वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 103
From जैनकोष
प्रयत्नादात्मनो वायुरिच्छाद्वेष प्रवर्तितात् ।वायो: शरीरयंत्राणि वर्तंते स्वेषु कर्मसु ॥103॥
तान्यात्मनि समारोप्य साक्षाण्यास्तेऽसुख जड: ।त्यक्त्वाऽरोपं पुनर्विद्वान् प्राप्नोति परमं पदम् ॥104॥
आत्मा और देह की भिन्नता का प्रतिपादन – इस प्रकरण में यह बात सिद्ध की गयी है कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है । ऐसा सुनने पर जिज्ञासा हो सकती है कि जब आत्मा और शरीर बिल्कुल जुदे हैं तो आत्मा के चलने पर शरीर क्यों चलता है अथवा आत्मा जैसे शरीर को चलाना चाहता है वैसा शरीर क्यों चलता और जहाँ शरीर को बैठाना चाहता है वहाँ शरीर कैसे बैठ जाता ? आत्मा हाथ उठाना चाहे तो उठ जाता है, जैसा करना चाहे वैसा शरीर चलता है इसका क्या कारण है ? जैसे हम जुदे हैं आप जुदे हैं तो हमारे चलने से आप चल फिर तो नहीं सकते ऐसे ही आत्मा जुदा है, शरीर जुदा है तो फिर आत्मा के चलाने से शरीर को न चलना चाहिए, न ठहरना चाहिए, किंतु यह चलता है; ठहरता है, सब बातें नजर आती हैं फिर आप यह क्यों कहते हो कि शरीर जुदा है और आत्मा जुदा है ? उस ही के उत्तर में यह श्लोक कहा गया है ।शरीर यंत्र के संचरण का निमित्त कारण – आत्मा का जब इच्छा और द्वेष की परिणति से प्रयत्न होता है तो उस प्रयत्न से वायु चलती है और वायु के संचार से यह शरीररूपी यंत्र अपने-अपने कार्य करने में लग जाता है । हम हाथ हिलायें या कुछ बोलें तो उस हिलने और बोलने की क्या प्रक्रिया है ? मूल में कौन सी हरकत होती है, जिसके बाद फिर अंगोपांग हिलने-चलने लगते हैं ? सबसे पहिले आत्मा में इच्छा उत्पन्न होती है – ऐसा करूँ ! भले ही पूरी तरह से वाक्यों में नहीं यह बोलता है कि मैं ऐसा करूँ । एक घंटे कोई लगातार वेग से भाषण दे रहा है तो क्या एक-एक शब्द के प्रति वह ऐसा मन में स्फुटरूप से सोचता है कि मैं यह बोल दूँ, नहीं सोचता है, न कोई वाक्य बनाता है पर इच्छा शब्द के निरंतर बोलते हुए में होती जाती है । कोई एक हाथ को गोल-गोल 20 मिनट तक घुमाये तो उस घुमाने के बीच में कितनी बार उसकी इच्छा होती जाती है, क्षण-क्षण में निरंतर इच्छा चलती जाती है और घुमाओ और घुमाओ, पर इस तरह मन में बोलता नहीं है, फिर भी उस समस्त प्रयत्न का कारणभूत इच्छा चलती रहती है ।शरीरयंत्र के संचलन का मूल निमित्त जीव की इच्छा – सबसे पहिले यह आत्मा इच्छा करता है अथवा द्वेष करता है । जिस तरह भी इसका भाव बने उस इच्छा या द्वेष की प्रेरणा से आत्मा में योग चलता है जिसे योग मार्गणायें कहते हैं ।