वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 14
From जैनकोष
देहेष्वात्मधिया जाता: पुत्रभार्यादिकल्पना:।संपत्तिमात्मनस्ताभिर्मन्यते हा हतं ! जगत्।।14।।
देह में आत्मबुद्धि होने से विडंबना का विस्तार―पूर्व श्लोक में यह बताया है कि जो जीव देह को आत्मा मानता है वह तो देह से अपने को जुड़ाये रहता है, जन्म जंमांतर पाये हुए है। और जो जीव देह से भिन्न अपने आत्मा में ही अपने आत्मा का निश्चय करता हो वह इस देह से छुट जाता है। अब इस छंद में यह बताया जा रहा है कि देह में आत्मबुद्धि करने से फिर कैसी-कैसी विडंबना की नौबत आती है। देह में ‘यह मैं हूँ’ ऐसी आत्मबुद्धि होने से फिर अन्य देहों में ‘यह अमुक है’ ऐसी बुद्धि होती है और फिर दोनों जगहों का संबंध जोड़ा जाता है। यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा अन्य कुछ है, ऐसी कल्पनाएं उत्पन्न हो जाती हैं। और इतना ही नहीं कि आखिर यही कल्पना हुई हो, उस कल्पना के फल में यह जीव पुत्र स्त्री आदिक को ही अपनी संपत्ति मानता है। अज्ञानियों के स्त्री से महत्त्व की समझ―भैया ! इतने पुरूष बैठे हैं हमारी समझ में 90 प्रतिशत पुरूष अपनी स्त्री की बड़ाई करते हुए मिलेंगे। 10 प्रतिशत होंगे ऐसे जो स्त्री की बुराई करते हों। मोह में प्राय: ऐसी ही बुद्धि जगती है कि इसमें ही बड़प्पन समझते हैं कि मेरी स्त्री बड़े अच्छे स्वभाव की है और कोई-कोई इतना तक कह बैठते हैं कि हमारी जैसी स्त्री कहीं न मिलेगी। क्या सारी दुनिया में न मिलेगी ? पर ऐसी कल्पना बन गयी है कि पुत्र और स्त्री को अपनी संपत्ति मानते हैं, बड़प्पन मानते हैं मैं बड़ा हूँ क्योंकि मेरी स्त्री है, मेरे ऐसे पुत्र हैं, मुझसे बड़ा और कौन होगा अर्थात् बड़प्पन पुत्र स्त्री के माप पर किया जाता है और इसी कारण यह सारा जगत बरबाद हो रहा है। परिजन वैभव से महत्त्व मानने की मूढ़ता―भैया ! जगत तो क्या मनुष्यों की ही बात देख लो। कहते हैं लोग कि जब तक इसकी शादी नहीं हुई तब तक यह द्विपद कहलाता है, दो पैर वाला कहलाता है, और जब शादी हो गई तो चार पैर वाला कहलाता है। एक ही जीव हो और चार पैर हों तो उसका नाम चौपाया (पशु)। पर जीव दो हैं तब चार पैर हैं, इसलिए पशु नहीं कहलाया। एक ही हो और एक के ही चार पैर हैं तो पशु कहलाने की नौबत आए, चौपाये कहलाने की नौबत आए। फिर हो गए बालबच्चे तो षट्पद हो गए। अब भौंरे की तरह घूम-घूमकर सर्वत्र चक्कर लगाता है। और फिर और बच्चे हो गए, पोता नाती हो गए तब तो आगे क्या बतावें ? जिसके अधिक पैर हों ऐसे कोई जानवर का नाम ले लो। इसमें कुछ बिगाड़ नहीं है। जितने चाहे परिजन हो जायें, मगर उनसे अपना बड़प्पन समझें कि मैं इसके कारण बड़ा हूँ तो यह खराबी है। होने को कितने ही हो जायें। यह तो संसार की स्थिति है पर उनसे अपना बड़प्पन मानना मूढ़ता है।
