वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 8-11
From जैनकोष
गतिजातिशरीरांगोपांगनिर्माणबंधनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगंधवर्णा- नुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतोच्छवासविहायोगतयः प्रत्येकशरीर- त्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशस्कीर्तिसेतराणि तीर्थंकरत्वं च ।। 8-11 ।।
(272) नामकर्म की पिंडरूप व अपिंडरूप ब्यालीस प्रकृतियों में से गतिनामकर्म व उसके प्रकारों का वर्णन―नामकर्म की 42 उत्तरप्रकृतियाँ बतलाते हैं जिनमें कुछ पिंड प्रकृतियाँ हैं और कुछ फुटकर प्रकृतियाँ हैं । उन प्रकृतियों का इस सूत्र में निर्देश किया गया है । प्रथम है गतिनामकर्म । जिसके उदय से आत्मा अन्य भव को जाता है उसे गति कहते हैं । यद्यपि गति शब्द का अर्थ यही हुआ कि जाये सो गति, फिर भी रूढ़ि के वश से किसी गति विशेष में इसका अर्थ लगता है, और किसी गति में जाना तो मरण के बाद ही होता है एक बार, फिर तो जब तक वह आयु रहती है तब तक गति बनी रहती है । सो कहीं ऐसा न जानना कि जब आत्मा न जाता हो तो वह गति न कहलाता होगा । गति का भावार्थ है ऐसी आयु वाले भव में जन्म लेना जहाँ उसके अनुरूप भाव बनता रहे । तो गतिनामकर्म के उदय से उस-उस गति में उस-उस तरह के भाव होते हैं । यह गति नामकर्म 4 प्रकार के है―(1) नरकगति, (2) तिर्यंचगति, (3) मनुष्यगति, (4) देवगति । नरकगति नामकर्म के उदय से आत्मा के नरकगति जैसा भाव होता है, ऐसे ही समस्त गतियों में समझना । जैसे जिस जीव का मनुष्यगति में जन्म हुआ है तो उसका उठना, बैठना, खाना सब कुछ मनुष्यों जैसा ही चलेगा । तिर्यंचगति में जन्म हुआ है तो अब तिर्यंच जैसा ही चलेगा । मनुष्य घास खाना पसंद नहीं करते, तिर्यंच को घास बहुत बड़े मीठे व्यन्जन की तरह लगता । ऐसे ही अन्य व्यवहार तिर्यंच के तिर्यंचों के साथ चलते हैं, मनुष्य के मनुष्यों के साथ चलते हैं ।
(273) जातिनामकर्म व उसके प्रकारों का वर्णन―जातिनामकर्म उन नारकादि गतियों में समानता से एक रूप किये गये प्राणिवर्ग को जाति कहा जाता है । जाति जिस नामकर्म के उदय से हो उसका नाम है जातिनामकर्म । जातिनामकर्म 5 प्रकार का है । एकेंद्रिय जाति, दोइंद्रिय जाति, तीनइंद्रिय जाति, चतुरिंद्रिय जाति और पंचेंद्रिय जाति नामकर्म । जिसके उदय से आत्मा एकेंद्रिय बने उसे एकेंद्रिय जाति नामकर्म कहते हैं । इंद्रियाँ 5 होती हैं―(1) स्पर्शन, (2) रसना, (3) घ्राण, (4) चक्षु और (5) कर्ण । एकेंद्रिय जीव के केवल स्पर्शनइंद्रिय होती है । दोइंद्रिय जीव के स्पर्शन और रसना ये दो इंद्रियाँ होती हैं । तीन इंद्रिय जीव के स्पर्शन, रसना, घ्राण ये तीन इंद्रिय होती हैं । चतुरिंद्रिय जाति नामकर्म के उदय से जीव के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु ये चार इंद्रियाँ होती हैं और पंचेंद्रिय जाति नामकर्म के उदय से पांचों ही इंद्रियाँ होती हैं । तो इंद्रिय की दृष्टि से इन जीवों में समानता है इसलिए इनको जाति कहते हैं । जैसे जितने एकेंद्रिय जीव हैं वे सब स्पर्शनइंद्रिय वाले हैं और स्पर्शनइंद्रिय से ही उनके ज्ञानादिक चलते हैं । इस सदृशता के कारण केवल स्पर्शनइंद्रिय वाले जीवों को एकेंद्रिय जाति कहा जाता है । इसी प्रकार शेष सभी जातियों में समझना ।
(274) शरीरनामकर्म व उसके प्रकारों का वर्णन―शरीर नामकर्म―जिसके उदय से आत्मा के शरीर की रचना हो वह शरीर नामकर्म है । शरीर आहार वर्गणाओं के परमाणुपुंज में बनता है मगर उस निर्माण में निमित्त है शरीर नामकर्म का उदय । शरीर 5 प्रकार के हैं । उन शरीरों के निमित्तकारणभूत कर्म भी 5 प्रकार के हैं । औदारिक शरीर नामकर्म―जिसके उदय से औदारिक शरीर बने । ये शरीर मनुष्य और तिर्यंचों के हुआ करते हैं । वैक्रियक शरीर नामकर्म―जिसके उदय से वैक्रियक शरीर की रचना हो । यह शरीर देव और नारकियों के होता है । आहारक शरीरनामकर्म―जिसके उदय से आहारक शरीर की रचना होती । आहारक शरीर आहारक ऋद्धि वाले छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के होता है । तैजस शरीर नामकर्म―जिसके उदय से तैजस शरीर की रचना होती है । औदारिक आदिक शरीर में जो तेज पाया जाता है वह तैजस शरीर की ही तो झलक है । कार्माण शरीर नामकर्म―जिस कर्म के उदय से कार्माण शरीर की रचना है वह कार्माण शरीर नामकर्म है । जीव के कर्म बँधते हैं, पर उन बंधे हुए कर्मों का उस कार्माण शरीर में समावेश होना वही तो कार्माण शरीर की रचना है जैसे ईंट और भींत । ईटें पड़ी हैं, उन ईंटों को सिलसिले से लगाकर भींत बना दी तो भींत में ईंट ही तो है, जो बाहर पडी थीं वही एक भींत की रचना में आ गया, पर ईट वही की वही है, इसी प्रकार जो कार्माणवर्गणायें कर्मरूप बनती हैं, उस रूप परिणमती हैं वह सब कार्माण शरीर की रचना में सत्ता में रहती है, वह आकार वह कार्माण शरीर है ।
