वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 113
From जैनकोष
नवपुण्यै: प्रतिपत्ति: सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन ।
अपसूनारंभाणामार्याणामिष्यते दानम् ।। 113 ।।
सप्तगुण सहित श्रावक द्वारा साधुवों का वैयावृत्य―वैयावृत्य में आहारदान सबसे प्रधान वैयावृत्य है । सो उस आहारदान की विधि विधान बताने के लिए इस छंद में श्रावकों का कर्तव्य बताया गया है । कैसा दातार आहार दान दे जो 7 गुणों सहित हो? वे 7 गुण कौन हैं । (1) पहला गुण है यह कि दान देकर वह लोक संबंधी कोई फल नहीं चाहता । देखिये दातार यदि महान् है और पात्र भी महान है और बड़ी महान विधि से आहार दिया जा रहा है तो उसकी बहुत बड़ी विशेषता होती है । दातार इस लोक में अपनी प्रसिद्धि के लिए आहार नहीं कराता, मैं लोकमान्य होऊं, राजमान्य होऊं, धन धान्य मेरे बढ़े, यश कीर्ति मेरे प्रकट हो, ऐसा कोई फल नहीं चाहता । (2) दातार का दूसरा गुण है कि वह क्षमाशील होता हुआ ही आहार देता है । श्रावक क्रोध कषाय को प्राप्त नहीं होता कि आज बहुत मुनि आहार लेने वाले हैं, किस किसको आहार दें? ऐसी भीतर में अपनी उल्झन नहीं बनाता । क्रोध न करके मुनिवरों को, उत्तम श्रावक को दान करता तो वह दातार का दूसरा गुण है । (3) दातार का तीसरा गुण है कि कपट भाव से पात्र को आहार आदिक न कराये । कपट के मायने हैं कि सोचना कुछ, बोलना कुछ और करना कुछ । लोगों को भक्ति का दिखावा करना यह कपट का काम कहलाता है । हमें भी मोक्ष चाहिए ऐसा उद्देश्य बनाये बिना श्रावक में सहज योग्यता नहीं आ पाती जो विधि में सही मानी जाती है । (4) दातार का चौथा गुण है ईर्ष्या न रखना । अन्य दाता से ऐसी ईर्ष्या रखे कि इससे अधिक बार मेरे घर आहार होना चाहिए अथवा मैं इस ढंग का आहार करवा दूं जिससे इस दूसरे का यश घट जाय इस प्रकार की कोई ईर्ष्या की बात नहीं रहती है श्रावक के चित्त में । श्रावक तो एक रत्नत्रय के नाते ही रत्नत्रय धारियों की वैयावृत्ति करता है । (5) पांचवां गुण है दातार का कि वह दान में विषाद नहीं मानता । दान भी देता जाय, व्यवस्था भी बनाता जाय और भीतर में खेद माने कि क्या करूं, मैं सब लोगों में अपनी उच्चता रखता हूँ अगर मैं ऐसा न करूं तो मेरा बड़प्पन घट जायगा इसलिए करना तो पड़ेगा, ऐसा विषाद मानता हुआ श्रावक आहार आदिक नहीं कराता, किंतु हर्ष से, उमंग से उनके रत्नत्रय गुणों का चिंतन करके प्रसन्नता से वैयावृत्य करता है । (6) छठवां गुण है श्रावक का आनंद मानना । किसी पात्र का संगम मिल जाय और निर्विघ्न आहार हो जाय तो उसका ऐसा आनंद मानता जैसे मानो कोई अपूर्व निधि प्राप्त कर ली हो । ऐसा प्रमोदभाव जगना यह श्रावक का गुण है । (7) सातवां गुण है निरहंकारता―आहार देने का अहंकार भी श्रावक नहीं करता ।
पंचसून रहित साधुवों का श्रावक द्वारा वैयावृत्य―सप्त गुणों से सहित श्रावक पंचसून रहित साधुजनों को आहार आदिक कराता है । पंचसून कहलाते हैं गृहस्थी में करने के काम । वे मुनियों के पास नहीं हैं जैसे चक्की, चूल्हा, ओखली, बुहारी, परिंडा आदि । ये पंचसून तो श्रावक के करने के हैं, मुनिजन इन्हें नहीं करते । आज कल तो श्रावक लोग भी करीब-करीब ये सब काम छोड़ बैठे मानो आज सभी श्रावक मुनिजनों की तरह पंचसूनों से रहित हो गए । मानों श्रावक लोग इन मुनियों से होड़ कर रहे है (हंसी) । चूल्हा घर में रहा नहीं, गैस आ गई, झट से गैस के कान ऐंठे और काम शुरु कर दिया । ओखली भी किसी के घर नहीं रही । बुहारी देने का काम भी नहीं रहा । बुहारी देने को नौकर रख लिया । यह भी ध्यान में न रहा कि यदि खुद यह काम कर लेते तो कितनी ही जीव हिंसा बचती । बुहारी भी यों छूटी । पानी भरने की जगह परिंडा भी न रहा । परिंडा उसे बोलते जहाँ 5-7 पानी से भरे घड़े रख जाते, कहीं-कहीं घिनौची भी बोलते, तो परिंडा भी अब नहीं रहे टोंटी वाले नलों का कान ऐंठा और पानी पी लिया । तो मानों श्रावकजन आजकल पंचसूनो से रहित होकर मुनियों की तरह रह रहे हैं, पर यह बात उनके लिए योग्य नहीं । ये पंचसून गृहस्थ में होते हैं और यत्नाचार से होते हैं । नौकरों से इन आरंभों के कराने पर जीवदया नहीं पलती । खुद आरंभ करे तो देखभाल से जीवदया पल जाती है । पंचसूनों से रहित मुनिवरों को श्रावक आहार कराकर कृतार्थ होता है ।
पात्र को आहार देने के प्रसंग में की जाने वाली नवधा भक्ति में प्रथम भक्ति प्रतिग्रह―श्रावक के बारह व्रतों में अंतिम वैयावृत्य नाम का शिक्षा व्रत बताया जा रहा है । मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका और भी श्रावकजनों का यथायोग्य वैयावृत्य करना, सेवा करना, आहार आदिक देना यह वैयावृत्य कहलाता है । सो मुनि या श्रावक जो जिस पद में है उसके अनुसार नवधा भक्ति करता हुआ श्रावक आहार देता है । (1) पहला तो है संग्रह, जिसका दूसरा नाम है प्रतिग्रह अर्थात् पात्र मुनि, क्षुल्लक आदिक आहारचर्या के लिए जा रहे हों तो यह श्रावक प्रथम त्रिवार नमस्कार बोलता हुआ त्रिवार कहेगा कि तिष्ठ-तिष्ठ याने यहाँ ठहरिये तो वह जान जायेंगे कि आहार के लिए भक्तिपूर्वक बुला रहा है । और इसके आगे भी जितना बोला जाता है उतना प्रतिग्रह में बोलेगा, जो बात आगे करेगा उसका निवेदन करता है । अन्न जल शुद्ध है । मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, पधारिये ऐसे विनयपूर्वक शब्दों में वह पात्र को बुलाने की, घर में पहुंचने की प्रार्थना करेगा अनेक बार आदरपूर्वक विनय की बात कह कर अपने भाव बतायेगा । देखिये बिना बुलाये, बिना प्रीति के वचन कहे कोई छोटा पुरुष भी भोजन नहीं करता । कहना ही पड़ता, आइये, पधारिये, विराजिये । और उनके फिर पैर भी धुलायेगा । एक साधारण रिश्तेदार या अन्य की बात में भी चौके में चलियेगा, भोजन को चलियेगा, भोजन की बात भी बतायेगा । फिर तो ये पात्र हैं―मुनि, क्षुल्लक, ऐलक, आर्यिका ये सब पात्र हैं, योग्य हैं धर्मगुरु हैं । इनको बड़े विनयपूर्वक श्रावक अपने घर ले जाता है । घर पहुंचने पर उच्च स्थान देता है । नवधा भक्ति प्राय: सबकी की जाती है, पर उसमें विशेषता पात्र के अनुसार होती है । आप अपने साधर्मी को, रिश्तेदार को भी भोजन करायेंगे तो इतनी बातें सामने आती है । भले ही कोई विचार नहीं रखता भस्म अभक्ष्य का तो उसको यह नहीं कहा जाता कि यह भी शुद्ध है, यह भी शुद्ध है, मगर बुलाना, ऊंचे आसन पर बैठालना । उनको पैर धोने को पानी देना आदिक साधारण बातें प्रत्येक के होती है । यहाँ मुनिराज नवधा भक्ति के बिना नहीं जाते आहार में । उसमें यह न समझना कि कोई अभिमान की बात है । मुनिराज मौन पूर्वक है कुछ पूछ सकते नहीं हैं, सो वे नवधा भक्ति से ही जानते हैं कि यह आहार शुद्ध है । जो जैन शासन की विधि को नहीं जानता उससे कैसे आशा की जा सकती है कि उसने आहार शुद्ध बनाया है । नवधा भक्ति देखकर मुनिजन यह ज्ञान करते हैं । यह धर्मात्मा है, दान की विधि जानता है आहार तो शुद्ध होगा ही सब बातों की परीक्षा श्रावक की नवधा भक्ति देखकर होती है।
