वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 382
From जैनकोष
एयं तु जाणिऊण उवसमं णेव गच्छई विमूढो।
णिग्गहमणा परस्स य सयं च बुद्धिं सिवमपत्तो।। 382।।
स्वमहिमा के अज्ञान में पर का आकर्षण ▬ ऐसा जानकर भी यह मोही जीव शांतिभाव को प्राप्त नहीं होता है और पर के ग्रहण करने का मन करता है क्योंकि आप जो कल्याणरूप है ऐसे निज सारतत्त्व को तो प्राप्त नहीं किया तो असार को ही ग्रहण करता है। छोटे लोगों में मट्ठा की खीर बासी भी हो तो भी वे लोग शादी वगैरह में खाया करते हैं, तो जि से उत्तम व्यंजनों का स्वाद नहीं है उन को यही रुचता है। जिस को आत्मीय आनंद का रस नहीं प्राप्त है उसे शांति नहीं प्राप्त हो सकती और सुखाभास में ही वह आनंद ढूँढ़ने की व्यग्रता करता है। शुद्व आत्मा के सम्वेदन से उत्पन्न हुए प्रकाश को जिसने नहीं पाया, सहज परम आनंदस्वरूप शिव सुख को जिसने नहीं पाया, ऐसा जीव शब्दादिक विषयों में और गुणद्रव्यों की चर्चा में आसक्त होता है वह उपशम भाव को प्राप्त नहीं कर सकता ।
पर से विकार के ग्रहणपरिहार का स्वभाव ▬यह ज्ञाता आत्मा अथवा यह ज्ञानस्वरूप बहुत महिमावान् है। अपने आप की अतुल महिमा का ज्ञान नहीं है, तो पर की ओर उपयोग कर के यह मोही जीव भिखारी दीन और आकुलित होता है। स्वयं तो है आनंद का भंडार पर उपयोग इस आनंदमय स्वभाव को नहीं देखता। सो यह अपने आप में रोता हुआ रहता है और बाहरी पदार्थों की और आकृष्ट बना रहता है। यह ज्ञान ज्ञेय पदार्थो से विकार को प्राप्त नहीं होता। कोई चौकोर चीज जान ली तो ज्ञान चौकोर नहीं हो जाता। काला, नीला जान लिया तो ज्ञान काला नीला नहीं हो जाता। कैसा ही जान लें यह ज्ञान इष्ट अनिष्ट नहीं हो जाता, रागी द्वेषी नहीं हो जाता। यह ज्ञान तो ज्ञान स्वरूप ही है।
रागद्वेष का रूपक ▬ रागद्वेषक्या बला है? इसके दो उत्तर दिए गए हैं। बंधाधिकार में तो यह उत्तर है कि रागादिक प्रकृतिपरिणत कर्मों के द्वारा जनित है। आत्मा तो शुद्ध ज्ञायक स्वरूप है और यहाँ यह उत्तर दिया जा रहा है कि यह तो अपनी कुबुद्धि के होने से बिगड़ा बना हुआ है। इसे परद्रव्य कुछ नहीं करते। जिन्हें अपने ज्ञान की कला जगी है वे सब नयों से और सब वर्णनों से अपने स्वभाव के आलंबन की ही शिक्षा लेते हैं। निमित्तनैमित्तिक भाव से आत्मा के शुद्ध स्वभाव की स्वरक्षा जानते हैं और ये रागादिक मेरे रंच भी नहीं हैं, मेरे स्वरूप नहीं हैं, इन परद्रव्यों से मेरा कोई वास्ता नहीं है, वहाँ पर भी इसने अपने शुद्ध ज्ञायकस्वरूप को निरखा और जहाँ केवल अपने आप की दृष्टि कर के देखा जाता है। ये रागादिक जो होते हैं मेरे स्वभाव नहीं हैं, फिर भी ये मेरी बुद्धि के दोष से हुए हैं, दूसरे के कारण नहीं होते।
