँ तो यह सोच लेते कि हमारे निकट का पुद्गलस्कंध अगर कुछ कम हो गया तो मेरा बड़ा नुक्सान है और वे बड़े तीर्थकर चक्रवर्ती सब कुछ त्यागकर भी अपने आत्मा में संतुष्ट रहा करते थे । मार्ग यह है, करना कुछ पड़े, मगर सच्चा ज्ञान रहेगा दृष्टि में तब ही हम पार हो पायेंगे । अगर सम्यग्ज्ञान नहीं है अपने उपयोग में तो चाहे कुछ से भी कुछ मिल जाये, सांसारिक विभूति, समृद्धि कितनी भी हो जाये मगर पार नहीं हो सकते । सिद्ध भगवंत का स्वरूप कैसे निरखा जाता? अब जैसे कि सिद्ध भगवान अकेले हैं, केवल आत्मा हैं, शुद्ध है, ऐसे ही केवल आत्मा मैं अभी यहां हूँ सबसे निराला केवल अपना ही अस्तित्त्व रखने वाला, यह मैं आत्मा अब भी अकेला ही हूँ, अपने ही इस सत्त्व से हूँ । दुकेला होना तो खराब है, पाप है, संसार है, कष्ट है ।
(164) आत्मा का सच्चा आराम―अपने को अकेला विचारें, जैसा कि अपना खुद में स्वरूप है तो धीरता जगेगी, ज्ञानबल बढ़ेगा, शांति मिलेगी । ऐसा जीवन में अगर रोज रोज 10-5 मिनट आत्मा के स्वरूप का ध्यान न किया जाये तो यह जीवन किस लिए बिताया जा रहा है? उत्तर तो दीजिए । जीवन बेकार है । यदि आत्मा की सुध का कोई उपाय नहीं बनाया जा रहा तो 24 घंटे में 10-15 मिनट तो ध्यान आना चाहिए कि मैं सारे जगत से निराला हूँ । जैसे कोई मजदूर दिन भर से तेज परिश्रम करके आखिर आधा पौन घंटा काम छोड़कर, विकल्प छोड़कर, पैर पसारकर, ढीला ढाला पड़कर आराम तो कर लेता है तो ऐसे ही दिन रात विकल्प करके, विकल्प का परिश्रम करके, अपने आत्मा को व्यथित करके जो एक थकान होती है, बेचैनी होती है तो भाई इन 24 घंटों में 10-15 मिनट को तो सारे विकल्प छोड़कर, अपने शरीर को ढीला ढाला छोड़कर, उपयोग में आत्मस्वरूप को निहार कर आराम तो कर । सच्चा आराम गद्दे में पड़ने में नहीं है, सच्चा आराम सारे जगत से निराले अपने ज्ञान मात्र परमात्मस्वरूप की दृष्टि करने और यहाँ ही ज्ञान को बनाये रहने में है । जिसके शल्य लगी है वह बड़े कोमल गद्दे में भी पड़ा हो तो भी क्या उसे चैन मिलती है? अरे वह तो बेचैन रहता है । और जो निःशल्य है, जिसको आत्मा का ज्ञानप्रकाश मिला है वह कूड़े में पड़ा हो तो भी सुखी रहता है । तो जो निःशल्य हो वही व्रती बन सकता है । शल्यवान पुरुष व्रती नहीं कहला सकता ।
(165) व्रती की मिथ्याशल्यरहितता―तीसरा शल्य है मिथ्याभाव । पदार्थ अन्य प्रकार है, मान्यता अन्य प्रकार बन रही है, यह कहलाता है मिथ्यात्व । जगत के जितने पदार्थ हैं वे सब भिन्न हैं, विनाशीक हैं, पर यह अज्ञानी मानता है कि जो मेरा वैभव है वह भिन्न कहां है? वह तो मेरा खास है । मकान, दूकान, कारखाना, पैसा ये सब जो कुछ मिले है, सब मेरे से कहां बिछुड़े हैं, मेरे ही तो हैं । ये किसी दूसरे के कैसे हो सकते? ऐसी जो श्रद्धा बनी है यह है मिथ्यात्व । ये सर्व पदार्थ विनाशीक हैं, औरों के लिए तो विनाशीक समझ में आते हैं, ऐसा समझते कि जो मिले हैं सो नष्ट हो जायेंगे, पर खुद को जो प्राप्त हुआ है उसके बारे में यह श्रद्धा नहीं बनती कि यह भी नष्ट हो जायेगा । मुख से कहना और बात है, भीतर में भावभासना होना और बात है । यह है मिथ्याभाव । मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञान का दुश्मन है । उसे ज्ञान की कोई चीज भाती ही नहीं, उसे ज्ञानोपदेश न रुचेगा, ज्ञान का स्थान न रुचेगा, ज्ञान का कोई कार्यक्रम रुचेगा ही नहीं । उसे तो ये बाह्य ढेला पत्थर ही कुछ है, क्योंकि