वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 8-12
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उच्चैर्नीचेश्च ।।8- 12 ।।
(295) गोत्रकर्म की उत्तरप्रकृतियों का वर्णन―गोत्रकर्म दो प्रकार का है―(1) उच्च गोत्र और (3) नीच गोत्र । जिस प्रकृति के उदय से लोक पूजित कुलों में जन्म होवे, जैसे कि जिनकी महिमा प्रसिद्ध है ऐसे इक्ष्वाकुवंश, उग्रवंश, कुरुवंश, हरिवंश ऐसे उच्च कुल में जन्म होवे उसे उच्च गोत्रकर्म कहते हैं । और जिस गोत्रकर्म के उदय से निंदनीय दरिद्र, दुःखों से आकुल नीच वृत्तिवाले कुलों में जन्म हो उसे नीच गोत्रकर्म कहते हैं । गोत्र कर्म के क्या आस्रव हैं, कैसे कार्य करने से नीच गोत्र में जन्म लेता है यह सब वर्णन छठे अध्याय में किया जा चुका है । जो दूसरे के गुणों में हर्ष नहीं मानता, दूसरे के गुणों को दोष रूप में प्रकट करता अथवा उनको ढकता और अपने में गुण न भी हों तो भी संकेत से सबको प्रकट करता है, तो ऐसी क्रियावों से नीच गोत्र का आस्रव होता है । तो ऐसी चेष्टा वाले को नीच गोत्र में जन्म लेना पड़ता है, और जो दूसरे के गुणों की प्रशंसा अपने अवगुणों की निंदा, दूसरे के गुणों का प्रकाशन, अपने गुणों को ढाकना, ऐसी उच्च वृत्ति से चलता है वह उच्च कुल में जन्म लेता है । नारकी जीवों के सभी के नीच कुल कहलाता है । तिर्यंच गति में भी नीच गोत्र होता है । देवगति में सभी के उच्च गोत्र होता है । मनुष्यगति में ही कई भेद बन जाते हैं, कई उच्च कुली हैं, कोई नीच कुली हैं । तो उच्च गोत्र के उदय से उच्च कुल में जन्म होता और नीच गोत्र के उदय से नीच कुल में जन्म होता । इस प्रकार गोत्र कर्म की उत्तर प्रकृतियों का वर्णन हुआ, अब उसके बाद कहे गए अंतराय कर्म के प्रकार बतलाते हैं ।