पात्र को आहार देने के प्रसंग में कृत्य नवधा भक्ति में वर्णित प्रतिग्रह के अतिरिक्त शेष आठ भक्तियां―(2) दूसरी भक्ति है―पड़गाहने के बाद उच्च आसन पर बैठाना । (3) तीसरी भक्ति है―प्रासुक जल से हाथ पैर धुलाना । (4) चूँकि ये धर्मात्माजन हैं, इनके चरण बहुत पानी से न धुलेंगे, इतना जानना आवश्यक है इतने ही पानी से धोना ताकि पानी अधिक बहे नहीं और जीवों को बाधा न पहुंचे यह चौथी भक्ति में है । जैसा अवसर देखा, जैसा पात्र हुआ उसके योग्य पूजन स्तवन पूज्यपना के वचन कहना । थोड़ा समय है तो अर्घ ही दे दिया, विशेष समय है तो पूरी पूजा ही पढ़ ली । तो अवसर और पात्रता के अनुसार पूजन विनय आदिक करना । (5) 5वीं भक्ति है मुनि श्रावक की योग्यतानुसार नमस्कार आदिक करना । जैसे मुनि को अष्टांग नमस्कार है । क्षुल्लक, ऐलक, अर्जिका आदिक को पंचांग नमस्कार है तो यह प्रणाम नाम की भक्ति है । (6) छठवीं भक्ति है मन की शुद्धि रखना―देखिये पड़गाहने के समय जो मन शुद्धि, वचन शुद्धि, कायशुद्धि कहा है, जो अपनी शुद्धि का निवेदन किया है उसमें केवल शब्द कहने मात्र से बात न बनेगी । मन से शुद्धि रखना, 7वीं वचन से शुद्धि रखना, अयोग्य वचन न बोलना । (8) काय से शुद्धि रखना अर्थात् यत्नाचार से इस काय की प्रवृति करना, जिसमें किसी जीव को बाधा न हो । (9) एषणा शुद्धि―यत्न से उठना, देखकर ही चलना जिसमें किसी जीव को बाधा न हो सके । ऐसी नवधा भक्तिपूर्वक श्रावक मुनिजनों को आहारदान करता है । मायने भोजन शुद्ध होना, जैसा पात्र के लिए योग्य चाहिए दिन में ही बनाना, शोधकर बनाना, शुद्ध होकर बनाना ऐसा भोजन एषणाशुद्धि कहलाता है।
पात्रदान में नवधा भक्ति की अनिवारित आवश्यकता―देखिये नवधा भक्ति की आवश्यकता किसको हुई है । नवधा भक्ति देखने की आवश्यकता मुनियों को हुई है, और नवधा भक्ति करने की आवश्यकता श्रावकों को हुई । जिस श्रावक के धर्म के प्रति आदर नहीं है याने धर्महीन है तो धर्महीन के यहाँ मुनिजन आहार नहीं ले सकते । अब यह कैसे पहिचान में आये कि यह धर्महीन है, धर्मानुराग इसमें नहीं है, तो उसकी भक्ति देखकर ही जान सकेंगे कि यह धर्मात्मा गृहस्थ है, और यहाँ आहार लिया जाना योग्य है । जिसको धर्म प्रिय होगा, धर्मात्मा में अनुराग होगा वह पुरुष योग्य दातार है । पात्र के गुणों में जिसके हर्ष नहीं हो रहा, प्रीति नहीं हो रही या मन में कुछ और सोच रहा, तो यों आहार देना निष्फल है । प्रीति पूर्वक रत्नत्रय धर्म की भीतर प्रेरणा मिलती हो सो ऐसी परीक्षा तो भक्ति से ही हो सकती है । सो मुनिजन नवधा भक्ति को देखते है साधारणतया, उसमें त्रुटि हो तो यह जानकर कि इस भाई को धर्म विधि का ज्ञान नहीं है, अन्य जगह भी त्रुटि की होगी ऐसा अंदाज करके वे वहाँ से चल देते हैं । सो ये श्रावक नवधा भक्ति से आहार, औषधि, शास्त्र आदिक का दान करते है । यदि क्षुल्लक, ऐलक, अर्जिका आदि हो तो उनके योग्य वस्त्र आदिक का भी दान करते हैं, और ऐसे वस्त्र देते हैं जिससे रागद्वेष न बढ़े, घमंड न बढ़े, मोह, काम, आलस्य, चिंता, अभिमान आदिक न होवे ऐसे ही द्रव्यों को यह योग्य श्रावक प्रदान करता है ।
तप ध्यान संयम की सिद्धि के लिए साधुवों की आहारचर्या―आहार लेने का प्रयोजन पात्र का यह है कि मेरे ध्यान तप संयम में वृद्धि हो । जिसने आत्मा के स्वरूप को पहचाना है वह शरीर की रक्षा मौज के लिए नहीं चाहता, किंतु ध्यान तप संयम बढ़े इसके लिए वह अपना जीवन रखता है । क्योंकि वह जान रहा कि अभी हमारी साधना इतनी ऊंची नहीं है, ऐसी स्थिति में किसी हठ के कारण भावुकता के कारण असमय में यदि जीवन खो दूं तो उसका फल अच्छा नहीं है, मानों थोड़ा बहुत पुण्य के प्रसाद से देवों में भी उत्पन्न हो गए तो वहां भी असंयम ही तो है, क्लेश ही तो है संसार की बढ़वारी ही तो है । देवों की जब आयु स्थिति सुनते हैं कि ओह 20 सागर, 30 सागर, 31 सागर है । एक सागर में अनगिनते वर्ष हो जाते हैं, कोई सोचे कि अनगिनते वर्षों तक वैक्रियक शरीर मिल गया जहाँ भूख प्यास रोग आदिक की वेदना नहीं है, मौज है, पर वह 30-31 सागर का