वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 16
From जैनकोष
मत्तश्च्युत्वेंद्रियद्वारै: पतितो (यतितो) विषयेष्वहम् ।तान् प्रपद्याऽहमिति मां पुरा वेद न तत्त्वत:।।16।।स्वच्युति और विषयपतन के क्रमव्यपदेश का कारण–यह मैं अपने आपके आत्मतत्त्व से गिरकर इंद्रिय के द्वारों से विषयों में गिर गया और उन विषयों को पाकर इस मुझ का यह मैं हूँ, इस प्रकार अपने आपको अब तक नहीं जान पाया। अपने स्वरूप से चिगना और विषयों में लगना ये दोनों कार्य एक साथ चल रहे हैं। फिर भी चिगने का नाम पहिले लिया है और विषयों में गिरने का नाम बाद में कहा गया है। इसका कारण यह है कि मैं तो स्वयं ही हूँ। सो यहाँ से चिगा और बाहर में लगा, इस प्रकार इसमें क्रम बताया गया है।दृष्टांतपूर्वक स्वच्युति व विषयपतन के क्रमव्यपदेश का विवरण–जैसे घर में से निकलना और बाहर जाना–ये दोनों बातें एक ही हुई ना। घर में से निकलकर बाहर गया ऐसा कहने वाले बोलते हैं ना। तो इसमें घर में से निकलना पहिले हुआ कि बाहर जाना पहिले हुआ, इसका पहिले निर्णय करो। ये दोनों बातें एक साथ हैं। देहरी के बाहर पैर रखने का ही नाम तो देहरी निकलना है, और देहरी पर से निकलने का ही नाम बाहर जाना है। पर किसी को ऐसा बोलते हुए न देखा होगा कि अमुक पुरूष बाहर जाकर देहरी से निकल गया। लोग यों ही कहेंगे कि देहरी से निकलकर बाहर भाग गया। ऐसी ही बात यहाँ समझो। यह मैं आत्मा अपने स्वरूप से चिगकर–विषयों में गिर गया और विषयों में लगना और अपने स्वरूप से चिगना ये दोनों एक साथ ही तो चल रहे हैं। फिर भी जैसे अभी दृष्टांत में कहा उस ही तरह यहाँ आचार्यदेव कह रहे हैं कि यह मैं अपने स्वरूप से चिगकर इंद्रिय द्वारों से विषयों में गिरा।स्वच्युति व विषयपतन की परिभाषा–आत्मा स्वयं है ज्ञानानंदमात्र। ज्ञानानंद स्वरूप में अपने आपका सम्वेदन करना तो है आत्मस्वरूप में लगना और ज्ञानानंदस्वरूप अपने को न मान सकना इस ही का नाम हुआ स्वरूप से चिगना। और विषयों में लगना इसका अर्थ है कि पंचेंद्रिय के उपभोग के साधनभूत बाह्य आश्रयभूत स्पर्श, रस गंध, वर्ण, शब्द हैं इनको उपयोग में लगाना, उपयोग का विषय इन्हें बनाकर इष्ट अनिष्ट कल्पनाएं करना, इसका नाम है विषयों में गिरना।खुद की ठगाई–भैया ! विषयों में गिरना एक महान् संकट है। कहां तो यह आत्मदेव शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी है, प्रभुता की मूर्ति, प्रभुता का स्वरूप और कहां असार इंद्रियों के विषयों में उपयोग को फंसाना, कितना बड़ा संकट है इस जीव पर ? पर मोह में विषयों को भोगकर यह जीव मानता है कि मैंने बड़ी चतुराई का काम कर लिया। स्पर्शन इंद्रिय का विषय है कामवासना की पूर्ति करना। सो यह जीव इस कामवासना में लगकर और किसी तरह अपने को समझा कि हम बहुत अच्छे ढंग से सफल हुए हैं और चतुराई मानते हैं। पर चतुराई कहां है ? वह तो संसार में भटकने का उपाय है। जैसे कोई पुरूष किसी को दगा देकर छल करके अपना कोई काम बना लेता है तो वह मानता है कि मैंने बहुत चतुराई खेल ली अमुक की आंखों में धूल झोंककर मैंने अपना अमुक कार्य बनाया। अरे तुमने दूसरों की आंखों में धूल नहीं झोंकी अपनी ही आंखों में धूलभर ली। अरे इतना बड़ा विकट संसार है, इसमें और आगे नहीं जाना है क्या ? भवधारण करके रूलेगा यह दगाबाज यह मायावी पुरूष, इसका वह ध्यान नहीं करता है। जानता है कि मैंने दूसरों को चकमा दिया, पर यह चकमा खा गया खुद।ठगने की अपेक्षा ठगा जाना भला–एक बार गुरूजी (बड़े वर्णी जी) की शिकायत बाई जी (श्री चिरोंजा बाई जी) से उनके एक मित्र ने कर दी कि बाई जी ये पंडित जी तो चाहे जिस दुकान से ठग आते हैं। जिस ग्राहक ने जिस भाव जो कह दिया उसी भाव सामान ले आते हैं, उससे दाम कभी नहीं ठहराते हैं और रोज-रोज ठग आते हैं। तो बाई जी बोली कि भाई हमारा भैया ठग जाता है पर दूसरों को ठगता नहीं है। यदि यह दूसरों को ठगे तो इसे अपराधी मानें। ठग गया कुछ हर्ज नहीं। पैसे ही तो गांठ से गये, परिणामों में मलिनता तो नहीं आयी, किंतु ठगने वाला तो अपने परिणाम मलिन करता है और न जाने संसार के कितने संकट अपने सिर पर बाँध लेता है ? इस संसार में गर्व करने का स्थान नहीं है। यहाँ अपनी संभाल बहुत अधिक रखने की आवश्यकता है।