वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 374
From जैनकोष
पोग्गलदव्वं सद्दत्त परिणयं तस्स जइ गुणो अणण्णो।
तम्हाण तुमं भणिदो किंचिवि किं रूससि अबुद्धो।। 374।।
भाषावर्गणा के स्कंध▬ जबकि शब्दरूप से परिणत हुए पुद्गल द्रव्य व उस के गुण भिन्न ही हैं तो उस शब्द द्वारा तुम नहीं कहे गये, फिर अज्ञानी बनकर क्यों रोष करते हो? लोक में भाषावर्गणा जाति के पुद्गल द्रव्य हैं, उनका अनुकूल संयोग वियोग होने पर वे शब्दरूप परिणत हो जाते हैं। यदि मुँह, कंठ, ओंठ, जीभ जैसे लचकदार हैं उस तरह के कार्य कर सकने वाले कोई अंग बनाए जा सकते होते तो उस के प्रयोग से भी ये शब्द निकाले जा सकते हैं। जैसे कि ये कंठ, तालु, ओठ आदि के संबंध से और श्वास के संबंध से शब्द निकलते हैं, वे भाषावर्गणा जाति के शब्द हैं। जो पुद्गल स्कंध हैं, वे अपने आप में हैं, अपने में परिणत होते हैं, उनमें तुम कुछ भी नहीं कहे गए, फिर क्यों कल्पना करते हो कि मुझे अमुकने यों कह दिया । अरे तुम्हें तो यहाँ कोई जानने वाला भी नहीं हैं, फिर तुम्हारे लिए कोई क्या कहे और ये शब्द तो अचेतन हैं, ये तो किसी को कहेंगे ही क्या? ये तो शब्द हैं।
शब्दों का आशयवश अर्थ – जैसे इंजन चलता है तो उस से आवाज आती है, अभी यहीं से सुबह गाड़ी जाती है तो चलते हुए में हमें ऐसी आवाज लगती है कि यह कहती है कि ‘‘हम का कत खुद को देखो’’ ऐसी आवाज निकलती हुई मालूम होती है। हम उस इंजन से कोई और कुछ अर्थ लगाते हैं। बड़े इंजिन की आवाज का अर्थ जबलपुर के लोग लगाते हैं कि जबलपुर के छै छै पैसे। तो जिसकी जैसी भावना है वैसा ही वह अर्थ निकाल लेता है। तो गाली देने वाले ने तो अपने भीतर की पोल जाहिर की है। उसने तुम्हें कुछ नहीं कहा। उसमें जो वासना भरी है, कषाय भरी है उसको उगला है। तो तुम क्यों उन शब्दों को सुनकर रोष करते हो? नाम का संस्कार इन जीवों में घना पड़ा हुआ है कि यद्यपि नाम में कुछ धरा नहीं है, वे अक्षर ही हैं, यहाँ के वहाँ जोड़ दिये गए हैं पर उसमें तो लोगों को अपनी मूर्ति दिखाई देती है कि यह मैं हूँ। मुझ को अमुकने यों कह दिया। अरे वह बेचारा स्वयं संसार में रुलने वाला अज्ञानी है, वह तो मुझ आत्मतत्त्व को जानता ही नहीं है। वह मुझे क्या कहे?
स्वरूप की संभाल बिना सर्वत्र विपत्तियां – भैया ! अपने स्वरूप की जब संभाल नहीं है तो चारों ओर से संकट घिर जाते हैं, और अपने स्वरूप की संभाल है तो कोई संकट नहीं है। जिसे आप कठिन से कठिन परिस्थिति कहते हो, टोटा पड़ जाय, घर बिक जाय, घर का कोई इष्ट गुजर जाय, मित्रजन विपरीत हो जाए, रिश्तेदार मुँह न तकें, और और भी बातें लगा लें, जो भी खराब से खराब परिस्थिति यहाँ मानी जाती है तो सब को लगालो। उस समय भी यदि इस जीव को सबसे निराले ज्ञानमात्र अपने स्वरूप की खबर है तो वहाँ उड़द की सफेदी बराबर भी संकट नहीं है और बहुत अच्छी से अच्छी स्थिति लगा लो, आमदनी भी है, लोगों में इज्जत भी है, मकान भी है, मित्र भी आते हैं, बंधु भी लाला लाला कह अपनी जीभ सुखाते हैं और अच्छी से अच्छी परिस्थिति मान लो, उसमें भी यदि ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व की संभाल नहीं है तो बाहर में कुछ भी सोचने से संकट न टल जायेंगे। इतना तो सोचते ही हैं कि अभी तो इतना ही है, इतना और होना चाहिए था। बस इतना ख्याल आया कि संकटों में पड़ गया। तो यह बाह्य पदार्थ, बाह्य शब्द, बाह्य परिणमन ये कुछ भी नहीं कहते हैं तुमको। तुम स्वयं अज्ञानी बनकर व्यर्थ में रोष करते हो और भी देखो―