वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 15
From जैनकोष
मूलं संसारदु:खस्य देह एवात्मधीस्तत:।त्यक्त्वैनां प्रविशेदंतर्बहिरव्यापृतेंद्रिय:।।15।।
सकल संकटों का मूल―संसार के जितने भी क्लेश हैं उन सब क्लेशों का मूल कारण शरीर में अपने आत्मा की बुद्धि करना है। क्या–क्या क्लेश होते हैं जन्म, मरण, रोग, इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, क्षुधा, तृषा, सर्दी, गर्मी ये सभी के सभी क्लेश इस कल्पना पर आधारित हैं कि यह देह मैं हूँ। देह मैं हूँ, ऐसी बुद्धि होने पर जन्म का क्लेश है, और देह में आत्मबुद्धि करने वाले का जन्म चलता ही रहता है। मैं जन्मा, ऐसी अंतर में बुद्धि करने वाले का जन्म चलता ही रहता है। मैं जन्मा, ऐसी अंतर में बुद्धि बनी हुई है, उससे इस आत्मा को कष्ट होता है। मरण का भी कष्ट तभी है जब शरीर में आत्मबुद्धि की जा रही है। शरीर का तो मरण है ही नहीं और मरण किसी भी पदार्थ का नहीं है। शरीर शरीर में है, जीव जीव में है। जीव निकल गया शरीर रह गया। अब अप्रयोजन जानकर अथवा यह सडे़गा और लोगों को तकलीफ देगा, बदबू फैलेगी, रोग बढ़ेगा इस ध्यान से उसे जला देते हैं या गाड़ देते हैं या नदी में बहा देते हैं। सो उस देह के अणु राख के रूप में या अन्य रूप में बिखर जाते हैं। अणु हैं परमार्थ सत् उनका विनाश कभी नहीं होता है, कभी नष्ट नहीं होता किंतु देह में आत्मबुद्धि का भ्रम बना हुआ है तो देह के वियोग को यह मरण जानकर अपना विनाश जानकर दुःखी रहा करता है। देहात्मबुद्धि में बुढ़ापा का क्लेश―बुढ़ापा भी बड़ा क्लेश है किंतु बुढ़ापा का भी दुःख तभी है जब देह में आत्मबुद्धि कर रक्खी हो। अनुभव करके भी देख लो, जो बूढ़े हैं वे कुछ थोड़ा अनुभव करके भी देख सकते हैं कि जब देह की ओर ख्याल न रहे, देह मुझमें लगा है यह भी ध्यान न रहे और यह आत्मा केवल अपने ज्ञानस्वरूप आत्मा को लखता रहे तो उस समय वह अपने को बूढ़ा शिथिल समझ ही नहीं रहा। ऐसी तो कितनी घटनाएं हो जाती हैं कि देह का भान नहीं रहता। घर के काम काज इतनी लगन से किए जाते हैं कि उपयोग अन्य काम में है तब मेरे शरीर भी चिपका है यह ध्यान नहीं रहता। यह तो एक लड़कपन है। वैसे तो संस्कार में, ध्यान में पड़ा हुआ है लेकिन जब यह आत्मा अपने ही स्वरूप को निरख रहा हो, आंखें बंद करे, मौन रह जाय, किसी का ध्यान न करे, अपने आपकी अपने में खोज करने का आग्रह करले ऐसी स्थिति में वह क्षण आ सकता है जिस क्षण शरीर की याद ही न रहे, तब क्या बुढ़ापे का उसे दुःख है ? बुढ़ापे का भी दुःख शरीर में आत्मबुद्धि होती है तो होता है। ज्ञानवृद्ध के शरीरवृद्धता संबंधी क्लेश का अभाव―यह बुढ़ापा दुःख के ही लिए हो, तो जप, तप, व्रत, साधना करना व्यर्थ है। अरे सारे जीवन भर तप करे, व्रत करे और हो गया बुढ़ापा सो सारी कसर निकल भागेगी क्योंकि बुढ़ापा