वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 105
From जैनकोष
मुक्त्त्वा परत्र परबुद्धिमहंधियं च, संसारदु:खजननीं जननाद्विमुक्त: ।ज्योतिर्मयं सुख मुपैति परात्मनिष्ठस्तन्मार्गमेतदधिगम्य समाधितंत्रम् ॥105॥
संसारसंकट से मुक्त होने का तंत्र – अज्ञानी जीव इंद्रिय और देह की क्रियावों को अपनाकर दुःख भोगा करता है । इस जीव का दुःख कैसे दूर हो ? इसका उपाय बताते हुए अब इस अंतिम श्लोक में समाधितंत्र ग्रंथ की समाप्ति हो जायगी । उस परमपद की प्राप्ति का उपाय बताने वाले इस समाधितंत्र को जानकर परमात्मा की भावना में स्थिरचित्त होते हुए यह ज्ञानी संसार के दु:खों को उत्पन्न करने वाली जो अहंकारबुद्धि है तथा परबुद्धि है उसको छोड़कर संसारमुक्त होता है और परम सुख को प्राप्त होता है । इस ज्ञानी के दुःख छूट जायें, इसका प्रकरण के अनुसार स्पष्ट उपाय तो यह है कि इस समाधितंत्र में जो उपाय बताये गए हैं उनको प्राप्त करे । समाधि का तंत्र अर्थात् मार्मिक उपाय । कैसे समाधि प्राप्त हो ? उसका तंत्र इस ग्रंथ में बताया गया है । समाधि नाम है स्वरूपसंवेदन की एकाग्रता होने का । रागद्वेषरहित समतापरिणाम का नाम समाधि है । यह समाधि जिस उपाय से स्व के अधीन कर ली जाती है उसे समाधितंत्र कहते हैं । तंत्र का अधीनता भी अर्थ है, किसी को अधीन कर लेना वह भी तो एक उपाय है । सर्व प्रथम यह जीव द्रव्य, गुण, पर्याय का यथार्थ स्वरूप समझे, जिसके प्रसाद से वस्तुओं की स्वतंत्रता नजर आने लगे । व्यवहार में, समागम में भी प्रत्येक वस्तुओं का स्वतंत्र स्वतंत्र परिणमन दिखने लगे और यहाँ तक की अपने आपमें अपने आपके द्वारा अधिष्ठित इस शरीर में जो क्रियाएँ हैं और यह मेरी क्रिया है वहाँ भी मिश्रण न हो सके, ऐसी भेदबुद्धि जिसकी जागृत रहती है वही पुरुष समाधि को प्राप्त कर सकता है । उसका उपाय इस समाधितंत्र ग्रंथ में है । तंत्र नाम शास्त्र का भी है । इस समाधितंत्र में अपने समाधि-प्रतिपादक शास्त्र को जानकर और इस समाधितंत्र की अर्थात् समाधि के उपाय को जानकर जो समाधि को अपने तंत्र करता है, अधीन करता है ऐसा पुरुष संसार के सर्व क्लेशों से दूर होता है ।समाधि का निर्देश – समाधि शब्द का अर्थ है ‘सम् सम्यकप्रकारेण आधीयते तत्त्वं यंत्र स समाधि: ।' जहाँ भली प्रकार से तत्त्व का आधान होता है उसे समाधि कहते हैं । तत्त्व है सहज ज्ञायकस्वरूप । वह वहाँ ही स्थित होता है जहाँ रागद्वेष नहीं रहते हैं । जितने भी संसार के क्लेश हैं उन क्लेशों का मूल, शरीर में आत्मबुद्धि करना है जो जीव देह से भिन्न आत्मतत्त्व को नहीं जानते हैं वे अपने देह में ‘यह मैं’ हूँ ऐसी प्रतीति करते हैं । अन्य देहों को निरखकर ये पर जीव हैं ऐसा सोचना भी भ्रम है और अपने देह को निरखकर यह मैं हूँ, ऐसा सोचना भी भ्रम है । सबसे पहिले देह से भिन्न स्वतंत्र, सत्तावान, आत्मतत्त्व है यह समझना होगा । इसकी समझ आते ही यह जीव आत्मा परमात्मा में निष्ठावान होता है ।
