वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 121
From जैनकोष
हरितयिधाननिधाने ह्यनादरास्मरणमत्सत्वानि ।
वैयावृत्त्यस्यैते व्यतिक्रमा: पंच कथ्यंते ।। 121 ।।
वैयावृत्य शिक्षाव्रत के 5 अतिचार ये हैं―(1) हरित् विधान, (2) हरिनिधान, (3) अनादर, (4) अस्मरण और (5) मात्सर्य । इन अतिचारी का संबंध और आधार विषय व्रतीजन होते हैं । ये साधुजन होते है । वैयावृत्य में मुख्यता अतिथियों की है । श्रावक का यह रोज कर्त्तव्य है कि वह अतिथि को आहार आदिक देकर खुद आहार करे । कुछ प्रमाद हो गया, अशुद्ध भोजन बनाने की प्रथा चल गई । शुद्ध विधि से भोजन बनाने में लोग आलस्य करते हैं, पर इससे उनके परिणामों में गिरावट ही रहती है, उन्नति नहीं होती है । स्वयं भी शुद्ध भोजन करें और भोजन से पहले व्रती पात्र का स्मरण रखें तो उसके भावों में पवित्रता आती है । यहाँ पहला अतिचार बताया है हरित विधान । व्रतीजनों को देने योग्य जो आहार है, औषधि है उसे हरे पत्तों से ढक देना और हरित पत्तों से ढका हुआ आहार देना यह हरितविधान नामक अतिचार है । इस संबंध में यहँ जिज्ञासा होती है कि भोजन का हरे पत्तों से ढाकने में अतिथि सम्विभाग का अतिचार क्यों लगा? उसको यदि अतिचार लगे तो देने वाला पुरुष हरित से क्यों ढाकेगा, क्योंकि जो ज्ञानी विवेकी है वही तो आहारदान करता है । तो इस संबंध में कुछ संकेत ऐसे मिलते हैं कि जैसे मानो पहले जमाने में गरीबी बहुत थी और कभी किसी में लोभ आ गया या चीज अधिक न हो या विशिष्ट हो या न देना पड़े इस भाव से हरित चीज से उसे ढाक दिया तो इसमें तो दोष है, और वह अतिथिसम्विभाग का दोष है, क्योंकि अतिथि सेवा के विरुद्ध चाव किया और कदाचित कोई भूल से ही ढाक दे, न इस भाव से ढाका जाय कि यह खोटा ही भाव है, यों ही फूल से पत्तों से ढांक दिया और पीछे मालूम हुआ कि बड़ी गलती हुई है फिर भी और सामग्री थी नहीं, पात्र आ गए तो उसे दे देवे तो वह अतिचार है । पात्र को तो केवल पानी देवे तो वह उतने में ही तुष्ट है, अंतराय हो जाय तो उसमें भी संतुष्ट है । लाभ अलाभ दोनों में समान बुद्धि रहती है पात्र की । तो हरितपत्र से भोजन आदिक को ढांक देना यह वैयावृत्य का (1) पहला अतिचार हरितविधान है । (2) दूसरा अतिचार है हरितनिधान नामक अतिचार । इस अतिचार में भी हरितविधान की तरह दोनों प्रकार के दोष होते हैं । (3) तीसरा अतिचार है अनादर । पात्र आ गया, कुछ भाव भी है आहार देने का, कुछ लोकलाज भी है जिससे कि आहार की तैयारी की गई है फिर भी चित्त में अनादर रखना, ये आ गए, कब तक रहेंगे कितने हैं और कोई करते ही नहीं है । खुद को ही करना पड़ रहा है ऐसी किसी भी भावना को लेकर उसमें अनादर बुद्धि आये तो यह शिक्षाव्रत का अतिचार है । जो दोष श्रावक को न करने चाहिए, श्रावक इस रत्नत्रय का धुनिया है, उसकी स्थिति ऐसी है कि वह रत्नत्रय का पालन नहीं कर सकता । तो रत्नत्रयधारी गुरुजनों को देखकर उसके हर्ष होता है कि मैं इनकी सेवा में किस तरह आ जाऊं, कैसे काम आऊं? हर प्रकार से उनकी सेवा करके ही प्रसन्न रहते है । (4) वैयावृत्य का चौथा अतिचार है अस्मरण । कोई कार्य ऐसा लग