वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 8-7
From जैनकोष
चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यान गद्धयश्च ।।8-7।।।
(256) दर्शनावरण की उत्तर प्रकृतियों में चार आवरण वाली उत्तररप्रकृतियों का निर्देश―चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल इन चार दर्शनों के तो आवरण तथा निद्रा, निद्रा निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि, ये 5 स्वतंत्र ऐसी दर्शनावरणकर्म की 9 उत्तर प्रकृतियां हैं । इस सूत्र में 4 भेद का पद अलग दिया है और 5 भेद का पद अलग दिया है । सो प्रथम चार भेद के प्रत्येक नाम में दर्शनावरण का संबंध जुड़ना चाहिए । तब उनके नाम हुए चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण । चक्षुदर्शनावरण के उदय में यह जीव चक्षुइंद्रिय द्वारा प्रतिभास नहीं कर सकता । जिनके चक्षुदर्शनावरण का उदय है उनको चक्षुइंद्रिय ही प्राप्त न होगी, फिर चक्षु द्वारा प्रतिभास कहां से हो? चक्षुदर्शन चक्षुइंद्रियजंय ज्ञान से पहले होता है और उस चक्षुदर्शन का कार्य चक्षुइंद्रियजंय ज्ञान के लिए शक्ति प्रदान करना है । अचक्षुदर्शन चक्षुइंद्रिय को छोड़कर शेष चार इंद्रिय और मन से होने वाले सामान्य प्रतिभास को कहते हैं । अथवा स्पर्शन, रसना घ्राण कर्ण और मन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान से पहले जो सामान्य प्रतिभास होता है जो आत्मस्पर्श होता है जिसके द्वारा ज्ञान की शक्ति प्रकट होती है उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं । इस दर्शन का जो आवरण करे उसे अचक्षुदर्शनावरण कहते हैं । अवधिदर्शन अवधिज्ञान से पहले होने वाले आत्मस्पर्श को, सामान्य प्रतिभास को अवधिदर्शन कहते हैं । उस अवधिदर्शन का जो आवरण करे उसे अवधिदर्शनावरण कहते हैं । केवलदर्शनावरण केवलदर्शन का आवरण करने वाले कर्म को केवलदर्शनावरण कहते हैं । केवलदर्शन केवलज्ञान के साथ-साथ ही होता है । केवलज्ञान से त्रिलोक त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को जाना और समस्त पदार्थों का जाननहार अर्थात् जहाँ सर्वज्ञेयाकार झलक रहे हैं ऐसे आत्मा का दर्शन करने वाला केवलदर्शन होता है । इस केवलदर्शन का जो आवरण करे सो केवल दर्शनावरण है । जैसे केवलज्ञानावरण के उदय में केवलज्ञान रंच भी नहीं हो सकता, ऐसे ही केवलदर्शनावरण के उदय में केवल दर्शन कभी नहीं हो सकता ।
(257) निद्रादिक पांच निद्रासंबंधित दर्शनावरणों का निर्देश―निद्रा, मद अथवा परिश्रम को हरने के लिए, दूर करने के लिए जो शयन होता है उसे निद्रा कहते हैं । निद्रा शब्द में नि तो उपसर्ग है, द्रा धातु है जिसका अर्थ है कुत्सक्रिया अर्थात् बेसुध जैसी क्रिया । जिस दर्शनावरण के उदय से आत्मा निद्रित होता है उसे निद्रा दर्शनावरण कहते हैं । निद्रानिद्रा―निद्रा के ऊपर फिर बार-बार निद्रा आना निद्रानिद्रा कहलाता है । जैसे कुछ नींद समाप्त ही हो रही हो या किसी ने जगा दिया है उसके बाद भी फिर नींद आ जाना, निद्रा पर निद्रा आने को निद्रानिद्रा कहते हैं । ऐसी स्थिति जिस कर्म के उदय से हो उसे निद्रानिद्रा