अज्ञान छाया है, मिथ्यात्व का पिशाच चढ़ा है । यह मिथ्यादर्शन बहुत बड़ा शल्य है । जिसके मिथ्यात्व है वह व्रती नहीं हो सकता । अब कुछ सयुक्तिक चर्चा सुनिये―सूत्र में दो बातें कही गई―(1) जो नि:शल्य है सो व्रती है―तो एक शंकाकार कहता है कि यह तो कोई तुक न मिली कि निःशल्य व्रती कहलाता है । जो निःशल्य है सो तो निःशल्य कहलायेगा, व्रती कैसे? और जो व्रती है सो व्रती कहलायगा, वह निःशल्य कैसे कहलायेगा? निःशल्य को व्रती कहना यह तो बेतुकी बात है । जो डंडा पकड़े हो सो डंडा वाला कहलायेगा, वह छतरी वाला कैसे अथवा पुस्तक वाला कैसे? ऐसे ही निःशल्य और व्रती की बात है । निःशल्य की बात और है, व्रती कीं बात और है । इस शंका का उत्तर यह है कि नि:शल्य शब्द का अर्थ नि:शल्य है, व्रती नहीं है और व्रती शब्द का अर्थ व्रती है नि:शल्य नहीं यह शब्दार्थ पदार्थ तो ठीक है, किंतु इन दोनों में कार्यकारण भाव है । जो निःशल्य होगा वही व्रती हो सकता है, दूसरा नहीं । जिसके शल्य है वह व्रती नहीं है । यह बात यहाँ कही जा रही है ।
(166) सशल्य से निःशल्य होने का एक उदाहरण―सशल्य व निःशल्य होने में पुष्पडाल मुनि का एक कथानक बहुत प्रसिद्ध है । पुष्पडाल जब गृहस्थावस्था में थे तो उनके यहाँ एक दिन उनके गृहस्थकाल के मित्र वारिषेण मुनि का आहार हुआ । वारिषेण मुनि भी उसी नगरी के थे । मुनि अवस्था में जंगलों में रहते थे । सो आहार करने के बाद जब जंगल जाने लगे तो पुष्पडाल उन्हें पहुंचाने गए । धीरे-धीरे करीब 1 मील जगह तय कर गए, पर न तो पुष्पडाल ने लौटने की बात कही और न वारिषेण महाराज ने वापिस होने की बात कही । पुष्पडाल किन शब्दों में कहें कि हम वापिस लौटना चाहते? कुछ समझ में न आया सो एक तालाब को देखकर बोले―महाराज यह वही तालाब है जहाँ बचपन में हम आप स्नान किया करते थे । यहाँ से नगर करीब 1 मील दूर है । तो इसका अर्थ यह था कि मैं एक मील तक पहुंचाने आ गया हूँ और वापिस लौटने की बात महाराजश्री बोल दें । इतने पर भी जब न बोले तो कुछ आगे चलकर एक बगीचे को देखकर बोले―महाराज यह वही बगीचा है जहाँ बचपन में हम आप खेलने आया करते थे । यह नगर से करीब 2 मील है इसका भी अर्थ वही था कि अब हम दो मील तक पहुंचाने आ गए, वापिस होने की आज्ञा दें, पर वारिषेण महाराज ने वापिस लौटने की कुछ बात न कहा । कुछ दूर और गए तो वह जंगल भी मिल गया जिसमें वह मुनिराज रह रहे थे । वहाँ से भी वापिस लौटने की बात न कही । कुछ प्रसंग पाकर भाव उमड़े और वही पुष्पडाल भी मुनि बन गए । अब बन तो गए मुनि, पर उनको यह शल्य बराबर बना रहा कि मैं अपनी स्त्री से बताकर भी नहीं आया, पता नहीं हमारी उस स्त्री का क्या हाल होगा? सुनते हैं कि उनकी स्त्री कानी भी थी, पर उसी की याद बराबर बनी रही । आखिर वारिषेण महाराज ने पुष्पडाल के मन की सब बात समझ ली और कहा तो कुछ नहीं, पर एक उपाय रचा पुष्पडाल का शल्य निकालने का, क्या कि वारिषेण महाराज ने अपनी माता के पास खबर भेजी कि कल के दिन दोपहर में हम घर आवेंगे, आप सभी रानियों को खूब सजाकर रखना । यह समाचार पाकर वह माता बड़ी हैरान हुई । सोचा कि क्या दुर्बुद्धि छा गई मेरे बेटे में जो घर आना विचारा । कुछ सोचकर मन ही मन―अच्छा देखा जायेगा । दूसरे दिन उस माता ने सभी रानियों को खूब सजा दिया, (शायद 32 रानियाँ थीं) और दो सिंहासन पास ही पास रख दिये, एक स्वर्ण का और एक काठ का इस ख्याल से कि अगर बेटे के मन में कुबुद्धि आ गई होगी