गुणविकास में महत्व―भैया ! बड़प्पन मानो अपने गुण विकास का। मेरा मन कितना शुद्ध है, मेरे विचार कितने पवित्र हैं, मेरी दृष्टि बंधनरहित ज्ञायकस्वरूप निज तत्त्व में कितनी देर लगती है और मैं उस शुद्ध ज्ञानानंदरस का कितना स्वाद लेता हूँ, मैं अपने को एकत्व स्वरूप में कितना लगा सकता हूँ―यह बात होती तो तब तो है बड़प्पन और इसके विपरीत स्थिति है, अपनी खबर नहीं, बाहर-बाहर की ओर दृष्टि है तो ऐसी स्थिति में कुशल नहीं है। परिसंग से विपत्ति―एक साधुजी के पास एक बालक शिष्य पढ़ता था। 18, 19 वर्ष की उम्र हो गयी। उसे खूब पढ़ाया था। अब वह बालक बोला कि गुरूजी हमें इजाजत दो तो हम तीर्थयात्रा कर आएं। तो गुरूजी बोले कि आत्मा ही तीर्थ है, इसके स्वरूप का अभ्यास करो। कहां भ्रमण करते हो ? शिष्य बोला, नहीं महाराज हमें आज्ञा दो। अच्छा बेटा नहीं मानते हो तो जावो। वह चला यात्रा करने को। बहुत आगे जाकर देखता है कि बहुत आदमी गाजे बाजे पालकी सहित आ रहे हैं। सो उनके आने पर वह पूछता है कि यह क्या चीज है ? तो लोगों ने बताया कि यह बारात है। बारात कैसी होती है ? अरे उसमें एक दूल्हा होता है उसे ही बारात कहते हैं। सो दूल्हा मतलब क्या है ? एक बाराती ने कहा कि एक जवान लड़का होता है, उसकी शादी होती है, फिर उसके बच्चे होते हैं, घर चलता है, इसका नाम बारात। इतना सुनकर आगे बढ़ गया। रास्ते में बड़ के पेड़ के नीचे एक कुवां था, जिसकी मुड़ेल उठी न थी। एक निर्जन स्थान में था। वह कुवें के निकट सो गया। अब उसे स्वप्न आया कि मैं सो रहा हूँ, मेरे पास स्त्री सो रही है और बीच में बच्चा सो रहा है। स्त्री कहती है अरे जरा सरक जावो, बच्चे को तकलीफ हो रही है। सो स्वप्न में विचार तो आते हैं स्वप्न के, मगर कभी शरीर सचमुच क्रिया हो जाती है, जब तेज स्वप्न आता है। तो वह जरा सरक गया। दुबारा स्त्री ने फिर कहा कि थोड़ा और सरकिए, वह थोड़ा और सरक गया, तिबारा फिर थोड़ा सरकने को कहा। तो ज्यों ही तिबारा थोड़ा सरका तो वह कुवें में गिर पड़ा। अब उसकी नींद खुल गयी। सारी विपदा दिखने लगी। इतने में एक जमींदार आया। सो उसने डोर में लोटा फँसाकर कुवें में पानी भरने के लिए डाला तो उसने उसे पकड़ लिया। और भीतर ही चिल्लाया, भाई डरना नहीं, मैं एक आफत का मारा आदमी हूँ, मैं गिर गया हूँ, मुझे निकाल लो, फिर मैं सारी कहानी सुनाऊंगा। उसे निकाल लिया। अब जमींदार पूछता है कि तुम कौन हो, कैसे इसमें गिरे ? वह लड़का कहता है कि महाराज तुमने बड़ा उपकार किया। मेरी जान बचायी। तो जो उपकारी हो उसका परिचय पहिले मिलना चाहिए। कृपा कर आप ही अपना परिचय दें। तो जमींदार बोला कि अरे मेरी क्या पूछते हो ? मैं एक बड़ा जमींदार हूँ, 10 गांव में मेरी खेती है, 60 जोड़ी बैलों की हैं। लड़के हैं, उनकी बहुवें हैं, उन सब बहुवों के भी लड़के हैं। 