वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 373
From जैनकोष
णिंदिपसंथुयवयणाणि पोग्गला परिणमंति विविहाणि।
ताणि सुणिऊण तूसदि रूसदि अहं पुणो भणिदो।। 373।।
पौद्गलिक वचनों में रोष तोष क्यों – निंदा के और स्तवन के वचन ये पुद्गलरूप हैं, ये नाना प्रकार के पुद्गल परिणमते हैं, उन को सुनकर तू ऐसा मानता है कि यह बात मुझ को कही गयी है और ऐसा मानकर तू रुष्ट होता हैं या तुष्ट होता है। बात तो बात की जगह है, अन्य पुरुष अन्य पुरुष की जगह है, यह सुनने वाला अपनी जगह है, किसी का किसी से मेल नहीं है, फिर भी यह अज्ञानी जीव ऐसा विकल्प बनाता है कि यह मुझ को कहा गया है अत: इन विकल्पों के कारण रुष्ट होता है, तुष्ट होता है। यह ऐब प्राय: सब मनुष्यों के घर कर गया हैं, विशेष क्लेश और है ही किस बात का? अमुकने यो बोल दिया, अमुकने यों कह दिया।
मलिनाशय व वचनविवाद▬ भैया ! पडौसियों में क्यों बात नहीं बनती है, उनका कुछ धन पैसे के लेने देने का हिसाब तो है नहीं किंतु एक वचनों का झगड़ा है और हो भी और बातों का झगड़ा तो वे गौण हैं। न कुछ हैं और बातों का झगड़ा मुख्य हो जाता है, इसने ऐसा कह क्यों लिया? हम तो तब गम खायेंगे जब इसका खपरा भी बिकवा लेंगे, ऐसी हठ बन जाती है। वह केवल बात बात का ही विवाद है। यह मूढ़ जीव समझता है कि मुझ को कहा गया है। क्यों समझता है ऐसा कि इसके अंदर चोर पड़ा हुआ है, अपराध पड़ा है, इस कारण मानता है कि इसने मेरी प्रशंसा कर दी और इसने मेरी निंदा कर दी।
भीतर का चोर▬ एक छोटी सी कथानक है कि दो चोर कहीं चोरी करने जा रहे थे। एक नये आदमी ने रास्ते में पूछा कि कहाँ जा रहे हो? कहा चोरी करने। इससे क्या होगा? दो मिनट में ही पराया माल अपना हो जायेगा। मुझे भी संग में ले लो। अब तीसरा भी साथ हो गया, पर उसे चोरी करने की कला मालूम न थी। सो तीनों घुस गये एक बुड्ढे के घर के बीचमें। उस बुड्ढे की आवाज सुनकर दो चोर तुरंत भाग गए। इस तीसरे ने भागने की जगह न देखी तो ऊपर एक म्यारी पड़ी थी उस पर जाकर बैठ गया। बुड्ढे ने हल्ला मार दिया। पड़ौस के लोग इकट्ठे हो गए। पूछते हैं लोग कि वे चोर कहाँ से आए, कोई पूछता कि क्या गया? कोई पूछता कि कब मालूम पड़ा कि चोर आए हैं, कोई पूछता कि कहाँ से निकल गए? तो जैसे किसी त्यागी पुरुष से कम अकल वाले लोग पूछा करते हैं कहाँ से आये महाराज, आप का घर कहाँ है, आप की शादी हुई कि नहीं, कितने दिन रहेंगे कब जायेंगे, व्यर्थ की बातें पूछते हैं। अरे त्यागी से तो इतनी बात पूछो कि जितनी बात दूसरों से पूछने में न मालूम पड़े। अगर किसी और भाई से पूछने पर मालूम पड़ जाय कि महाराज कहाँ से आये तो महाराज से पूछने की क्या जरूरत है? तो जैसे अटपट बहुत से प्रश्नों का तांता लग जाता है इसी प्रकार उस बूढ़े से लोग व्यर्थ की बातें पूछें। सो वह खीझ गया और बोला कि हम क्या जाने, इसको ऊपर वाला जाने। उसका मतलब था ऊपर वाला याने भगवान। अब वह म्यारी पर बैठा हुआ तीसरा नया चोर कहता है कि हूं? ऊपर वाला ही क्यों जाने और जो दो साथ में आए थे वे क्यों न जाने? वह पकड़ा गया।