तो स्वर्ण के सिंहासन पर बैठ जायेगा और यदि कोई और बात होगी तो काठ के सिंहासन पर बैठ जायेगा । आखिर हुआ क्या कि जब पहुंचे वारिषेण महाराज और पुष्पडाल तो वारिषेण महाराज तो काष्ठासन् पर बैठ गये और पुष्पडाल को सुवर्णासन पर बैठा दिया । पुष्पडाल वहाँ का सारा ठाठ देखकर दंग रह गए । इस विचारधारा में पड़ गए कि अरे ऐसी-ऐसी सुंदर 32 रानियां, ऐसा-ऐसा ठाठ छोड़कर ये मुनि हुए और यह मैं एक कानी स्त्री का इतना ख्याल बनाये रहता, धिक्कार है मेरे जीवन को । बस क्या था? ज्ञान जग गया, वह शल्य दूर हो गया जो उनकी आत्मसाधना में बाधक बन रहा था । वारिषेण महाराज तो ऐसा चाहते ही थे जिससे इस प्रकार का उपाय रचा था । जब पुष्पडाल मुनि का वह शल्य निकला तब धर्मध्यान में उनका चित्त जमा ।
(167) निःशल्य पुरुष के ही व्रताधिकारपना―यहां कह रहे थे कि जहाँ शल्य है वहाँ व्रत नहीं, जो व्रती है उसमें शल्य नहीं । बाहर में दृष्टि डालकर देख लो, शांति कहीं बाहर से न मिलेगी । शांति मिलेगी अपने आपके अंतःस्वरूप में बसे हुए ज्ञानानंद स्वभाव में । तन्मात्र ही अपने आपको भापें तो उद्धार है, अन्य किसी बात से इस जीव का उद्धार नहीं । जरा ध्यान देकर कुछ सोचो तो सही कि आज हम आप कितनी श्रेष्ठ स्थिति में हैं―मनुष्यपर्याय मिली, श्रेष्ठ कुल मिला, सब श्रेष्ठ समागम मिले, सब प्रकार के आराम के साधन मिले, धर्म का कुछ सिलसिला भी चल रहा है । ऐसे सब प्रसंगों को पाकर, अब इस मानवजीवन को व्यर्थ नहीं खोना है, अपने लिए कोई हित का उपाय बनाना है । वैसे तो बहुत से लोग रोज-रोज मंदिर भी आते, धर्मस्थानों की भी बड़ी-बड़ी व्यवस्थायें करते, लोग भी धर्मात्मा समझते, पर कोई इसका सही निर्णय नहीं दे सकता कि हाँ वह वास्तव में धर्म कर रहा है । पता नहीं, ये सब कुछ धार्मिक क्रियाकांड करके भी उसे अपनी इज्जत प्रतिष्ठा की मन में चाह हो । तो बताओ कहां रहा वह धर्म? एक बाहरी दिखावा भर का धर्म रहा । इस जगत में सब एक दूसरे की झूठी प्रशंसा करते हैं, गलती करते हुए भी अपनी गलती नहीं महसूस करते । कुछ धर्म कार्य करके अपने को मानते कि मैं बड़ा धर्मात्मा हूँ और इसके फल में मुझे मोक्ष मिलेगा, मगर यह सब उनकी भूल है । जिसको अपनी आत्मा के सहज स्वरूप का बोध नहीं है, मेरी क्या परिणति है, क्या स्वरूप है और क्या धर्म है? उसे धर्ममार्ग रंच मात्र भी नहीं मिल सकता । तो कहने का तात्पर्य यह है कि इतना तो कष्ट कर रहे, साथ ही थोड़ा यदि ज्ञान की बात और जान लें, प्रकाश पालें तो इनका यह सारा उद्यम भी इनको हितमार्ग में बढ़ने के लिए सहयोगी बन जायेगा । परमात्मस्वरूप का बोध हुए बिना किसी को धर्ममार्ग मिल नहीं सकता, इससे आत्मा को जानने के लिए चाहे अपना सर्वस्व अर्पित करना पड़े, फिर भी अर्पण करने को तैयार रहें । तो जो आत्मज्ञानी हैं वे निःशल्य हैं और जो निःशल्य है सो ही व्रती है । अब यहाँ जिज्ञासा होती है कि व्रती के विषय में जो वर्णन किया है कि वे तीन शल्य से रहित होना, हिंसा आदिक पापों के अभाव से अहिंसा आदिक में परिणाम बढ़ना, परिग्रह से निरपेक्ष होना, समस्त आगार अर्थात् घर के संबंध को तजना सो वही व्रती कहलाता है या और कोई गृहस्थ भी व्रती हो सकता है, इस जिज्ञासा के समाधान में कहते हैं कि इन हिंसा आदिक पापों की विरति के एकदेश और सर्वदेश के भेद से ये व्रती दो प्रकार के कहे गये हैं―उनमें एक गृहस्थ हैं और एक मुनि हैं । इसी बात को इस सूत्र में कहते हैं ।