50, 52 बाल बच्चों का कुटुंब है। हमारा क्या परिचय पूछते हो ? तो वह लड़का कभी उसके सिर की ओर देखे, कभी पीठ देखे कभी पैर देखे। तो जमींदार कहता है कि क्या तुम मेरी डॉक्टरी कर रहे हो ? कभी सिर की ओर देखते, कभी पैरों की ओर देखते, कभी पीठ की ओर देखते ? तो वह लड़का बोला कि मैं यह सोच रहा हूँ कि मैंने तो स्वप्न में गृहस्थी बसायी थी, सो कुवें में गिर गया और तुमने सचमुच की गृहस्थी बसायी है और अभी तक जिंदा हो। आत्महित में ही वास्तविक जीवन―सो भैया ! जिंदा तो सब हैं ही पर जिनके आत्महित की दृष्टि नहीं हुई, बाहर ही बाहर संचय और परिजन दृष्टि है उन्हें जिंदा व्यवहारीजन कहें तो कहें, मगर वह जीव ही क्या कि जहाँ अपने आनंदघन शुद्ध पवित्र स्वरूप का दर्शन भी न हो सके और बाहरी-बाहरी उपयोग में ही चित्त उलझा हुआ रहे। वह जीवन यदि जीवन है तो मरण किसका नाम है ? यह बहिरात्मा शरीर में आत्मबुद्धि करके पुत्र स्त्री आदिक की कल्पना करता है, और मान भी लें इतने में बिगाड़ नहीं है पर उनके कारण अपने को संपत्तिवान् समझते हैं, अपना बड़प्पन जानते हैं। आचार्यदेव कहते हैं ‘‘हा हतं जगत्’’ उनको इस जगत के जीवों की विपत्ति दिख रही है, इसलिए वे खेद के साथ कह रहे हैं कि हा संसार बरबाद हुआ जा रहा है। राग का विश्व पर शासन―ऐसी ही किंवदंती है कि ब्रह्माजी के पेट में 5 जीव आनंद कर रहे थे―ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र और स्त्री। सो ये जब बहुत किलोल करें तो उनका पेट दुखने लगा, तो ब्रह्माजी बोले कि अरे निकलो बाहर। पहिले ब्राह्मण देवता से निकलने को कहा। तो ब्राह्मण देवता बोला कि हमें तो तुम्हारे पेट में बड़ा मौज है, हमें न निकालो। तो ब्रह्मा ने कहा कि निकलो हम तुम्हें एक अच्छा काम देते हैं, लोग तुम्हें पूजेंगे, हाथ जोड़ेंगे। सो ब्राह्मण तो निकल गया। क्षत्रिय से कहा निकलो बाहर हम तुम्हें बढ़िया काम देते हैं तुम प्रजा पर राज्य करना, शासन करना, मस्त रहना। वह भी निकल गया। वैश्य से कहा कि निकलो। तुमको बढ़िया काम यह देते हैं कि रोजगार करना, व्यापार करना, खूब धन कमाना, मालामाल होना, सेठ साहूकार कहलाना। वह भी निकल आया। शूद्र से कहा निकलो बाहर। अरे थोड़ी सेवा ही तो करना है, और बिना परिश्रम धन लूटो। वह भी निकल गया। अब स्त्री से कहा कि तू निकल। तो स्त्री ने कहा कि हम नहीं निकलते, वे सब कम बुद्धि के थे सो निकल गए। हम तो तुम्हारे पेट में ही मौज लेंगी। तो ब्रह्मा बोले, अजी हम तुम्हें अच्छा काम देते हैं―देखो थोड़े राग वचन कह देना, थोड़ा अपने हाव भाव दिखा देना, फिर तुम सारे जगत के ऊपर एकछत्र शासन करना। सो ऐसा एक छत्र शासन करने का अधिकार मिला, और वही जिसके अंडर में हो वह क्या बड़प्पन न चाहेगा ? ऐसी लोक रीति है। मोह मद―जीव ने इस परिजन के संबंध में अपना बड़प्पन समझा अपनी स्त्री से अपना बड़प्पन समझा और यही एक मदिरा पीना हो गया, होश न रहा। और उनमें भी भेद भावना हो गयी। उनके लिए माता से बड़ी स्त्री हो गयी। कभी माता और स्त्री में झगड़ा हो जाय तो पति किसका पक्ष लेगा ? ऐसा नियम तो नहीं है पर प्राय: करके पति अपनी स्त्री का ही पक्ष लेगा। दूसरे समझायें कि अरे माता है, उसकी खबर रक्खो, तो वह कहेगा कि अरे क्या बताएं माता बिल्कुल उल्टा―उल्टा चलती है। अरे अब चलने लगी उल्टा। और जब तुम बच्चे थे, तुम्हें लाड़प्यार से पाला, तुम्हारी सूरत देखकर जिंदा रही और तुम्हारी ही खुशी में खुशी माना, अगर तुमने खाट पर मूत दिया हो तो स्वयं गीली मूत भरे वस्त्र पर लोटती और तुम्हें सूखे में लिटाती थी और आज वह उल्टी हो गयी उस लड़के की दृष्टि में।