जीवत्व के संबंध में चार प्रकार की ज्ञेयता – आत्मा को, इस चैतन्य को लोग स्वतंत्ररूप से चार भागों में विभक्त करते हैं – जीव, आत्मा, परमात्मा और ब्रह्म । ये भिन्न चीजें नहीं है । एक सच्चिदानंद तत्त्व को जब विकारीरूप में निरखा, अहंकार-ममकार की तरंगों में चिपटा हुआ निरखा तब उसका नाम जीव रख लेना चाहिए, और इस ही सच्चिदानंद तत्त्व को जब विवेकपूर्ण, भेद विज्ञानी देखा तब इसको अंतरात्मा अथवा आत्मा कहना चाहिए । यह ही चिदानंदस्वरूप तत्त्व उस दर्शन के बल से शुद्ध हो जाता है तब इसको परमात्मा कहना चाहिए । ये तीन अवस्थाएँ हैं । इन सब अवस्थावों में समानरूप में सनातन शाश्वत जो एक स्वरूप चितस्वभावी है उस का नाम ब्रह्म बोलना चाहिए । इस प्रकार एक उस चित् तत्त्व में अवस्थावों के भेद से और उन अवस्थावों के आधारभूत शाश्वत स्वरूप के लक्ष्य से चार नाम कहे जाते हैं ।जीवत्व के चार ज्ञेयों में हेय उपादेयपने का विश्लेषण और आलंब्य तत्त्व – इनमें छोड़ने योग्य चीज है जीवात्मत्व, और कथंचित् किसी अवस्था तक ग्रहण करने योग्य है आत्मत्व अंतरात्मापन, और सर्वथा उपादेय है परमात्मत्व । यह जीवात्मा मूढ़ प्राणी अपना जीवात्मत्व त्याग कर परमात्मत्व को पाये इसका उपाय क्या है ? उसका उपाय है अंतरात्मत्व, भेद विज्ञान । और अंत:स्वरूप का आश्रय लेना यह उपाय नहीं किया जाता । इस उपाय में भी आश्रयभूत है यह ब्रह्मस्वरूप । इस ब्रह्मस्वरूप का आलंबन लेकर वह एक निर्मल दशा प्रकट होती है जो बढ़ते-बढ़ते परमात्मा के रूप में परिसमाप्त होती है ।ब्रह्म के आलंबन का प्रभाव – यह समाधि एक चित्स्वभाव के निरखने में प्रकट होती है । जितने विकल्प, वितर्क और विचार हैं वे सब इस समाधि के बाधक हैं; यहाँ तक कि व्रत, तप, संयम करते हुए में मोहीजन विचारे कि मैं यह व्रत कर रहा हूँ, इससे ही मैं पार होऊँगा, ऐसा एक मात्र बाह्य क्रिया में विकल्प है । किसके प्रयोजन के लिए ये ब्रत तप संयम किए जा रहे हैं उसकी भी जिसे परख नहीं है वहाँ भी ये विकल्प समाधि में बाधक होते हैं । मूल का ग्रहण करने के बाद फिर वे बाह्य क्रियाएँ इस प्रयोजन में सहयोग देने वाली होती है । कोई इस मूल तत्त्व को तो ग्रहण न करे और मात्र देहाधीन क्रियावों में ही अपने धर्म की परिसमाप्ति समझे वहाँ समाधि की पात्रता नहीं होती और कितने भी श्रम करने के बाद शांति प्रकट नहीं होती है । जैसे पेड़ के पत्तों को भी खूब धोया जाय, फूल और डालियों को भी खूब धोया जाय, सींचा जाय किंतु जड़ों में पानी का सिंचन न करे तो वह पेड़ हरा नहीं हो सकता । जड़ों में पानी दिए बिना केवल मात्र ऊपरी स्नान से वृक्ष हरा-भरा नहीं होता । ऐसे ही अपना परमशरण यह स्वरूप, सर्वविविक्त, शुद्ध ज्ञानानंदस्वभाव, इसका ग्रहण न हो, इसकी दृष्टि न हो और बाह्य में पर की ओर, देह की ओर निरखकर अनेक क्रियाएँ और श्रम करता रहे तो शांति नहीं आ सकती है । कषायों में भी अंतर नहीं पड़ सकता है ।