वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 112
From जैनकोष
व्यापत्तिव्यपनोद: पदयो: संवाहनं च गुणरागात् ।
वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योपि संयमिनां ।। 112 ।।
साधुवैयावृत्य में अन्य सेवायें―पूर्व श्लोक में आहार आदिक द्वारा वैयावृत्य करने की मुख्यता कही गई थी । मुख्य बात का वर्णन करने के बाद अब यहाँ इस छंद में कहा गया है कि अन्य प्रकार से भी वैयावृत्य करना चाहिए । जैसे कोई संयमीजनों पर आपत्ति आये उसे दूर करना, संयमीजनों के चरण दाबना, संयमीजनों के गुणों का अनुराग करना, उनकी सेवा के लिए कुछ समय बैठना आदिक भी वैयावृत्य सद्गृहस्थ के द्वारा की जाती है । किसी देव या मनुष्य या तिर्यंच या किसी अचेतन पदार्थ के कारण कोई उपसर्ग आया हो तो अपनी शक्ति प्रमाण उपसर्ग को दूर करता है वह श्रावक । चोर, भील, दुष्ट आदिक मार्ग में इन्हें कुछ तकलीफ पहुँचायें और परिणामों में किसी प्रकार का कष्ट रहे तो यह श्रावक उनको धैर्य धारण कराता है । मार्ग में खेद न हो सो पैर दाबना आदिक सेवा करता है । यत्नाचार से उनका आसन शैया शोधता है । यत्नाचार से उन्हें उठाता बैठाता है । रोगी हो तो सब यत्नाचार से उनकी सेवा करता है, मल मूत्रादिक कराता है, अगर किसी साधु से अबुद्धि पूर्वक मल मूत्रादिक किसी स्थान पर हो जाय जहाँ कि न किया जाना चाहिए, तो बड़े यत्न से उठाकर ढंग की जगह में क्षेपण करता है । रोगी हो तो औषधि आदिक से वैयावृत्ति करता है । जिस समय जो वस्तु देने योग्य है उससमय उस वस्तु को देता है । मतलब यह है कि साधु के अनुकूल प्रवृत्ति करना गृहस्थ का कर्तव्य होता है । साधु किसी गृहस्थ के बर्ताव के कारण दु:खी रहे तो उस गृहस्थ का जीवन किस काम का? जिसमें साधुजनों को निर्मलता आये, नि:शल्यता बढे, अपने उद्देश्य में उनको उत्साह जगे ऐसे साधन जुटायें यह किसी-किसी ही भाग्यवान श्रावक को प्राप्त होता है । ऐसे संयमी जनों के गुणों में अनुराग करके जितना भी उपकार बने, करना यह सब वैयावृत्य है ।