वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 383
From जैनकोष
कम्मं जं पुंव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं।
तत्तो णियत्तए अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं।।383।।
जो पूर्वकृत कर्म हैं जिस के कि शुभ अशुभ आदि अनेक विस्तार विशेष हैं उन से अपने आत्मा को निवृत कर लेना सो प्रतिक्रमण है।
जीव की विभावपरिणत्तिरूप कर्म―जगत के जीव तीन प्रकार के कामों में आसक्त हो रहे हैं। पूर्वकृतकर्मोंमें, भावकर्मों में और वर्तमान कर्मोंमें। यहाँ कर्म शब्द बार-बार प्रयुक्त होगा, उनमें से अधिक स्थानों पर तो जीव की परिणति का अर्थ लेना क्योंकि जीव का वास्तविक कर्म जीव की परिणति है। कर्म नाम भावकर्म का सीधा है और द्रव्यकर्म में कर्म नाम उपचार से कहा गया है, क्योंकि क्रियते इति कर्म। जो किया जाय उसका नाम कर्म है। जो जीव के द्वारा किया जाय उसका नाम जीवकर्म है। इस मोही जीव का पूर्वकृत कर्मों में लगाव रहता है और वर्तमान कर्मों से लगाव रहता है और भावीकर्मों में भी लगाव रहता है।
पूर्वकृतकर्म में कर्तृत्वबुद्धि―जैसे कोई लोग पहिले किए गए कामों की याद कर के अब भी अपनी ऐंठ बगराते हैं और उन किए गए कर्मों के संबंध में कोई विवाद आ जाय तो कलह करते हैं, उनमें भी आसक्ति रखते हैं। जैसे किसी के बाप दादाने कोई मंदिर बनवाया था सो अब चाहे अपन खुद गरीब हो गए पर यह ऐंठ बराबर रहती है कि मेरे दादा बाबा ने यह मंदिर बनवाया। यद्यपि दूसरें के किए गए कर्मों में इसकी आसक्ति नहीं होती, वहाँ भी अपने किए हुए कर्मों में आसक्ति है, पर उस के विषयका, आश्रयभूत पदार्थ का कर्तव्य बना हुआ है।
प्रतिक्रमण―पूर्वकृत कर्मों से निवृत्त होना इसका नाम है प्रतिक्रमण अथवा उन पूर्वकृत कर्मों के कारण जो द्रव्यकर्म का बंधन हुआ था उन को आज निष्फल कर देना वह प्रतिक्रमण है। ये कर्म शुभ अशुभ के भेद से और मूल व उत्तर प्रकृति अर्थात् प्रकृति के भेद से अनेक प्रकार के हैं। उन से अपने आत्मा को निवृत्त करना है। वह कौनसा उपाय है जिस से यह आत्मा अपने किए हुए अपराध से दूर हो सकता है? वह कर्तव्य है कारण समयसार में स्थित होना अर्थात् ज्ञानस्वभावी जो कार्य समयसार का उत्पादक है, जिस शक्ति की व्यक्तियां केवल ज्ञान, केवल दर्शन, अनंतसुख, अनंतशक्ति आदि गुणविकासरूप होती हैं ऐसे कार्यसमयसार के उत्पादक कारणसमयसार में स्थित होकर जो अपने आत्मा को पूर्वकृत कर्मों से अलग कर देता है वह पुरुष साक्षात् प्रतिक्रमण है।
उदाहरणपूर्वक प्रतिक्रमण की चिन्मयता का समर्थन▬जैसे धर्म, धर्म कहीं डोलता नाचता हुआ नहीं मिलेगा, किंतु जो धर्मात्मा लोग हैं, धर्म का पालन करने वाले जीव हैं वे ही धर्म कहलाते हैं और जो शुद्ध आत्मा हो गए, धर्म का जिन के पूर्ण विकास हुआ है वे धर्म साक्षात् हैं ही। भगवान का नाम है धर्म की मूर्ति। उसे अहिंसा की मूर्ति कहो, सत्य की मूर्ति कहो, धर्म की मूर्ति कहो, ज्ञान की मूर्ति कहो, वह प्रभु साक्षात् धर्म है इसी तरह प्रतिक्रमण कुछ अलग व्यवस्थित बात नहीं है किंतु जो पूर्वकृत कर्मों से अपने आप को अलग कर देता है उस पुरुष का ही नाम प्रतिक्रमण है। यह प्रतिक्रमण बनता है कारणसमयसार में स्थित होनेसे। कैसा है यह कारणसमयसार कि समतारस परिणाम से भरपूर है। ज्ञाता रहना या रागद्वेषरहित रहना, ये सब एक ही स्थिति के नामांतर हैं।