(275) अंगोपांगनामकर्म व निर्माणनामकर्म का वर्णन―अंगोपांग नामकर्म―जिसके उदय से शरीर में अंग और उपांग की रचना हो वह अंगोपांग नामकर्म है । जिस नामकर्म के उदय से सिर, पीठ, पेट, जंघा, बाहु, नितंब, पैर और हाथ इन 8 अंगों की रचना होती है और इन अंगों में होने वाले छोटे अन्य अंगोपांग कहलाते हैं, उनकी भी रचना होती है वह अंगोपांग नामकर्म कहलाता है । अंगोपांग नामकर्म तीन प्रकार का है―(1) औदारिक शरीर अंगोपांग (2) वैक्रियक शरीर अंगोपांग और (3) आहारक शरीर अंगोपांग । तैजस शरीर और कार्माण शरीर में अंगोपांग नहीं होते क्योंकि ये इन तीन शरीरों के आधार में रहते हैं और उस ही जैसा इनका आकार बनता है । निर्माणनामकर्म―जिस नामकर्म के उदय से रचना, माप और स्थान की विधि से बने उसे निर्माण नामकर्म कहते हैं । यह निर्माण नामकर्म दो प्रकार का होता है―(1) स्थान निर्माण और (2) परिमाण निर्माण । स्थान निर्माण नामकर्म के कारण तो जिस स्थानपर जो अंग रचा जाना चाहिए वैसा ही वह अंग बनता है और परिमाण निर्माण नामकर्म के उदय से जिस परिमाण में, जिस भव में जो अंग बनना चाहिए उस ही परिमाण में उस अंग की रचना होती है । अब जैसे हाथी की नाक यदि मनुष्य के नाक के बराबर ही बनी हो तो उसको तो सारी असुविधायें हुईं । हाथी के लिए तो उस परिमाण की ही नाक चाहिए । और कदाचित् मनुष्य की नाक हाथी के नाक की तरह बना दी जाये तो उसको बहुत तकलीफ होगी । तो जिस भव में जहाँ जिस परिमाण से जिस अंगोपांग की रचना होनी चाहिए उस ही परिमाण में हो वह परिमाण नामकर्म कहलाता है । यह स्थान और परिमाण निर्माण जातिनामकर्म के उदय की अपेक्षा रखता है याने जिस जाति में जैसा स्थान चाहिए, जो परिमाण चाहिए उस प्रकार की रचना होती है । निर्माण नामकर्म की व्याख्या इस प्रकार है । निर्माण शब्द में निर् तो उपसर्ग है और मा धातु है, जिसकी निरुक्ति है―निर्मीयते अनेन इति निर्माणं ।
(276) बंधन व संघात नामकर्म का विवरण―बंधन नामकर्म―इस नामकर्म के उदय से शरीर नामक कर्मोंदय को प्राप्त पुद्गल का परस्पर में प्रदेश का संबंध हो जाता है अर्थात् शरीर नामकर्म के उदय से तो शरीरवर्गणाओं को ग्रहण किया । ग्रहण किया हुआ वह पुद्गल एक दूसरे से सट जाये, संबंधित हो जाये, यह बंधननामकर्म के उदय से होता है । यदि बंधन नामकर्म का अभाव हो तो शरीर के प्रदेश फिर इस तरह से इकट्ठे रहेंगे जैसे कोई लकड़ी बेचने वाला लकड़ी का गट्ठा बना लेता है । उस गट्टे में लकड़ी तो सब संग्रहीत हैं, किंतु एक का दूसरे से भिन्न-भिन्न प्रविष्ट नहीं है । फिर तो शरीर भी इसी तरह का हो जाता, किंतु ऐसा नहीं है । शरीर के स्कंध एक दूसरे से टसे हुए बंधे हुए हैं । यह बंधननामकर्म के उदय का विपाक है । यह बंधननामकर्म भी 5 प्रकार का है―(1) औदारिकशरीरबंधन नामकर्म, (2) वैक्रियकशरीरबंधन नामकर्म, (3) आहारकशरीरबंधन नामकर्म, (4) तैजसशरीरबंधन नामकर्म, (5) कार्माणशरीरबंधन नामकर्म । अपने-अपने बंधन नामकर्म के उदय से अपने-अपने शरीर स्कंधों का परस्पर संश्लेष हो जाता है । संघात नामकर्म―इस नामकर्म के उदय से औदारिक सहित शरीर स्कंध जिन्हें अन्योन्य प्रवेश बंधन नामकर्म से मिल रहा है उनका परस्पर ऐसा सट जाना कि भीतर में कोई छिद्र भी न रहे, इस प्रकार का एकत्व बनना संघातनामकर्म के उदय से होता है । यदि संघात नामकर्म का उदय न हो तो जैसे चने के लड्डू का जो बंधन होता है तो उसमें परस्पर में बीच में छिद्र रह जाता है इसी तरह यदि संघात नामकर्म न हो तो शरीर के स्कंध परस्पर मिल तो जायेंगे, मगर बीच-बीच में छेद रहेंगे, किंतु ऐसा तो नहीं है । शरीर तो बिना छिद्र के ही अच्छी तरह से गुँथा हुआ है । संघात नामकर्म 5 प्रकार का है―(1) औदारिकशरीर संघात नामकर्म, (2) वैक्रियकशरीर संघात नामकर्म, (3) आहारक शरीरसंघात नामकर्म, (4) तैजसशरीर संघात नामकर्म और (5) कार्माणशरीर संघात नामकर्म । इनमें प्रत्येक के उदय से उन-उन शरीरों के स्कंध पूरे सिमट करके शरीर से संबद्ध होते हैं।
(277) संस्थाननामकर्म व उसके प्रकारों का वर्णन―संस्थान नामकर्म―जिस नाम कर्म के उदय से शरीर का आकार बनता है उसे संस्थान नामकर्म कहते हैं । यह 6 प्रकार का है―(1) समचतुरश्रसंस्थाननामकर्म―शरीर का आकार कितना सुडौल होना जो सर्वोत्कृष्ट सुंदर आकार होता हैं―कितनी भुजायें होना, कितने पैर होना नाभि से नीचे के अंग भी उतने ही विस्तृत हैं जितने कि नाभि से ऊपर होते हैं । यह तीर्थंकरों के तो पाया ही जाता है, अन्य पुरुषों के भी पाया जाता है । (2) न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान नामकर्म―जिस नामकर्म के उदय से बड़ के पेड़ की तरह आकार हो अर्थात् नाभि से नीचे के अंग छोटे हों और नाभि से ऊंचे के अंग विस्तृत हों । (3) स्वातिसंस्थान नामकर्म―इस नामकर्म के उदय से शरीर का आकार साँप की वामी की तरह होता है अर्थात् नाभि से नीचे के अंग का विस्तार अधिक होता है और नाभि से ऊपर विस्तार कम होता है । (4) कुब्जकसंस्थान नामकर्म इस नामकर्म के उदय से शरीर कुबड़ा होता है । जैसे पीठ पर कुबड़ निकल आना इस तरह के अंग होते हैं । (5) वामन संस्थान नामकर्म―इस नामकर्म के उदय से शरीर का आकार बौना होता है । जैसे कि कहीं कहीं बौने मनुष्य पाये जाते हैं । बुद्धि बल सब बड़े लोगों जैसा होता, पर कद छोटे बच्चों जैसा छोटा होता है । (6) हुंडक संस्थान नामकर्म―इस नामकर्म के उदय से सर्व अंगोपांग अटपट हुआ करते हैं, जैसे गाय, भैंस, कीड़ा मकोड़ा आदि कितनी ही तरह के जीव पाये जाते । मनुष्यों में भी जहाँ कोई ऊपर के 5 संस्थानों में से एक भी नहीं है किंतु किसी का चिन्ह मिल रहा, कुछ किसी का आकार है तो वह भी हुंडक संस्थान कहलाता है ।