प्रवृति में निजवासना की प्रेरणा ▬ तो जैसे उस बुढ़े ने कहा और उसने माना कि मुझे कहा, इसी तरह यह मनुष्य प्रशंसा करता है तो वह कहता है और कुछ, और यह मानता है कि मेरी प्रशंसा की, सो खुश होता है अथवा ऐसा सोचता है कि मेरी निंदा की सो दु:खी होता है। लोग किसी को कुछ नहीं कहते, वे तो अपने कषाय की बात कहते हैं। जैसे विवाहमें छटांक भर बताशों के खातिर स्त्रियां सारी रात बड़ी तेजी से गीत गाती हैं, इतना परिश्रम करती है कि पसीने से लथपथ हो जाती हैं, मेरा दूल्हा बना जैसे राम, ऐसा गाती हैं। कोई बुद्धु दूल्हा हो तो कहो वह समझ जाय कि मेरी प्रशंसा स्त्रियां कर रही हैं तो कहो वह गले का गुंज उतार कर दे दे। पर वे स्त्रियां कुछ नहीं कर रही हैं। वे तो छटांक आध पाव बताशों के खातिर इतना परिश्रम कर रही है। कहीं दूल्हा घोड़े से गिर जाय और उसकी टांग टूट जाय तो उन स्त्रियों की बलासे। सो यहाँ कोई किसी की प्रशंसा निंदा नहीं करता है, पर सभी अपनी अपनी कल्पना से अपना भाव लगाते फिरते हैं। क्या कहा इसने, उसको समझता कोई नहीं है। जिसने प्रशंसा की उसमें कषाय है, स्वार्थ है, कृतज्ञता है, कुछ बात है इसलिए अपनी कषाय प्रकट की है। मुझे कुछ नहीं कहा, ऐसा यथार्थ कोई नहीं समझता है। लोग तो अपने-अपने भावों के अनुसार उसका मतलब लगा बैठते हैं।
बहिरों का मनमाना अर्थ ▬ एक बकरी चराने वाला गड़रिया छोटी-छोटी पहाड़ियों पर बकरी चरा रहा था। दोपहर के 12 बजे उसे घर रोटी खाने जाना था। एक मुसाफिर आता हुआ उसे मिला। सो बकरी वाला उस मुसाफिर से बोला कि ऐ मुसाफिर, तू दो घंटे के लिए हमारी बकरियां देखे रह, मैं घर से रोटी खा आऊं। मुसाफिर था बहिरा और भाग्य से वह बकरी चराने वाला भी बहिरा था। सो वह कुछ सेंस समझ गया कि घर रोटी खाने जाने को कहता है, सो वह बकरी ताकने बैठ गया। दो घंटे के बाद में वह आ गया। सोचता है कि मुसाफिरने मेरी बड़ी खिदमत की। अब इसे एवज में हमें क्या देना चाहिये? कोई ज्यादा सेवा तो की नहीं, दो घंटे बैठा ही रहा सो एक टांग टूटी बकरी थी कहा कि इसे दे दें। टूटी टांग वाली बकरी का कान पकड़ कर मुसाफिर को देने लगा कि यह ले लो, तो मुसाफिरने जाना कि यह बकरी वाला कह रहा कि तुमने हमारी बकरी की टांग क्यों तोड़ी? तो मुसाफिर बोला कि वाहरे वाह, हमने दो घंटे तुम्हारी बकरियां ताकीं और फिर भी हम से कहते हो कि बकरी की टांग क्यों तोड़ी। बकरी वाला भी बहिरा था, सो उसने समझा कि यह कह रहा हैं कि मैं टूटी टांग वाली बकरी क्यों लूं मैं तो अच्छी बकरी लूँगा तो बकरी वाला बोला कि वाह अच्छी बकरी देने लायक श्रम तुमने नहीं किया हम तो लूली ही बकरी देंगे। दोंनो में झगड़ा होने लगा। तो कहा अच्छा चलो दूसरे के पास न्याय करा ला। सो दोनों चले।
उन दोनों को याने गड़रिया व पथिक को रास्ते में एक मिला घुड़सवार। भाग्य से घुड़सवार भी बहिरा था। सो दोनों ने अपनी-अपनी फरियाद की। मुसाफिर बोला कि दो घंटे तो हमने इसकी बकरी तांकी और यह कहता है कि तुमने हमारी बकरी की टांग तोड़ दी। तो बकरी वाला कहता है कि आखिर दो घंटे बैठा ही तो रहा, इसे मैं अच्छी बकरी कैसे दे दूं? तो घुड़सावरने यह समझा कि वे कहते हैं कि तुम यह घोड़ा चुरा लाये हो। तो वह कहता है कि भगवान की कसम ! घोड़ा हमारा खरीदा हुवा भी नहीं है, मेरी घर की घोड़ी से ही पैदा हुआ यह बछेड़ा है, मैने नहीं चुराया है। भगवान की कसम तो सस्ती होती है, जल्दी में हर एक कोई बोल देता है। अब तीनों में लड़ाई होने लगी। तो तीनों बोले कि चलो चौथे के यहाँ निपटारा करें।
