वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 72
From जैनकोष
पंचानां पापानां, हिंसादीनां मनोवच: कायै: ।
कृतकारितानुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महताम्।। 72 ।।
महाव्रत का स्वरूप―हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन 5 पापों का मन, वचन, काय, कृतकारित अनुमोदना से त्याग होने का नाम महाव्रत है । यह महान व्रत है, इस कारण महाव्रत कहलाता है । यह महान कार्य के लिए व्रत है, इस कारण महाव्रत है । यह महंत पुरुषों के द्वारा ही धारण किया जा सकता है इस कारण महाव्रत है । पाप का नवकोटि से त्याग होना न मन से करे, न मन से कराये न मन से अनुमोदना करे, न वचन से पाप करे, न वचन से कराये न वचन से अनुमोदना करे, पाप को न शरीर से करे, न शरीर से कराये न शरीर से अनुमोदना करे नवकोटि से त्याग होने में उसके विशुद्धि जगती है । जैसे कि साधुजनों के उद्दिष्ट त्याग होता है । इस विषय में लोग ऐसी शंका रखते हैं कि जो आहार बनता है तो वह साधुवों के ख्याल से बनता है―मुझे आहार देना है, तो गृहस्थ साधु के ख्याल से बनाये यह गृहस्थ की बात है पर मुनि के चित्त में यदि यह बात आये कि वहाँ भोजन बन रहा, ठीक बन रहा । वहां थोड़ा संकेत करें या शरीर से कुछ चेष्टा दिखाये तो उस मुनि को उद्दिष्ट का दोष है । पर उस आहार के विषय में पता तक भी नहीं है, कि कहां हो रहा, न मन से करना कराना अनुमोदना, न वचन से करना कराना अनुमोदना, न शरीर से करना कराना अनुमोदना, तो ऐसी स्थिति में नवकोटि से विशुद्धि हुई । उसके कारण उनके उद्दिष्ट दोष नहीं कहा गया है, यह बात है मुनि की ओर से । अब एक साधारणतया देखें तो उद्दिष्ट का प्रयोजन है कि गृहस्थ को तकलीफ न हो । मूल प्रयोजन यह है कि उद्दिष्ट का, तो गृहस्थ तकलीफ कर के कर रहा है यह किसी तरह विदित हो तो वह आहार नहीं लिया जाता, पर गृहस्थ तो एक प्रसन्न होकर, चित्त में उमंग लाकर करता है सो उसके अतिथिसम्विभाग व्रत बनता, उद्दिष्ट नहीं बनता । अतिथिसम्विभाग व्रत रखना गृहस्थ का एक नियम है, अर्थात् मैं अतिथि को भोजन कराकर फिर भोजन करुंगा । रोज-रोज तो ऐसा नहीं करता था, पर आज मुनिराज पधारे हैं, अवसर मिला है तो आज उसका संकल्प बन गया कि मैं मुनि को आहार देकर आहार करुंगा । वह अतिथि सम्विभाग में रहा । अब यह बात कि दुनिया की खटखट बाजी से तो बचे तो भाई भोजन तो घर में बनता ही, भूखे तो न रह सकते थे मगर शुद्ध विधि से बना लिया तो उसमें कम से कम बहुत सी हिंसा में तो बचे । तो जैसे उद्दिष्ट त्याग में मुनिजनों को बताया है कि नवकोटि विशुद्ध आहार न हो तो मुनि मन से, वचन से, काय से न करेगा, न करायगा और न अनुमोदना करेगा । तो वह वहां दोष वाला नहीं कहलाता तो नवकोटि से विशुद्ध होने में बड़ी विशुद्धि हुआ करती है । तो यह भी पंच पापों का त्याग मुनिराज के नवकोटि से हुआ है इस कारण वहाँ रंचमात्र भी पाप नहीं लगता, अब दिग्व्रत के 5 अतिचार कहे जाते है ।