दर्शनावरण कहते हैं । प्रचला―जो क्रिया आत्मा को प्रचलित करे उसे प्रचला कहते हैं । प्रचला शोक, परिश्रम, मद आदिक से उत्पन्न होता है । प्रचला में बैठे ही बैठे शरीर और नेत्रादिक में विकार उत्पन्न करने वाली नींद सी होती है जिसमें इंद्रिय का व्यापार तो नही होता फिर भी अंग चलते रहते हैं, ऐसी प्रचला जिस दर्शनावरण कर्म के उदय से हो उसे प्रचलादर्शनावरण कहते हैं । प्रचलाप्रचला―वही प्रचला बार-बार होती रहे उस प्रचलाप्रचला कहते हैं । ऐसी प्रचलाप्रचला जिस दर्शनावरण कर्म के उदय से हो उसे प्रचलाप्रचलादर्शनावरण कहते हैं । स्त्यानगृद्धि―स्त्यान में गृद्धि होना स्त्यानगृद्धि है अर्थात् स्वप्न में कोई अतिशयकारी बलयुक्त कार्य करना स्त्यानगृद्धि है । जैसे दर्शनावरण के उदय से स्वप्न में ही रौद्र कर्म कर लिया जाये या बुरा कर्म कर लिया जाये तो वह स्त्यानगृद्धि है । स्त्यानगृद्धि जिसे होती हो वह पुरुष स्वप्न में भी बड़े काम कर लेता है, पर जगने पर उसे ख्याल नहीं रहता कि मैंने क्या किया था ।
(258) निद्रानिद्रा व प्रचलाप्रचला में वीप्सार्थक द्वित्व की सिद्धि―यहाँ एक शंका होती है कि निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला इन दो भेदों में जो एक शब्द का दो बार प्रयोग किया है सो दुबारा प्रयोग करना वहाँ संभव है जहाँ उसका नाना आधार बना हो, पर यह सब तो एक ही आत्मा में हो रहा है । तो जब नाना अधिकरण नहीं हैं तो वीप्सा अर्थात् दुबारा कहना युक्त नहीं बैठता । तब निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला ये दो भेद उचित नहीं विदित होते । इस शंका के उत्तर कहते हैं कि वीप्सा का यह नियम नहीं है कि वह नाना अधिकरणों में रहे । प्रथम बात तो यह है । अभीक्ष्ण अर्थ में याने निरंतर करने के अर्थ में द्वित्व प्रसिद्ध होता है और वीप्सा भी बन सकती है । यों एक ही आत्मा में निद्रा के दो बार अनेक बार आने से वीप्सा का अर्थ बन जाता है । दूसरी बात यह है कि काल आदिक के भेद से अधिकरण भी भिन्न सिद्ध हो जाता है । जैसे कोई एक ही बालक गत वर्ष सेकेंड डिवीजन में पास हुआ था और इस वर्ष फर्स्ट डिवीजन और फर्स्ट पोजीशन में पास हुआ तो उसे लोग कहते हैं कि यह बालक गत वर्ष तो चतुर था, पर इस वर्ष अत्यंत चतुर है । तो एक ही बालक में दो अधिकरण मान लिया और वहाँ दो का प्रयोग किया गया । कभी देशकृत दृष्टि से भी दो का प्रयोग होता है । जैसे पहले अपने गांव में कोई रहता था तो साधारण था, अब वह पास के शहर में पहुंच गया, व्यवसाय चल गया तो वह संपन्न हो गया तब उससे लोग कहते हैं कि जो तुम गांव में थे सो न रहे, अब तुम दूसरे हो गए, संपन्न हो गए । तो यों विवक्षावश एक ही वस्तु में नाना अधिकरण जैसा प्रयोग होता है । ऐसे ही एक जीव में भी कालादिक के भेद से निद्रानिद्रा का नानाधिकरणत्व सिद्ध हो सकता है तथा एक ही आधार में निद्रा क्रिया का द्वित्व घटना वश बन जाता है । अत: निद्रानिद्रा व प्रचलाप्रचला में वीप्सार्थक द्वित्व कहने में कुछ भी विशेष नहीं है ।