अब वे तीनों गये गांव । सो एक पटेल के पास पहुंचे। क्योंकि गाँव का मुखिया पटेल होता है। तीनोंने अपनी अपनी फरियाद शुरू की। भाग्य से वह पटेल भी बहिरा था, उसी दिन उस के घर लड़ाई हो गयी थी। सो तीनोंने अपनी-अपनी बात कही। पटेलने यह जाना कि हमारे घर में लड़ाई हो गई है सो ये सुलह करा रहे हैं। सो पटेल डंडा उठाकर बोला कि यह तो हमारे घर का मामला है, तुम लोग फैसला करने वाले कौन होते हो? सो जैसे बहिरे लोग दूसरे की बात तो ठीक-ठीक सुन नहीं सकते और कल्पनावों से अर्थ लगाकर अपनी चेष्टा करते हैं, इसी प्रकार यह अज्ञानी जीव दूसरे की बात सही तो सुन नहीं पाते कि ये क्या कह रहे हैं? यह बात ठीक तौर से अज्ञानियों को सुनाई नहीं देती है और अपनी कल्पना के अनुसार वे अर्थ लगा बैठते हैं। की तो दूसरे ने है निंदा और मान बैठते हैं प्रशंसा की है।
प्रशंसा के भेष में निंदा की अगवानी ▬ जैसे कोई कहता है कि फलां सेठ साहब का क्या कहना है, उनके चार लड़के हैं―एक मास्टर है, एक डाक्टर है, एक कलेक्टर है और एक मिनिस्टर है। ऐसा सुनकर सेठजी खुश होते हैं कि इसने मेरी प्रशंसा की और की गई है इसमें सेठजी कि निंदा कि सेठजी के लड़के तो इतने ओहदों पर हैं और सेठजी कोरे बुद्धू हैं। इसी तरह किसी ने कहा कि देखो फलाँ सेठजी की हवेली कितनी सुंदर है। इसको सुनकर सेठ प्रसन्न होता है कि इसने हमारी प्रशंसा की और हो गई इसमें निंदा याने ये जनाब ऐसे तीव्र मिथ्यादृष्टि हैं कि इन के मकान की कर्तृत्वबुद्धि लगी है, ये यह मानते हैं कि मैने मकान बनवाया, सो वे तो बेवकूफी का समर्थन करने आए हैं लेकिन मानते हैं कि इन्होनें मेरी स्तुति की है अथवा कोई किसी प्रकार स्तुति करे, उसमें दूसरोंने केवल अपने आप में बसी हुई कषाय को ही प्रकट किया है और कुछ नहीं किया। इसी तरह ये अज्ञानी जीव मानते हैं कि इसने मेरी निंदा की है। अरे दूसरेने निंदा नहीं की है, या तो प्रशंसा की है या ठीक रास्ते पर लाने के लिए शिक्षा दिया है, किंतु यह अज्ञानी जीव अपनी कल्पना के अनुसार अर्थ लगाकर रुष्ट होते हैं।
संसार के अयोग्य ▬ किसी ने अगर कह दिया कि तू नालायक है तो इसे सुनकर तो उसे धन्यवाद देना चाहिए। क्योंकि वह तो कह रहा है कि हम जैसे बेवकूफों की गोष्ठी के लायक तू नहीं है। तू तो तपस्वी, मोक्षमार्गी है, तू हम जैसे मोही लोगों के बीच में रहने लायक नहीं। ऐसे नालायक तो मोक्षमार्गी जीव होते हैं वे यहाँ रहने लायक नहीं हैं। यहाँ से चलकर मोक्ष में बिराजते हैं। पर यहाँ तो उसका अर्थ यह लगाते हैं कि मेरी निंदा की अथवा किसी बात को बोलकर कुछ अपराध भी बताता हो कोई, तो वहाँ केवल वह शिक्षा दे रहा है, तुम्हारा छीन क्या लिया ?
निंदक की उपकारशीलता▬ भैया ! दूसरे की निंदा करने वाले ने दूसरे की तो की नरक से रक्षा और खुद उसके एवज में वह नरक में चला जानेको, अपने को दुर्गति में भेजने को तैयार हो गया, सो यह उसका कितना बड़ा उपकार है, पर उसको सुनकर ये अज्ञानी व्यामोही जीव ऐसा अर्थ लगाते हैं कि यह मुझ को कहा गया है और ऐसा जानकर किसी बात पर रुष्ट होते हैं और किसी बात पर संतुष्ट हो जाते हैं, किंतु ऐसा करना अज्ञान का ही विपाक है। अरे उन परद्रव्योंमें, उन शब्दादिक के विषयों में तेरा कुछ भी नहीं है। उन विषयों के खातिर तू अपना घात क्यों कर रहा है? तू अपने स्वरूप को देख और स्वरूप में ही रमने का यत्न कर के अपने अमूल्य समय को सफल कर।