जाय कि जिसमें पात्र को आहार देना भूल ही जाय । यह भूल कब होती है? जब पात्र के प्रति विशेष अनुराग नहीं है । तो कितने ही कार्य और आते है जिन में यह फंस जाता है, जिसमें अधिक प्रीति हो उसे कैसे कोई भूल सकता है? तो किसी अन्य कार्य में लग जाने से पात्र को आहार आदिक देना भूल जाना या भोजन आदिक थाल में लगाकर अन्य कार्यों में लग जाना या देने योग्य चीज को भूल जाना अथवा पड़गाहने की विधि भूल जाना अस्मरण नाम का अतिचार है । पांचवां अतिचार है मात्सर्य । अन्य दातारों में ईर्ष्या रखकर आहार आदिक-आदिक देना मात्सर्य अतिचार है । इससे अधिक बार मेरे घर आहार हो अथवा इसके यहाँ आहार न हो । मेरे यहाँ ही हो जाय आदिक किसी भी प्रकार का मात्सर्य रखकर आहार आदिक की विधि जोड़ना यह मात्सर्य नाम का अतिचार है । ऐसे वैयावृत्ति के अतिथि सम्विभाग के दान के ये 5 दोष हैं, इनको टाल करके बड़े विनयपूर्वक शुद्ध विधि से दान करना चाहिए ।
इस रत्नकरंड ग्रंथ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का वर्णन किया है । इसको बोलते हैं रत्नत्रय । और इन रत्नों का यह पिटारा है इस कारण इस ग्रंथ का नाम है रत्नकरंड । इसमें मुनिव्रत का संक्षेप में संकेत करके मुख्यतया श्रावकों के उपकार के लिए श्रावकों के व्रत और कर्तव्यों का वर्णन किया गया है । श्रावकजन यदि अपने सही कर्तव्य पर चले तो उनका यह मानवजीवन पाना सफल है । और यदि वे अपने कर्तव्य से चिग जाय और लौकिक कार्यों को ही महत्त्व दें तो फिर उनका जीवन क्या जीवन है । जैसे अनादि काल से अनंत भव पाये वैसे ही यह जीवन भी गुजर जायगा और संसार की परंपरा बनी रहेगी । इससे बड़ी भावना सहित अपने आप से और अपने में संकल्प बनाइये कि मुझे समस्त जगत को और अपने आत्मस्वरूप को भली प्रकार समझ करके ही रहना है । और स्वरूप समझकर पवित्र रहने के लिए संसार के समस्त संकट मिटाने के लिए जो करने योग्य कृत्य हैं उनको करेंगे ही । इस धुन में चाहे लौकिक कामों में थोड़ा हानि हो अथवा लौकिकजनों में, मायावी पुरुषों में कुछ नामवरी की बात न चल सके, जो भी अन्य हानियाँ हो, उपद्रव हों वे सब सहन करने योग्य हैं । परंतु अपने आपके रत्नत्रयरूप धर्म से चिगना कभी भी योग्य नहीं है । रत्नत्रय में प्रथम प्रकार है सम्यग्दर्शन । भला दर्शन मायने श्रद्धान मायने श्रद्धान । जैसा वस्तु का स्वरूप है वैसा ही विश्वास बनाना सम्यग्दर्शन है । आत्मा का जो सहज यथार्थ स्वरूप है ज्ञानमात्र सबसे निराला अमूर्त, उस रूप में अपने आपकी श्रद्धा बनाने से संसार का सारा बोझ हट जाता है । लोगों ने कर्तव्य की कल्पना में अपने ऊपर बड़ा बोझ लाद रखा है । मेरे को यह काम करने को पड़ा है, मैं ऐसा करुंगा, इस ही ख्याल में अपने पर बड़ा बोझ लाद रखा हैं । भले ही जब गृहस्थी में है, तब करना पड़ता है किंतु यह करना ही है मुझे, इसी में ही मेरा बड़प्पन है, इसी से ही मेरी रक्षा है इससे ही मेरा जीवन है, ऐसा जो भीतर में अभिप्राय है वह अभिप्राय खोटा है । मैं स्वयं सत् हूँ । जो सत् है वह कभी नष्ट नहीं हुआ करता, मेरा कभी विनाश है ही नहीं । आज इस ढंग में हूँ कल किसी और ढंग में