वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 120
From जैनकोष
अर्हच्चरणसपर्यामहानुभावं महात्मनामवदत् ।
मेक: प्रमोदमत्त: कुसुमेनैकेन राजगृहे ।। 120 ।।
विपुलाचल पर्वतपर समवशरण में विराजे श्री महावीर भगवान के दर्शनार्थ राजा श्रेणिक का प्रयाण―राजगृह नाम के नगर में मस्त मेंढक ने अरहंत भगवान की पूजा का प्रभाव दिखा दिया । यह कथानक महावीर भगवान के समय का है । जब महावीर प्रभु विपुलाचल पर्वतपर समवशरण में विराजे थे वहाँ बनमाली 6 ऋतुवों के फल फूलों को फला फूला देखकर आश्चर्यान्वित होकर बड़ी खुशी के साथ उन फल फूलों को लेकर राजा के पास पहुंचा और भेंट देकर बोला―महाराज अपनी नगरी का बड़ा सौभाग्य है जो महावीर भगवान समवशरण में विराजे हैं, राजा ने वहीं प्रभु को नमस्कार किया, माली को खूब इनाम दिया और प्रसन्न चित्त होकर अपनी मित्रमंडली सहित वह चला । राजा श्रेणिक एक हस्ती पर बैठा था, और-और भी लोग अपने वाहनों पर थे, अनेक लोग पैरों चल रहे थे ।
प्रभुभक्ति प्रमोदमत्त मेंढक का देव होना―रास्ते में क्या हुआ कि एक मेंढक अपने मुख में कमल की पांखुरी लिए हुए बड़ी खुशी के साथ उचक-उचककर उस समवशरण में जाना चाह रहा था, वह भी आगे जा रहा था । अचानक ही राजा श्रेणिक के हाथी का पैर पड़ा और उस मेढक का मरण हो गया, पर प्रभुपूजा के भाव में मरा वह । मेढक सैनी पंचेंद्रिय होता है और सम्यक्त्व उत्पन्न भी कर सकता है। वह मेंढक मरकर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ, देव बना, वहाँ अंतर्मुहूर्त में ही जवान हो जाया करते है । अवधिज्ञान से उस देव ने विचारा कि यह प्रभुपूजा के भाव का फल है और वह तुरंत ही महावीर भगवान के समवशरण में पहुंचा और अपना निशान मुकुट में बनाया मेंढक का क्योंकि पूर्व पर्याय मेंढक की थी और वहाँ ही प्रभुपूजा के भाव हुए और देवगति प्राप्त की । वहाँ राजा श्रेणिक पहुंच भी न पाये और वह देव पहुंच गया करीब-करीब साथ ही । तो वहाँ राजा श्रेणिक ने गौतम गणधर से प्रश्न किया कि प्रभु यह जो इतनी कांति वाला देव अपने मुकुट में मेंढक का चिह्न बनाये हैं यह कौन है? तो वहाँ यह कथानक बताया है कि यह पहले मेंढक का जीव था और तुम्हारे हाथी के पैरों के नीचे दबकर जिनपूजा के भावों के कारण यह देव हुआ और यह अंतर्मुहूर्त में ही जवान होकर आज साक्षात् प्रभुपूजा के लिए आया है ।
प्रभुगुणस्मरण व आत्मगुणभावना का पवित्र कर्तव्य―देखिये यहाँ पर यह विचार करें कि इस जगत में किसका शरण ग्रहण करना, कौन इस जीव को सुखदायी हो सकता है? जितने भी बाह्य पदार्थ हैं उनका जो आश्रय तकता है, आलंबन लेता है सो प्रथम तो बाह्य पदार्थों पर दृष्टि रखी इस कारण उसे विह्वलता होगी । अपने आनंदधाम चैतन्यस्वरूप से वह उपयोग निकलकर बाहर तो पहुंचा, फिर वे पदार्थ विनश्वर हैं, उनका संयोग वियोग चल रहा है । उस बीच यह जीव बड़ा दुःखी रहता है । तो बाहर में कुछ भी शरण नहीं है जिसका कि आलंबन