प्रतिक्रमण की परिस्थिति – जब यह जीव इस लोक की और परलोक की आकांक्षाओं से रहित बनता है, ख्याति पूजा की चाह के विकल्प से अत्यंत विविक्त हो जाता है, अन्य पदार्थों के लाभ की वांछासे, तृष्णा से दूर होता है, देखे गये, सुने गये, अनुभव किए गए सर्वप्रकार के भोगों के स्मरण से दूर होता है, सर्वप्रकार के बाह्य आलंबन से हटकर शुभ अशुभ संकल्पों से परे होता है उस समय की स्थिति में अनुभवे हुए इसकारणसमयसार में स्थित होकर यह ज्ञानी संत पूर्वकृत परिणामों से अत्यंत दूर हो जाता है।
साक्षात् प्रतिक्रमणमयता – अपराध बहुत किया है । अपने आप के स्वभावदृष्टि से अलग रहने का नाम अपराध है। यह अपराध अनादि से किया जा रहा है। इस अपराध से दूर होने की स्थिति यह है कि संकल्प विकल्प रहित शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावात्मक तत्व के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान और अनुभवन रूप तो अभेद रत्नयत्रयरूप धर्म है उस धर्म में अपने उपयोग को स्थित करना, सो जब ऐसा ज्ञान रस करि भरपूर समतारस करि परिपूर्ण कारणसमयसार में स्थित होकर जो पुरुष पूर्वकृत कर्मों से अपने आत्मा को निवृत्त कर लेता है वह पुरुष साक्षात् प्रतिक्रमणरूप है।
व्यवहारप्रतिक्रमण का प्रयोजन―पंचेंद्रिय के विषयों में मन के विकल्पोंमें, शरीर में अपना उपयोग लगाकर जो अपराध किया है उन अपराधों से दूर होने का उपाय प्रतिक्रमण है। अपराध बन जाने पर व्यवहारप्रतिकमण भी किया जाता है, उस व्यवहारप्रतिक्रमण का यह भाव है कि चरणानुयोग की पद्धति से अपराध संबंधी मलिनता और पछतावे को दूर कर के मैं अब इस योग्य बन जाऊँ कि निश्चयप्रतिक्रमण में बढ़ सकूँ । व्यवहार धर्म का प्रयोजन निश्चय धर्म में लगना है। इसी प्रकार व्यवहारप्रतिक्रमण का प्रयोजन निश्चयप्रतिक्रमण में लगना है। जि से जीव को निश्चय प्रतिक्रमण की खबर ही नहीं है ऐसा मोही जीव साधुव्रत लेकर भी, रोज-रोज कठिन प्रतिक्रमण प्रायश्चित तपस्या कर के भी अपने आप की काय को सुखा ले, फिर भी उसे कर्मनिर्जरा का साधनभूत प्रतिक्रमण नहीं हो पाता, क्योंकि कर्मों की निर्जरा निश्चयप्रतिक्रमण के द्वारा होती है।
कर्मबंध की निमित्तनैमित्तिक योग्यता – ये कर्म बंध के उद्यमी हुए कार्माण पुद्गल सर्व अचेतन हैं इन को ज्ञान नहीं है जो यह देख सकें कि यह आत्मा कहाँ बैठा है, कहाँ कहाँ हिल रहा है? ये हाथ हिलायें तो मैं बँध जाऊँ, न हिलायें तो न बँधू इतनी समझदारी कर्मों में नहीं है। किंतु जैसे अग्नि का निमित्त पाकर बटलोही का पानी गरम हो ही पड़ता है इसी प्रकार मिथ्यात्व रागद्वेष के लगाव का संबंध पाकर ये कर्माणवर्गणाएँ बँध ही जाती हैं। उसमें कर्मों की कोई बेइमानी नहीं है। जैसे ये सब पुद्गल अचेतन कोई बेईमान नहीं है- घड़ी में चाभी भर दें और उस के पेंच पुर्जे बिल्कुल व्यवस्थित हों तो वह 7 दिनों तक चलती रहेगी। आप को घड़ी की खबर रहे तो, न रहे तो। आप कभी गप्पों में लग जायेंगे तो घड़ीतो अपने आप चलती रहेगी। वह यह न देखेगी कि मेरे मालिक को काम करने जल्दी जाना है इसलिए थोड़ी देर की बंद हो जाऊँ । वह तो ईमानदारी से अपना काम करेगी। ये सब अचेतन पदार्थ ईमानदारी से अपना काम बर्त रहे हैं। जैसा इन का योग है जैसा इन का सुयोग है, उस प्रकार ये सब होते रहेंगे।