समय भी अनंतानंत काल के सामने बड़े समुद्र में एक बूँद बराबर भी समय नहीं बैठता । कुछ भी काल नहीं है । ज्ञानी पुरुष का तो यह भाव रहता है कि मेरे जीवन का एक क्षण भी अधर्म में, पाप में मत जाये । सो इस द्रव्य के देने से मुनिश्वरों के तप संयम में वृद्धि हो, ऐसा ही द्रव्य दिया जाता है । गरिष्ठ चीजें, पकवान की चीजें या नुकसान करने वाली चीजें नहीं दी जातीं । यहाँ तक कि आहार देने में वह श्रावक जबरदस्ती भी नहीं करता, वह श्रावक इसी भाव से आहार दे रहा कि मुनिराज के ध्यान और तप में वृद्धि हो । पात्र का भूख प्यास का दु:ख मिट जाय, रोग नष्ट हो जाय, परिणामों में संक्लेश न रहे ऐसा द्रव्य श्रावक प्रदान करता है ।
दाता, पात्र, देय, विधि की विशेषता से फल की विशेषता―देखिये दातार यदि उत्तम गुण वाला है और दिया जाने बाला पदार्थ भी बहुत उत्तम हैं और जिस विधि भक्ति से दिया जा रहा है वह विधि भक्ति भी ऊंची है और पात्र भी विशेष है तो उसका फल भी बहुत ऊंचा है । दातार के 7 गुण बताये गए―(1) भक्तिवान हो याने पात्र की भक्ति में बड़ी उमंग रखता हो । (2) तुष्टिगुण हो अर्थात् पात्र को दान देता हुआ अपने को बड़ा संतुष्ट मानता हो कि मुझ को एक अपूर्व निधि आज प्राप्त हुई है । (3) दातार में श्रद्धागुण होता है । साधुवों को आहार आदिक देने से इस लोक में परलोक में कल्याण होता है । (4) दातार में विज्ञान गुण है । वह सब जानता है कि इस ऋतु में ऐसा आहार देना, इस क्षेत्र में ऐसा आहार देना । वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की बात समझता है । (5) दातार में अलोलुपता गुण होता है । दान देने के प्रभाव से मेरे को यश मिले, धन मिले आदिक कोई लालच न रखना, एक धर्म के नाते ही यह संबंध बना है । (6) दातार में सात्विकता है । थोड़ा भी धन है तो वह दान देने में बड़ा उद्यमी है । इसकी सेवा को देखकर बड़े-बड़े धनिक पुरुष भी आश्चर्य करें, ऐसा सात्विक गुण श्रावक में होता है । (7) दातार में क्षमा गुण है । कैसे भी कारण आ जायें तो भी वह क्रोध नहीं करता । न पात्र का ख्याल करके क्रोध करता, न मित्रजन, कुटुंबीजन जिनके बीच वह दान क्रिया में लगा है उसके भी किसी अपराध को देखकर वह क्रोध नहीं करता । क्रोध तो बड़ी ज्वाला है । कोई भी पुरुष हो जो क्रोध करेगा वह बड़ी गल्ती पर है । किसी का अपराध हुआ तो उसका प्रतिकार भी हो सकता, समझा सकता और क्रोध पूर्वक कुछ करे यह उसकी बड़ी दुर्बलता है । दातार के क्रोधभाव नहीं होता । तो यह दातार बड़े विनय सहित साधुवों की सेवा करता है । यदि कुछ देने को भी न हो तो विनय करना और उनके गुणों का समर्थन करना, इतना भी कोई हृदय से करे तो महान् पुण्य का बंध करता है ।
पात्र सेवा में प्रयुक्त धन का सदुपयोग करने की श्रावक के हृदय में उमंग―यह श्रावक यह निर्णय किए हुए है कि मेरा जो धन साधु संतों की सेवा में खर्च हो सो तो मेरा है अर्थात् सही कमायी है और जो धन विषय कषाय के साधनों खर्च हो वह बंध का करने वाला है, समुद्र में डुबोने वाला है । यह श्रावक विचारता है कि जो धन रागद्वेषादिक के प्रसंगों में खर्च किया जायगा वह तो हमारे ही संयम का घात करने वाला बनेगा और साधु संतों की सेवा करने में जो धन खर्च होगा वह हम को मोक्षमार्ग में लगाने में कारण बनेगा । इस प्रकार की उमंग वह श्रावक अपने अंदर कर रहा है । साधु संतों की सेवा में धन खर्च करने का और विषयकषाय के साधनभूत कुटुंबीजन, मित्रजन आदिक की सेवा में धन खर्च करने का, इन दोनों में अंतर निरख रहा है । यहाँ उस धन की आलोचना की जा रही है जो उन विषयकषायों के साधनभूत कुटुंबीजनों के पीछे ऐसा अज्ञानी बनता है कि धर्म अधर्म कुछ नहीं