‘आत्मप्रदेशपरिस्पंद’ वह योग चलता है । उस योग को निमित्त पाकर शरीर में वायु चलती है । इस जीव का योग तक तो संबंध है, इच्छा की, तो वह आत्मा में ही परिणमन हुआ, द्वेष किया तो आत्मा में ही परिणमन हुआ । इससे आगे आत्मा और कुछ नहीं करता । अब इस प्रयत्न का निमित्त पाकर चूंकि शरीर के एक क्षेत्रावगाह में है ना यह आत्मा, इस कारण शरीर में बसा हुआ जो वात है, वायु है, जिसे वैद्य लोग वात, पित्त, कफ, कहते हैं, जो वायु पड़ी है उसमें हलन-चलन होती है और उस वायु के हिलने का निमित्त पाकर ये शरीर के अंग हिलते हैं ।आत्मविभाव व देहक्रिया में निमित्तनैमित्तिक भाव – आत्मविभाव व देहक्रिया में निमित्तनैमित्तिक संबंध है और वह भी इतना विशिष्ट संबंध है कि उस नैमित्तिक देहक्रिया की धारा आत्मा के विभाव के अनुकूल होती है । इसी कारण लोग यों ही देखकर सीधा कह देते हैं कि यह जीव चलता है, बोलता है, खाता है, अनेक प्रकार से उन ही क्रियाओं का आरोप यह लोक करता है । पर, विश्लेषण करके देखा जाय तो यों निरखो कि जीव का काम कितना है और शरीर का काम कितना है । कैसा निमित्तनैमित्तिक भाव है कि जीव तो केवल राग या द्वेष करता है, तदनुरूप ज्ञान तो साथ में है ही । अब जीव के उस प्रकार की ज्ञान, इच्छा तथा योग का निमित्त पाकर उस शरीर में सब व्यवस्थित काम होते हैं, अट्ट-सट्ट नहीं । जिस प्रकार की इच्छा हुई वैसा ही योग हुआ और वैसा ही शरीर चला ।वचनोद्भूति का निमित्त – भैया ! बोलने में जिस अंग के जोर देने से जो उच्चारण होता है वही उच्चारण होता है । जैसे क ख ग घ आदि अक्षरों के बोलने पर कंठ में जोर पड़ता है, च छ ज झ आदि अक्षरों में तालुस्थान पर जोर देना पड़ता है, जीभ का स्पर्श करना पड़ता है । तालुस्थान वह है जहाँ दाँत फँसे हैं । उसमें जीभ लगायें तो ये अक्षर बोले जा सकते हैं । उसके ऊपर मूर्धा में जीभ लगाकर ट ठ ड ढ आदि अक्षर बोले जाते हैं । यह हारमोनियम का जैसा बाजा है । जहाँ स्वर दबावो वैसी आवाज निकलेगी । इसे कोई वैज्ञानिक बना सके तो बना ले । इस तरह की हवा दे सके, जितना जोर जहाँ देना चाहिए, दे तो ऐसा बोला जा सकता है; पर यह कठिन बात है । दाँतों में जीभ लगाये बिना त थ द ध नहीं बोले जा सकते । ओंठों में ओंठ लगाये बिना प फ ब भ नहीं बोले जा सकते । तो जैसी यह जीव इच्छा करता है वैसा ही योग चलता है और उसके ही अनुसार वायु हिलती है और उसके अनुसार ही ये सब ओंठ, जीभ आदि चलते हैं । अब बताओ, एक-एक अक्षर के बाद एक अक्षर बोला जाता है और उन सबकी इच्छावों के अनुसार इस शरीर का यत्न चलता है । ऐसे ही और भी उच्चारणों की विधि है जैसे कि कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग बोले जाते हैं, जरा नाक को और दाब दिया तो ङ, ञ, ण, न, म, आदि अक्षर निकलते हैं । नाक के दोनों नथुनों को पकड़ लो तो ये शब्द नहीं बोले जा सकते । जीभ, कंठ, ओंठ आदि हिलने के साथ भाषावर्गणा के पुद्गलों का निमित्त-नैमित्तिक भाव है और उससे उच्चारण होता है ना, ऐसा ही और भीतर आगे देखो इस शरीर की हरकत