आश्रय की अदृष्टि से विकारों का विनाश ▬अपने आप के अतिरिक्त अन्य समस्त पदार्थ तो मेरी और दृष्टि भी नहीं करते। सो इन रागद्वेषादिक विकारों को खुराक न मिले तो फिर ये कब तक पनपेंगे? रागादिक विकारों की खुराक है परपदार्थों की ओर दृष्टि करना। जब निश्चय के स्वभाव में परपदार्थों की और दृष्टि ही नहीं जा रही है तो ये रागादिक भूखे रहकर मरेंगे ही। ये बढ़ नहीं सकते। निश्चय के आलंबन से इस तरह ज्ञानीने अपना कल्याण बल पाया। इन बोध्य पदार्थों से यह ज्ञान किसी भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होता। जैसे प्रकाश्य पदार्थों से यह दीपक विकार को प्राप्त नहीं होता। तो हे अज्ञान पीड़ित आत्माओ ! वस्तु के स्वरूप के ज्ञान से अलग रहकर क्यों रागद्वेषरूप हो रहे हो और अपनी उदासीनता का क्यों परित्याग कर रहे हो? ज्ञान का स्वभाव तो ज्ञेय को जानना है। ज्ञेय को जानने मात्र से ज्ञान में विकार नहीं आते। ज्ञेय को जानकर भला बुरा मानकर राग और द्वेष करना यह सब अज्ञान से होता है।
निजगृहविस्मरण से भटकन ▬ अपने आप का सही पता हो तो भटकना कैसे हो सकता है? अपने घर का पूरा पता हो तो कोई कैसे भटकेगा? बचपन में एक घटना हुई, हम 9 वर्ष की उम्र के थे। सागर से पढ़कर हम 1 साल में घर आए। एक साल तक घर का मुँह न देखा था, सो गाँव का कुछ बड़ी आयु का एक छात्र और साथ में पढ़ता था, उस के साथ आ गए। तो गांव के गोंयड़े से वह तो अलग हो गया। अब मैं अकेला रह गया। हम कहीं कुम्हार के घर में घुसे, कहीं किसी के घर में घुसे। भूल गए थे। तनिक शाम का भी समय हो गया था। लोग हँसे, फिर कोई हम को घर ले गया। जब मैं घर पहुंचा उन्हें खबर मिली तो एकदम सब लोग जुड़ गये। यों ही अपने आप के घर का पता न रहे तो यह जीव डोलता फिरता है।
आत्मा के अपरिचय में पराशा से प्राणघात ▬अपने आत्मा का घर है अपने ही गुणों का पुंज। उसका पता नहीं है तो दीन हीन भिखारी होकर पर की ओर निगाह रखकर घूमता फिरता है, मुझे इस चीज से सुख होगा। जैसे हिरण रेतीली जमीन में गर्मी के दिनों में दूर की रेत को पानी जानकर दौड़ता है, वहाँ मुझे पानी मिलेगा, पर जब निकट पहुंचता है तो पानी का कहीं नाम नहीं, फिर गर्दन उठाकर दूर दृष्टि डालता है तो दूर की रेत उसे पानी जैसी मालूम होती है, फिर वह दौड़ लगाता है। वहाँ पर भी पानी उसे नहीं मिलता है। इस तरह दौड़ लगा-लगाकर वह अपने प्राण पखेरू उड़ा देता है। इसी तरह यह संसारी जीव इतने लंबे ताने पर दौड़ता रहता है। ओह, हजार हो जायें तो सुख मिलेगा, लाख हो जायें तो सुख मिलेगा। इस तरह से तृष्णा बढ़ाकर वह इधर उधर दौड़ लगाता रहता है पर कही भी इसे सुख नहीं मिल पाता और अंत में अपने प्राण उड़ा देता है।
कर्ममुक्तस्वरूपदर्शी▬ यह ज्ञानी जीव रागद्वेष के विभावों से मुक्त तेज वाला व स्वभाव को स्पर्श करने वाला है और चाहे पहिले के किए गए ये कर्म हों, क्रिया मन, वचन ,काय की और चाहे आगामी काल में प्रोग्राम में बनी हुई क्रियाएँ हों उन समस्त कर्मों से वह ज्ञानी दूर रहता है। गये का शोक क्या, जो नहीं है उसका शोक क्या? वर्तमान में जो ज्ञानी इन विभावों से मुक्त अपने को ज्ञानज्योतिर्मय तक रहा है वह बीते की चिंताएँ क्या करेगा और भविष्य की वांछा क्या करेगा? यह ज्ञानी तो वर्तमान काल के उदय से भी अपने को भिन्न तक रहा है। पानी से भरे हुए हौज में तैल गिर जाय तो वह तैल उस पानी से मिल नहीं जाता, इसी तरह इस आनंदमय आत्मा में ये विभाव पड़ गए हैं तो ये विभाव इस आत्मा से मिल नहीं जाते, ऐसा ज्ञानी तकता है।