अपराध का सामर्थ्य और प्रतिक्रमण―भैया ! बेईमानी पर उतारू तो यह समझदार आत्मा बन गया है। जिस में ज्ञान है किंतु साथ में भ्रम और विकार है, ऐसा पुरुष पदार्थ तो है किसी भाँति और प्रवृत्ति करता है किसी भांति । कितने अपराध कर डाले हैं जिन की कोई गिनती नहीं है। एक सेकंड में अनंत अपराध हो जाते हैं। पर अनंतकाल के अपराधों की कहानी क्या कहे? उन सब अपराधों से दूर होने का एक ही सुगम उपाय है कि समस्त बाह्य पदार्थों का आलंबन हटाकर उपयोग को दूर कर के संकल्प विकल्प रहित सहजज्ञान स्वभावमात्र अपने अंतस्तत्त्व के दर्शन करना उसही में उपयोग को लगाना, बस इसही एक उपाय से ये समस्त संकट निवृत्त हो जाते हैं।
पूर्वबद्ध अनंतकर्मों के दूर करने का एकमात्र उपाय―जो पुरुष पुद्गल कर्म के उदय से होने वाले वर्तमान परिणामों से अपने आत्मा को अलग करता हो वही पुरुष उन वर्तमान कर्मों के कारणभूत, वर्तमान अवस्था के कारणभूत पूर्व कर्मों का परिहार करता हुआ स्वयं ही प्रतिक्रमण हो जाता है। लो कुछ और भी एक बात सुगम आ गयी। पूर्व के अनंत अपराधों से हटने के लिए पूर्व के अनंत अपराधों में एक-एक से हटने का श्रम नहीं करना है, किंतु वर्तमान में आ पड़े हुए एक परिणमन से हटने का पुरुषार्थ करना है, क्योंकि पूर्वकृत कर्म पड़े हुए हैं, वे पड़े है तो, पड़े रहे। उनके द्वारा विकल्प तो तब आता है जब उदयकाल आता है। वर्तमान उदय काल में आए हुए विभावों से उपयोग को हटाकर सहज ज्ञानस्वरूप मात्र कारणसमयसार में जो पहुंचता है उस के पूर्वकृत अनंत कर्म स्वयं दूर हो जाते हैं।
व्यवहारप्रतिक्रमण की आवश्यकता – कोई अपराध बन जाय। अब जब तक अपराध का स्मरण और पछतावे का विकल्प रहता है तब तक निश्चय मोक्षमार्ग की ओर गति नहीं हो पाती है। इस कारण व्यवहारप्रतिक्रमण के मार्ग से अपने आप में ऐसा समतल बना लेना कि जहाँ निश्चयमोक्षमार्ग में हमारी गति हो सके। इसके अर्थ ही व्यवहारप्रतिक्रमण है। गुरु से अपने दोषों की सही आलोचना कर के उनके द्वारा बताए गए दंड को बड़ी प्रसंता के साथ सहे, इसके प्रसाद से उसकी रुकावट, अर्गला समाप्त हो जायेगी। इस प्रकार से प्रसन्नचित्त होकर उस दंड को ग्रहण करना सो यही है व्यवहारप्रतिक्रमण। व्यवहारप्रतिक्रमण न किया जाय तो जीव में स्वच्छंदता आ जाती है। क्योंकि कोई आन अब नहीं रही।
व्यवहारप्रतिक्रमण के प्रयोजन की साधना में व्यवहारप्रतिक्रमण की सार्थकता―दोष हो जाने पर दोष की परवाह न करना अथवा मैं ज्ञान वाला हूँ, समझदार हूँ, निश्चय तत्त्व को जानता हूँ, उस ओर ही अपनी दृष्टि लगाकर सब अपराध दूर कर लूँगा, ऐसे ख्याल से व्यवहारप्रतिक्रमण अथवा दंड न स्वीकार करना यह प्रमाद प्रगति में बाधक बनेगा। व्यवहार में हैं तो व्यवहारप्रतिक्रमण करना तो आवश्यक है ही, पर व्यवहारप्रतिक्रमण में जो गुरु ने दंड बताया और उसे भुगत ले तो अब मैं केवल शुद्ध हो गया, अब मैं कर्मों को काट लूँगा, ऐसा ख्याल न बनाना। व्यवहारप्रतिक्रमण का प्रयोजन निश्चयप्रतिक्रमण में लगना । जैसे कोई पुरुष चाकू की धार बना रहा है पत्थर पर घिसकर तो धार ठीक बनी या नहीं, इसकी परीक्षा के लिए उसकी धार पर वह अपनी अंगुली फेरता है। समझ में आ जाय कि हाँ धार ठीक बन गयी तो अपने काम में लग जाता है, जिस के लिए धार पैनी की थी, इसी तरह व्यवहार प्रतिक्रमणक के द्वारा अपने आप के प्रज्ञा की धार पैनी की जा रही है। उस किए गए व्यवहारप्रतिक्रमणक से यदि आप में थोड़ा बहुत अपने कारणसमयसार की झलक की है तो वह चक्कू की धार पर अंगुली फेरने की तरह परीक्षा है। उस से आप जान सकेंगे कि हाँ हमने विधिपूर्वक प्रतिक्रमण कर लिया है।