होने से मूल में पहिले इस जीव के योग का निमित्त है । कैसे आत्मा के प्रदेश हिलते हैं तो यह शरीर का यंत्र चलता है ? पूर्वबद्ध कर्मों के उदय का निमित्त पाकर आत्मा में राग-द्वेष की प्रेरणा के कारण मन, वचन, काय की क्रियारूप प्रयत्न हुआ । भैया ! जो मन में वचन काय की क्रिया हुई है वह तो जड़ की क्रिया है, इस जड़ की क्रिया होने में निमित्तभूत जो प्रयत्न होता है आत्मा का, वह है योग । उस प्रयत्न का निमित्त पाकर प्रदेश-परिस्पंद हुआ और प्रदेशपरिस्पंद होने से शरीर के भीतर की वायु चली और वायु के चलने से यह यंत्र अपने कार्यों में प्रवृत्त होने लगा ।शरीर की यंत्ररूपता – यह शरीर यंत्र की तरह ही तो है, जैसे काठ के बनाये हुए जो घोड़ा आदि के यंत्र हैं । रथ बनाते हैं उसमें घोड़े चलाये जाते हैं और कितने ही तो ऐसे घोड़ों के यंत्र बना लिए जाते हैं कि उनकी टाँगें भी चलती हैं, तो जैसे काष्ठ का यंत्र जिस तरह हिलावो उस तरह हिलता है ऐसे ही जिस प्रकार यह मनुष्य अपनी जीभ हिलाता है वैसा ही हलन हो जाता है । जैसे बच्चों के खेलने की मोटर में चाबी भर दी जाती है तो जैसे चाबी भर दी जाती है वैसे हिलती जाती है, ऐसे ही इस शरीर-यंत्र को जीव जैसे हिलाना चाहता है उस प्रकार हिल जाता है । कभी ऐसा भी हो जाता है कि यह जीव चाहता है कि हम शरीर के अमुक अंग को हिलायें और नहीं हिलता है । जिसे कहते है लकवा मार जाता है, तो वह एक यंत्र की खराबी है । यंत्र सही हो तो जिस प्रकार यह आत्मा प्रयत्न करता उसका निमित्त पाकर वैसा ही यह हिलने लगता है । यों इस शरीर का हिलना-डुलना होता है ।प्रवर्तन के प्रसंग में जीव और पुद्गल के कार्य – इन सब क्रियाओं में भी जीव और पुद्गल की न्यारी-न्यारी बात है । जीव का काम ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न तक था । शरीर में वायु का चलना, यंत्रों का चलना यह शरीर का काम है । लेकिन यह बहिरात्मा इस शरीर-यंत्र को, जिसमें ये इंद्रियाँ बनी हैं, आत्मा में आरोपित करता हैं । चूँकि इसने यों माना पहिले कि यह मैं हूँ, इतना लंबा, चौड़ा, मोटा । इसने शरीर में अहंबुद्धि की, जब शरीर में आत्मतत्त्व की कल्पना की, आरोप किया तो जैसा उस निमित्त-नैमित्तिक संबंध में यह चलता है, उन्हें फिर यह मान लेता है कि मैं बोल रहा हूँ अथवा मैं शरीर को चलाता हूँ, हाथ-पैर हिलाता हूँ, इस तरह का भ्रम यह अज्ञानी पुरुष करने लगता है और इन पदार्थों में आत्मीयता का आरोप करने से यह जीव क्लेश ही पाता है, शांति नहीं पाता है । विकल्प करे, कल्पना बढ़ाये, बहिर्मुखी दृष्टि करे उससे तो इसे क्लेश ही मिलता है ।