गिनता, न्याय अन्याय कुछ नहीं गिनता । यहाँ तक कि यश अपयश को भी तिलांजलि दे देता है, नहीं गिनता है तो भी एक तृष्णा के मेल में केवल उनकी ओर ही आसक्त रहता है । इन कुटुंबीजनों को धन वस्त्र आभूषण भोजन आदिक से तृप्त करने के लिए, इनको प्रसन्न रखने के लिए, इनसे राग भरी दो बातें सुनने के लिए झूठ, चोरी, अन्याय, हिंसा आदिक में प्रवृत्त होता हैं । सो इस आसक्ति से हटकर इस मोहबुद्धि को हटाकर वीतराग धर्म को पाकर अन्याय अनीति में प्रवृत्ति न करना । जो न्याय मार्ग से धनार्जन हो उस ही में विभाग बनाना और कुटुंबीजनों का पोषण करना ।
श्रावक की संतोषवृत्ति―कोई यह सोचे कि मैं तो जिस चाहे तरह से गुजारा कर लूँगा, पर स्त्री आदिक को तो अच्छी तरह से ही रखना । वह विचार क्यों बना कि मोह बुद्धि अधिक है । नहीं तो जब हम सब शामिल हैं तो जैसे हम वैसे सब रहेंगे । हां ज्ञान वार्ता द्वारा उनको संतुष्ट करना और यह भावना करना कि अपने पास कमायी कम है । धन कम है सो गुजारा तो किसी तरह हो जायगा, पर धर्म एक ऐसा साधन है कि जिसके बिना न इस लोक में कल्याण है, न आगे कल्याण है इसलिए धर्म की प्रतीति अधिक करना योग्य है । कर्त्तव्य में इस बात पर दृष्टि दी गई है कि अपने उपदेश से कुटुंब को संतुष्ट कर सकते हैं, किंतु ऐसा सोचकर कि कुटुंब को तो बहुत बढ़िया आभूषण देना चाहे जुवा खेलना पड़े, चाहे कुछ करना पड़े यह बात योग्य नहीं है । जिस पुरुष के हृदय में धर्म का संबंध नहीं है उसका जीवन पशुवों से भी गया बीता है । यह पुरुष अच्छे मकान बना लेता है तो चिड़िया भी अपना घोंसला बना लेती है । यह पुरुष बढ़िया भोग साधन बनाकर अच्छे-अच्छे पदार्थों के खाने में खुश है तो वे चिड़िया जगह-जगह खोज-खोजकर कहीं से कुछ दाने मिले तो उनको खाकर उतना ही खुश होती जितना कि ये पुरुष । ये पुरुष मैथुन में, विषयसेवन में खुशी मानता है तो ये पशु पक्षी भी जो कि मनुष्यों से भी अधिक संतुष्ट हैं, अपनी ऋतु काल में विषय करके ये भी खुशी मानते हैं । फर्क क्या रहा इन पुरुषों में और पशु पक्षियों में जिन पुरुषों का धर्म के प्रति ध्यान नहीं, धर्म का महत्त्व नहीं, कुटुंब का ही महत्त्व जिनके चित्त में है उनका जीवन तो पशुपक्षियों से भी गया बीता समझिये । तो यह श्रावक धर्म के प्रति विशेष ध्यान रखता है और उसकी विधि से अपना भी संबोधन और कुटुंब का भी संबोधन रखता है । जो न्यायमार्ग से धन अर्जित होगा उसमें ही कुटुंब और धर्म के अर्थविभाग करके अपने रहे सहे जीवन के दिन व्यतीत करेगा, इस श्रावक का भाव है ।
दानरहित पुरुष के धन की व्यर्थता व अनर्थता―अरे भैया, मरे और सब छोड़ गए, देखो जिसके पीछे इतनी बड़ी व्यग्रता की जा रही है वह तो कुछ साथ जाने वाली नहीं है । श्रावक की दृष्टि में सर्व ज्ञान स्पष्ट है । यह जीवन क्षणभंगुर है, मरने पर ये कुटुंब आदिक कोई साथ न जायेंगे । जो मेरी दान शील तप आदि की भावना बनी और उससे जो पुण्य अर्जित हुआ यह ही परलोक में साथ जायगा, दूसरा नहीं । यहाँ भी जो सामग्री मिली है पूर्वभव में दान किया, उससे जो पुण्य बंधा उसका फल है । अब इस भव में यदि दान की प्रवृत्ति न होगी तो आगे एक दरिद्र जीवन ही मिलेगा । सबसे महान् लाभ यह श्रावक मोक्ष के लाभ को समझता है । दुनिया में कुछ भी प्राप्त हो उसे यह लाभ नहीं मानता । मेरे को सिद्ध अवस्था प्राप्त हो । कर्म और शरीर से रहित केवल आत्मा मात्र मैं रह जाऊं, इस स्थिति को ही पसंद करता है । अपनी पसंदगी के अनुसार अपनी क्रियायें भी करता है । सो वहाँ रत्नत्रय के धारक मुनिजनो में श्रावक के वही प्रीति उत्पन्न हुई हैं । जो समर्थ होकर भी कृपण रहे, पर के उपकार से रहित रहे, उसका जीवन तो निष्फल है । जैसे कोई बड़ा समुद्र है, जिसका खारा तो जल है और उसमें रत्न भरे हैं, मगर उसमें मगरमच्छ इतने बेहिसाब है कि उन रत्नों का उठाना कठिन है, तो वह समुद्र बेकार है, उससे किसका लाभ होता? न तो एक रत्न हाथ आने का है और न एक चुल्लू जल पीने का है । तो ऐसा ही धनी कृपण पुरुषों की स्थिति है । न उसका धन किसी के उपकार में लग सकता है और न उसके संग से कोई लाभ हो सकता है ।