मलिनता व निर्मलता का प्रभाव―एक बंगाल का किस्सा है, गुरुजी ने सुनाया था कि एक बहुत बड़े जमींदार की लड़ की थी, द्रोपदी जिस का नाम था, विधवा हो गयी थी छोटी उमर में । तो जमाना बड़ा स्वार्थभरा है, असहाय लोगों को स्थान कम मिलता है। तो पिताने अपने ही घर बुला लिया और एक बाग व कुछ जगह जमीन संपत्ति उस के नाम लिख दी ताकि इसका गुजारा ठीक चले। वह अपने पिता के घर में ही रहने लगी। कुसंयोग की बात है कि उस नगर के किसी पुरुष के साथ अनुचित संबंध बन गया। सो इतना पापों का परिणाम फूटा कि बाग के आम कडुवे हो गए और बावड़ी में जो पानी भरा था उसमें कीड़े पड़ गये। बहुत दिनों के बाद में लड़की को बड़ा पछतावा हुआ, प्रायश्चित लिया, दंड भोगा और ज्ञान व वैराग्य की ओर उसने अपना उपयोग लगाया। इतनी विरक्त हो गई कि सब कुछ त्याग कर देने का भाव आ गया। वह एक दिन बोली कि पिता जी हमारा भाव है कि अमुक तीर्थ पर मूर्ति पर जल धारा दूं, जलधारा देते ही मेरे प्राण निकलेंगे। तो जाने का दिन निश्चित हो गया, गांव के सब लोग पहुंचाने के लिए गए। तो जो लोग उस लड़की के चरित्र को जानते थे वे मुँह में रुमाल लगाकर हँसने लगे कि देखो अब यह बिल्ली सैकड़ों चूहों को मारकर हज्ज करने जा रही है। तब जाते समय उस द्रोपदी ने कहा कि अब मैं वह नहीं हूँ जो इस गॉंव की पहिले थे। अब मैं तीर्थयात्रा को जा रही हूँ। वहाँ मूर्ति पर जलधारा दूंगी और जलधारा देते ही प्राण निकल जायेंगे। यदि तुम को हमारी परीक्षा करनी हो तो अब बाग में जावो और आम चखो और बावड़ी का पानी पिओ। यह आगे चली गयी, लोगोंने जाकर आम चखे तो बड़े मीठे और पानी पिया तो बड़ा मीठा । लोगों को विश्वास हुआ कि अब इसके पवित्रता बढ़ी है और वहाँ भी देखने गये, जैसा कहा था वैसा ही हाल हुआ।
अंत:प्रतिक्रमण ― जब पापों से ग्लानि अंतरंग में होती है और हित स्वरूप आत्मतत्त्व की भावना जगती है तब प्रतिक्रमण और प्रायश्चित का सही अर्थ हो पाता है। जो पुरुष पुद्गलकर्म के उदय से होने वाले परिणामों से अपने आप को निवृत्त कर लेते हैं वे वर्तमान उदय के कारणभूत पूर्वकर्मों का प्रतिक्रमण करते हुए स्वयं ही प्रतिक्रमण का स्वरूप होते हैं। ऐसे प्रतिक्रमण के भाव के निमित्त से ये पूर्वकृत अपराध निवृत्त हो जाते हैं तब ये ज्ञानीसंत साक्षात् प्रतिक्रमणस्वरूप होते हैं।
प्रतिक्रमणप्रसंग में शिक्षारूप उपसंहार―यह मोही प्राणी पूर्वकृत कर्मों में अनुराग रखकर अपने गर्व को पुष्ट करता है। मैंने ऐसा किया था, मेरे ऐसा वैभव था, उन साधनों की स्मृति कर के अपने स्वरूप से चिगा रहता है। सो यह अत्यंत व्यर्थ की बात है। जो गुजरे सो गुजरे अब उसमें क्या लालसा रखना? पूर्वकृत करतूत की स्मृति पूर्वबद्धकर्मों के विपाक भोग लेने का प्रधान साधन है। इन पूर्वकृत अपराधों से वही पुरुष बचता है जो सदा वर्तमान अंत:प्रकाशमान निज सहज स्वभाव को दृष्टि में लेकर आत्मविश्राम करता है। यहाँ प्रतिक्रमण वर्णन कर के अब भविष्य के कर्मों से निवृत्त होने को प्रत्याख्यान का वर्णन करते हैं।