वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 63
From जैनकोष
पंचाणुव्रतनिधयो, निरतिक्रमाणा: फलंति सुरलोकम् ।
यत्रावधिरष्टगुणा, दिव्यशरीरं च लभ्यंते ।। 63 ।।
अणुव्रती श्रावक को दिव्य शरीर का लाभ―गृहस्थ की निधि 5 अणुव्रत हैं, गृहस्थ का धन और क्या है? सदाचार । जिसका सदाचार गया उसका सब गया, जिसका धन गया उसका कुछ नहीं गया, अब भी भले प्रकार रह सकेंगे । गुजारा तो बन ही जायगा । जिसका यश गया समझो उसका कुछ नहीं गया यश भी व्यर्थ की चीज है । मायावी लोगों के द्वारा गायी हुई बात है, उसका कुछ नहीं गया, पर जिसका चारित्र गया, जो अपने श्रद्धान और चारित्र से भ्रष्ट हो गया उसका सब कुछ गया । तो अपना सदाचार रहना, निरतिचार सदाचार बनना बहुत बड़ी भारी निधि है । सो जिनके 5 अणुव्रत खजाना है, निरतिचार उनका पालन है, ऐसे पुरुष सुरलोक को प्राप्त होते हैं, यह पुण्य का फल है । अब पुण्य के फल में डिगे नहीं, यह उस समय का पुरुषार्थ है, मगर पुण्य प्रकृति जब बंधी है तो उसके उदय काल में यह बात सब स्वयं सहज होती है । मनुष्य भी तो केवल अपने भाव सुधारता है और उसे कुछ ख्याल आया करता है, आगे जो कुछ होगा सही उचित वह स्वयं हो जायगा वैसे समागम मिलेंगे, पर बहुत बड़ी कमाई तो यह है कि अपने भाव न बिगड़ने पायें । सब जीवों के सुखी रहने की भावना करें । किसी भी जीव के प्रति द्वेष की बुद्धि न रखें । कदाचित कोई दुश्मनी भी रख रहा हो तो उसके कल्याण की ही भावना रखना । कोई अपने पर उपद्रव भी कर रहा हो तो भी भीतर में उसके हित और कल्याण की ही भावना रखना । जो निर्मल भाव रखेगा उसका भविष्य अच्छा रहेगा । जो थोड़े से लोभ के वश होकर अपने भाव बिगाड़कर जीवन चलायगा तो उसका भविष्य अंधेरे में है । जो श्रावक निरतिचार 5 अणुव्रत का पालन करता है वह स्वर्ग लोक में उत्पन्न होता है और उसके अष्ट ऋद्धियां उत्पन्न होती हैं ।
देवों के शरीर का प्राकृतिक अतिशय―तप से उत्पन्न होने वाली ऋद्धियां देवों के नहीं हैं, किंतु वह सब देवों का एक स्वाभाविक गुण है । जिसको जैसा देह मिला है उस देह के माफिक गुण उसमें प्रकट हो जाते हैं । यहाँ भी तो देख लो बंदर लोग कहीं से कहीं चढ़ जाते हैं, उनके हाथ पैर इसी ढंग के होते कि मानों चारों के चारों उनके हाथ हैं । जैसे आगे के हाथों में लोच होती वैसे ही पीछे के पैरों में भी लोच होती । तो शरीर के भेद से अनेक भेद हैं, यह भी यहाँ देखा जा रहा है । स्वर्ग में जो देह मिलता है वह वैक्रियक देह है उस देह में हाड़, मांस, खून आदि नहीं होते । और पौद्गलिक देह । जैसे यहाँ ही कोई डन्लप की मूर्ति बना दी जाय अंदाज में वैसा समझलो पता नहीं किस ढंग का होता होगा । वे अपने शरीर को दिखाना चाहें तो दिखा दें, न दिखाना चाहें तो अदृश्य हो जायें । ये अनेक गुण उस भव में प्रकृत्या ही प्राप्त हैं उनको भूख प्यास की वेदना नहीं होती कभी हजारों वर्षों में भूख लगे तो उनके कंठ से अमृत झड़ जाता है । उनको कमाने की आवश्यकता नहीं होती । उनका सारा जीवन खाली पड़ा है तो अब क्या करें? या तो भोगों में रमेंगे या धर्म में । जो विवेकी देव होते हैं वे तो अपना सारा समय धर्म के कार्यों में व्यतीत करते हैं और जो अविवेकी देव होते हैं विषयभोगों में या कुछ धर्मकार्यों में भी भाग लेकर अपना समय बिताते हैं । वे अविवेकी देव भोगों में अधिक लगते हैं क्योंकि उनको भोग साधनों की कमी नहीं रहती । तो ऐसा जहाँ दिव्य भव प्राप्त होता है कि वह सब पुण्य का प्रताप है और सद्गृहस्थ के जो अणुव्रत हैं उन अणुव्रतों का श्रद्धान करने में, उनका पालन करने में जो भावशुद्धि बनती है उससे जो पुण्यरस बढ़ता है उसका प्रताप है कि उनके अब अनेक सागरों पर्यंत अनगिनते वर्षों पर्यंत ऐसे आराम में गुजरेंगे, अब वहाँ का काम वहाँ करेंगे । ऐसी स्थिति पा लेने पर यदि धर्म कार्यों में समय न दो तो उनका भव भी बेकार बन जायगा । जैसे यहाँ जिनको धन संपदा मिली है सो पूर्वकृत पुण्य के उदय से मिली है । अब मिलने के बाद एक बड़ी जिम्मेदारी यहाँ आ गई । यदि वह दूसरों पर अन्याय करता है, अत्याचार करता है तो वह दुर्गति में जायगा और पायी हुई सुविधा साधन का यदि वह सदुपयोग करता है, परोपकार दया दान आदि धर्म कार्यों में यदि चित्त देता है तो यह भली गति पायगा । तो अब यह जिम्मेदारी नई इसके पास है आया है धन वैभव, मगर पूर्व में जो पुण्य कार्य किया था उसके प्रसाद से धन संपदा को इष्ट समागमों को आना ही पड़ता है । सो जो पुरुष निरतिचार पंच अणुव्रत का पालन करते हैं वे सद्गति को प्राप्त होते हैं और सुख साधनों में रहकर धर्मसाधना कर मोक्षमार्ग में बढ़ते हैं । इससे गृहस्थ के अष्ट मूल गुणों में भी 5 अणुव्रत कहा और व्रत प्रतिमा में भी अणुव्रत कहा । इससे सिद्ध है कि साधारणतया पंच अणुव्रतों का निर्वाह तो प्रत्येक श्रावक का होना ही चाहिए।