वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 13
From जैनकोष
देहे स्वबुद्धिरात्मानं युनक्त्येतेन निश्चयात्।स्वात्मन्येवात्मधीस्तस्माद्वियोजयति देहिनं।।13।।
देह पाने व विदेह होने का उपाय―इस श्लोक में देह मिलते रहने की और देह न मिलने की औषधि बतायी गयी है। किसी को यदि ऐसी आकांक्षा है कि हमको शरीर मिलता ही रहे तो उनके लिए भी इसमें औषधि बतायी है और कोई यह चाहे कि देह तो संकट का स्थान है, इस देह से तो छुटकारा होना ही भला है, जिन्हें देह न चाहिए उनके लिए भी औषधि बतायी गयी है। जिन्हें शरीर की आकांक्षा है कि मुझे शरीर मिलते रहें, उन्हें चाहिए कि मिले हुए शरीर में यह मैं आत्मा हूँ ऐसी बुद्धि बनायें। इस प्रयोग से उनको शरीर बराबर मिलते रहेंगे। जो जीव देह में आत्मबुद्धि करते हैं वे निश्चय से शरीर से अपने आत्मा को जोड़े ही रहते हैं। एक शरीर मिटा दूसरा शरीर मिला, और ये शरीर मिलते रहें, इनकी परंपरा न टूटे, ऐसी बात बनाने का उपाय है शरीर में आत्मा का विश्वास बनाए रहना, यही मैं हूँ। जिन्हें इस शरीर का वियोग अभीष्ट नहीं है वे देह में आत्मा की बुद्धि न करें और अपने आत्मा में ही आत्मा की बुद्धि बनाएं तो यह देह छूट जायेगा। देह पाने के उपाय की पद्धति पर एक दृष्टांत―जैसे किसी मित्र को अपने पीछे लगाए रहने का उपाय यह है कि मित्र को अपनाते रहें और उससे छूटने का उपाय यह है कि उससे मनमुटाव करलें। बूढ़े पुराने लोग पहिले तो नाती पोतों को पुचकारते हैं, अपनाते हैं, अपनी मूँछ फड़वाते हैं, खेल कराते हैं, सो वे पोते अंग लग जाते हैं। पीछे फिर वे आफत समझने लगते हैं। बड़ी आफत है। अरे आफत तो इन बूढ़ों न जानबूझ कर लगायी, उन्हें अपनाया तो वे चिपटने लगे, और पहिले से न अपनाएं तो बूढ़ों का तो चेहरा वैसे ही भंयकर है, हड्डी निकली, दाँत निकले, मुँह फैला दें तो डर लगें, तो उनसे बच्चे क्या चिपटेंगे ? यह ही उनको अज्ञान कर बोझ लादता है। ऐसी ही बूढ़ों की बात, ऐसी ही जवानों की तथा मित्र की बात है। जितना राग दिखावोगे उतना ही वे लोग चिपटेंगे। वे स्वयं ही राग करके कल्पनाएं बनाकर पर से चिपटे रहते है। कल्पना की जकड़―एक कथानक बहुत प्रसिद्ध है कि एक व्यक्ति राजा जनक को ज्ञानी मानकर एक प्रश्न करने आया―महाराज ! मैं बहुत दु:खी हूँ। मुझे गृहस्थी ने, स्त्री ने, पुत्रों ने, वैभव ने जकड़ रक्खा है, गृहस्थी है, मैं बहुत जकड़ा हूँ, छूट नहीं सकता। कोई उपाय बताइए कि मैं इस झंझट से छूट जाऊँ ? तो राजा जनक तो चुप रहे और सामने नीम का पेड़ खड़ा था सो उसको अपनी जेट में भर लिया मायने पेड़ गोद में करके दोनों हाथों से जकड़ लिया, यह पेड़ मुझे छोड़े तो मैं तुम्हें उत्तर दूं। तो जिज्ञासु गृहस्थ कहता है कि महाराज हम तो तुम्हें ज्ञानी समझकर आये थे और तुम तो यहाँ बिल्कुल बेवकूफी की बात कर रहे हो। कहते हो कि मुझे पेड़ ने जकड़ लिया, अरे पेड़ तो बेचारा खड़ा है अपने स्थान पर, हिलता डोलता भी नहीं, तुमने ही उसे पकड़ लिया और कहते हो कि मुझे पेड़ ने पकड़ लिया। तो राजा कहता है कि अरे मूर्ख यही तो तेरी दशा है। तू सोचता है कि मुझे परिवार ने जकड़ लिया है। तू ही कल्पना करके उनसे ममता करता है और कहता है कि मुझे परिवार ने जकड़ लिया है।
