वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 73
From जैनकोष
ऊर्ध्वाधस्तात्तिर्यगव्यतिपाता: क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम् ।
विस्मरणं दिग्विरते रत्याशा: पंच मंयंते ।। 73 ।।
दिग्व्रत के पांच अतिचार―दिग्व्रत जिस श्रावक ने धारण किया है मायने दसों दिशावों में मर्यादा कर ली कि इससे बाहर मेरा संबंध नहीं है उस। गृहस्थ को क्या न करना चाहिए जिससे कि निर्दोष दिग्व्रत रहे इन अतिचारों का वर्णन इस गाथा में है । जितनी दिशावों की मर्यादा की है उस मर्यादा के भीतर अज्ञानवश या प्रमादवश ऊपर चढ़ जाना यह ऊर्द्धव्यतिक्रम नाम का अतिचार है । जानकर नहीं चढ़ा किंतु कैसे भी चढ़ जाय तो वह अतिचार है । कभी मर्यादा से बाहर बावड़ी आदिक नीचे की जगह में उतर जाय तो वह अध: अतिक्रम अतिचार। है । ऐसे ही चारों दिशावों में किसी जगह में मर्यादा के क्षेत्र से बढ़ जाय अज्ञानवश या अंदाज न रहा तो वह है तिर्यक् व्यतिक्रम अतिचार । अथवा क्षेत्र बढ़ा लेना । जितनी मर्यादा की थी उससे आगे के क्षेत्र में वृद्धि सोच लेना कि अब हमारी इस तरह मर्यादा चलेगी सो सोच सकते हैं आप कि क्यों अनाचार हो गया, मगर वहाँ इतना मन में भाव रखे कि पूरब का तो घटा लेवे और पश्चिम का जरा बढ़ा लेवे, इस तरह का भाव रखकर अगर किया तो वह अतिचार क्हलायगा । 5वां अतिचार है कि दिग्व्रत में जो मर्यादा की है उस मर्यादा की भूल जाय तो यह है विस्मरण नाम का अतिचार हैं। ये 5 दिग्व्रत के अतिसार है । इनमें मुख्य बात तो अणुव्रत की बतायी जा रही है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन 5 पापों का स्थूल त्याग कर देना मायने एक देश त्याग होना यह अणुव्रत कहलाता है, पर ये अणुव्रत पक्के रहें और इन अणुव्रतों में वृद्धि हो इसलिए दिग्व्रत ये बताये गए हैं क्योंकि अणुव्रत कोई एक दर्जे का नहीं होता । जो 11 प्रतिमावों में बताया गया है वे अणुव्रत के उत्कर्ष के ही तो दर्जे हैं । अर्जिका भी अणुव्रत में है, वह महाव्रती नहीं कहलाती । उसे जो उपचार से महाव्रती कहा है सो इसको लोग बड़ी प्रशंसा के रूप में देखते है पर वह प्रशंसार्थ नहीं है, किंतु उसकी शक्ति की हीनता का द्योतन करने वाला हैं । वह इससे आगे बढ़ नहीं सकती, सो उसका महाव्रत वही समझ लीजिए । महाव्रती तो केवल निर्ग्रंथ दिगंबर मुनि कहलाता है । तो पहली प्रतिमा से लेकर 11वीं प्रतिमा तक ऐलक और अर्जिका ये अणुव्रत के उत्कर्ष है और अंत में जो इतना उत्कर्ष हो जाता है कि जो महाव्रत की तरह मालूम होता है । अणुव्रत हैं ये सब, किंतु एक बात जरूर ध्यान में रखना कि जैन धर्म में वंदन, नमस्कार करने योग्य तीन लिंग कहे गए है? । (1) मुनिराज (2) 11 प्रतिमाधारी क्षुल्लक ऐलक उत्कृष्ट श्रावक और (3) अर्जिका । ये तीन लिंग के सिवाय बाकी और नीचे-नीचे के जो अणुव्रत है वे त्रिलिंग बुद्धि से नमस्कार किये जाने या पूजे जाने के योग्य नहीं है । इसलिए अधिक आदर होता 11 प्रतिमाधारी क्षुल्लक ऐलक और अर्जिका का व अर्जिका और मुनि को एक समान मानकर कोई पूजे तो उसमें अधिक दोष तो नहीं आया मगर एक भीतर के परिणामों की बात कर रहे कि वहाँ अणुव्रत की मुख्यता है । महाव्रत का सद्भाव वहां नहीं बताया गया । इस प्रकार तीन गुणव्रत में से प्रथम गुणव्रत का वर्णन समाप्त हुआ ।