वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-17
From जैनकोष
मूर्च्छा परिग्रह: ।।7-17।।
(154) परिग्रह पाप का लक्षण―मूर्छा को परिग्रह कहते हैं । किसी भी बाह्य पदार्थ का आत्मा में न लगाव का संबंध है और न विलगाव का संबंध है । सर्व पदार्थ स्वतंत्र-स्वतंत्र अपनी सत्ता लिए हुए अवस्थित हैं और किसी भी पदार्थ का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आत्मा में नहीं आता । इस कारण बाह्य पदार्थों को न यह आत्मा ग्रहण करता है और न बाह्य पदार्थ परिग्रह कहला सकते हैं । तो परिग्रह तो वह है जिसको अपने आत्मा में ग्रहण करे । आत्मा विकल्प को ग्रहण करता है इसलिए विकल्प मूर्छा यह ही परिग्रह है । बाह्य वस्तु परिग्रह नहीं होता, फिर भी इन विकल्पों का व्यक्तिकरण आश्रयभूत कारण में उपयोग देकर होता है और आश्रयभूत कारण हैं चेतन अचेतन बाह्य पदार्थ, सो आश्रयभूत कारण होने से इसमें परिग्रह का उपचार किया गया है । वास्तव में परिग्रह मूर्छा है । मूर्छा क्या कहलाती है? बाह्य जो धन धान्य वैभव चेतन अचेतन पदार्थ, गाय, बैल, भैंस, पशु, बंधु आदिक और भीतर में हैं रागादिक भाव, इनकी रक्षा, इनका उपार्जन, इनमें लगाव, इनके संस्कार के प्रति जो आत्मा का भावरूप व्यापार है, विकल्प है उसे मूर्छा कहते हैं । यहाँ एक शंकाकार कहता है कि शरीर में जो वात, पित्त, कफ नाम का किसी भी दोष से जो यह शरीर में विकार होता, बेहोशी होती, मूर्छा तो उसे कहा करते । उस ही मूर्छा को परिग्रह कहना चाहिए । इस शंका के उत्तर में कहते है । इस शारीरिक मूर्छा को मूर्छा कैसे कहा जा सकता? मूर्छा धातु मोह अर्थ में आती है, सो बाह्य और अंतरंग उपाधि की रक्षा आदिक के विषय में जो कुछ विकल्प जगता है वही यहाँ मूर्छा शब्द से लिया गया है ।
(155) बाह्य पदार्थ में उपचार से परिग्रहपना―शंकाकार कहता है कि यदि मूर्छा नाम अंतरंग विकल्प का है तो फिर धन धान्य वैभव आदिक परिग्रह न कहलायेंगे, क्योंकि मूर्छा शब्द से आध्यात्मिक परिग्रह ग्रहण किया है । फिर बाह्य पदार्थ परिग्रह न रहेगा । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि प्रधानता तो अध्यात्म की है, क्योंकि जीव को कष्ट अपने मूर्छा के कारण होता है । आत्मा की सुध न रहना और अटपट बाह्यविषयक विचार जगना―यह ही मूर्छा है और इस ही से आत्मा को कष्ट है । यह मेरा है, इस प्रकार का जो संकल्प है वह आध्यात्मिक परिग्रह है । और उसी को यहाँ कहा गया है । जब संकल्प विकल्प को परिग्रह में ग्रहण किया गया तो इसका आश्रयभूत कारण जो बाह्य विषयभूत पदार्थ है वह अपने आप परिग्रह है । ऐसा उपचार किया जाता है । जैसे कि लोग कहने लगते कि अन्न ही वास्तव में प्राण है, तो कहीं अन्न ही तो प्राण नहीं हो गया । प्राण तो 5 इंद्रिय, 3 बल, 1 श्वासोच्छ्वास और 1 आयु ये 10 हैं । अन्य कहीं प्राण नहीं हैं । चूंकि शरीर की स्थिति अन्न के कारण रहती है । इस कारण कर्ता कार्य का उपचार किया है सो कहा कि अन्न प्राण है । इसी प्रकार वास्तव में मूर्छा तो अंतरंग का विकल्प है, पर इस विकल्प के आश्रयभूत कारण हैं बाह्य पदार्थ, अत: बाह्य पदार्थों को परिग्रह कहा है और उनको ही मूर्छा शब्द से कह सकते हैं ।