अपनी योग्यतानुसार अपनी वृत्ति―अंतिम अनुबद्ध केवली जंबूस्वामी थे। उनका विवाह हुआ। रात्रि में कभी सेठानियां जंबूकुमार के पास खड़ी होकर कथाएँ सुनाने लगीं। और ऐसी कथाएं कहें जिनसे इन्हें यह शिक्षा मिले कि वर्तमान सुख को छोड़कर क्यों भावी सुख की आशा में तुम घर छोड़कर कष्ट सहना चाहते हो ? कितना ही राग लपेटें पर जिसे ज्ञान हुआ है उसके ऊपर वे लागलपेट की बातें कुछ असर नहीं डालती हैं। केवल कल्पना का बोझ―यहां तो कोई एक अकेला पुरूष है, उसके न लड़का है, न लड़की है, न कुछ भार है तब भी वह दूसरे को अपनाकर अपने ऊपर बोझा लाद लेता है। सबका भाग्य जुदा-जुदा है। मगर दूसरों के प्रति तो यह ख्याल है कि इनको हम ही पालते हैं, कहां इनका ऐसा पुरूषार्थ है या भाग्य है ? हमारा ही सारा कर्तव्य है, हम ही करते हैं। कोई किसी का कुछ नहीं करता। केवल अपने विचार और कल्पनाएं यह बनाता चला जाता है। विचारने के सिवाय कोई कुछ नहीं कर सकता। अंतर में जीव क्या है, कितना है उसका स्वरूप देखकर उसका निर्णय कर लीजिए। देह की फसल का बीज देहात्मबुद्धि―जैसे कोई बड़ा अधिकारी कुर्सी पर बैठे ही बैठे सारी व्यवस्थाएं बना देता है ऐसे ही यह आत्मा राजा अपने प्रदेशों में पड़ा ही पड़ा केवल अपने विचारों को बना बनाकर ये सारी व्यवस्थाएं बनाता रहता है। नारकी हुआ, तिर्यंच हुआ, मनुष्य हुआ, देव हुआ। करता कुछ नहीं है परद्रव्य में। यह तो केवल विचार बनाता है और बन जाता है सारा जगजाल। देह ही देह मिलें इस जीव को इसका उपाय क्या है ? शरीर को आत्मा मान ले कि यह ही मैं हूँ तो शरीर मिलते रहेंगे। क्या किया, खूब बोया अनाज तो अनाज पैदा होगा। तो शरीर मिलता रहे इस खेती का बीज यह है कि अंतर ही अंतर में धीरे से मान लेवो कि यह देह ही मैं हूँ, बस यह जो कल्पना है यह सर्वशरीरों की खेती का बीज है। विचित्र फंसाव―भैया ! देह व आत्मा में कितना अनमेल संबंध किया गया है ? कहां तो देह अचेतन और यह आत्मा चैतन्यस्वरूप। फंसाव की बात देखो, कैसा विचित्र फंसाव है ? जैसे बैलगाड़ी में जुवा में एक ओर ऊँट जोत दिया जाय और एक ओर गधा जोत दिया जाय तो कितना लोग मजाक करेंगे कि यह क्या किया जा रहा है ? उससे भी अधिक मजाक वाली बात यह है कि कहां तो चित्स्वरूप आनंदघन आत्मतत्त्व और कहां यह जड़ अचेतन शरीर और ये दोनों एक कल्पना में जोते जा रहे हैं। यह है सो मैं हूँ―ऐसा एकरस किया जा रहा है, पर इस पर हंसे कौन ? मजाक कौन करे ? सभी संसार में मोही जीव है, इसलिए कोई किसी की बेवकूफी पर हँसता नहीं है। सभी उसी चक्कर में हैं। मोह में राग में द्वेष में कल्पना में हैं। संकल्प की करामात―शरीर मिलता रहे इसकी औषधि ही यह है कि शरीर में आत्मबुद्धि बनाएं और कुछ नहीं करना है, स्वकाम बने बनाए हुए रहते हैं। जैसे फटाका होते हैं ना, उनमें सिर्फ थोड़ी आग छुवाना है उसका कितना प्रसार होगा वह सब अपने आप हो जायेगा। यहाँ तो थोड़ा बटन दबा देना है और सारा यंत्र चलने लगता है। इसी प्रकार यह जीव तो केवल अपने आपमें देह में आत्मबुद्धि का संकल्प भर बनाता है, फिर देखो कैसी निमित्तनैमित्तिक पूर्वक शरीरों की सृष्टियां चल रही है। विकल्प किया, कर्मबंध हुआ, उदयकाल आया और कैसे ये