होऊंगा, पर जो सत् है उसका कभी विनाश नहीं होता । तो दु:खी होने में दो बातें सामने हुआ करती है । एक तो अपने बारे में यह ख्याल रखना कि मैं मिट जाऊंगा, मर जाऊंगा मेरा विनाश हो जायगा, दूसरे बाह्य पदार्थों के संग्रह की बुद्धि बनती है । मेरे इतना धन हो जाय, कहीं यह न मिट जाय, कहीं इष्ट का वियोग न हो जाय इसमें चित्त रहता है, पर दोनों बातों के संबंध में कुछ यथार्थता तो देखिये―जो मैं हूँ वह क्या मिट जाऊंगा? जो मैं हूँ वह कभी नष्ट नहीं होता । कैसे नष्ट होगा? जो सत् है उसका अभाव कैसे बनेगा? और मान लो थोड़े समय को कि मैं मिट जाऊंगा, मगर ऐसा हो सकता तो इसमें खुशी मानना चाहिए । मैं मिट जाऊंगा, कुछ भी न रहूंगा, मेरी सत्ता ही न रहेगी, तो फिर सारे झगड़े तो खतम हो गए, पर ऐसा होता ही नहीं है । जगत में जो है वह कभी मिटता नहीं, पर्यायें बदलती हैं, आज मनुष्य पर्याय में है, कल दूसरी पर्याय में पहुंचेंगे, पर विनाश नहीं होता, तब फिर मरण की या विनाश की क्यों कल्पना करना? दूसरी बात यह है कि यह कल्पना बनी रहती है कि इन बाह्य पदार्थों को अपना लूँ, इनका यह काम कर डालूँ, देखो यह काम पड़ा है, ऐसी ही भावना बनी रहे तो उसमें बोझ आता है, पर यथार्थता तो देखिये कि यह मैं अमूर्त ज्ञानमात्र आत्मा सिवाय भावों का परिणमन करने के और कर ही क्या सकता हूं? यह अपने भावों का ही परिणमन कर रहा है, इसके अतिरिक्त इसका और कुछ नहीं है । फिर मुझे बाहर में करने को क्या पड़ा? कुछ भी बाह्य पदार्थ किसी रूप परिणमें । उसमें मेरा क्या सुधार है और क्या बिगाड़ है? बाह्य पदार्थ बाह्य की जगह है । मैं आत्मा अपने आत्मप्रदेशों में हूँ । मेरे को सुख दुःख किसी बाहरी पदार्थ से नहीं आता, आ ही नहीं सकता । किंतु मैं स्वयं में कल्पनायें गढ़ता रहता हूँ । बाह्य पदार्थों के विषय में अपने आपकी कल्पना से अपनी बरबादी समझकर किसी में अपने अनर्थ की संभावना समझकर यह स्वयं दुःखी होता है । इसको दुःखी करने वाला जगत में कौन है दूसरा? यथार्थ तत्त्व का श्रद्धान हो तो इसमें श्रावकों की शोभा और मूलत: कल्याण है । आज नगरों में सहस्त्रों की संख्या में जैन शासन के मानने वाले पाये जाते हैं, अनुयायी तो नहीं हैं पर मानने वाले है । जैन शासन के अनुयायी तो वे कहलाते हैं जो उस शासन की आज्ञा के अनुसार अपने कर्तव्य बनायें, उसके अनुसार चलें । तो अनुयायी तो नहीं हैं पर हां कल्पना करते है कि मैं मानता हूँ जैन शासन को । तो उन सहस्रों की संख्या में कोई बिरला ही एक आध मिले तो मिले नहीं तो प्राय: बाहरी-बाहरी बातों में ही सब खुश हैं ।
और जो वास्तविक धर्म है, जिससे कि आत्मा का कल्याण है, इस भव में भी आनंद है, अगले भव में भी आनंद है । कर्मों से मुक्त होकर सदा के लिए संकटहीन बनें, ऐसे धर्म की और तत्त्वज्ञान की प्रतीति में कितनों का आदर है । किन को भीतर में आस्था है? सो भले ही अनेकों की संख्या में लोग धर्म का एक बनावटी रूप धरकर अपने को धर्मात्मा मानें, मनायें, तो यह उनकी बात है, पर जिसको आत्मकल्याण की भावना जगी हो वह तो सीधा सच्चा मौलिक कार्य करने के लिए तैयार हो जाय । वह तैयारी