वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 69
From जैनकोष
मकराकरसरिदटवी-गिरिजनपदयोजनानि मर्यादा: ।
प्राहुर्दिशां दशानां, प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि ।। 69 ।।
दिग्व्रत में आजीवन गमनागमनादि की सीमा लेने की विधि के कुछ उदाहरण―दसों दिशाओं की मर्यादा करने के लिए जो प्रसिद्ध चीज हो दूर पर उसका नाम लेकर मर्यादा बनती है, जैसे मैं अमुक समुद्र से बाहर न जाऊंगा, या समुद्र की इस सीमा का न उल्लंघन करुंगा, इस प्रकार की एक प्रतिज्ञा बनती है । दूसरे यदि कोई ऐसी सीमा करने लायक चीज न हो जिसका नाम ले सके तो वह योजन कोश दूर की मर्यादा लेकर भी कर सकता कि मैं हजार योजन से बाहर न जाऊँगा । ऐसी मर्यादा किए हुए क्षेत्र से बाहर गमनागमन न करुंगा । समुद्र आदिक लोक में विख्यात हैं इस कारण उनका नाम लेकर प्राय: दिशावों की मर्यादा किया है । दिशायें कोई वस्तु नहीं होतीं । पर हमारी कल्पना में है ना यह बात कि पूरब यह है, पश्चिम यह है, उत्तर यह है और दक्षिण यह है । जिधर सूर्य निकलता उधर मुख करके खड़े हों तो पूरब की और मुख है । पीठ पीछे पश्चिम है, दाहिने हाथ की ओर दक्षिण है और बायें हाथ की ओर उत्तर है । जैसे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल पदार्थ हैं ऐसा कोई दिशा पदार्थ नहीं होता । अन्य दार्शनिकों ने तो दिशा को पदार्थ माना है पर उस ओर के जो आकाश प्रदेश है उन्हीं में हम दिशावों की कल्पना करते हैं । सो उस आधार पर यह बात तो आ गई कि पूरब में यहाँ तक जाना, पश्चिम में यहाँ तक जाना, उत्तर में यहाँ तक जाना और दक्षिण में यहाँ तक जाना, और इतना ही नहीं, ऊपर नीचे के क्षेत्रों में भी मर्यादा चलती है । पर्वत पर कितना ऊपर चढ़ना, नीचे कहां तक जाना, जैसे कुवां बावड़ी आदि किसी जगह उतरे बाहर में गमन न करना दिग्व्रत है । दसों दिशाओं की जो मर्यादा कर लेता है और उससे बाहर अपना व्यापार संबंध नहीं रखता उसके क्या परिणाम रहते हैं और क्या फल प्राप्त होता है यह बात बतलाते हैं ।