क्लेश के लिए ही होता है, सो ऐसी बात नहीं है। बुढ़ापा क्लेश के लिए उनको है जिनकी इस शरीर में ही ‘यह मैं आत्मा हूँ’ ऐसी मान्यता रहती है। दुःख दूर करना है तो शरीर में आत्मबुद्धि की मान्यता समाप्त करो। दुःख दूर करने के लिए जो बाहरी यत्न किए जाते हैं, अब इतना धन जोड़ लें, इतने मकान बनवा लें, इतना नाम बना लें तब सुख होगा तो यह काम तो मेंढक तौलने के बराबर है। कोई एक किलो जिंदा मेंढक क्या तौल सकेगा ? नहीं तौल सकेगा। अरे दो चढ़ावोगे तो दो उचक कर भग जायेंगे। इसी तरह इस जगत के कामों में दो काम बनेंगे दो बिगड़ेंगे। कहां तक बनावोगे ? और बना भी नहीं सकते। अपने आत्मा में दुःखों के विकल्प किए जा रहे हैं। तो देह में जिसने ‘यह मैं आत्मा हूँ’ ऐसी बुद्धि बनाई है उनको बुढ़ापे का भय है। योगीजनों के तो जैसे बुढ़ापा आता है वैसे ही उनके अंतर में निखार बढ़ता जाता है। प्रकृत्या भी यह बात होती है कि जब मरने को होते हैं तो मन में साहस आ जाता है कि क्या करना है घर बार का ? मोह दूर होने का वह कुदरतन एक मौका है। विशेषकर व्यामोही जीव होते हैं जो मरण के समय में ज्ञान और वैराग्य न पाकर उल्टा मोह ममता को बढ़ाते रहते हैं। देहात्मबुद्धि के रोग का क्लेश―रोग से भी बड़े क्लेश होते हैं। जब चंगे होते हैं तब बहुत बातें करना आता है। पुद्गल जुदे हैं, आत्मा जुदा हैं। रोग किसको होता है ? पुद्गल को। और जब सिर में दर्द होता है तो अमृतांजन लगाए बिना चैन नहीं पड़ती है, मंगावो बाजार से। रोग का भी बड़ा कठिन क्लेश है पर इसमें भी अनुभव करके देख लो। यदि देह में आत्मबुद्धि लगाया है तो वे क्लेश बढ़ेंगे और देह में आत्मबुद्धि ना लगाया है तो वे क्लेश कम हो जायेंगे। जिसके दृढ़तर भेदविज्ञान हुआ है वह सिंहों के द्वारा खाया जाने पर भी, शत्रुओं के द्वारा कोल्हू में पेला जाने पर भी और अनेक आततायियों के द्वारा सताये जाने पर भी रंच भी खेद नहीं मानता। ओह कितना दृढ़ भेदविज्ञान है, संसार के किसी भी पदार्थ से अब अपेक्षा नहीं रही। देहात्मबुद्धि के पोजीशन का क्लेश―भैया ! जगत में किस पदार्थ में सार पड़ा हुआ है ? मानने की बात और है। सबसे बड़ा क्लेश तो इस मनुष्य ने यह माना है कि मेरी कहीं पोजीशन न घट जाय, मेरा अपमान न हो जाय, मुझे कोई तुच्छ न कहने लगे। यह शल्य इतना विकट अंतरंग में पड़ा हुआ है कि कोई भी काम धर्म के विधिपूर्वक नहीं हो पाते। 343 घनराजू प्रमाण इतने महान् विस्तार वाले लोक में यह नगर कितनी सी जगह है। अगर इस नगर के सब लोग भी अपमान करने वाले बन जायें तो भी क्या है ? अपने को तो मरकर न जानें कहां भगना है, न जानें कहां पैदा होना है ? अथवा यहाँ पर भी कोई किसी में परिणमन नहीं करता किंतु शल्य बनाया जाता है। विवेकी गृहस्थ―यद्यपि गृहस्थावस्था में इसकी आवश्यकता है थोड़ा नाम रखने की, पोजीशन बनाए रहने की, इसके ही बहाने