(156) नैमित्तिक भावों के अपनाने में परिग्रहपना―अब यहाँ कोई शंकाकार कहता है कि यदि आत्मा में उठने वाले रागद्वेषादिक परिणाम को परिग्रह कहते हो तो आत्मा में उठने वाले दर्शनज्ञानचारित्र को भी परिग्रह कह दीजिए, क्योंकि आध्यात्मिक परिग्रह को प्रधान कह रहे हो । तो जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र में यह मेरा गुण है, यह मेरा स्वरूप है, इस प्रकार का जो संकल्प है उसे ही परिग्रह कहो फिर? इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि इस सूत्र में प्रमत्त योग शब्द की अनुवृत्ति लेना है, जिससे यह अर्थ निकलता कि प्रमाद कषाय के संबंध से जो यह मेरा है, ऐसा संकल्प बनता है उसे मूर्छा कहते हैं, पर ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुण के संबंध में किसी को बेसुधी या मोह कषाय नहीं जगती । प्रमत्त रहित साधु के भी ज्ञान दर्शन चारित्र के विषय में कोई कषाय नहीं जगती, ऐसे मोह का अभाव होने से उस चिंतन में मूर्छा नहीं कही जाती और वह परिग्रहरहित है । दूसरी बात यह है कि रागादिक भाव तो कर्मोदय का निमित्त पाकर होते हैं सो वे रागादिक भाव पराधीन हैं, कर्म के उदय के आधीन है, इस कारण रागादिक भाव आत्मा के स्वभाव नहीं हैं, किंतु ज्ञानादिक भाव तो स्वयं हैं, अहेय हैं, ये त्यागे नहीं जा सकते । आत्मा स्वभावरूप है इस कारण ज्ञानादिक भावों से परिग्रहपना नहीं माना गया है । हाँ रागादिक भाव जो मेरे स्वरूप में नहीं हैं, कर्म के उदय की छाया हैं उन भावों में यह मेरा है―इस प्रकार का संकल्प होना यह परिग्रह कहलाता है ।
(157) दर्शनमोह में निरंतर व्याकुलता एवं दुर्गति―यह मेरा है इस कथन में भी दो जातियाँ हैं । एक पुरुष तो रागादिक विकारों को आत्मस्वरूप समझकर, उनसे भिन्न न निरखकर उसी को ही मानता है कि यह मैं हूँ, यह मेरा है, ऐसे दर्शन मोह वाले जीव के भी बाह्य पदार्थों में यह मेरा है, ऐसा ख्याल जगता है । और सम्यग्दृष्टि पुरुष के भी परिस्थितिवश ऐसा कथन चलता है कि यह घर मेरा है, यह भाई मेरा है । परिग्रहपना यद्यपि दोनों में आया तो भी एक अज्ञानी का विकल्प है और एक ज्ञानी का विकल्प है । वास्तव में मूर्छा अंतरंग विकार को ही कहते हैं । जीव में जितना भी दोष का संबंध होता है वह परिग्रह के कारण से होता है । जब किसी पदार्थ में यह मेरा है, ऐसा संकल्प बना तो उसकी रक्षा की भी चिंता होती है, अनेक प्रकार के उद्यम करने पड़ते हैं और उन प्रवृत्तियों में हिंसा भी अवश्य होती है । और परिग्रह के लिए यह झूठ भी बोलता है, चौरी भी करता है, कुशील कर्म में भी लगता है और पश्चात् इस कुकर्मों के कारण नरकादि के अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं, इस लिए परिग्रह इस आत्मा के लिए अत्यंत अनर्थ की चीज है । जिस पुरुष को रागादिक विकार से रहित ज्ञानमात्र आत्मस्वरूप का परिचय नहीं है वह एकदम अंधेरे में है और इस जगत में किसी भी पदार्थ पर टिक नहीं सकता, क्योंकि बाह्यपदार्थ तो अनित्य हैं, उन पर उपयोग जमेगा नहीं । जो अपना ध्रुव स्वरूप है उसका इसे परिचय नहीं तो इसका उपयोग जहाँ चल सकता है उसका तो ख्याल ही नहीं । बाहर ही बाहर भटकता रहता है ।