श्रावक की गुरुसेवादि में भक्ति भरी उमंग―यह श्रावक धन आदिक को भिन्न जानकर यह निर्णय रखता है कि मिला है तो उसका ठीक सदुपयोग हो, देवशास्त्र, गुरु इनकी सेवा में, इनकी भक्ति में धन लगे तो वह अपने को कृतार्थ मानता है । बाकी कैसे ही धन लगे, उसमें कृतार्थता तो क्या, सारा निष्फल ही है । जिसकी दान और भोग में गति नहीं है वह तो दूसरों के भाग्य में बंधा है वह धन सो उनकी सेवा कर रहा हैं, केवल नौकरी कर रहा है जो अपने धन को दान और भोग में यथायोग्य नहीं लगा सकता वह केवल दूसरों की नौकरी कर रहा है । भले ही मानता यह है कि मेरे लड़के को लाभ मिलेगा । अरे कौन किसका लड़का है? उसका उदय है तो उसके उदय से मिलेगा ही । अगर यह मान लें कि मेरा है, इसके लिए मैं सब कुछ कर रहा हूँ तो न अब इसका है और न आगे होगा । मरने के बाद सीधा फैसला है कि किसी का कुछ न रहेगा । यहाँ किसका क्या है? तो न्याय नीति से धन का अर्जन करें और उसे धर्म हेतु खर्च करें । अपने गुजारे के लिए और कुटुंबीजनों के जीवन के लिए खर्च करना यह तो श्रावक की भली चर्या । मगर कुटुंब ही इसके लिए सर्व कुछ है और देवशास्त्र गुरु के प्रति इसका कुछ भाव नहीं लगता है तो उसकी स्थिति उत्तम नहीं है। अकल्याण की स्थिति । सो यह श्रावक बड़ी उमंग से गुरुवों की सेवा में धन को खर्च करता है । इस प्रकार श्रावकजन प्रतिदिन शुद्ध आहार बनाते हुए समय-समय गुरुजनों का प्रतिग्रहण करते हैं, अगर भाग्य से मिल गए गुरुजन तो उनको आहार कराकर अपने को कृतार्थ मानते हैं ।
न्यायार्जित द्रव्य में विभागकर दान के आवश्यक कर्तव्य का निभाव―श्रावक न्यायपूर्वक आजीविका को करता है, उसमें जो उपार्जित होता है उसी में 6 भाग करके उनका यथोचित्त उपयोग करता है । कुछ भाग कुटुंब के खर्च के लिए, कुछ भाग धर्म, दान, पुण्य के लिए, कुछ भाग समय-समय पर होने वाले विवाह आदिक समारोहों के लिए, ऐसे बंटवारे करके उसमें ही गुजारा करता है और उस कमाये हुए धन के विषय में ऐसा परिणाम रखता है कि मेरे धन में से यदि किसी के प्रयोजन में कुछ काम आ जाय, उसमें से कोई साधर्मी कमायेंगे तो यह हमारा बड़ा लाभ है । जहाँ पात्र को आहार आदिक कराने, शास्त्रदान आदिक करने में अपने को कृतार्थ समझता है । इस परिणाम को भी रखता है कि कोई साधर्मी बंधु मेरे ही धन द्वारा कुछ कमाई कर ले, ऐसा विशुद्ध परिणाम रखने वाला दातार हर्षित चित्त होकर दान देता है कोई दान दे और गुस्सा करके दे, या दूसरे का अपमान करके दे, तिरस्कार के वचन कह कर दे या दूसरों को दूषण लगाता हुआ दे तो उसकी यह प्रवृत्ति भली नहीं है । लोक में कलह और अपयश उत्पन्न करने वाली है और परलोक में अशुभ कर्म के फल में दरिद्र बनेगा और अनेक भवों में अपमान आदिक पायगा । सद्गृहस्थ बड़ी भक्ति उमंग से पात्रों को अन्य साधर्मीजनों को धर्मबुद्धि से दान का परिणाम रखता है ।