इसके ही आड़ में अनेक पाप बच जाते हैं किंतु अंतर में सम्यग्दर्शन नहीं है, सर्व पर और परभावों से विविक्त अपने आत्मतत्त्व की श्रद्धा नहीं है तो इस नाम और पोजीशन से क्या पा लोगे ? शांति तो मिलेगी नहीं। कैसा खिंचा-खिंचा फिर रहा है यह उपयोग। अज्ञान की रस्सी के बंधन से अपने आपके ठिकाने का तो स्पर्श भी नहीं करता, एकदम बाहर-बाहर ही दौड़ भाग मचाए जा रहा है और दूसरे जीवों के रागवश अपने आपको कष्ट में डाल रहा है, पीड़ित करता रहता है। अनेकों का व्यर्थ दास बनना पड़ता है एक विषय की इच्छा मात्र से। देहात्मबुद्धि में इष्टवियोग व अनिष्टसंयोग का क्लेश―इष्टवियोग हो जाना इसमें भी क्लेश देह में आत्मबुद्धि के संबंध से है। देह को मानना कि यह मैं आत्मा हूँ, पर देह को मानना कि यह पर आत्मा है और इनका मेरे में संबंध है, इष्ट है, मित्र है, मेरा साधक है, तो देह के नाते से ही तो इष्ट कहलाता है। तब इष्टवियोग का जो क्लेश है वह भी देह में आत्मबुद्धि करने से हुआ। अपने विषयों में जो बाधक पड़ता हो उसे मानते हैं लोग अनिष्ट। अब यह सामने गुजरा तो अनिष्ट का संयोग होने पर जो क्लेश होता है उसका भी कारण देह में आत्मबुद्धि करना है। और भी क्लेशों के सारे नाम लेते जावो। वे सब देह में आत्मबुद्धि करने की भूल पर टिके हुए हैं। देहात्मबुद्धि के निदान का क्लेश―एक बड़ा क्लेश होता है भीतर में आशा, प्रतीक्षा, वांछावों का। इतना मिल जाय, ऐसा हो जाय, इतना जुड़ जाय ऐसी जो भीतर में एक धारा रहती है उसका बड़ा क्लेश जीव में रहता है। देखो तो हैं सभी ज्ञानानंदस्वरूप। दुःख का काम ही नहीं है मगर कल्पनाएं ऐसी बढ़ा रक्खी हैं कि दुःखों के पहाड़ बना लिए हैं। ऐसी वांछाएं इतना हो जाय, ऐसा कर लूं, इसका भी क्लेश है। यह क्लेश भी देह में आत्मबुद्धि करने के भ्रम पर टिका हुआ है। क्या कोई अपने आप को ऐसा जान करके कि ‘यह मैं आकाशवत् निर्लेप ज्ञानानंदस्वरूपमात्र आत्मा हूँ’ ऐसा जाने और फिर इच्छा करे कि मेरे दो मकान बन जाएं, मेरी इतनी जागीर बन जाय, क्या ऐसा हो सकता है ? जब देह को मानते हो कि यह मैं हूँ तो वे सारी जरूरतें और सारी इच्छाएं आकर खड़ी होती हैं। इस मुझ ज्ञानस्वरूप अमूर्त चेतन तत्त्व को 2 लाख रूपये चाहिए ऐसा भी कोर्इ सोचता है क्या ? अरे उस अमूर्ततत्त्व में तो धन का स्पर्श भी नहीं होता। वह तो अत्यंत जुदा है―ऐसा विभाव वहाँ ही उद्भूत होता है जहाँ देह को अपना आत्मा समझ रक्खा हो। लो यह मैं हूँ और ये सब लोग जेन्टिलमैन मेरे निकट जितने हैं उनमें मेरी इज्जत। तब फिर आवश्यकता हो गयी वैभव की परिग्रह की।
देहात्मबुद्धि में वांछाओं का क्लेश―स्वप्न में कितनी आवश्यकता है ? मोह की नींद में जिसे विकल्प हो रहे हों उसको कितनी आवश्यकता है। किसी से भी पूछो कितना तुम्हारे पास हो जाय फिर तो संतुष्ट रहोगे ? हां हां, पहिले तो कह देंगे कि इतने हो जायें तो संतुष्ट हो जायेंगे पर उतने हो जाने पर भी संतोष नहीं हो सकता। अभी और चाहियें। तो वांछावों के भी क्लेश देह में आत्मबुद्धि किए जाने पर टिके हुए हैं। जितने भी क्लेश संसार के समझे जाते हों सबमें ऐसा ही निर्णय है कि उन सबका परंपरया या साक्षात् कारण यह है कि देह में आत्मबुद्धि कर रक्खी है।
मन:संयम―भैया ! अब फिर क्या करना ? जैसे एक समस्या आए कि इस पहाड़ पर घूमना है, इन दो आदमियों को उनमें से एक ने तो सोचा कि इस पहाड़ पर कंकड़ कांटे बहुत हैं, पहिले इस पर चमड़ा बिछा दिया जाय फिर इस पर खूब घूमें। एक ने यह सोचा कि अच्छी मजबूत पनहियां बनवा लें फिर खूब पहाड़ पर घूमें। तो यह बात बतावो कि इन दोनों में से सफल कौन होगा ? पनहियां पहिनने वाला ही सफल होगा क्योंकि पहाड़ पर बिछाने के लिए उतना चमड़ा कहां से आयेगा और फिर बिछायेगा कौन ? यों ही कोई सोचे कि आराम तो मनमाने परिग्रह के संचय करने में है, सो पहिले खूब परिग्रह का संचय कर लें फिर रही सही जिंदगी सुख से बितायेंगे। एक ने सोचा कि अपने मन को कन्ट्रोल में रक्खें, अनायास जो मिला है वह भी तो आखिर छूटेगा, तो इस ही जीवन में संतोष सहित जो कुछ है उसे ही अपनी जरूरत से अधिक मानकर गुजारा करलें और मुख्य ध्येय धर्मपालन का रक्खें जिसके लिए हम जी रहे हैं ? तो यह बतावो सुखी कौन हो सकेगा ? जो अपने मन को संयत कर सकता है और मिले हुए को ही अधिक माने, अधिक की वांछा करना तो दूर रहा, ऐसे पुरूष ही संतोष पा सकते हैं, सुखी हो सकते हैं। बाह्य परिग्रहों का संचय करके कोई सुख पाना चाहे तो वह नहीं पा सकता है। तब क्या करना ? अपने आत्मतत्त्व में प्रवेश हो जायें, लो सारे क्लेश दूर हो जायेंगे।मूर्च्छा में विडंबना–एक कथा बहुत प्रसिद्ध है। श्मश्रुनवनीत नामक एक पुरूष था। श्रावकों के यहाँ छाछ पीने गया। तो छाछ पीने के बाद मूँछ पर हाथ फेरा तो उसके हाथ में घी लग गया। सोचा अरे और रोजगार करना व्यर्थ है। एक ही बार मूँछ में हाथ फेरने से इतना घी आया तो सालभर में तो तमाम जुड़ जायेगा और फिर उसे बेचकर कमायी करेंगे। सो वह वैसा ही करने लगा। रोज चार बार छाछ पीने जाये और मक्खन जोड़ता जाय, दो तीन साल में 5–6 सेर घी जोड़ लिया। अब जाड़े के दिन थे, फूंस की झोंपड़ी थी। आग से वह ताप रहा था। झौंपड़ी में ऊपर सिकहरे में घी टँगा हुआ था, उसके मनसूबे बंधने लगे। अब तो कल चार सेर घी बेचने जायेंगे। 10, 20 रूपये मिल जायेंगे। उससे बकरी खरीदेंगे, फिर भैंस खरीदेंगे, फिर जमीदारी खरीदेंगे, घर बनवायेंगे, विवाह हो जायेगा, बच्चे हो जायेंगे, खुश होता जा रहा है यह शेखचिल्ली–एक बालक आयेगा कहेगा दद्दा खाने चलो मां ने बुलाया है। शायद ही कोई दद्दा अपने आप रसोई घर में अपने आप पहुंच जाये। जब तक कोई लड़का या लड़की उसे टेरने न आये नहीं जाते, ठीक है दद्दा बनने का शौक तो होना चाहिए। जो