(278) संहनन नामकर्म व उसके प्रकारों का वर्णन―संहनननामकर्म―जिसके उदय से हड्डियों का बंधन विशेष होता है उसे संहनन नामकर्म कहते हैं । यह 6 प्रकार का होता है । (1) वज्रवृषभनाराचसंहनन नामकर्म―इस नामकर्म के उदय से वज्र के हाड़, वज्र के बेंठन और वज्र की कीलियाँ होती हैं । उनसे बड़ा दृढ़ रचा हुआ शरीर होता है । बेंठन कहलाता है हड्डी के ऊपर चढ़े हुए भीतरी माँसपिंड । ये सब वज्र के होते हैं । इस संहननधारी पुरुष का शरीर बहुत मजबूत होता है । पर्वत से भी गिर जाये यह शरीर तो भी इस शरीर के खंड नहीं हो पाते । श्री हनुमानजी जिनका जन्म वन में गुफा में हुआ था और अचानक उनके मामा वायु विमान से जा रहे थे, वह विमान वहाँ स्थिर हो गया तो नीचे जाकर देखा कि उसकी ही बहन अंजना के पुत्र हुआ था सो वह पुत्र सहित अंजना को अपने विमान में बैठाकर जा रहा था । अचानक ही वह बालक हनुमान खेलते हुए विमान से नीचे जा गिरा । उस समय अंजना ने भारी विकल्प किया । खैर विमान रुका, नीचे जाकर देखा तो क्या देखने में आया कि वह हनुमान बालक पत्थर की एक शिला पर गिरा था, शिला के टूक-टूक हो गए थे पर बालक हनुमान प्रसन्न मुद्रा में अपने पैर का अंगूठा चूस रहा था । उस समय हनुमान के मामा ने अंजना से बताया कि बालक हनुमान मोक्षगामी जीव है, इसी भव से मोक्ष जायेगा । यह बहुत पवित्र आत्मा है । तब उस बालक हनुमान को तीन प्रदक्षिणा देकर उठाया और अंजना बहुत प्रसन्न हुई । तो वज्रवृषभनाराचसंहनन सहित जो होता है वह जीव मोक्ष जा सकता है, और 7वें नरक में भी इस संहनन का धारी जीव उत्पन्न हों सकता है । (2) वज्रनाराचसंहनन नामकर्म―वज्र के हाथ और वज्र की कीली हो, पर बेंठन वज्रमय न हो, ऐसे शरीर को जो रचे उसे वज्रनाराचसंहनन नामकर्म कहते हैं । (3) नाराचसंहनन नामकर्म―इस नामकर्म के उदय से कीलियाँ तो होती हैं वज्रमयी, पर अस्थि और बेंठन वज्र के नहीं होते । (4) अर्द्धनाराचसंहनन―इस नामकर्म के उदय से कीलियों से हड्डियां जड़ी होती हैं । जैसे एक हड्डी में दोनों तरफ कीली निकली है और दूसरी हड्डी में दोनों तरफ छिद्र हैं तो वे दोनों तरफ की कीली उन छिद्रों में टसी हुई हैं, इसी पर इस संहनन में काफी कीलियाँ होती हैं । (5) कीलकसंहनन इस संहनन से केवल कील का जैसा ही संकेत रहता है और ये दोनों ही अंत में कीली से रचे हुए होते हैं । (6) असंप्राप्तासृपाटिका संहनन―इस नामकर्म के उदय से भीतर हड्डियों का परस्पर बंध तो नहीं होता किंतु नशाजाल, मांस आदिक लिपटकर वे हड्डियाँ इकट्ठी रहा करती हैं । इस नामकर्म के उदय में शरीर विशिष्ट बलशाली नहीं होता । इस शरीर में कोई झटका लगे, पेड़ से गिरे या कोई एक्सीडेन्ट हो तो हड्डी भी टूट सकती है और अलग भी हो सकती है नसाजाल भी बिखर सकता है ।
(279) स्पर्शनामकर्म व उसके प्रकारों का वर्णन―स्पर्शनामकर्म―जिस नामकर्म के उदय से शरीर में स्पर्श का प्रादुर्भाव हो उसे स्पर्शनामकर्म कहते हैं । यद्यपि स्पर्श सभी पुद्गल में होते हैं, शरीर भी पुद्गल है, तो पुद्गल के नाते स्पर्श होना प्राकृतिक बात है, फिर इसे नामकर्म में क्यों रखा? ऐसी आशंका हो सकती है । याने स्पर्श नामकर्म नहीं होता । वह जब शरीर पुद्गल है तो स्पर्श तो हुआ करते, फिर इन कर्मों की क्या आवश्यकता रही? इस शंका का समाधान यह है कि इस स्पर्श नामकर्म के उदय से प्रतिनियत शरीर में प्रतिनियत स्पर्श होता है । जैसे जितने घोड़े हैं उनका स्पर्श घोड़ों जैसा मिलेगा, मनुष्यों में उनका स्पर्श मनुष्यों जैसा मिलेगा । तो ऐसे शरीर में जो एक नियत सा स्पर्श होता है यह स्पर्श नामकर्म के उदय से है । इसके 8 भेद हैं―करकसनामकर्म―इससे शरीर कठोर मिलता है । मृदुनामकर्म―इससे शरीर में कोमलता होती है । गुरुनामकर्म―इससे शरीर में वजन होता है । लघुनामकर्म―इससे शरीर में चिकनाई होती है । स्निग्ध नामकर्म―इस नामकर्म के सभी के और भी अनेक प्रकार हैं जिससे नाना प्रकार के स्निग्ध के अंश पाये जाते हैं । रूक्षनामकर्म―जिसके उदय से शरीर में रूखापन हो । शीतनामकर्म―जिसके उदय से शरीर में ठंडापन हो, उष्णनामकर्म―जिसके उदय से शरीर में गर्मी हो ।