(259) निद्रा में साता असाता में से सातावेदनीय के उदय की प्रधानता―दर्शनावरण कर्म के भेदों में जो निद्रा नामक प्रकृति है उस निद्रा दर्शनावरण कर्म और साता वेदनीय का उदय होने से निद्रा परिणाम बनता है । निद्रा आने में लोग सुख का अनुभव करते हैं । जैसे किसी को नींद नहीं आती तो वह चिकित्सा कराकर उपाय बनाकर नींद लेना चाहता है । तो यद्यपि निद्रा दर्शनावरण के उदय में आत्मा का दर्शन नहीं होता, वस्तु का दर्शन नहीं होता तो भी वहाँ श्रम, शोक दूर होता हुआ देखा जाता है । तो स्पष्ट वहाँ साता वेदनीय का उदय है । हो उसके साथ असातावेदनीय का भी आगे पीछे मंद उदय चलता रहता है । इसी प्रकार शेष चार निद्रावों का भी यही ढंग है । इस सूत्र में 5 निद्रावों का द्वंद्व समास किया गया है और उनके साथ दर्शनावरण का संबंध जोड़ा गया है ।
(260) दर्शनावरण की उत्तरप्रकृतियों का लक्षण व प्रभाव―इस सूत्र में जो दर्शनावरण के भेद कहे गए हैं उनको दो पदों में रखो । प्रथम पद में षष्ठी विभक्ति है जिसमें दर्शनावरण का भेद रूप से निर्देश होता है । द्वितीय पद में प्रथमा विभक्ति है, सो समान रूप से, भेद रूप से दर्शनावरण का संबंध होता है, जैसे चक्षुदर्शन का आवरण । इस ढंग से तो चार दर्शनों का आवरण कहा जाता है और निद्रारूप दर्शनावरण आदि में अभेदरूप दर्शनावरण लिया गया है । जिस समय जीव के चक्षुर्दर्शनावरण का उदय है उस समय चक्षु इंद्रिय द्वारा वह सामान्य प्रतिभास नहीं कर पाता अर्थात् चक्षुइंद्रिय से उत्पन्न होने वाले ज्ञान से पहले जो प्रतिभास होता है वह नहीं हो पाता । इसी प्रकार अचक्षुर्दर्शनावरण के उदय से शेष 4 इंद्रिय और मन द्वारा सामान्यप्रतिभास नहीं हो पाता है । उस पर इन दर्शनावरणों का असर होता है, अर्थात् निमित्तनैमित्तिक भाव के रूप से इस दर्शनावरण के उदय के सान्निध्य में इसका निमित्त पाकर जीव दर्शनगुण प्रकट नही कर पाता । अवधिदर्शनावरण के उदय से अवधिज्ञान नही होता और केवलदर्शनावरण के उदय से केवलदर्शन नहीं होता । निद्रारूप दशा तो एक अंधकार अवस्था जैसी है, क्योंकि नींद आने पर उसके इंद्रिय का व्यापार बंद हो जाता । न कुछ छूता है, न चखता है न सूंघता है, न देखता है और न सुनता है पर निद्रानिद्रा दर्शनावरण के उदय से महान् अंधकार जैसी अवस्था हो जाती है, क्योंकि इसमें इतनी गाढ़ निद्रा है कि बहुत तेज जगाया जाने पर भी सोये हुए पुरुष को हिलाकर जगाने पर भी मुश्किल से जगता है। प्रचला दर्शनावरण के उदय से तो कुछ अंगों का प्रचलन होता है । घूरना, नेत्र का व शरीर के अंग का चलना । जैसे किसी की आंखें खुली रहती हैं और वह नींद लेता रहता है तो उस समय उसे दिखता कुछ नहीं है, आँखें भर खुली हैं । कैसी विकट अवस्था है कि आंखें पूरी खुली हैं और उसे दिखता नहीं है । प्राय: करके नींद आँख बंद की हालत में रहती है, पर किसी किसी के यह दशा पायी जाती है तो भी वहां दर्शन कुछ नहीं होता । प्रचलाप्रचला दर्शनावरण के उदय से यह जीव बहुत अधिक ऊँघता है और किसी तीक्ष्ण वस्तु से कुछ शरीर भी छिद जाये तो भी वह कुछ नहीं देख पाता । ऐसा तीव्र दर्शन का आवरण है । इस प्रकार दर्शनावरण कर्म की उत्तरप्रकृतियों को बताकर अब तृतीय नंबर में पुरुष वेदनीय कर्म के भेदों को बतलाते हैं।