वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 62
From जैनकोष
अतिवाहना, तिसङ् ग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि ।
परिमितपरिग्रहस्य च, विक्षेपा: पंच लक्ष्यंते ।। 62 ।।
परिग्रहपरिमाणव्रत के पांच अतिचार―जिस श्रावक ने परिग्रह का परिमाण किया है वह श्रावक इन अतिचारी से दूर रहता है । (1) पहला अतिचार है अतिवाहन । लोभ के वश होकर गाड़ी बैल आदिक तिर्यंचों को अथवा अपने सेवकों को बहुत दूर तक मंजिल कराना, बोझा ढोना यह अतिवाहन अतिचार है । जो परिग्रहों का परिमाण करके स्वयं संतुष्ट रहना चाहते हैं उनको अन्य जीवों पर भी कुछ ध्यान देना चाहिए कि उनपर अधिक बोझा न लाद दें । न उनको अधिक दूर तक चलायें । जिसमें जितनी सामर्थ्य है उससे उतना ही काम लेना, उससे अधिक काम न लेना । अगर लेते हैं काम अधिक, बोझा लादते है अधिक, तो उसके परिग्रह परिमाण में भी अतिचार आता है । यह बात यद्यपि अहिंसाणुव्रत के अतिचार में तो थी ही किंतु परिग्रह परिमाण में भी यहाँ दोष आता है । परिग्रह परिमाण जैसा किया वैसा ही परिमाण वह तो अंतर्निहित है कि दूसरे से अधिक कार्य न लेना, अधिक बोझा न लादना । (2) दूसरा दोष है अति संग्रह । परिमाण तो किया है उसका भंग नहीं कर रहा, पर बिना प्रयोजन अनेक चीजों का संग्रह करते रहना यह परिग्रह परिमाण का दोष है । जैसे अनेक टूटे ताले पड़े हैं, पुराने टूटे पाटिया पड़े है, टूटे-फूटे कनस्तर पड़े हैं उन सबका संग्रह करते जा रहे, या कोई चीज खूब सस्ती देख लिया तो उसे खरीदकर भर लिया, यह भी दोष है, क्योंकि यह अनावश्यक संग्रह किया जा रहा है । ऐसा जो अनावश्यक संग्रह करता है वह पीछे उल्झन में आता कि क्या करें, ये फेंके भी नहीं जाते, रखे भी नहीं जाते । (3) तीसरा अतिचार है विस्मय या जिन बड़ी वस्तुवों को कभी देखा नहीं है उनको देखकर या सुनकर आश्चर्य करना यह परिग्रहपरिमाण का दोष है । अरे क्या आश्चर्य करना, पुद्गल है, स्कंध है, कैसा ही आ गया, कैसा ही पड़ा है उसमें क्या आश्चर्य करना? अगर आश्चर्य करते हैं तो उसमें दोष है । किसी का बड़ा ऐश्वर्य देखकर, वैभव देखकर अथवा बड़े ऊँचे-ऊँचे पद देखकर उनका आश्चर्य करना यह भी दोष है । (4) चौथा अतिचार है परिमितपरिग्रह―परिग्रह परिमाण का भंग तो नहीं कर रहा पर रोज के कामों में या धर्म के कामों में लोभ कर रहा तो यह दोष है । (5) पांचवां दोष है अतिभारवाहन । शक्ति से अधिक बोझा लाद देना इससे भी पशुवों को बड़ा कष्ट होता है । अथवा बहुत बोझा लादा तो परिमाण का जो उद्देश्य था उस उद्देश्य में कोई कलंक लगा । इस प्रकार इन 5 अतिचारों से रहित परिग्रह परिमाण का पालन करना है ।
अपरिग्रहत्वसाधना की पांच भावनायें―परिग्रह परिमाण व्रत को पुष्ट करने के लिए अपरिग्रहत्व की 5 भावनायें होती है । वे ये हैं कि यदि कोई स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण का विषय है सुहावना है तो उसमें राग न करना । इस इष्ट विषय में राग करने के आधार पर ही तो परिग्रह का परिमाण खंडित होता है । तो इष्ट विषय में राग न करना चाहिए । यह बात तभी भली प्रकार निभेगी जिसने अपने निसंग चैतन्यस्वभाव को माना कि यह मैं हूँ, और उसका काम इस चैतन्य स्वभाव की वृत्ति का पाते रहना है । उसका भोग चैतन्य स्वभाव के बर्तने से जो स्थिति बनती है उसका अनुभव करना है । इसके अतिरिक्त बाहर कहीं भी न मेरा स्वरूप है, न मेरी क्रिया है, न मेरा भोग है । इस प्रकार का जिनके स्पष्ट प्रकाश है वे ही पुरुष परिग्रह परिमाण को निर्दोष निभा पाते हैं । तो 5 इंद्रिय के इष्ट विषयों में राग न करना । राग न करने की भावना रखना, यह भावना है । और इसी प्रकार 5 इंद्रिय के विषय यदि अनिष्ट मिल जायें, अपने को रुचे नहीं, तो उनको देखकर, उनको पाकर द्वेष न करना, द्वेष न उत्पन्न हो ऐसी भावना रखना, ऐसी 5 भावनाओं को जो रखता है उसके परिग्रह का परिमाण निभता है, क्योंकि यदि विषयों में राग बढ़ाया, द्वेष बढ़ाया तो वही बढ़कर, फूटकर परिग्रह के परिमाण को खंडित कर देगा । इससे अपने आत्मा को समझाना होगा । और इष्ट अनिष्ट विषयों में रागद्वेष न हो ऐसा अपने अंदर भाव बनाना होगा । यों इन भावनाओं के प्रसाद से परिग्रह का परिहार भली प्रकार निभता है । इस तरह गृहस्थ के 5 अणुव्रत कहा है । इन अणुव्रतों का जो पालन करते है वे सद्गति को प्राप्त करते हैं उत्तम समागम पाते हैं, इसका वर्णन करते है ।