कुछ हो उसकी कल्पनाएँ चल रही हैं। तो वह कहता है कि अभी नहीं जायेंगे। दूसरी बार बालक बुलाने आयेगा, दद्दा ओटी खाने चलो। बोला अभी नहीं जायेंगे। तीसरी बार बालक रोटी खाने को कहेगा तो वह लात फटकार कर कहता कि अबे कह दिया कि अभी नहीं जायेंगे। लो उसकी लात घी के डबले में पड़ गयी, नीचे आग थी सो आग में घी के पड़ने से झौंपड़ी में आग लग गयी। वह बाहर निकल आया और पुकारने लगा, दौड़ों रे भाई मेरा मकान जल गया, मेरे बाल बच्चे जल गए, मेरे जानवर जल गये, मेरी सारी जायदाद खत्म हो गयी। लोगों ने सोचा कि कल तक तो यह भीख माँगता था आज कहता कि हमारा मकान जल गया, हमारे बाल बच्चे जल गए, हमारी जायदाद नष्ट हो गयी। समझाने वाले आए। किसी ने कहा अरे वह ख्याल ही ख्याल तो था कुछ भी तो नहीं नष्ट हुआ तो एक पंडित जी उस समझाने वाले से बोले कि अरे सेठ जी ऐसा ही तो तुम करते हो। है तुम्हारा कहीं कुछ नहीं, केवल मानते हो कि अमुक हमारा, अमुक हमारा।
क्लेशकारी पक्षपात–यह मोही प्राणी कल्पित घर के दो चार जीवों के लिए तो जान तक भी देने को हाजिर है और कल्पित गैर पुरूषों के लिए इसके चित्त में दो आने की भी वखत नहीं है। इतना व्यामोह प्राणियों में पड़ा हुआ है। देह में आत्मबुद्धि होने से ये संसार के सारे संकट इस जीव को भोगने पड़ते हैं। देह में आत्मबुद्धि मिट जाय, यह मैं ज्ञानमात्र हूँ, निर्लेप हूँ, भावात्मक हूँ, चैतन्यतत्त्व हूँ, जरा दृढ़ भावना बन जाय और कुछ न सुहाय, कुछ भी हो बाहर में, उससे मन चलित न हो जाय। इतना आत्मतत्त्व का स्पर्श करने वाला कोई पुरूष हो तो फिर उसके संसार के कष्ट नहीं रहते। जो प्रशंसा करे, जो बढ़ावा दे, जो रागभरी बातें करे, कष्ट के कारण तो वे ही बन रहे हैं और यह मानता है कि मैं सुखी हूँ।शाबासी का चक्कर–कोई घोड़ा अच्छा हष्ट पुष्ट हो तो मालिक उसकी पीठ पर हाथ फेरता है, शाबाश बेटा, तुम हष्टपुष्ट हो, सब कुछ कहता हो, पर यह सब प्रशंसा किसलिए कही जाती है ? इसलिए कि चढ़ने लायक वह घोड़ा है सो चढ़कर सैर करना है, काम निकलता है, तुरंग में जोतता है, ऐसे ही घर के किसी प्रमुख को सब लोग बढ़ावा देते हैं मेरा यह बहुत अच्छा है, सबका बड़ा ख्याल करता है, खुद को तकलीफ हो जाये, पर किसी बच्चे को रंज में नहीं देख सकता है, बहुत सुधरी आदत है, बड़ा उदार है। तो ये सब शाबासियां किसलिए हैं ? क्योंकि सबको उसी पर चढ़कर आनंद लेना है। बस यही रीति इस संसार में चल रही है।हितसंबोधन–अरे जरा परमार्थदृष्टि करके निहारो तो इस मुझ आत्मतत्त्व का कोई दूसरा हित नहीं कर सकता है। मेरा ही आत्मा निर्मल हो तो हित है। एक ही शिक्षा है कि सुख चाहते हो तो सर्व प्रथम देह में आत्मबुद्धि का त्याग करके अपने इस ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व में प्रवेश करो और इसे निज आत्मा जानो तो सब क्लेश शीघ्र ही दूर हो सकते हैं।