देहात्मबुद्धि के नशे का विस्तार―भैया ! मोह में कितनी कल्पना होती है, कैसा कषायभाव होता है, स्त्री से कितना बड़प्पन माना है ? कभी यात्रा में जाते हैं ना आप लोग स्त्री समेत तो रेल से जब उतरते हो तो कुली की तरह तुम लदते हो कि तुम्हारी स्त्री ? बिस्तर, पेटी, तुम ही तो लादते हो और स्त्री बड़ी शान शौक से चलेगी हाथ में बटुआ लेकर ऊंची एड़ी की पनहिया पहिनकर। इसमें ही पुरूष अपने में बड़प्पन महसूस करता है। कोई यार दोस्त मिल जाय बात करने को और वह जान जाय कि इनकी बेगम बहुत शान से और बहुत ढंग से रहती है, इसमें ही खुश हो रहे हैं। इन परिजन के कारण यह बहिरात्मा अपने आप को बड़ा मानता है, और न भी कुछ कहे, न बड़ाई करे, न रंग ढंग दिखावे तो मन में तो उस सब कुटुंब का चित्रण बना ही रहता है। और शायद भगवान् के दर्शन करते हुए भी भगवान् को भी स्त्री पुत्र से बड़ा न मान पाता हो। इतना आदर प्रभु का भी मन में नहीं होता जितना आदर परिजन का करते हैं। ऐसा विचित्र यह महा मोह मद इस जीव ने पिया है उसका कारण केवल यह ही एक है कि शरीर में उसने यह मैं आत्मा हूँ ऐसी बुद्धि की। भ्रम मूल के विदारण में विडंबनाओं के हटाव पर एक बाल दृष्टांत―भैया ! देह में आत्मबुद्धि मिट जाय तो फिर ये सब व्यामोह की विडंबनाएं समाप्त हो सकती हैं। बच्चों की गोष्ठी में कहानियां और गद्य उड़ते हैं ना। तो उनकी कहानी है कि स्यालनी के गर्भ रह गया तो स्याल से बोली कि अब कहां बच्चे पैदा करें, स्थान तो बतावो ? तो स्याल ने एक शेर का घर बात दिया कि तुम शेर के बिल में अपने बच्चे जन्मावो। अरे यहाँ तो शेर आयेगा। परवाह नहीं है, कुछ साहस रूप वचन कह दिया और कान में मंत्र फूंक दिया। अच्छा जन्मने दो। अब शेर के बिल में पैदा हुए बच्चे। उसके बहुत ऊपर एक छोटी सी भींत थी। सो उस पर जाकर स्याल बैठ गया ताकि दूर से देख ले कि शेर तो नहीं आ रहा है। जब शेर पास में आया तो स्यालनी ने बच्चे रूला दिये। सो स्याल पूछता है कि अरे रानी ! ये बच्चे क्यों रोते हैं ? तो कहती है कि राजन् ये बच्चे शेर का मांस खाने के लिए माँगते हैं। शेर ने सुना तो डरकर भाग गया। अरे हमारा भी मांस खाने वाला कोई है। ऐसे ही 10, 20 शेर डरकर भाग गए। अब शेरों ने गोष्ठी की कि अपन को तो यह मालूम पड़ता है कि जो यह शिखर पर चढ़ा हुआ है उसी की सारी बदमाशी है, अपन हिम्मत करके चलें और उसे पकड़कर गिरा दें। शेरों ने सलाह की कि कैसे वहाँ तक चढ़ें ? कहा कि एक शेर के ऊपर एक इस तरह से सभी चढ़ जायें। सबने सोचा कि ठीक है। पर सबसे नीचे कौन रहे ? सोचा कि एक शेर जिसकी टाँग टूटी है, वही नीचे रहे क्योंकि वह ऊपर चढ़ नहीं सकता। सो नीचे लँगड़ा शेर रहा और एक के ऊपर एक चढ़ते गए। जब स्याल के निकट शेर आ गया तो स्यालिनी ने बच्चे रूला दिये। अब स्याल पूछता है कि अरे रानी ये बच्चे क्यों रोते हैं ? स्यालिनी कहती है कि राजन् ये बच्चे लंगड़े शेर का मांस खाना चाहते हैं। इतना सुनकर