(280) रसनामकर्म व उसके प्रकारों का वर्णन―रस नामकर्म―इसके उदय से शरीर में विभिन्न रस हुआ करते हैं । यहाँ भी वही शंका समाधान समझना कि जब शरीर पौद्गलिक है तो रस तो हुआ ही करता, फिर रस नामकर्म की क्या आवश्यकता रही? तो उत्तर यह है कि रस नामकर्म के उदय से प्रतिनियत शरीर में प्रतिनियत रस रहता है । जैसे मनुष्यों के शरीर में मनुष्यों जैसा रस मिलेगा, गाय, पशु आदिक के शरीर में उन जैसा होगा । तो शरीर पुद्गलमय है तो रस होता है पर रस नामकर्म के उदय से उसमें विशेषता बनती । जिन-जिन शरीरों में जैसा रस संभव है वैसा ही होगा । रस नामकर्म 5 प्रकार के हैं―तिक्तनामकर्म―जिसके उदय से शरीर में तीखा रस हो―जैसे नमक, मिर्च जैसा । अथवा पसीना आने पर पसीने का रस तीखा ही होता है । कटुक नामकर्म―जिसके उदय से शरीर में कडुवा रस हो । किसी मनुष्य के शरीर पर मच्छर कम बैठते हैं, किसी के शरीर पर अधिक, तो उसका कारण यह है कि जिनके कटुक शरीर नामकर्म का उदय है उनके कडुवा रस होता है । वह मच्छरों को इष्ट नहीं है । कषाय नामकर्म―जिसके उदय से शरीर का रस कषायला हो । आम्लनामकर्म―जिसके उदय से शरीर का रस खट्टा हो । मधुर नामकर्म―जिसके उदय से शरीर का रस मधुर हो ।
(281) गंधनामकर्म व वर्णनामकर्म तथा उनके प्रकारों का वर्णन―गंध नामकर्म―जिसके उदय से शरीर में विविध गंध उत्पन्न हों । शरीर पौद्गलिक होने से गंध तो होता, पर नामकर्म के उदय के कारण प्रतिनियत शरीर में प्रतिनियत गंध होता है । जैसे जितने घोड़े हैं उनकी गंध घोड़ों जैसी ही होती है । लोग कैसे परख जाते हैं कि यहाँ रीछ रहता है? रीछ जैसी गंध आती है । सिंह कैसे जान जाता है कि यहाँ कोई गाय, बैल मौजूद हैं? उनकी वैसी ही गंध आती है । तो जिन शरीरों में जैसी गंध है उन शरीरों में उस जाति की वैसी ही गंध होना यह गंध नामकर्म के उदय से है । वर्णनामकर्म―इस नामकर्म के उदय से प्रतिनियत शरीरों में प्रतिनियत जैसा वर्ण होता है । शरीर पौद्गलिक होने से कोई न कोई रूप तो रहता ही हे, मगर नामकर्म के कारण जैसा रूप होना है वैसा ही होता है । जैसे गाय का रूप सब गायों जैसा हुआ करता है, मनुष्यों का रूप मनुष्यों जैसा हुआ करता है । किसी मनुष्य का रूप कहीं भैंस जैसा न हो जायेगा । तो इस प्रकार प्रतिनियत रूप रहा करता है । ये नामकर्म 5 प्रकार के हैं । कृष्णवर्ण नामकर्म―इसके उदय से शरीर का वर्ण काला होता है । नीलवर्ण नामकर्म―इसके उदय से शरीर का वर्ण नीला होता है । रक्तवर्ण नामकर्म―इसके उदय से शरीर का वर्ण लाल होता है । पीतनामकर्म―इसके उदय से शरीर का वर्ण हल्दी के समान पीला होता है । शुक्लवर्ण नामकर्म―इसके उदय में शरीर का वर्ण श्वेत होता है ।
(282) शरीररचना के निमित्तकारण का प्रकाशन―कुछ लोग मानते हैं कि इस शरीर की रचना करने वाला कोई एक विधाता है । यदि कोई एक आत्मा जगत के जीवों के शरीरों को रचता है तो वह रचने वाला क्या निमित्त कारण होकर रचता है या उपादान कारण बनकर रचता है? यदि वह ईश्वर निमित्त कारण बनकर रचता है तो इसकी मीमांसा तो फिर हो जायेगी, पर इतना तो निश्चित हो गया कि उपादानभूत पुद्गल वर्गणायें अवश्य हैं, और जिसमें शरीर रचा जाता है । तब जैसे कुम्हार ने घड़ा बनाया तो घड़ा मृत्पिंड से ही बना । वह सत्ता तो पहले से ही रही । और जब सत्ता पहले से है ? तो उन पदार्थों में उनमें रचना बन गई । तो वास्तव में तो करने वाला दूसरा न रहा । जो पदार्थ हैं उन्हीं का ही एक परिणमन हो गया । और फिर अनंतानंत जीव हैं । कोई एक आत्मा अनंतानंत जीवों का शरीर रचता रहे तो उसे अपने आपको तो व्यग्रता हो गई । और। यह प्राकृतिक बात है कि जो जीव जैसी कर्म चेष्टा करता है उसको उस प्रकार के नामकर्म का बंध होता है और उसके उदय में उस प्रकार का शरीर प्राप्त होता है । तो ये सब जो पुद्गल है परिणमन हैं, शरीररूप रचनायें हैं ये कर्मोंदय का निमित्त पाकर स्वयं ही वर्गणावों में उस-उस प्रकार की रचना बन जाती है ।
(283) आनुपूर्व्यनामकर्म और उसके प्रकारों का वर्णन―आनुपूर्व्यनामकर्म―जिसके उदय से पूर्व शरीर के आकार का विनाश नहीं होता है उसको आनुपूर्व्यनामकर्म कहते हैं । इसके चार प्रकार हैं―(1) नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वनामकर्म (2) तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनामकर्म (3) मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनामकर्म और (4) देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनामकर्म । जिनके संक्षिप्त नाम हैं―नरकगत्यानुपूर्व्य, तिर्यक्गत्यानुपूर्व्य, मनुष्यगत्यानुपूर्व्य और देवगत्यानुपूर्व्य । जिस समय कोई मनुष्य अथवा तिर्यंच आयु पूर्ण करके अपने पूर्व शरीर से अलग होता है और मानो वह नरकभव के प्रति अभिमुख है याने नरकगति में जा रहा है, उसके विग्रहगति में पूर्व शरीर के आकार आत्मप्रदेश रहेंगे । सो पूर्व शरीर के आकार आत्मप्रदेशों के रहने का कारण नरकगत्यानुपूर्व्य का उदय है । विग्रहगति का अर्थ है―मरण के बाद जन्मस्थान पर पहुंचने के बीच जो क्षेत्र में गमन होता है वह विग्रहगति कहलाती है । विग्रह मायने शरीर है । नवीन शरीर पाने के लिए गति होने का नाम विग्रहगति है । अथवा विग्रह मायने मोड़ा है । मोड़ सहित गति को विग्रहगति कहते हैं । तो ऐसे ही अन्य आनुपूर्वियों का भाव समझना चाहिए । यहाँ इतना विशेष समझना कि मनुष्य मरकर चारों गतियों में उत्पन्न हो सकते हैं, तिर्यंच मरकर चारों गतियों में उत्पन्न हो सकते हैं, देव मरकर मनुष्य या तिर्यंच इन दो गतियों में उत्पन्न हो सकते हैं, नारकी मरकर मनुष्य या तिर्यंच इन दो गतियों में उत्पन्न हो सकते हैं । मरकर जीव जिस गति में जायेगा उस गति के नाम वाली आनुपूर्वी का उदय विग्रहगति में होता है । तो विग्रहगति में आकार तो पूर्व शरीर के आकार का होता है, किंतु जीव कहलाता है जिस गति में उत्पन्न होगा उस गति का । अथवा आयु के हिसाब से वह जीव मरणकाल में ही उत्पन्न हो गया तो विग्रहगति में भी उसका जन्म कहलाता है, पर शरीर पाने के हिसाब से उस क्षेत्र पर जाकर जन्म कहलाया । और यहाँ रूढ़ि में लोकव्यवहार में मनुष्य या तिर्यंचों के गर्भ से निकलकर बाहर आने को जन्म कहा करते हैं । वस्तुत: जन्म नवीन आयु का उदय होते ही कहलाने लगता है ।