अविकार अंतस्तत्त्व के आश्रय बिना कषायों के अभाव की असंभवता – लोग किन्हीं-किन्हीं के बाबत चर्चा करने लगते हैं कि देखो इतने दिन तो हो गए त्यागी हुए, व्रती हुए, या पूजापाठ करते हुए, भक्त बने हुए; कितना तो समय गुजर गया किंतु अंतर कुछ नहीं आ पाया, वैसा ही क्रोध, वैसा ही घमंड, वैसी ही ऐंठ, मायाचार, हठ, क्षोभ ये सब ऐब जैसे के तैसे बने हुए हैं, इनका क्या कारण है ? अरे ! कारण स्पष्ट है, जो निष्कषाय है, निर्दोष है ऐसे अपने शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव की उनके पकड़ नहीं है, उसकी दृष्टि करके परमार्थत: तृप्ति वे करना ही नहीं चाहते हैं । विश्राम के स्थान पर वे पहुँचे ही नहीं हैं । तब क्या करे यह बेचारा प्राणी ? कुछ भी करे, पर विषयों, कषायों को अंदर से हटा नहीं सका । मान लो किसी धुन में रसना इंद्रिय के विषय को मंद कर लिया, संतुष्ट हो गया, जैसा मिले तैसा खाले, तो मन का कोई विषय बढ़ जाता है । वह किसी ख्याति की सोचने लगता हैं परतत्त्व के संचय की बात कष्ट के लिए ही होती है ।परभाव के संचय में अनर्थ – भैया ! केवल धन के संचय का ही नाम पर का संचय नहीं है । अपने मन के जो विषय हैं ख्याति, पूजा, लाभ आदिक की जो चाह है; मेरा लोक में यश बढ़े, यह बड़ा पुरुष है, धनी है, ज्ञानी है, तपस्वी है, किसी भी प्रकार की ख्याति को सोचना यह भी तो एक संचय बुद्धि है । और जैसे धन के प्रति संचय की बुद्धि लग जाय तो उसकी यह इच्छा होती है कि सारा धन मेरे ही पास आये, दूसरे के पास न पहुँचे, तभी तो मैं बड़ा कहलाऊँगा, ऐसे ही नामवरी की चाह में भी ऐसी ही द्वेषबुद्धि हो जाती है कि सारा पूरा नाम मेरा ही हो, दूसरे का न हो । परतत्त्व के संचय में इस ऐब की बराबर समानता देखते जाइए । यह जीव अपने स्वरूप को भूलकर परतत्त्व के संचय में ही व्यग्र रहता है ।
निजकार्य का विवेक – यह संसार मायाजाल है, दृश्यमान सब कुछ मायारूप हैं, परमार्थभूत कुछ नहीं है, सब नष्ट होने वाले हैं । इन मायामय जीवों में, तत्त्वों में अपने कुछ नाम की चाह रखना, बड़प्पन की आकांक्षा करना यह कैसी स्वप्न जैसी अटपट कल्पना है । इसी अहंकार और ममकार से यह जीव परेशान है । कल्याण तो वह पुरुष कर सकता है जिसमें इतना साहस है कि मानों वह सारी दुनियाँ के लिए मर गया है, अर्थात् मैं अब मर चुका हूँ । मरे हुए पुरुष के प्रति दुनिया के लोक कुछ भी बकें अथवा कुछ भी प्रवृत्ति करें उसको क्या है ? ज्ञानी पुरुष दुनियाँ की दृष्टि में मरा हुआ ही तो है । अज्ञानी पुरुष समझते ही नहीं हैं कि ज्ञानी क्या है । मोहियों को मोह ही पसंद आता है । तो ज्ञानी भी यों समझ रखते हैं कि मुझे करना क्या है किसी परतत्त्व में । मैं सचमुच यदि अन्याय की वृत्ति करता हूँ तो वह मेरे लिए भयंकर चीज है । उस न्यायवृत्ति से रहते हुए क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच आदि गुणों के बल से तृप्त रहते हुए ही मेरा जो कुछ भविष्य है वह मेरे ही परिणामपर तो है । कोई परवाह नहीं है ।