(158) ज्ञानप्रकाश प्राप्त होने पर ज्ञानी को सर्वत्र निरापदता―संसार में जीव को कहीं भी दुःख नहीं है, क्योंकि इसका स्वरूप ही आनंद है । केवल आत्मस्वरूप में दृष्टि करे तो विदित होगा कि यह मैं ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व हूँ, जिसका जगत में कोई पहिचानने वाला नहीं है । जितना भी दूसरे लोग व्यवहार करते हैं मुझसे तो केवल इस शरीर को । इस पर्याय को निरखकर ही व्यवहार किया करते हैं, मेरे चैतन्यस्वरूप से कोई व्यवहार नहीं कर सकता और न किसी पदार्थ से मेरा संबंध भी है । ऐसा विविक्त ज्ञानमात्र अपने स्वरूप को दृष्टि में लेने वाला पुरुष लोक में उत्तम हुए । बाह्य धन वैभव की तो कथा ही क्या? यह शरीर भी मेरा स्वरूप नहीं । शरीर में कोई चेष्टायें हो रही हैं तो उनका ज्ञाताद्रष्टा रहता है यह ज्ञानी । शरीर में कोई रोग हो, शरीर में कोई विकार हो तो उसका यह ज्ञाता द्रष्टा ही रहता है । उसे अपनाता नहीं कि हाय मैं क्या करूं? ज्ञानी पुरुष को किसी भी स्थिति में उल्झन नहीं रहती क्योंकि उसने यह समझ लिया है कि मैं तो केवल ज्ञानमात्र हूं और स्वत: ही सहज आनंदस्वरूप हूँ । मेरे को बाह्य में कुछ करने को भी नहीं पड़ा है । किसी अन्य पदार्थ में मैं कुछ कर भी नहीं सकता हूँ । मात्र मैं अपने आपके भाव ही किया करता हूँ । फिर डर किसका? शंका क्या? विपत्ति कहा ? विपत्ति केवल मानने की होती है । किसी भी स्थिति को अनिष्ट मान लिया लो विपत्ति आ गई और जब यह ज्ञान रहता है कि मेरा आत्मा परिपूर्ण है, ज्ञानमय है, आनंद से भरा है और यह अपने आप में अपना परिणमन करता रहता है । हमें तो अपने से बाहर कुछ मतलब ही नहीं है, ऐसे अविकार स्वरूप को निरखने वाले के मूर्छा नहीं हो सकती । ज्ञानी पुरुष को तो अपने रागादिक भावों के प्रति भी ममता नहीं है । तब फिर उसे जगत में कष्ट ही क्या है? जितनी भी विपत्तियां आती हैं वे सब इस मूर्छा के आधार पर आती हैं । यहाँ तक 5 प्रकार के व्रत कहा, पाँचों व्रतों की भावनायें कहीं और जिन पापों से विरक्त होना है उन पापों का स्वरूप कहा, सो भावनाओं के द्वारा जिन्होंने अपना चित्त स्थिर किया है और पापों में अपाय विनाश देखते हैं, ऐसे विलक्षण पुरुष, विवेकी पुरुष समस्त संसारी क्रियावों से हट जाते हैं, उनमें उत्सुकता नहीं रहती, क्योंकि वे सब दुःखरूप हैं । तब वे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ, इन भावों से अपने को स्वच्छ करते हुए मोक्ष के प्रति अपना चित्त लगाते हैं । ऐसे पुरुषों के व्रत हुआ करते हैं । तो वे व्रती कैसे होते हैं इसके मूल स्वरूप को कहते हुए सूत्र कहते हैं ।