निज-निजरूप में देखने का विवेक – भैया ! इस शरीर को शरीररूप और आत्मा को आत्मारूप देखना यह विवेकी पुरुष का ही काम है । यह शरीर मैं हूँ इस प्रकार का भ्रम ज्ञानी जीव के नहीं होता है । सो ज्ञानी जीव इस भ्रम को त्यागने के कारण और प्रत्येक पदार्थ में उस ही पदार्थ का गुण, पर्याय निरखने के कारण कल्पना जाल से, संकटों से बच जाता है और परमपद जो मोक्ष पद है उसकी प्राप्ति कर लेता है । यह अज्ञानी जीव मिथ्यात्व के आशय से इन इंद्रिय की क्रियाओं को अपने आत्मा की क्रियाएँ समझता है । इस असमान जातीय द्रव्यपर्याय में आत्मपदार्थ की कोई क्रिया है, इसका भेद डालनेवाला ज्ञानी पुरुष प्रसन्न रहा करता है, वह कभी खेद नहीं मानता ।
परप्रसंग में अज्ञानी का परिणमन – अज्ञानी तो अपने घर की एक ईंट भी खिसकते देख ले तो उसका भी हृदय खिसक जाता है । ऐसा यह जीव भ्रम में बढ़ा हुआ है । कोई एक घटना है कुछ वर्षों की, कि एक किसान अनाज बेचने गया । तीन चार सौ रु. का अनाज बेचा, रुपया नोटों के रूप में थे । सो उन रुपया की गिड्डी वह लिए हुए था, जाड़े दिन थे, भट्टी में ताप रहा था सो उसके बच्चे ने उन नोटों को भट्टी में डाल दिया, वे रुपये जल गए । उस किसान को उससे इतना दुःख हुआ कि उसने अपने बच्चे को भी उस भट्टी में पटक दिया । वह बच्चा मर गया । तो ऐसे इन जड़, अचेतन पदार्थों में इसकी इतनी आत्मीयता है । ऐसे ही इस शरीर में आत्मीयता कर ली कि यह मैं हूँ सो शरीर चले तो अपने को चलता मानता है । अब इसे मुक्ति का कहाँ से अवकाश मिले ? छुटकारा का तो अर्थ यह है कि शरीर अलग हो जाय और आत्मा अलग हो जाय । ऐसा छुटकारा पाने के उपाय में यह करना बहुत आवश्यक है कि यह जीव पहले मान ले कि शरीर भिन्न है और जीव भिन्न पदार्थ है । यह कब माना जा सकता है ? जब ऐसा ध्यान में रहे कि यह शरीर की क्रिया है, इसका उपादान शरीर है,; यह आत्मा की परिणति है, इसका उपादान आत्मा है । इस प्रकार भिन्न-भिन्न गुण, पर्याय ज्ञान में आयें तो मुक्ति का अवकाश मिल सकता है । परपदार्थों में मोह करके मुक्ति, आनंद, शांति, संतोष इसे नहीं मिल सकता है ।देहक्रिया को भिन्न पहिचानने के कारण ज्ञानी के बंध का अभाव – इस जीव ने इंद्रियों की क्रियावों को अपनी क्रियाएँ समझीं और इस तरह भ्रम में पड़कर यह विषय-कषायों के जाल में उलझता हुआ अपने को दुःखी बनाता रहता है, किंतु अंतरात्मा न भ्रम करता है न इंद्रिय की क्रियाओं को आत्मा की क्रियाएँ मानता है । इसी कारण वह विषय-कषायों के जाल में नहीं फँसता । इसी से कर्मबंधन नहीं होता । कर्मों का संवर हो, निर्जरण हो तो ऐसे ही शुद्धोपयोग का आलंबन करके यह जीव अपने एकत्वस्वरूप में रमता है और उस एकत्वस्वरूप के प्रसाद से द्रव्यकर्मों से व नोकर्मों से छूट जाता है भावकर्म भी इसके दूर हो जाते हैं । यों सर्वप्रकार के बंधनों से छूटकर ज्ञानी जीव परमात्मपद को प्राप्त करता है और शाश्वत परम आनंदमय होता है । यों भिन्न-भिन्न वस्तुस्वरूप जानने के प्रसाद से संसार के समस्त संकट दूर होते है ।