वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-33
From जैनकोष
योगदु:प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ।।7-33।।
(204) सामायिक शिक्षाव्रत नामक शील के अतिचार―सामायिक शिक्षाव्रत के 5 अतिचार इस प्रकार है―(1) काययोगदुःप्रणिधान । दु:प्रणिधान कहते हैं खोटे प्रयोग को अथवा उल्टे प्रयोग को । शरीर का खोटा प्रवर्तन करना, सामायिक में होने वाली चेष्टावों से विपरीत प्रवृत्ति करना काययोगदुःप्रणिधान है । (2) वचनयोगदु:प्रणिधान―वचनों का सही प्रयोग न होना, उल्टा प्रयोग होना जिसमें वर्गों का संस्कार नही रहता, अर्थ का भी परिचय नहीं हो पाता या वचनों में चंचलता रहती है वह सब वचनयोगदुःप्रणिधान है । (3) मनोयोगदु:प्रणिधान―अपने मन को शुद्ध तत्त्व के चिंतन मनन के लिए समर्पित न करना, अन्य बातों का चिंतन मनन करना यह सामायिक शिक्षाव्रत का तीसरा अतिचार है । (4) जैसा कि सामायिक व्रत में करना चाहिए उसके प्रति सावधानी नहीं है और किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति हो अनुत्साह हो उसमें आदरभाव ही न हो तो वह अनादर नाम का चौथा अतिचार है । किसी तत्त्व में एकाग्रचित्त होकर चिंतन में नहीं चल रहा, मन समाधानरूप नहीं है, अतएव सामायिक में की जाने वाली क्रियावों का या पाठ आदिक का भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान नाम का 5 वाँ अतिचार है ।
(205) सामायिक शिक्षाव्रत के तृतीय व पंचम अतिचार में अंतर प्रदर्शन―यहां एक शंका होती है कि इस 5वें अतिचार का तो मनोयोग दुःप्रणिधान नाम के अतिचार में ही अंतर्भाव हो जाता है । योग्य क्रियावों को भूल जाना यह ही तो मन का विषम प्रवर्तना है । इस कारण स्मृत्युनुपस्थान का ग्रहण करना अनर्थक है । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि मन के दुःप्रणिधान में तो अन्य का चिंतन चलने लगता था । मन किसी भी विषय में दौड़ता था । वहां तो जो कुछ भी विचारते हुए या न विचारते हुए विषयों में क्रोधादिक का भाव आ जाना या उदासीनता से मन को गिरा लेना आदिक बातें होती थीं, किंतु इस पंचम अतिचार में विचार तो अन्य जगह नहीं चलाया जा रहा है, सामायिक के योग्य प्रवृत्तियों में मन को चलाना चाह रहा है, पर परिस्पंदन होने से, मन की अस्थिरता होने से उन सामायिक योग्य बातों में एकाग्रता से नहीं लग पा रहा, इस प्रकार तीसरा अतिचार और पंचम अतिचार में परस्पर भिन्नता है अथवा रात और दिन की नित्य क्रियावों का प्रमाद की अधिकता के कारण से भूल जाना यह स्मृत्यनुपस्थान कहलाता है । ये 5 सामायिक शिक्षाव्रत के अतिचार हैं । अब प्रोषधोपवास आदिक व्रत के अतिचार कहते हैं ।