लिया जाय । यद्यपि प्रभु भी जीवं पदार्थ हैं लेकिन वे मेरे स्वरूप के ही समान हैं और उनके गुणों के स्मरण से स्वरूप की ही सुध होती है, इस कारण व्यवहार में प्रभु का शरण लेना बताया है और निश्चय से अपने आत्मा के आनंदधाम चैतन्यस्वरूप का शरण लेना बताया है । हम सबका कर्तव्य है कि प्रभु गुणस्मरण व आत्म गुणभावना में अधिकाधिक समय लगावें जिससे मोक्षमार्ग में अग्रगामिता बनें ।
श्रावक के 12 व्रतों में यह अंतिम व्रत है वैयावृत्य । इनमें प्रधानता है अतिथि सम्विभाग की । जो निर्ग्रंथ दिगंबर त्यागीजन हैं उनकी सेवा करना, उनकी आहार औषधि आदिक से वैयावृत्य करना यह अतीव आवश्यक कार्य है श्रावकों का । जिन्होंने घर धन परिग्रह आरंभ त्याग दिया है, जो निरंतर आत्मध्यान की धुन में रहते हैं, जिनके लिए जगत के सर्व जीव एक समान हैं उन पवित्र आत्मावों की वैयावृत्य करना किसी सौभाग्यशाली श्रावक को ही प्राप्त होता है । उस अतिथि सम्विभाग के वर्णन के पश्चात् श्रावकों के कर्तव्य में जिनेंद्रदेव का प्रकरण चल रहा है, जिनमंदिर की रक्षा करना, टहल करना, बोहारना, उनकी बिछायत करना, गानतान, नृत्यवादित्र आदिक संगीत से भजन में समय बिताना, अरहंत के गुणगान करना ये सब जिनपूजा के अंग ही समझिये । पहले समय में श्रावकजन प्रात: मंदिर में आकर स्वयं बोहारी देते थे तो देखभालकर, जिसमें जीवरक्षा रहती थी, यह काम बड़ी उमंग से एक अपना कर्तव्य जानकर करते थे । तो बोहारी से लेकर जिनमंदिर की समस्त टहल तक जिनमंदिर की सम्हाल रखना श्रावक का कर्तव्य है । धन पाया, शरीर पाया, इंद्रियां सही मिलीं, बल पाया, ज्ञान पाया, इन सबकी सफलता धर्मकर्तव्य में है और धर्मकर्तव्य का स्थान जिनमंदिर है । यहाँ ही प्रवचन सुनते हैं, स्वाध्याय करते हैं, व्रत उपवास किया हो तो जिनमंदिर में ही विशेष समय बिताते हैं, तो इन समस्त धर्मकर्तव्यों का सहारा जिनमंदिर से ही तो मिल रहा । जो जिनदेव का ध्यान रखते, गुण स्मरण करते अपने स्वरूप की सुध लेते, वे अपना जीवन सफल कर रहे हैं । धार्मिक कर्तव्य छोड़कर आजीविका या पालन-पोषण कुटुंब की ममता या लोगों में पैठ, अपनी इज्जत बढ़ाना आदिक जितने भी कार्य हैं वे सब फिजूल के कार्य समझिये । जिन्हें धर्म से प्रीति नहीं आत्मा की सुध नहीं उन्हें मोक्षमार्ग न मिलेगा । यह तो आनुसंगिक कार्य है । मुख्य कार्य तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और यथाशक्ति सम्यक्चारित्र का धारण करना है । इन धार्मिक कर्तव्यों में रहते हुए फिर कुछ समय लोगों की सुधबुध उनका इंतजाम व्यवस्था आदि करने में लगे, तो मुख्य कार्य तो मनुष्य का आत्मधर्म का पालन करना है । तो धार्मिक कर्तव्यों में मुख्य स्थान जिनमंदिर जानकर इनका निर्माण, इनकी टहल, इनकी सेवा आदि कभी धार्मिक कर्तव्य है । अब वैयावृत्य नामक शिक्षा व्रत का वर्णन करके वैयावृत्य के 5 अतिचार बतलाते हैं, जिन्हें श्रावकों का न करना चाहिए ।