है सर्वप्रथम ज्ञान का सीखना । इससे पहले कुछ धर्म का सवाल ही नहीं । तो सबसे पहला कदम है ज्ञान का सीखना जिससे जैन शासन के अनुयायी बनें । ज्ञान वही सीख सकता है जिसको ज्ञान के प्रति आस्था हो जन ही मेरा उद्धार करेगा । ज्ञान ही मेरे लिए अमूल्य वैभव है, ज्ञान से ही संसार संकट समाप्त होता है । ज्ञान ही मेरा सर्वस्व है । इस ज्ञान के लिए जो इतना तड़फे आदर करे, इसके लिए ही तन, मन, धन, वचन, प्राण सर्वस्व भी समर्पित करना चाहे ऐसी भीतर में जिसे उमंग जगी हो वही पुरुष ज्ञानसंपादन कर सकता है । मैं केवलज्ञान का बीज बनूँ । अपने में कुछ तो निर्णय रखिये कि आपको क्या बनना है आगे । संसार के धनी मानी व्यक्ति बनना है क्या या संसार के सर्वसंकटों से छूटकर केवल आत्मा ज्ञातादृष्टा मात्र रहना है? यदि यह निर्णय हो कि मुझे तो धनी और मान्य बनना है तो समझलो कि इस उत्तम जैन शासन को पाकर मांग लिया घास और भुस, और मान्य बनने से उन्हें मिल क्या जायगा? यदि कोई कहे कि यहाँ के लोग मेरी प्रशंसा करेंगे तो भला बतलावो वे प्रशंसा करने वाले लोग कोई भगवान हैं क्या, या संत लोग है या मेरे जीवन के ठेकेदार है? ये जगत में दिखने वाले लोग अधिकांश तो अज्ञानी, अविवेकी, असभ्य जन हैं । विरले ही विवेकीजन हैं । उन्ही का यह समुदाय है । तो इस समुदाय से कभी दो बातें सुन ली प्रशंसा की तो उससे आत्मा का क्या भला हो गया? वे सब बातें असार है । जितना यह दृश्यमान समागम है यह मायारूप है । यहाँ किसी से क्या चाहना? परमदातार भगवान आत्मा से तो प्रार्थना कर लो, उत्तम से उत्तम वस्तु मिलेगी । बाहर में किसी अन्य से कुछ भी न मिलेगा । तो वस्तु का जैसा स्वरूप है वैसा श्रद्धान करना यह है पहली सीढ़ी । फिर वैसा ही ज्ञान बने, और फिर निर्णय पर डटे ही रहने के लिए स्वाध्याय करना यह है सम्यग्ज्ञान का कर्त्तव्य और जैसा हमने स्वरूप समझा उस रूप में अपने को अनुभवने के लिए इन बाहरी बाधावों को दूर करना है । भोगोपभोग परिग्रह इन साधनों को दूर रखना यह व्यवहार सम्यक्चारित्र, और जैसा अपने आपका स्वरूप जाना उसमें ही उपयोग को मग्न रखना यह है निश्चय सम्यक्चारित्र । यदि श्रावकजन सर्वदेश चारित्र नहीं पाल सकते हैं तो उनको बारह व्रतों का उपदेश किया है । अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाणाणुव्रत इन 5 व्रतों का पालन करें और इन व्रतों की वृद्धि के लिए तथा इससे आगे मुनिव्रत के अभ्यास के लिए, शिक्षा के लिए तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का पालन करें । इस प्रकार जो बारह व्रतों का स्वरूप बताया है उसके अनुसार अपने जीवन को बनाना, सो उसी के लिए बताया गया हैं कि श्रावक व्रतों का पालन करके यह जीव 16वें स्वर्ग में उत्पन्न होता है । यद्यपि आजकल इतना ऊंचा संहनन नहीं है कि 16वें स्वर्ग में कोई उत्पन्न हो ले पर 8वें स्वर्ग तक उत्पन्न होने का संहनन आजकल भी है । वह है छठा संहनन । इस संहनन के देह में रहता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की जो आराधना करेगा उसका अवश्य ही कल्याण होगा ।
।। इति रत्नकरंड प्रवचन द्वितीय भाग समाप्त ।।