वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-28
From जैनकोष
परविवाहकरणेत्वरिकाऽपरिग्रहीतापरिगृहीतागमनानंगक्रीड़ाकामतीब्राभिनिवेशा: ।।7-28।।
(197) ब्रह्मचर्याणुव्रत के पांच अतिचार―ब्रह्मचर्याणुव्रत के 5 अतिचार इस प्रकार है―(1) परविवाहकरण । विवाह कहते है सातावेदनीय और चारित्र मोहनीय के उदय से कन्यावरण करना विवाद कहलाता है । यों दूसरे के विवाह का करना परविवाहकरण कहलाता है । जैसे किसी को शौक या धुन होती है कि एक लड़के का किसी लड़की से सगाई संबंध बने तो उसमें जो उत्सुकता और प्रयोग होता है वह ब्रह्मचर्याणुव्रत वाले के लिए दोष है । (2) अपरिग्रहीताइत्वरिकागमन । इत्वरिका कहते हैं खोटी चलन वाली स्त्री को । जिस स्त्री ने ज्ञानावरण का क्षयोपशम पाकर कुछ कला सीखी है, गुणों को जानता है तथा चारित्र मोहनीय और स्त्रीवेद के उदय से अंगोपांग नामकर्म के उदय से योग्यता पायी है सो वह यदि परपुरुषों से गमन करे, ऐसा स्वभाव बनाये तो उसको इत्वरिका कहते हैं । यदि वह विवाहित है अथवा वेश्या आदिक है तो वह अपरिग्रहीता कहलाती है । ऐसी कुशील स्त्री के साथ संबंध रखना यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का दूसरा अतिचार है । (3) परिग्रहीता इत्वारिकागमन―जो स्त्री कुशील स्वभाव की है और विवाहित है तो ऐसी स्त्री के साथ गमन करना, संबंध रखना ब्रह्मचर्याणुव्रत का तीसरा अतिचार है । (4) अनन्यक्रीड़ा―कामसेवन के अंगों मे भिन्न अंगों के प्रयोग
में कामसंस्कार जगना या विषयसेवन करना यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का चौथा अतिचार है । (5) कामतीव्रानभिनिवेश―काम के बढ़े हुए परिणाम को कामतीव्रानभिनिवेश―कहते हैं । ये 5 स्वदारसंतोष व्रत के अतिचार हैं । इस चौथे व्रत का नाम स्वदारसंतोष भी है, जिसका अर्थ है अपनी स्त्री में संतोष करना । उस व्रत के ये सब अतिचार हैं । यहाँ एक शंकाकार, कहता है कि इसमें तो अनेक अतिचार छूट गए । जैसे कि कोई दीक्षिता है, संन्यासिनी है या अतिबाला है, तिर्यंचयोनि वाली है, गाय घोड़ी आदिक इनका कोई यहाँ संग्रह नहीं हुआ, कोई पुरुष यदि इसके साथ गमन करे तो क्या वह अतिचार नहीं है? इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि इस व्रत में जो 5 वां अतिचार कहा गया है―कामतीव्रानभिनिवेश याने कामविषयक तीव्र वासना होना इसमें ये सब गर्भित हो जाते है। जो परिहार के योग्य है ऐसे दीक्षिता संन्यासी―आदिक में अगर कोई गमन वृत्ति करे तो वह काम की तीव्र वासना के कारण ही होता है । अतएव वह सब पंचम अतिचार में गर्भित है । इन सब अतिचारों में राजभय लोक के अपवाद आदिक अनेक दोष हैं और मुख्य दोष तो अपने परिणामों की मलिनता है । ये सब चतुर्थ व्रत के अतिचार कहे गए हैं । अब पंचम परिग्रह विरति नामक व्रत के अतिचार कहते हैं ।