वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-30
From जैनकोष
ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यंतराधानानि ।। 7-30 ।।
(199) दिग्वरति व्रत नामक शील के अतिचार―दिग्व्रत के 5 अतिचार इस प्रकार है―(1) ऊर्द्धव्यतिक्रम, व्यतिक्रम सीमा के उल्लंघन करने को कहते हैं । दिशाओं में जाने का जितना परिमाण रखा था उस परिमाण की अवधि का उल्लंघन करना अतिक्रम है । ऐसा अतिक्रम तीन प्रकार से हो सकता है । ऊपर की दिशाओं में अधिक जाना, नीचे अधिक जाना और दिशाओं में अधिक जाना, उनमें से सर्वप्रथम है ऊर्द्धातिक्रम, पर्वत पर, वृक्ष पर, ऊँचे टीले पर चढ़ते जायें और कुछ सीमा से अधिक हो गया हो (2) अधःव्यतिक्रम उतना आदिक विधि से नीचे अधिक गमन करना यह अधोव्यतिक्रम है । (3) दिशाओं विदिशाओं में जैसे कहीं बिलों में प्रवेश किया, पर्वतों की दरारों में प्रवेश किया आदिक रूप से दिशा विदिशा में गमनागमन बढ़ाना तिर्यक व्यतिक्रम है । (4) पहले योजन कोश आदिक परिमाण से दिशावों का परिमाण किया गया था । (5) लोभवश उससे अधिक की इच्छा करना यह क्षेत्रवृद्धि कहलाती है । यह दिग्व्रत 5वां अतिचार है । यहाँ कोई शंका करता है कि क्षेत्रवृद्धि कर लेना यह तो कुछ परिमाण में अर्थात् पंचम अणुव्रत में गर्भित हो जाता है । इस कारण इसका ग्रहण न करना चाहिए । ग्रहण करते हैं तो पुनरुक्त दोष हो जाता है । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यह शंका ठीक नहीं है । पहले जो इच्छा परिमाण किया है वह तो खेत मकान आदिक संबंधी है और यह जो इच्छा बढ़ा रहा है वह दिशावों संबंधी है । इन दिशाओं में लाभ होने पर जीवन है, अलाभ होने पर मरण है । इस प्रकार की स्थिति में भी अन्य जगह लाभ हो रहा हो तो भी गमन न करना अर्थात् तृष्णा में न बढ़ना, मर्यादा से आगे गमन न करना दिग्व्रत है । दिशावों का खेत मकान आदिक की तरह परिग्रहबुद्धि रखकर अपना कब्जा, करके परिमाण नही किया जाता, किंतु इन दिशावों को मर्यादा का उल्लंघन प्रमाद से, मोह से, चित्त के व्यासंग से हो जाता है । इस प्रकार ये दिग्व्रत के 5 अतिचार कहे गए है । अब देशव्रत के अतिचार कहते हैं ।