वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 70
From जैनकोष
अवधेर्वहिरणुपापप्रतिविरतेर्दिग्व्रतानि धारयतां ।
पंचमहाव्रतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यंते ।। 70 ।।
दिग्व्रत के पालक सद्गृहस्थ के सीमाबाह्यक्षेत्र के लिए महाव्रतत्त्व की कल्पना―दिग्व्रत धारण करने से याने मर्यादा चारों ओर की बनाकर उसके भीतर ही अपना संकल्प बनाये रहने से चूँकि बाहर में इसका कोई संकल्प न रहा, व्यवहार न रहा, आना जाना न रहा तो ऐसे दिग्व्रत को धारण करने वाले पुरुषों के यह अणुव्रत वहाँ के लिए महाव्रत को प्राप्त हो जाता है । अर्थात् सर्व प्रकार की हिंसा का त्याग हो गया इस क्षेत्र से बाहर के क्षेत्र में । और इस प्रकार असत्य झूठ आदिक सभी पापों का पूर्णरूप से त्याग है उस क्षेत्र में तो ऐसा दिग्व्रत धारण करने वाले पुरुष के यह अणुव्रत चूँकि बाहर अणुमात्र भी पाप नहीं है इसलिए महाव्रतपने को प्राप्त होता है । यद्यपि बाहर न आना जाना यह दिग्व्रत ही कहलायगा अणुव्रत का ही पूरक कहलायगा मगर उस क्षेत्र के लिए तो यह महाव्रत जैसी परिणति बनती है । ऐसी बात सुनकर यह जिज्ञासा हो सकती है कि बाहरी क्षेत्र में महाव्रत की परिणति कर रहे सो दबकर क्यों कह रहे, बाहर के क्षेत्रों में तो वह महान् व्रती है ऐसा क्यों नहीं कहते? उसके उत्तर में कहते हैं कि―