चतुर्विधदान के अतिरिक्त अन्य पदार्थों के दानों में धार्मिकदानरूपता का अभाव―अब लौकिक पुरुष कुबुद्धिवश अनेक प्रकार के दान देते हैं । सो यह प्रकरण यह बतला रहा है कि चार प्रकार दान करने में ही धर्म का संबंध है, किंतु पात्रों को या त्यागीजनों को या श्रावकों को अन्य प्रकार का दान करना धर्म में शामिल नहीं है वैसे गृहस्थ है और उसे अनेक काम करने पड़ते है मगर वे उनके काम कहलाये, दान नहीं कहलाये । जैसे भूमि देना, भूमि दान को भी लौकिकजन दान बताते हैं और कुछ सन्यासी अथवा उस प्रकार के विप्र उस भूमिदान के लिए प्रेरणा करते हैं, सो श्रावक किसी साधर्मी को गरीबी देखकर भले ही भूमि दे-दे मगर वह दान में शामिल नहीं है । वह उसके कर्त्तव्य में शामिल है जो धार्मिकता के ख्याल से भूमि देता है, जैसे भगवान की पूजा की तो धर्मबुद्धि से, ऐसे ही धर्मबुद्धि से भूमिदान की बात करे तो वह कुदान है । जिसमें हल, फावड़ा, खुरपा आदिक से भूमि विदारण हो, अनेक जीवों का वध हो । बड़ा आरंभ हो और जिसमें सांप, चूहा, हिरण आदिक बड़े-बड़े जीव वहाँ आये तो उन्हें बाधक जानकर मारा जाता है । और भूमि की ममता बने जिसमें परस्पर मारकर मर जाय ऐसा तीव्र रागद्वेष का कारण है भूमि का दान । श्रावक भूमिदान को दान नहीं समझता, दान चार ही बताये गए―(1) आहारदान (2) शास्त्रदान (3) औषधिदान और (4) अभयदान । कितने ही लोग स्वर्णदान करते है । सन्यासीजन, साधारण विप्रजन अनेक श्रावकों को ऐसा बहकाते कि इस गृह में अमुक में स्वर्णदान करना चाहिए आदिक । उस स्वर्णदान से कितने अनर्थ होते हैं । यदि सन्यासी पात्र को स्वर्णदान दिया जाय तो उसकी पात्रता ही नष्ट हो गयी, उसे सदा काल भय बना रहेगा, उसके संयम का नाश हो जायगा । और उसके स्वर्णादिक से राग हो जायगा जिसके कारण द्वेष क्रोध आदिक भी होते रहेंगे आत्मस्वरूप का विस्मरण हो जायगा । सो जो वीतराग धर्म का इच्छुक है वह स्वर्णदान को पाप समझकर त्यागता है । लोक में मिथ्यामत में जिन दानों की प्रसिद्धि है वे दान-दान नहीं किंतु कुदान है । जैसे भूमि दान करना, स्वर्णदान करना । कुछ लोग तिल दान करते हैं, इसको धर्मबुद्धि मानते है कि मैंने यज्ञ किया ऐसे ही पुण्य लगा, तो भला जिसमें करोड़ों त्रस जीवों की उत्पत्ति हो ऐसे तिल का दान कहीं दान है । परस्पर में देते लेते हैं, मदद भी करते हैं यह बात उनके कर्त्तव्य में है, सभ्यता है और मानवीय कर्तव्य है, किंतु मोक्षमार्ग में ये दान कुछ सहायक हों सो बात नहीं । अनेक लोग गुड़ दान, तेल दान, चक्की, बुहारी मूसल, फावड़ा आदिक का दान करके धर्म मानते हैं । ये समस्त दान क्या हैं? इनके प्रसंग में महापाप की सामग्री मिलती है । आरंभ और मोह को ये उत्पन्न करते हैं, सो जिनके मिथ्याबुद्धि है वे पुरुष इसमें धर्म मानते हैं ।
पशुदान, कन्यादान में मुक्तिमार्ग साधकता की असंभवता―एक गोदान की भी बड़ी प्रसिद्धि है । सन्यासी को गौदान दिया, विप्र को गौदान दिया या श्राद्ध में गौदान दिया, प्रथम तो वह प्रयोज्य ही मिथ्या है और फिर गौदान दान नहीं है याने मोक्ष मार्ग का काम नहीं है । भले ही कोई परस्पर में आवश्यकता देखकर कोई किसी को कुछ दे-दे वह तो उसका गृहस्थी वाला कर्तव्य है, किंतु यह जानकर कि इससे मुझे मोक्ष मिलेगा, बैकुंठ मिलेगा, प्रभु खुश होंगे तो वह कुदान है । गोदान से तो वह उस गाय को बाँधेगा, उसे घास खिलायगा । उसमें कभी कीड़े वगैरह उत्पन्न हो जायेंगे मल-मूत्र में असंख्याते जीव उत्पन्न होंगे, सींग मारकर अनेकों जीवों को कष्ट भी पहुंचायगी आदिक अनेक आरंभ और हिंसा का घर है, ऐसा गौ का दान मोक्षमार्ग की दृष्टि से कुदान कहलाता है । उपयोगी जानकर, आवश्यक जानकर देना और बात है, पर इससे बैकुंठ मिलेगा, एक यज्ञ कहलायगा, ऐसा सोचकर दान करना यह कुदान है । लोक में एक कन्यादान को भी महत्त्व देते हैं । एक कन्यादान किया तो उसमें लाखों यज्ञों का फल मिल गया । जब गृहस्थ हैं और कन्या दिए बिना सर नहीं सकता वह तो गृहस्थी का काम है मगर उसे मोक्षमार्ग का अंग मान लेना, बैकुंठ मिलेगा, लाख यज्ञ जितना पुण्य मिलेगा इस बुद्धि से देने में कुदान की बात कही जा रही है । कन्यादान तो गृहस्थ को करना ही पड़ता है, अपनी कन्या विवाह योग्य हो तो उसे उत्तम कुल में देना ही चाहिए, मगर उस दान को यह मोक्षमार्ग है, धर्म है, ऐसी श्रद्धा तो न करना चाहिए । धर्म तो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है, आत्मस्वरूप का सही विश्वास हो, ज्ञान हो और उसमें ही रमण हो, यह भाव बने परिणति बने तो वहाँ धर्म है, बाकी जब गृहस्थी बसायी है और बच्चे हुए हैं तो उनका विवाह करना उसका कर्तव्य है अथवा करना ही पड़ेगा, ऐसा समझना चाहिए । उसे धर्म मानना और लाखों यज्ञ के बराबर पुण्य समझना यह ठीक नहीं है । उसने तो समझा कि चूँकि मैंने विषयों की प्रवृत्ति की है इसलिए ये सब दंड भोगने ही पड़ेंगे और इस स्थिति में इसे न करे तो वह कर्तव्यहीन कहलायगा ।
धातुवों के पशु आदि बनाकर दान करने की असंगतता―अनेक लोग स्वर्ण की गाय बनाकर दान करते हैं । मिठाई का पशु बना दें, चांदी का पशु बना दें और दान दे तो भला बतलावो जिसको देगा वह उसे खायगा ना? तो खाते कय यह सिर खाया, यह टांग खाया, ऐसा भाव भी बनायगा तो वह तो हिंसा का साधन बना । त्यागीजन तो चित्र वाली चटाई पर बैठते भी नहीं । किसी चटाई पर यदि हिरण की फोटो बनी है या किसी पक्षी की फोटो बनी है तो उस पर बैठना ही वर्जित है फिर जो किसी चीज का पशु बना दे और उस चीज को खायें तो उसने तो हिंसा का ही कारण बनाया । इस कारण ऐसा दान, दान नहीं, कुदान है । सोना चांदी का पशु बनाकर दान किया तो वह क्या सोना चांदी को धरे रहेगा? अरे वह तो उसे काटेगा, काटने के मायने हिंसा की, वे सब कुदान हैं । श्रावक के कुल में कुदान का रिवाज नहीं रहता ।
चतुर्विध दानों के अतिरिक्त श्राद्ध व बलि आदि में धर्मबुद्धि की असंगतता―अनेक श्राद्ध का दान कर ऐसी श्रद्धा बनाना, जैसा कि कुछ जन बताते हैं कि श्राद्ध करने से 21 पीढ़ी तिर जाती हैं, याने एक तो वर्तमान की पढ़ी और 10 आगे तथा 10 पीछे की । आत्मा की जहाँ श्रद्धा नहीं जो कुछ हों रहा है कर्मबंध, कर्मफल वह निमित्त नैमित्तिक योग में हो रहा है । जीव ने कषायभाव किया उसका निमित्त पाकर कर्मबंध होता, कर्म का उदय आया, उसका निमित्त पाकर सुख दुःख की अवस्था होती है, यह सब आटोमैटिक निमित्त नैमित्तिक योग में हो रहा है । इस झंझट से बचने का उपाय आत्मा का श्रद्धान, ज्ञान, आचरण है, अन्य-अन्य क्रियायें नहीं । भलो जो गुजर गया व न जाने किस भव में गया, किसी स्थिति में पड़ा है, तो उसके नाम पर चाहे यह कितना ही दान बोले, पर उसके परिणामों में तो फर्क नहीं आता । सो दान तो खुद अपने जीवन में करने की चीज है, किसी के मरे के बाद उसके नाम पर धन का दान कर दिया, मंदिर बनवाया, कुछ बनवाया, पर उसका फल उस मरने वाले को नहीं मिल सकता । तो ऐसे लोक में अनेक प्रकार के दान हैं, अनेक देवी देवताओं का नाम लेकर बकरे आदिक की हिंसा करना उसमें भी वे दान समझते हैं, धर्म समझते हैं, किंतु वह है महापाप का कारण । न उन्होंने देव का स्वरूप माना है, न अपना स्वरूप माना है, न धर्म का स्वरूप माना है ऐसी अनेक प्रकार की खोटी वृत्तियां होती हैं वे दान नहीं कहलाती, और कुदान भी नहीं कहलाती । सीधे हिंसा के कार्य, पाप के कार्य कहलाते है । ऐसी खोटी वृत्तियों में यह जीव असंख्यात काल व्यतीत करता है । ऐसा जानकर श्रावकजन कुदान कभी नहीं करते, कुपात्र दान नहीं करते । भले ही कोई कुपात्र भूखा है तो दयाबुद्धि से देगा, मगर यह गुरु है ऐसी धर्मबुद्धि से न देगा । ऐसे श्रावकजन न्यायोपार्जित आजीविका में से पात्र को आहारदान, औषधिदान और अभयदान देकर अपने जीवन को कृतार्थ समझते हैं ।