वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-31
From जैनकोष
आनयनप्रेष्यप्रयोगशग्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपा: ।।7-31।।
(200) देशविरति व्रतनामक शील के अतिचार―देशव्रत के 5 अतिचार इस प्रकार है―[1] आनयन―देशव्रत में जितने समय के लिए जितने क्षेत्र में मर्यादा की है उस क्षेत्र से बाहर कोई व्यक्ति खड़ा है तो उसको कुछ पदार्थ लेने की आज्ञा देना यह आनयन अतिचार है । उस क्षेत्र से बाहर यह व्रती स्वयं नहीं गया, इस कारण अनाचार तो नही है पर दूसरे व्यक्ति को भेजा इस कारण यह अतिचार है । [2] प्रेष्यप्रयोग―प्रेष्य कहते हैं सेवक को, जिसको भेजा जाता है सो स्वीकृत मर्यादा से बाहर स्वयं भी नहीं गया, दूसरे को नहीं बुलाया किंतु अपने सेवक द्वारा प्रयोग कराना यह प्रेष्य प्रयोग है । [3] शब्दानुपात―जितने समय के लिए क्षेत्रमर्यादा की है उससे बाहर कोई नौकर आदिक खड़ा है तो उसे खांसकर या अन्य प्रकार शांत करके उस कार्य को करवाना यह शब्दानुपात है । ये सब अतिचार क्यों कहलाते है कि इन व्रतों का प्रयोजन था कि लोभ और आरंभ से हटकर इस ही क्षेत्र में अपना आरंभ करना ताकि विशेष पाप न हो । लेकिन इस उद्देश्य का विघात है, इन कार्यों में इस कारण यह अतिचार है । [4] मर्यादा से बाहर कोई खड़ा हो तो उसको अपना शरीर ऐसा दिखाना जिससे यह समझता है कि मुझे देख देखकर काम जल्दी हो जायेगा । इस अभिप्राय से शरीर दिखाने को स्वानुपात कहते हैं । [5] पुद्गलक्षेप―मर्यादा से बाहर खड़े हुए नौकर चाकरों को संकेत करने के लिए कंकड़ पत्थर आदिक फेंकना पुद्गलक्षेप कहलाता है । इन अतिचारों में खुद ने मर्यादा तो नहीं लाँधा, पर अन्य से काम करवाना है इसलिए यह अतिचार कहलाता है । अब अनर्थदंड व्रत के अतिचार कहते हैं ।