आत्मोन्नति के इच्छुकों का खुद से ही उन्निनीषा करने का औचित्य – भैया ! किसी दूसरे पुरुष से कुछ आशा रखकर सुधार न किया जा सकेगा । लोग मुझे बड़प्पन दें, तो मेरा सुधार हो जायेगा यह सोचना भ्रम है । इसमें तो बिगाड़ ही है । अपने आपका शोधन हो, पोषण हो इसमें ही सार है । किस समागम में विश्वास बनाये हुए हो, जिनके लिए तन, मन, धन, वचन सब कुछ अर्पण किए जा रहे हो । मोहियों के परिचय के विषयभूत ये परिचित अज्ञानी हैं ना, विषय-कषायों के भरे हुए हैं ना, अपने ही स्वार्थ से लगे हुए हैं ना, उनके दिल की मुराद पूरी करने के ख्याल में ऐसा विकट व्यायाम-कसरत करके क्या लाभ उठावेंगे ? कुछ तो सोचना चाहिए ।
किसी प्रकार के ढला-चला से, जैसो चला आया है धर्म भी सुनना चाहिए और पर्वों के मौके पर इस धर्म का यों पालन भी करना चाहिए । यह सब मात्र रूढ़ि से किए जाने से वास्तविक अंतर तो न आयगा । जिसे धर्म की रुचि है वह धर्म को रात–दिन, बारह महीने करना चाहता है । भले ही वह न कर सके, संग प्रसंगों में कुछ अन्य भी यत्न करने पड़ते हैं, न कर सके तो भी प्रतीति में यह है कि धर्म केवल आठै चौदस को ही करने को नहीं है, केवल दसलाक्षिणी-अष्टाह्निका में करने का नहीं है, धर्म तो आत्मा का स्वभाव है और वह प्रतिक्षण करने योग्य है । ज्ञानी पुरुष इस धर्म की साधना के लिए ही सर्व परिग्रहों का संन्यास किया करते हैं । ज्ञानी पुरुष अभिन्न आत्मस्वभाव की उपासना से और कभी-कभी भिन्न आत्मा की, परमात्मा की उपासना से अपने आपको ज्ञानमात्र बनाया करते हैं । जगत में हम आपका शरणमात्र समतापरिणाम है, ज्ञाता-दृष्टा रहना है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी विडंबना की तो उससे नियम से फँस जायगा । सर्व यत्न करके मोहजाल से प्रतीति को त्यागो । जब तक सर्व जीवों से समता भाव न बनेगा तब तक अपने आप में भी समाधिजन्य आनंद न प्राप्त होगा । मोह से दूर हों और शुद्ध ज्ञाता-दृष्टा रह सकें, ऐसा यत्न ही सर्व प्रकार से करने योग्य है, अन्य सब हेय तत्त्व हैं, ऐसा जानकर इस स्वरूप की आराधना के लिए यथोचित सर्व यत्न करना चाहिए । अपने को अपने सहज ज्ञायकस्वरूप के आलंबन का ही सच्चा शरण है । निज समयसार का निर्विकल्प आश्रय करनेरूप समाधि के बल से ही संसारसंकट दूर हो सकते हैं । अत: निर्विशेष सहज ज्ञान प्रभु से भाववंदनपूर्वक आवेदन कीजिये कि हे परमब्रह्म ! इस उपयोग में निरंतर विराजमान रहो अथवा तुममें यह उपयोग एकरस होकर समाया रहे ।
* इति समाधितंत्रप्रवचन चतुर्थ भाग समाप्त *