लँगड़ा शेर डरकर भागा। अब सभी शेर भद भद करके एक के ऊपर एक गिर गए। अब तो सभी शेर डरकर भागे और फिर आगे आने की हिम्मत भी न की तो जैसे वे सारे शेर एक लंगड़े शेर के आधार पर थे, लंगड़ा शेर खिसका तो सभी शेर गिर गए, ऐसे ही ये जो सारी विडंबनाएं है। धन कमाना, संचय करना, परिजन को प्रसन्न करना, ये सारी सारी विडंबनाएं एक इस भूल पर आधारित हैं कि देह को इसने आत्मा मान लिया। मिथ्यात्व, मोह, पर्यायबुद्धि देह में आत्मत्व की कल्पनाएं जिनके आधार पर सारी आफतें विडंबनायें पड़ी हुई हैं, ये अवगुण सारे मिटा दिये जायें तो ये सारी विडंबनाएं खदरबदर हो जायेंगी।
दृष्टि का माहात्म्य--हे भैया ! सब एक दृष्टि का अंतर है। ज्ञानी चक्रवर्तियों के हजारों परिजन रहे हों, हजारों रानियां रही हों, लेकिन उनकी दृष्टि स्वच्छ थी, सो उनके कोई विडंबना न थी। एक अपने ज्ञान को संभाल लेने पर फिर कोई विडंबना नहीं रहती। काम वे ही हैं, परिणतियां वे ही हैं, केवल एक दृष्टि के फेर से विडंबनाएं होना और विडंबनाएं न रहना, ये दोनों बातें हो जाती हैं। यह जीव देह में आत्मबुद्धि करके ये सब कुटुंब मान रहा है। इसीलिए उसको अपनी महत्ता कुटुंब के कारण ही समझ में आती है। बच्चे हैं, कुल चलेगा। अरे जिस भव से आया उस भव के कुल की भी खबर नहीं है कि किस कुल में पहिले थे ? तब यह भी कुल क्या है ? तुम एकाकी हो, सारे जीव तुझसे अत्यंत भिन्न हैं। शांति का उपाय निजस्वरूप की झलक―ये मोही प्राणी उल्टा चलते हैं। जो अपने विनाश का हेतु है उसे मानते हैं कि यह मेरी संपत्ति है। सारी विडंबनाएं इस देहाध्यास से हैं। इसलिए पढ़कर, गुनकर ध्यान करके, प्रयोग करके एक इस बात की झलक ले लें कि देह तक से न्यारा ज्ञानानंद स्वभावमात्र मैं आत्मतत्त्व हूँ। ऐसे विविक्त निजस्वरूप की झलक आ जाय तो बेड़ा पार है, और एक इस ही निज स्वरूप की झलक न आ सके, बाहर ही बाहर मोह नींद के स्वप्न देखते रहें तो जिंदगी तो निकल ही जायेगी। यह समय रूकता नहीं है पर दुर्लभ मनुष्य जीवन की समाप्ति के बाद कदाचित् कीड़े, मकौड़े या स्थावर पेड़ वगैरह हो गए तो अब वहाँ कितने ही क्लेश मिलेंगे। वहाँ सुख व शांति की क्या आशा की जाय ? अब मनुष्य हुए हो तो इस मनुष्य जीवन में तो कुछ सावधानी रहे। ज्ञानरसास्वाद―भैया ! कितना अंतर है विषयों के रस में और ज्ञान के रस के अनुभव में ? ज्ञानरस के स्वाद में वर्तमान में भविष्यकाल में सर्वत्र शांति ही शांति है और एक विषयों के प्रसंग में प्रारंभ में, वर्तमान में, भविष्य में अशांति ही अशांति है। सो सारी विडंबनाएं मिटाना है तो एक विज्ञानघनैकरस निज आत्मतत्त्व को झांक लो और इस देह से अपने को अत्यंत पृथक् मानो, स्वरूपदृष्टि करो। फंसे हैं, अलग नहीं हो सकते, यह तो है परिस्थिति की बात, फिर भी देह से अत्यंत न्यारा हूँ―ऐसा चिंतन करना यह है ज्ञानसाध्य बात। तो इस ज्ञानभावना से ही हम विपत्तियों से दूर हो सकते हैं। इस कारण सर्वयत्न करके एक इस ज्ञानभावना को भावो और ज्ञानरस का स्वाद लेकर आनंदमग्न हो, इससे ही सर्व बाधाएँ दूर होंगीं।