वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-9
From जैनकोष
हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ।। 7-9 ।।
(131) हिंसा झूठ चोरी पाप से उभयलोक में होने वाले अपाय का चिंतन―हिंसा आदिक पापों में इस लोक में अन्याय देखा जाता है । अनेक प्रकार की आपत्तियां विघात देखी जाती हैं, और परलोक में इन पापों का कटुक फल मिला करता है । इस प्रकार हिंसा आदिक पापों की दुष्टता का दर्शन करना यह पंचव्रतों की भावना को दृढ़ करने वाली भावना है । अपाय का अर्थ है स्वर्ग और मोक्ष पदार्थ का उनकी क्रियावों के साधनों का नाश करना अपाय है । अथवा इस लोक संबंधी 7 प्रकार का भय हो जाना अपाय है । अवध्य निंद्यतत्त्व को कहते है । हिंसा आदिक पापों के करने से जो वह हिंसक है वह सदैव उद्वेग में रहा करता है और हिंसक का वह सदैव बैरी रहा करता है । सो यह हिंसक यहाँ ही बंधनक्लेशादिक को प्राप्त करता है और पापकर्म बंध के कारण उनके उदय में यह अशुभगति को प्राप्त करता है हिंसक लोक में निंद्यनीय भी होता है । इस कारण हिंसा से विरक्त रहना ही श्रेष्ठ है । झूठ बोलने वाला पुरुष लोगों की श्रद्धा से गिर जाता है, फिर लोग उससे कुछ भी संबंध करना नहीं चाहते । झूठ बोलने वाला पुरुष इस लोक में भी अनेक प्रकार के दंड पाता है । प्रजा द्वारा, सरकार द्वारा उसकी जिह्वा छेद दी जाये, आदिक अनेक प्रकार के दंड दिए जाते हैं । जिनके संबंध में वह पुरुष झूठ बोलता है वे-वे सब इसके बैरी हो जाते हैं । तो जो बैरी हो गए वे इस पर अनेक आपत्तियाँ ढाते हैं । सो असत्यवादी इस लोक में भी बहुत दुःख प्राप्त करता है और मरकर अशुभ गति में जाता है । इस कारण असत्य बोलने से विरक्त रहना ही चाहिए । चोरी करने वाले पुरुष का सब लोग तिरस्कार करते हैं, उसे निकट भी नहीं बैठने देते । चोर पुरुष इस ही लोक में अनेक प्रकार के दंडों को भोगते हैं । जैसे जनता के लोग या सरकारी कर्मचारी उसे मारते पीटते हैं, उसे बांधते हैं, गिरफ्तार करते हैं, रस्सियों से बांधकर डाल देते हैं; हाथ, पैर, कान, नाक आदिक छेद डालते हैं और उनके पास जो कुछ भी संपदा हो वह सब छुड़ा ली जाती है । चोर पुरुष इस लोक में दंडों को भोगता है और मरकर अशुभगति में जाता है । लोक में वह बहुत निंद्य होता है, इस कारण चोरी पाप से विरक्त होना ही कल्याणकारी है ।
(132) कुशील और परिग्रह पाप से उभयलोक में होने वाले अपाय का चिंतन―जो पुरुष कुशील का सेवन करते हैं वे हमेशा काम के साधनों के वश रहा करते हैं और मदोन्मत्त हाथी की तरह काम साधनों के पीछे घूमते फिरते हैं । कुशील पुरुषों को लोग पीटते हैं बध करते हैं, बांधते हैं, अनेक प्रकार के कष्ट दिया करते हैं । जैसे कामासक्त पुरुष मोह से दब जाने के कारण कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से रहित हो जाते हैं और ये किसी भी शुभ कर्म क्रिया के करने लायक नहीं रहते । परस्त्रीगामी पुरुषों पर यहीं के लोग बड़ी आपत्तियां डालते हैं और उनके कामसाधनभूत अंगों को छेद डालते हैं और उनका सर्वस्व वैभव हरण कर लिया जाता है । सो कुशील पुरुष इस लोक में भी बहुत आपत्ति पाते हैं और मरकर अशुभ गति में जाते हैं, लोगों के द्वारा वे नित्य रहते हैं । इस कारण कुशील नामक पाप से विरक्त होना ही कल्याणकारी है । जो पुरुष परिग्रह की तृष्णा में बढ़े चले जा रहे हैं वे पुरुष अन्य पुरुषों के द्वारा अनेक प्रकार से झपटे जाते हैं । जैसे कि किसी पक्षी की चोंच में पंजों में मांसपिंड पड़ा हो तो अन्य पक्षी उस पक्षी पर झपटा करते हैं, ऐसे ही परिग्रहवान पुरुष पर अन्य लोग चोर, डाकू, राजा आदि सब झपटा करते हैं । परिग्रही पुरुष बड़े विकल्प में रहकर अपने मन को व्यथित करता रहता है, वह चोरों के द्वारा तिरस्कृत होता है । अनेक डाकू उसका धन भी हर लेते हैं और उसके प्राणों का भी घात कर डालते है । परिग्रह के उपार्जन में अनेक संक्लेश और आपत्तियां हैं और परिग्रह जुड़ भी जाये तो उसकी रक्षा करने में अनेक आपत्तियां हैं, संक्लेश हैं और कदाचित् रक्षा करते हुए भी उसका विनाश हो जाये तो उसमें संक्लेश भोगना पड़ता है । परिग्रह की लालसा वाले पुरुषों को जीवन में कभी तृप्ति हो नहीं पाती । जैसे कि अग्नि को ईधन से तृप्ति नहीं हो सकती अग्नि बढ़ती ही चली जायेगी ऐसे ही परिग्रह से इस जीव को कभी तृप्ति हो ही नहीं सकती । वे लालसा की अग्नि से जलते ही चले जायेंगे । परिग्रह का इच्छुक लोभ के वशीभूत है, सो वह कर्तव्य अकर्तव्य कुछ भी नहीं गिनता, सो वह इस लोक में ही अनेक बाधावों को प्राप्त करता है और मरकर अशुभगति में जन्म लेता है । यह लोभी है, यह कृपण है आदिक रूप से लोक में निंद्य होता है, इस कारण परिग्रह से विरक्त होना ही लाभप्रद है । इस प्रकार हिंसा आदिक पापों में विघात और अवद्य का देखना 5 व्रतों की स्थिरता के लिए आवश्यक कर्तव्य है । अब हिंसा आदिक पापों में अन्य प्रकार की भावनायें बताने के लिए सूत्र कहते हैं ।