(284) निर्माणनामकर्म के उदय से औदारिकादि शरीर में आकार तथा आनुपूर्व्यनामकर्म के उदय से औदारिकादिशरीररहित तैजसकार्माण शरीरस्थ आत्मा का आकार―यहां शंकाकार कहता है कि विग्रहगति में जीव का आकार रहता है सो आकार रहने का निमित्त कारण निर्माण काम कर्म बन जायेगा । याने विग्रहगति के आकार रचना का कार्य निर्माण नामकर्म के उदय से हो जायेगा, फिर आनुपूर्वी नामकर्म मानने की जरूरत नहीं । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि निर्माणनामकर्म का कार्य और प्रकार है, आनुपूर्वी नामकर्म का कार्य और तरह है । पहली आयु का वियोग होने के समय ही पूर्व शरीर तो अलग हट ही गया, उसमें जीव का संबंध नहीं है । तो जब पूर्व शरीर हटा उस ही काल में निर्माण नामकर्म का उदय भी हट गया । अब पूर्व शरीर के हटने पर, निर्माण नामकर्म के उदय के हटने पर अब यह सूक्ष्म शरीर वाला जीव रहा, अर्थात् 8 प्रकार के कर्मपिंड रूप कार्माण शरीर और उस ही के साथ तैजस शरीर, इन दो शरीरों से संबंध रखने वाला आत्मा रहा, उस आत्मा के अब जो पूर्व शरीर के आकार जैसा आकार है उस पूर्वाकार का नाश नहीं हुआ है इसके कारण आनुपूर्वी नामकर्म का उदय है । निर्माण नामकर्म का उदय शरीर रहने तक रहता है ।
(285) विग्रहगति में रहने के समयों का संयुक्तिक विवरण―विग्रहगति में जघन्य तो एक समय रहता है और उत्कृष्ट तीन समय रहता है । कोई जीव मरण स्थान से जन्म स्थान तक पहुंचने में एक मोड़ा लेता है तो उसका विग्रहगति में एक समय रहना होता है । यदि दो मोड़ा लिया तो दो समय और तीन मोड़ा लिया तो तीन समय तक विग्रहगति में रहना बनता है । यदि कोई जीव ऋजुगति से गमन करके जन्म लेता है अर्थात् बीच में मोड़ा नहीं लेता तो उसके पूर्व शरीर का आकार नष्ट होने पर अगले शरीर के योग्य पुद्गल वर्गणावों का ग्रहण होने लगा सो वहाँ निर्माण नामकर्म के उदय का व्यापार है । जीव मरकर जन्मस्थान पर पहुंचता है तो उसको मोड़ा क्यों लेना पड़ता है? इसका कारण यह है कि जीव मरण करके सीधी दिशा में गमन करता है । पूर्व से पश्चिम, पश्चिम से पूर्व, उत्तर से दक्षिण, दक्षिण से उत्तर, ऊपर से नीचे ठीक सीधा गमन करता है । अब यदि कोई पूर्व दिशा से मरकर दक्षिण दिशा को जाता है तो सीधी गति होने के कारण उसे मोड़ा नहीं लेना पड़ेगा, और यदि उसी दक्षिण दिशा में कुछ ऊपर नीचे जन्म लेता है तो एक मोड़ा लेना पड़ता है । ऐसे ही सब जगह घटा लेना चाहिए । पर लोक के किसी भी स्थान से मरण करके किसी भी स्थान पर जन्म लेवे तो तीन मोड़े से अधिक लगाने की आवश्यकता नहीं रहती, किंतु ऋजुगति में ठीक सीधा गमन कर गया नीचे से ऊपर या पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण कहीं वह बिल्कुल सीधा गमन करता है तो वहाँ मोड़ा नहीं लेना पड़ता, इस कारण पूर्व शरीर का आकार नष्ट होते ही नवीन शरीर की वर्गणायें ग्रहण में आती हैं । वहाँ बीच में एक समय का अंतर नहीं मिल पाता और इसी कारण ऋजुगति से जन्म लेने वाले जीव के निर्माण नामकर्म का उदय प्रथम क्षण में ही हो जाता है । वहाँ आनुपूर्वी नामकर्म का उदय नहीं है ।
(286) अगुरुलघुनामकर्मप्रकृति का वर्णन―अगुरुलघुनामकर्म―जिस नामकर्म के उदय से न तो लोहे के पिंड की तरह ऐसा वजनदार शरीर होता जो यों ही नीचे गिर जाये और न आक के तूल की तरह हल्का शरीर होता जो कि ऊपर ही सहज उड़ता-उड़ता फिरे, किंतु यथायोग्य शरीर होता है वह अगुरुलघु नामकर्म है । यहाँ जिज्ञासा हो सकती है कि धर्म, अधर्म, आकाश, आदिक अजीव द्रव्यों में अगुरुलघुपना कैसे होता है? तो उसका समाधान है कि अनादिपारिणामिक अगुरुलघुगुण सब द्रव्यों में पाया जाता है । उस अगुरुलघु गुण के योग से इनमें अगुरुलघुपना होता है । मुक्त जीवों के अगुरुलघुपना कैसे होता है? उत्तर―अनादिकालीन कर्म नोकर्म का संबंध जिन जीवों के है ऐसे संसारी जीवों के तो अगुरुलघुत्व कर्मोंदयकृत होता है, अर्थात् कर्म का उदय होने पर यह अगुरुलघुरूप परिणमन होता है, किंतु कर्म और नोकर्म का संबंध बिल्कुल हट जाने पर अगुरुलघु स्वाभाविक प्रकट होता है ।
