वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-27
From जैनकोष
स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमनोन्मानप्रति रूपकव्यवहार: ।।7-27।।
(196) अचौर्याणुव्रत के पांच अतिचार―अचौर्याणुव्रत के 5 अतिचार ये हैं―[1] स्तेनप्रयोग: चोरी का प्रयोग करना, यहाँ चोरी कराने के तीन प्रयोजन होते हैं―एक तो चोरी करने वाले को स्वयमेव प्रेरणा करना, दूसरे चोरी करने वालों को दूसरे के द्वारा प्रेरणा कराना, तीसरे चोरी में लगे हुए को अनुमोदित करना ये सब स्तेनप्रयोग कहलाते हैं । यह अचौर्याणुव्रत का प्रथम अतिचार है । इसमें स्वयं तो चोरी नहीं की किंतु चोरी के उपायों में इसने मदद की इस कारण ये अतिचार हैं । (2) चोरों के द्वारा लाये हुए धन को ग्रहण करना सो तदाहृ-तादान है । इसमें दोष यह है कि दूसरों को पीड़ा पहुंचाने का यह कारण बना क्योंकि चोर तो चोरी करके लाया और इसने उस धन को खरीदा तो उनको आगे का मार्ग मिल गया, सो पर की पीड़ा हुई, राजा का भय भी यहाँ है । कोई राजा समझ ले कि यह चोरी का माल लेता है तो उसका तो सारा धन छीन लिया जा सकता । तो यह तदाहृतादान अचौर्यव्रत का अतिचार है । (3) विरुद्धराज्यातिक्रम―जो कानून के खिलाफ हो उस राज्यनीति का उल्लंघन करना यह विरुद्धराज्यातिक्रम है । इसमें यह भी बात गर्भित है कि उचित न्याय से भिन्न अन्य प्रकार से दान ग्रहण करना, लेना सो अतिक्रम है । जैसे अल्प मूल्य में प्राप्त होने योग्य महान कीमती द्रव्य को लेना । जैसे कोई हीरा खरीद लाया है, वह जानता है कि इसका बहुत मूल्य है फिर भी थोड़े मूल्य में ले लेना यह अतिक्रम है । (4) हीनाधिकमानोन्मान―मान और उन्मान दो तरह के रूप होते हैं । मान तो धान आदिक मायने के बर्तन प्रस्थ आदिक होते हैं और उन्मान किलो आधा किलोग्राम आदिक होते हैं । तो यहां न्यूनमान से तो दूसरे को देना और बड़े मान-मान बाट से दूसरे का ग्रहण करना आदिक जो क्षण का प्रयोग है वह हीनाधिक मानोन्मान है । (5) प्रतिरूपक व्यवहार असल में कोई दूसरी चीज मिलाकर लेने देन का व्यवहार करना अर्थात् कुछ मिलावट करके देना लेना यह 5वां अतिचार है । इसमें यद्यपि सीधा ही केवल देते हुए का ग्रहण नही किया, फिर भी ऐसा कार्य करना दोष कहलाता है । अब ब्रह्मचर्याणुव्रत के 5 अतिचार कहते हैं ।