शरीर वर्गणाएँ जुड़ जाती हैं, मिल जाती है, संचित हो जाती है, देह का रूप रख लेती है। निमित्तनैमित्तिक व्यवस्था―भैया ! निमित्तनैमित्तिक भाव की बात जब समझ में नहीं आती है तो एक सुगम कल्पना है इस देश में कि ईश्वर की विचित्र लीला है, वह ही कहीं बैठकर ऐसी लीला किया करता है, जहाँ तक समझ में आता है वहाँ तक तो युक्तियों से सिद्ध की जाती है। कुम्हार ने घड़ा बनाया, उपादान मिट्टी है, कुम्हार निमित्त है। दंड चक्र आदिक निमित्त हैं, इसमें पूरी युक्ति चलती है, किंतु जहाँ पर युक्ति का प्रवेश नहीं हो सकता है, यह वहाँ थक जाता है लेकिन कल्पना में। परंतु जैसे कि मोटी बातों में निमित्तनैमित्तिक पूर्वक सृष्टि की व्यवस्था है इसी प्रकार उन सूक्ष्म बातों में जिसका मर्म हमारी पकड़ में नहीं आता, वहाँ पर भी निमित्त उपादान की व्यवस्था है। तो यह तो देह के मिलते रहने का उपाय है। बस मान भर लेना है कि शरीर मैं हूँ। इतनी ही कल्पना के आधार पर सारा जगजाल हो गया। हैरानी की छुट्टी का उपाय―जिसकी सिद्धि में, जिसकी जानकारी में हैरानी हटे, उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है कि मैं मैं ही हूँ, इतना ख्याल बना ले, लो छूट गयी हैरानी। जैसे इष्टमित्र या परिजन किसी से भी छूटने का उपाय क्या है ? मन में सोच ले कि जो जो है सो रहो; मैं तो यह हूँ, मेरे को बाहर में करने को कुछ नहीं पड़ा है, किसी से संबंध नहीं है। ऐसा सोच भर लीजिए कि छुटकारा हो गया। तो देह से छुटकारा होने की भी वही पद्धति है। मैं आत्मद्रव्य अपने गुणपर्याय का पिंड हूँ, अन्य पदार्थ के गुण पर्याय का पिंड नहीं हूँ। शरीर का मैं कुछ नहीं हूँ। मेरा शरीर कुछ नहीं है, क्षेत्रदृष्टि से मैं अपने प्रदेश में ही रहा करता हूँ, यह देह अपने आधारभूत परमाणुवों में ही रहा करता है। देह परमाणु का आश्रय छोड़कर अन्य पदार्थ में नहीं पहुंचता। अन्य कोई जीवद्रव्य भी अपने प्रदेश का आधार छोड़कर इस मुझ आत्मा में नहीं पहुंचता है। प्रकट इसमें भेद है ऐसा जानकर अपने आत्मा को ही आत्मा माने और पर का परिहार करे तो उस जीव को शरीर से सदा के लिए छूट हो सकती है। देह से छुटकारे में ही आरंभ―अहा, कोई तो शरीर से छुट्टी हो जायेगी, शरीर न रहेगा ऐसा सोचकर विषाद करते होंगे कि शरीर के लिए ही तो सब दुनिया है, शरीर हष्टपुष्ट है, तगड़ा है तो सब कुछ है। शरीर ही बिगड़ गया, कुछ न रहा तो कुछ नहीं है। मोटी दृष्टि से यह बात ठीक बैठ जाती है जल्दी में। पर यह बात क्या गलत है कि इस आत्मा का इस देह से कब तक पूरा पड़ेगा ? छूटेगा नहीं क्या ? अरे जब तक संबंध है तब तक भी इस देह के कारण वास्तविक आराम नहीं मिलता है। चार देहातियों के बोल में एक शिक्षा―चार देहाती आदमी थे तो उन्होंने सोचा कि राजा भोज के दरबार में कवितावों में बड़े-बड़े इनाम मिल जाते हैं, अपन भी एक कविता ले चलें। सो चले राजदरबार को। रास्ते में उनमें से एक पुरूष ने बुढ़िया को रहटा कातते हुए देखा तो उनमें से वह एक बोला कि मेरी कविता बन गयी। उन तीनों ने कहा-सुनावो। सुनो―‘चनर मनर रहटा भन्नाय।’ जब थोड़ा और आगे चले तो दूसरे देहाती ने देखा कि एक जगह तेली का बैल खली भुस खा रहा है। सो उसने कहा कि हमारी भी कविता बन गयी, अच्छा सुनावो। सुनो ‘तेली का बैल खली भुस खाय।’ अब आगे मिल गया कंध पर पींजना रखे हुए एक धुनिया। उसको देखकर तीसरे ने कहा कि हमारी भी कविता बन गयी। अच्छा सुनावो। सुनो ‘वहां से आ गये तरकसबंद।’ तीन देहातियों की तो कविताएँ बन गयीं। चौथे से कहा कि अगर तुम कविता न बनाकर बोलोगे तो जो इनाम राजा देगा उसे हम तीनों बांट लेंगे, तुम्हें न देंगे। सो वह चौथा बोला कि हम पहिले से कविता नहीं बनाते। हम आशु कवि हैं, हम तो मौके पर ही बना लेते है। चार देहातियों का कवित्व―अब चले वे चारों राजदरबार को। दरबान से बोले कि जावो महाराज साहब से बोलो कि आज चार महाकवीश्वर आये हैं। राजा से दरबान ने कहा कि महाराज आज चार महाकवीश्वर आये हैं। राजा ने उन्हें बुलाकर कहा कि सुनावो अपनी कविता। सो एक लाइन में खड़े होकर वे क्रम-क्रम से बोलने लगे। सो चौथा जो कहे उसे समझ लेना कि यह चौथे देहाती ने बनाया है। सुनो, ‘चनरमनर रहटा मन्नाय। तेली का बैल खरी भुस खाय।। वहाँ से आ गए तरकसबंद। राजा भोज हैं मूसरचंद।।’ अब राजा पंडितों से कहता है कि पंडितों ! इस कविता का अर्थ लगावो। अब कविता में कोई सार हो तो वे अर्थ लगावें। चारों देहातियों की कविता का अर्थ―उनमें से एक वृद्ध कवि उठा और कहा कि हम इसका अर्थ लगाते हैं, आप सुनिये। ये महाकवीश्वर हैं, इनकी कविता में बड़ा मर्म भरा है। पहिली कविता में कवि ने यह कहा कि यह शरीर चनरमनर रहटा सा मन्नाया करता है। यहाँ गया, वहाँ गया, 24 घंटे रहटा की तरह यह शरीर चनरमनर मन्नाता ही रहता है, और दूसरे कवि ने यह कहा कि यह जो जीव है सो कोल्हू का बैल जैसा बन रहा है, दूसरा के लिए कमाता है और खुद खरी भुस जैसा खाता है। दूसरों के लिए खूब धन कमाकर धर दें कि चार पीढ़ी तक के लोग खायें। इस तरह दूसरों के पीछे श्रम करते और स्वयं का जीवन शुष्क सा व्यतीत करते। न खुद सुख से रह सकें और न दान पुण्य कर सकते हैं। ऐसा जीव कोल्हू का बैल जैसा खली भुस खाता है। और तीसरे कवि ने यह कहा कि इतने में ऊपर से आ गए तरकसबंद मायने यमराज आ गए, मरणकाल आ गया, तो ये चौथे महाकवीश्वर साहब यह फर्मा रहे हैं कि ऐसी स्थिति है, फिर भी राजा भोज मूसरचंद बने बैठे हैं। राजा सुनकर प्रसन्न हुआ कि ये ठीक कह रहे हैं। उन्हें राजा ने इनाम दिया। विदेह होने का उपाय―ये शरीर की मन की और वचन की सब चेष्टाएँ करना और उन्हें अपनाना, ये सब शरीर बंधन के कारण हैं। शरीर से छुटकारा पाना है तो उसका उपाय देह से अपने को न्यारा अनुभव करना। यही विदेह होने का अमोघ उपाय है। घरेलू आध्यात्मिक मंत्र है यह कि ‘देह से भी न्यारा मैं ज्ञानमात्र हूँ’ ऐसी बार-बार भावना करो। बिना माला लिए, बिना अंगुलि पर गिने, पड़े हों तो पड़े ही पड़े, बैठे हों तो बैठे ही बैठे, बारबार यह भावना करें कि देह से भी न्यारा मैं ज्ञानमात्र हूँ। और भावना के साथ-साथ ऐसा अपने में चित्रण भी बना लें कि हां है तो यह सही देह से भी न्यारा और अपने ज्ञानस्वरूप मात्र। ‘देह से भी न्यारा मैं ज्ञानमात्र हूँ’, इस तत्त्व की बारबार भावना करने से देह से छुटकारा होता है। इस श्लोक में देह के मिलते रहने का उपाय बताया है और देह से छुटकारा पाने का उपाय बताया है। अब जो उपाय भाये सो करो।