(287) उपघात परघात आतप उद्योत व उच्छवास नामकर्मप्रकृतियों का विवरण―उपघातनामकर्म― जिस कर्म के उदय में स्वयंकृत बंधन हो या स्वयं पर्वत से गिरने आदिक के कारण उपघात हो वह उपघात नामकर्म है । ऐसे भी अनेक मनुष्य पाये जाते हैं जो किसी स्थान पर ऊँचे पर्वत से गिरकर मर जाने में वैकुंठ का लाभ मानते हैं, तो यों स्वयं उपघात किया वह उपघात का ही तो विपाक है । परघात नामकर्म―जिसके उदय से दूसरे प्राणियों के द्वारा प्रयोग किए गए शस्त्रादिक से आघात होता है वह परघात नामकर्म है । इस परघात नामकर्म प्रकृति के उदय में यह जीव कवच आदिक धारण करके कितनी भी अपनी रक्षा करे तो भी दूसरे के द्वारा शस्त्रादिक से उसका घात हो जाता है । आतपनामकर्म―जिस कर्म के उदय से आतपन तपा जाता है । जैसे कि सूर्य आदिक में ताप होता है वह आताप नामकर्म है । तथा जिसके उदय से चंद्रमा जुगनू तथा अन्य पशुपक्षियों में, कीड़ों के शरीर में जो उद्योत होता है वह उद्योत नामकर्म है । यहाँ चंद्र से मतलब चंद्रविमान से है । चंद्रविमान पृथ्वीकायिक जीव का स्वरूप है । तो ऐसे उद्योतप्रकाश वाले देह के धारी पुरुषों के उद्योत नामकर्म का उदय है । उच्छ्वासनामकर्म―जिस कर्म के उदय से उच्छ्वास हो, श्वांस लेवे और छोड़े उसे उच्छ्वास नामकर्म कहते हैं । यह उच्छ्वास एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक के सभी जीवों में पाया जाता है । पृथ्वी, जल, वनस्पति आदिक के भी उच्छ्वास होता है । वृक्षों का तो लोग अनुमान करने लगे हैं कि ये श्वांस लेते हैं और छोड़ते हैं, पर किन्हीं का नहीं व्यक्त हो पाता । सभी प्राणियों के श्वांस और उच्छ्वास होता है ।
(288) विहायोगगति नामकर्मप्रकृति का वर्णन―विहायोगगति नामकर्म―विहायस नाम आकाश का है । उसमें गति की जो रचना का निमित्त हो उसको विहायोगगतिनामकर्म कहते हैं । यह नामकर्म शुभ और अशुभ के भेदों से दो प्रकार का है । जिनका गमन शुभ हो, रमणीक हो उनके तो प्रशस्त विहायोगगति है जैसे श्रेष्ठ बैल, हाथी, हंस आदिक । इनकी प्रशस्त गति हुआ करती है, और जिस विहायोगगति उदय से अशुभ गमन हो वह अप्रशस्त विहायोगगति नामकर्म कहलाता है । इसके उदय से ऊँट, गधा, आदिक जैसे प्राणियों में अशुभगति हुआ करती हे । यहाँ जिज्ञासा होती है कि सिद्ध हो रहे जीव के अथवा शुद्ध हो रहे पुद्गल के अर्थात् परमाणु के विहायोगगति किस कारण से होता है? गमन तो उनके भी होता है । अष्ट कर्मों से मुक्त होने पर जीव एक ही समय में 7 राजू गति करके सिद्ध लोक में विराजमान हो जाता है । परमाणु में भी गति एक समय में 14 राजू तक बतायी गई है । तो वह गति किस प्रकार होती है? समाधान―सिद्धभगवान में और शुद्ध परमाणु की गति स्वाभाविकी होती है । यहाँ कोई शंकाकार कहता है कि विहायोगगति नामकर्म का उदय पक्षियों में ही पाया जाना चाहिये, क्यों कि आकाश में उड़ान उनका ही चलता है । मनुष्यगति में, पशु कीड़ों में विहायोगगति न होनी चाहिए क्योंकि वे तो जमीन पर चलते हैं । उत्तर―मनुष्यादिक की भी गति आकाश में होती है । भले ही वे जमीन को तजकर ऊपर आकाश में नहीं चले रहे, लेकिन जमीन तो एक शरीर, का आधार मात्र है, पर गमन तो आकाश में होता है । कहीं पृथ्वी के भीतर गमन नहीं हो रहा । और वैसे देखा जाये तो पृथ्वी के भीतर भी आकाश है । गमन तो आकाश में हुआ । सभी जीवों की गति आकाश में ही है क्योंकि आकाश में ही अवगाहन शक्ति पायी जाती है ।
(289) प्रत्येकशरीरनामकर्म व साधारणशरीरनामकर्म का वर्णन―प्रत्येक शरीर नामकर्म―जिस शरीर नामकर्म के उदय से रचा गया शरीर एक ही आत्मा के उपयोग का कारण होता है वह प्रत्येक शरीर नामकर्म कहलाता है अर्थात् एक शरीर में एक ही जीव होता है । एक-एक आत्मा के प्रति होने का नाम प्रत्येक है और प्रत्येक शरीर को प्रत्येक शरीर कहते हैं―जैसे मनुष्य, पशु, पक्षी, देव, नारकी आदिक जितने भी ये दृश्य प्राणी हैं वे सब प्रत्येक शरीरधारी हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक वनस्पति के भी प्रत्येक शरीर है । साधारण शरीर नामकर्म―जिस नामकर्म के उदय से बहुत आत्मावों के उपयोग का कारण रूप से साधारण शरीर मिले उसको साधारण शरीर नामकर्म कहते हैं । इस नामकर्म के उदय से जीव किस प्रकार के होते हैं सो सुनो―इस जीव के आहार आदिक चार पर्याप्ति की रचना जन्ममरण श्वासोच्छ्वास अनुग्रह उपघात सब साधारण होता है । जिस समय एक जीव के आहार आदिक की रचना है उसी समय अनंत जीवों के आहार आदिक पर्याप्ति की रचना है । जिस क्षण में एक जीव उत्पन्न होता है उसी क्षण में अनंत जीव उत्पन्न होते हैं । इसी तरह जिस क्षण में एक जीव मरण को प्राप्त होता है उसी क्षण में अनंत जीवों का मरण होता है । ऐसे ही जिस समय एक जीव के श्वासोच्छ्वास का लेना छोड़ना होता है उसी समय अनंत जीव श्वांस और उच्छ्वास के लेने छोड़ने को करते हैं । जब एक जीव आहार आदिक के द्वारा अनुगृहीत होता है तो उस ही समय अनंत जीव उस ही आहार से अनुगृहीत होते हैं । ऐसे ही जिस क्षण में एक जीव अग्नि, विष आदिक से उपघात को प्राप्त होता है उसी समय अनंत जीवों का उपघात होता है । ऐसे ये जीव एक शरीर में अनंत पाये जाते हैं अर्थात् उन अनंत, जीवों का एक शरीर है ।