ज्ञानी का संभाल ▬भैया ! मैं तो ध्रुव ज्ञानमात्र हूं―ऐसी भीतर में पकड़ जिसकी हो जाय उस के लिए तीनों लोक का वैभव तृणवत् है अथवा काक बीट की तरह है। चक्रवर्ती की संपदा इंद्र सरिखे भोग काकबीट सम गिनते हैं सम्यग्दृष्टि लोग। यद्यपि यह जीव बोझ से लदा हुआ है, घर गृहस्थी के भार से दबा हुआ है, अरे दबे हुए में ही कुछ थोड़ासा चुप के से सरक जाय तो वह बोझ जहाँ का तहाँ पड़ा रह जायेगा और यह आनंद मुक्ति को पा लेगा। जैसे बालक लोग आपस में ही हल्ला मचाते हैं। कोई लड़ का किसी दूसरे को जबरदस्ती घोड़ा बनाकर उसकी पीठ पर बैठकर घूमता है। वह लड़ का तनिक नीची कमर कर के धीरे से खिसक जाता है तो वह दूसरा लड़ का जहाँ का तहाँ ही रह जाता है । तो अपने इस उपयोग पृष्ठ पर बड़ा बोझ लदा है तो अपनी संभाल तब है जब कि धीरे से सरक कर किसी समय बाहर निकल जायें, बस सारा का सारा बोझ पड़ा रह जायेगा। स्वंय को फिर मुक्ति का आनंद मिलेगा।
विविक्त ज्ञानस्वरूप की दृष्टव्यता ▬ इस ज्ञानी को दृढ़तर आलंबन किए गए चारित्र वैभव का बल है। जिस बल के प्रसाद से इस ज्ञान चेतना को ये ज्ञानीजन अनुभव करते हैं। जहाँ चमकती हुई चैतन्यज्योति सदा जागृत रहती है जिसने अपने ज्ञानरस से तीनों लोक को सींच डाला है ऐसे विज्ञानघनैकरस आत्मतत्त्व को देखो। इस ज्ञानचेतना का ही अनुभव करो। इस वर्णन में मूल बात यह कही गयी है कि वर्तमान में जो विभाव आ पड़े हैं उन विभावों को भी अस्वभाव जानकर उन से विविक्त उपयोग बनाकर ज्ञानस्वरूप को निहारा करो। यही है सारे मल को जलाने वाली मुख्य ज्योति।
ज्ञानानुभुति से सकलसंकटसंहार ― कैसे कर्म करते हैं, कैसे अनुभाग खिरता है, कैसे बंध मिटता है, कैसे शांति निकट आती है? सब का मूल उपाय एक यही है कि वर्तमान में हो रहे विभावों से विविक्त इस ज्ञानस्वरूप आत्मा को देखो और इसही ज्ञानस्वरूप में रुचि करो, इसमें ही लीन होने का यत्न करो, अवश्य ही ऐसा अलौकिक आनंद जगेगा जिस आनंद के प्रताप से भव-भव के संचित कर्मों का इतना बड़ा ढेर यों जल जायेगा जैसे बड़ेढ़ेर को जलाने में अग्नि का एक कण समर्थ होता है। मूलदृष्टि एक बना लो। हमें करना क्या है, हम पर बीत रही सारी बातों को भूलकर अपने आप का जो सहज ज्ञान स्वरूप है उस रूप अपने को मानते रहना है और बाहर की फ्रिक न करो । यह जगत असार और अशरण है। यहाँ अन्य किसी प्रकार से पेश नहीं पा सकते। सब को भुलाकर अपने ज्ञानमात्र आतमस्वरूप को ही देखो।
अपराधमुक्त्युपाय की जिज्ञासा―शब्दादिक बाह्य विषयों में आत्मा का दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुण नहीं है, अत: उन विषयों में व विषयों से न तो हमारे गुणों का उत्पाद होता है और न उन से हमारे गुणों का विघात होता है, फिर भी यह जीव पूर्वसंस्कारवश उन विषयों में लगकर अपना घात करता है। ऐसे इस अपराध से बचने का कोई उपाय है, इस अपराध को दूर कर सकने का कोई मार्ग है जिस से उन सब अपराधों से दूर होकर मोक्ष मार्ग में लग सकूँ और उन से मुख मोड़ सकूँ, ऐसी जिज्ञासा होनी प्राकृतिक है। उस ही विषय में कह रहे हैं कि हाँ हैं वे उपाय अपराध से दूर होने के। वे उपाय हैं प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना। उनमें से प्रतिक्रमण के संबंध में कहा जा रहा है।