(290) त्रसनामकर्मप्रकृति, स्थावरनामकर्मप्रकृति, सुभगनामकर्मप्रकृति व दुर्भगनाम प्रकृति का निर्देश―त्रस नामकर्म―जिस कर्म के उदय से दोइंद्रिय आदिक में जन्म हो उसको त्रस नामकर्म कहते हैं । दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय चौइंद्रिय और पंचेंद्रिय जीव त्रस कहलाते हैं । स्थावर नामकर्म―जिस नामकर्म के उदय से एकेंद्रिय में जन्म होता है, एकेंद्रियभव मिलता है उसे स्थावर नामकर्म कहते हैं । ये एकेंद्रिय पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति के भेद से 5 प्रकार के हैं―इन वनस्पतियों में दो प्रकार हैं―(1) प्रत्येक वनस्पति और (2) साधारण वनस्पति । प्रत्येक वनस्पति तो भक्ष्य वनस्पति है और साधारण वनस्पति व्रतियों द्वारा भक्ष्य नहीं मानी गई है, क्योंकि वहां एक शरीर के आश्रय अनंत एकेंद्रिय जीव पाये जाते हैं । सुभगनामकर्म― जिसके उदय से रूपवान हो या अरूप हो, उसके प्रति लोगों को प्रीति उत्पन्न होवे उसे सुभग नामकर्म कहते हैं । इस नामकर्म के उदय से दूसरा जीव अन्य अनेक जीवों को प्रिय लगा करता है । दुर्भगनामकर्म वह है कि रूपवान होकर भी जिसके उदय से दूसरों को प्रिय न लगे किंतु अप्रीतिकर प्रतीत हो वह दुर्भग नामकर्म है ।
(291) सुस्वर, दुःस्वर, शुभ, अशुभ, सूक्ष्म व वादर नाम की नामकर्म प्रकृतियों का निर्देश―जिसके उदय से सुंदर स्वर मिले वह सुस्वर नामकर्म है, और जिसके उदय से भद्दा स्वर मिले वह दुस्वर नामकर्म है । दुस्वर किसके है, यह बात दूसरों को जल्दी विदित होती है । कोई खुद गाता है तो चाहे खोटा भी स्वर हो तो भी उसे प्रिय लगता है । विशेष दुःस्वर होने पर वह खुद भी ज्ञान कर लेता है कि मेरा स्वर आलाप सही नही है । शुभ नामकर्म―जिसके उदय से देखने या सुनने पर रमणीक प्रतीत हो, जिसके अंग सुंदर लगें वह शुभ नामकर्म है और जिस नामकर्म के उदय से अंगादिक रमणीक न लगें वह अशुभ नामकर्म है । जिसके उदय से अन्य जीवों के अनुग्रह या उपघात के अयोग्य सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति हो वह सूक्ष्म नामकर्म है । इस नामकर्म के उदय से ऐसा सूक्ष्म शरीर मिलता है कि जिसको कोई घात नहीं सकता, छेद नहीं सकता, किंतु वह जीव जिसको सूक्ष्म शरीर मिला है अपने ही आयु के क्षय से मरता रहता है । जिस नामकर्म के उदय से ऐसा स्थूल शरीर मिले जो दूसरे को बाधा करने वाला हो उसे वादर नामकर्म कहते हैं । इस नामकर्म के उदय से ऐसा स्थूल शरीर मिलता है कि जिसको कोई छेद-भेद नहीं सकता । भले ही कितने ही वादर अदृश्य भी होते पर रूढ़ि से कहो अथवा इस तरह की कुछ शक्ति पायी जाती है इसलिए उनके भी वादरनामकर्म का उदय जानना चाहिये ।
(292) पर्याप्ति व अपर्याप्ति नामकर्मप्रकृतियों का वर्णन―जिसके उदय से आत्मा आहार आदिक वर्गणावों के ग्रहण से आहारादि पर्याप्तियों द्वारा अंतर्मुहूर्त में पूर्णता को प्राप्त होता है उसे पर्याप्ति नामकर्म कहते हैं । वह 6 प्रकार का है―(1) आहारपर्याप्ति नामकर्म (2) शरीरपर्याप्तिनामकर्म (3) इंद्रियपर्याप्ति नामकर्म (4) प्राणापानपर्याप्ति नामकर्म (5) भाषापर्याप्ति नामकर्म और (6) मनःपर्याप्ति नामकर्म । यहाँ कोई शंकाकार कहता है कि प्राणापान पर्याप्ति नामकर्म से ही वायु का निकलना, प्रवेश करना हो जाता है और वही काम उच्छ्वास नामकर्म में बताया है । श्वांस का लेना और छोड़ना होता है, तो फिर इन दोनों में कोई अंतर न रहा । समाधान―प्राणापानपर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास नामकर्म में यह अंतर है कि प्राणापानपर्याप्ति तो सब जीवों के होती है किंतु वह अतींद्रिय है । कान और स्पर्शन से उसका अनुभव नहीं हो पाता, किंतु उच्छ्वास कर्म के उदय से पंचेंद्रिय जीवों के जो शीत, उष्ण आदिक से लंबे श्वासोच्छ्वास निकलते हैं उनका स्रोत्र से भी ग्रहण होता है और स्पर्शन से भी ग्रहण होता है । अर्थात् इनके श्वांस से निकली हुई हवा हाथ आदिक को मालूम पड़ जाती है और उसकी आवाज भी सुनने में आती है, किंतु श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति में वह श्वासोच्छ्वास इंद्रिय से ज्ञात नहीं हो पाता । यही इन दोनों में अंतर है । अपर्याप्तिनामकर्म―जिसके उदय से छहों पर्याप्तियों की पूर्णता करने को आत्मा समर्थ रहे, उसे अपर्याप्तिनामकर्म कहते हैं । यहाँ इतना विशेष समझना कि अपर्याप्त दो प्रकार के होते हैं―(1) निर्वृत्य अपर्याप्त तथा (2) लब्ध अपर्याप्त । निर्वृत्यअपर्याप्त―पर्याप्ति नामकर्म का उदय है किंतु वह अभी पर्याप्तियों से पूर्ण नहीं हो सकता किंतु नियम से पर्याप्तियां पूर्ण हो जायेगी, किंतु लब्धपर्याप्त की अपर्याप्ति नामकर्म का उदय है, उनके पर्याप्तियां पूर्ण न तो हुईं और न होंगी । अपर्याप्त अवस्था में ही उनका मरण हो जायेगा । आहार पर्याप्ति में जिन वर्गणावों से शरीर बनता है उन वर्गणावों को ग्रहण करने की शक्ति पूरी हो जाती है । शरीरपर्याप्ति में शरीरवर्गणा की पर्याप्ति पूर्ण हो जाती हैं । इंद्रियपर्याप्ति में जिन वर्गणावों से इंद्रियां बनती हैं उन इंद्रियों के बनने की शक्ति आ जाती है । श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन, इन पर्याप्तियों में भी अपनी योग्य वर्गणावों को ग्रहण करने की और उस कार्य के पूर्ण होने की शक्ति आ जाती है । आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास इन चार पर्याप्तियों में आहार वर्गणावों का ग्रहण होता है । भाषा पर्याप्ति में भाषा वर्गणावों का ग्रहण होता है । मनःपर्याप्ति में मनोवर्गणा का ग्रहण होता है ।
(293) स्थिर, अस्थिर, आदेय, अनादेय, यश:कीर्ति व अयशःकीर्ति नामक नामकर्म की प्रकृतियों का वर्णन―स्थिरनामकर्म―स्थिर भाव के रचने वाले कर्म स्थिरनामकर्म कहलाते हैं । इनके उदय से ऐसे अंगोपांग की स्थिरता रहती है कि बड़े कठिन उपवास आदिक भी कर लिए जायें, तपश्चरण भी कर लिए जायें, फिर भी अंग और उपांगों में स्थिरता रहती है । वात, पित्त, कफ आदिक कृषित नही हो पाते । अस्थिरनामकर्म―इस नामकर्म के उदय से कोई थोड़ा भी उपवास आदिक करे या थोड़ा भी शीत, उष्ण आदिक का संबंध हो तो अंग और उपांग कृष हो जाते हैं, स्थिर नहीं हो पाते हैं । वात, पित्त कफ भी कृषित हो जाते हैं । आदेय नामकर्म―इस नामकर्म के उदय से प्रभारहित शरीर की रचना होती है । यहाँ एक शंका हो सकती है कि तैजस नाम का एक सूक्ष्म शरीर कहा गया है । उसके निमित्त से शरीर की प्रभा बन जाती है, फिर आदेय कर्म मानने की क्या आवश्यकता है? समाधान―तैजस शरीर तो सर्व संसारी जीवो के तेज का निर्माता है । यदि शरीर यह व्यक्त प्रभा तैजस शरीर नामकर्म से माना जाये तो सब संसारी जीवों के शरीर की प्रभा एक समान बन जाना चाहिए, क्योंकि तैजस शरीर तो सर्व संसारी जीवों के पाया जाता है किंतु शरीर की व्यक्त प्रभा सब जीवों में नहीं पायी जाती । इससे सिद्ध है कि शरीर की प्रभा आदेय नामकर्म से होती है । यशकीर्ति नामकर्म―पवित्र गुणों की प्रसिद्धि का कारणभूत जो नामकर्म है उसके उदय से पुण्यवान जीवों के पुण्य गुणों का स्थापन होता है । यश नाम है गुणों का और कीर्ति नाम है स्तवन का । गुण का स्तवन हो सके उसे कहते हैं यशकीर्ति । यहां कीर्ति का अर्थ यश नहीं है जिससे यह संदेह बने कि पुनरुक्त शब्द बोला गया । कीर्ति का अर्थ है कीर्तन होना, प्रसिद्धि होना । गुणों की प्रसिद्धि होना, गुणों की स्तुति होना यश कीर्ति है । अयशकीर्ति―जिस कर्म के उदय से अयश की प्रसिद्धि हो, पहले गुणों का स्थापन हो उसे अयशकीर्ति नामकर्म कहते हैं ।
(294) तीर्थंकरत्वनामप्रकृति का वर्णन―तीर्थंकरत्वनामकर्म―जिसके उदय से अरहंत प्रभु संबंधित अचिंत्य विभूति विशेष प्राप्त हो उसे तीर्थंकरत्व नामकर्म कहते हैं । यहाँ कोई शंका करता है कि जैसे तीर्थंकरत्व एक प्रकृति बतायी गई है इसी प्रकार गणधरत्व आदिक प्रकृतियाँ भी कही जाना चाहिए और उनका अर्थ यह होगा कि जिस प्रकृति के उदय से गणधर पद प्राप्त हो वह गणधरत्वप्रकृति है । समाधान―गणधरत्व आदिक प्रकृति कहने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जैसे तीर्थंकरत्व नामकर्म कहलाता है उसी प्रकार उसके उदय से अचिंत्य समवशरण आदिक विशेष विभूति प्राप्त होती है, पर गणधरत्व होना यह श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम के कारण होता है । इसमें नामकर्म की प्रकृति नहीं बनती । चक्रवर्ती आदिक होते हैं तो वे उच्चगोत्र आदिक विशेष के कारण होते हैं इसलिए गणधरत्व या चक्रवर्ती पना के लिए नामकर्म में कोई प्रकृति नहीं है । यहाँ शंकाकार कहता है कि जैसे उच्चगोत्र चक्रवर्ती आदिक बनने का कारण है तो वही उच्चगोत्र तीर्थंकरत्व का कारण बन जाये तो तीर्थंकरत्व नाम का अलग से कर्म न बनाना पड़ेगा । उत्तर―तीर्थंकरत्व प्रकृति का फल है कि तीर्थ की प्रवृत्ति होती है । दिव्यध्वनि, धर्मोपदेश आदिक होना तीर्थंकर नाम का फल है जिससे कि धर्मप्रवृत्ति होती है । लोगों का कल्याण होता है । उच्चगोत्र भी है पर तीर्थंकर जैसा विशेष फल उच्चगोत्र का कारण होना ही पर्याप्त है । अब इस सूत्र में जो नाम के पद बनाये गए है सो तीन पदों में विभक्त किए गए । जब सभी नामकर्म के भेद हैं तब 3 पद बनाने की क्या जरूरत थी? सबका ही द्वंद्व समास करके एक ही पद बना दिया जाना चाहिए था । उत्तर―इसमें जो पहला पद है वह तो पिंड प्रकृति का और जिनके प्रतिपक्षभूत कोई प्रकृतियाँ नहीं हैं उन्हें मिलाकर किया गया है । दूसरे पद में वे प्रकृतियाँ आयी हैं जिन प्रकृतियों के प्रतिपक्षी अन्य प्रकृतियाँ हुआ करती हैं और तीर्थंकर प्रकृतियाँ हुआ करती हैं । और तीर्थंकर प्रकृति को सबसे अलग अकेला इस कारण कहा है कि यह पुण्य प्रकृतियों में सर्व प्रधान प्रकृति है । जितने भी शुभ कर्म हैं उन सबमें मुख्य है तीर्थंकर प्रकृति । भला जिस तीर्थंकर का इतना माहात्म्य कि पंचकल्याणक मनाया जाये, समवशरण की रचना हो, स्वर्गों से देव, देवियां, मनुष्य, तिर्यंच आदिक और अधोलोक से भवनवासी व्यंतरों के इंद्र देवतागण सब एकत्रित होकर धर्मोपदेश सुनें, हर्ष बनाये, यह एक विशेष पुण्य प्रकृति है । जगत में जो और कोई बड़े पुण्यवान पुरुष हैं चक्रवर्ती, देवेंद्र आदिक वे भी तीर्थंकर प्रभु के चरणों में शीश झुकाया करते हैं । दूसरी बात है कि तीर्थंकरप्रकृति का उदय उनके होता है जो चरम शरीरी है, जो उस ही भव से मोक्ष जायेंगे, उनका भव अंतिम भव है इस कारण भी तीर्थंकरत्व प्रकृति को अलग से कहा गया है । इस प्रकार नामकर्म की प्रकृतियों का वर्णन हुआ, अब गोत्रकर्म की प्रकृतियों का वर्णन करते हैं ।