स्पर्श और रस के विषयसेवन का संकट–विषयों की प्रीति इस जीव के लिए महान संकट है। स्पर्शन इंद्रिय के विषय की बात तो और इससे होने वाली हानियां तो सबके अनुभव में है। इतनी गंदी बात का क्या विस्तार करें, पर रसनाइंद्रिय की भी बात देखो क्या हो गया ? यदि आध सेकंड जब तक जीभ पर स्वादिष्ट भोजन है रस ले लिया, भोग समझ लिया तो उससे क्या लाभ लूटा ? कितने ही कर्म बंध गए, आत्मस्वरूप को भूल रहे और घाटी नीचे माटी बन गया। साधारण भोजन करते हुए आदमी के सुधि रह सकती है और रसीले भोजन जो आसक्ति के प्राय: कारण होते हैं। उन रसीले चटपटे भोजनों के प्रसंग में आत्मा की सुधि करना बहुत कठिन बात है।गंध विषयसेवन का संकट–ऐसी ही बात इस बेकार नाक की समझ लीजिए। गंध सूँघ लिया तो क्या लाभ लूट लिया ? कोट के कालर पर सेन्ट, कान की गुड़ेरी के बीच में फोवा, खुशबूदार कार्ड जेब में रखना और कोई छोटी सी इत्र की शीशीदान बनाए रहना, सामने इत्र भरने का बर्तन जिसके चार–छें हल्की-हल्की कटोरी रहें, और और सामान रहे तो इन सबसे कौनसा अभ्युदय लूट लिया, जिससे अपने स्वरूप का विस्मरण किया ?
रूपविषयसेवन का संकट–चक्षुइंद्रिय से मानों किसी का रूप देख लिया तो उससे क्या लाभ पाया ? अरे हाड़ मांस पसीना लोहू इनका लोथड़ा ही तो है। और थोड़ा रूप भेद हो गया, काला हुआ, सांवला हुआ, पीला हुआ, सफेद हुआ, धरा वहाँ क्या है ? मिलता क्या है ? लेकिन रूपदर्शन का लोभी यह पुरूष अथवा कोई अचेतन पदार्थ बड़े चमकदार सुहावने बन गए उनका लोभी पुरूष कौनसा अभ्युदय पा लेता है, अपना समय गँवाता है, मन खोटा करता है, कर्म बँधता है। एक निर्णय रखना कि मुझे किसी अन्य पदार्थ से कुछ प्रयोजन नहीं है, मेरा तो मेरे में निवास करने का काम पड़ा हुआ है। अरे इस निर्णय के कारण अपने सत में विहार करता तो कुछ इसे लाभ मिलता।कर्णविषय का संकट व विषयपतन में निज का अज्ञान–भैया ! खो दिया जीवन को इसने विषयों के यत्न में। मिला क्या ? शल्य आकुलता, चिंता, श्रम, विडंबनाएं, ऐसी ही कर्ण इंद्रिय के विषयों की बात है। सुन लिया राग भरा शब्द, सुरीला शब्द और राग को प्रज्वलित कर दिया तो उससे लाभ क्या पाया ? यह जीव अपने आपके स्वरूप से चिगकर विषयों में पतित हो जाता है और उन विषयों को पा करके यह ऐसी भूल में हो जाता कि इसने अपने आपको जाना ही नहीं कि मैं क्या हूँ ? ये इंद्रियां ज्ञान कराने का साधन हैं, विषयों में पतित करने का साधन नहीं हैं। पर इंद्रिय द्वारों से ज्ञान होने के साथ-साथ जो रागद्वेष की वृत्ति लगी हुई है, इष्ट बुद्धि बनी हुई हैं उसकी प्रेरणा से यह जीव विषयों में पतित हो जाता है।
कर्ण व नेत्र का सदुपयोग–भैया ! वे ही इंद्रियां हैं, उनका ही उपयोग यथासंभव अपने लिए भी किया जा सकता है। कान भी यों ही हैं। वैराग्य से भरे हुए भजन की किसी सुरीले स्वर वाले के मुख से सुन लिया और अपने आप में उसका भाव भरा जाय तो लो कानों का सदुपयोग हो गया। इस ही प्रकार जब तक यह चक्षुइंद्रिय चल रही है तब तक स्वाध्याय में अधिक उपयोग दें। कदाचित् आगे वृद्धावस्था में जब कि दिखना ही बंद हो जायेगा फिर क्या करेंगे ? अरे जब तक आंखें काम कर रही हैं खूब स्वाध्याय करें, देव दर्शन करें, सत्संग करें, इन आंखों से धर्म मूर्तियों के दर्शन करें, धर्मात्माजनों के साथ रहें, अधिक से अधिक धर्मात्माजन हम आपकी नजर के सामने रह जायें ऐसा उद्योग करें। मोही जीव अज्ञानी जीव ही दिखते रहने से आत्मा के आशय में भी अंतर पड़ जाता है। जब तक यह नेत्रइंद्रिय काम कर रही है अधिक से अधिक धर्म के साधन, धर्म की मूर्तियां, धर्मात्माजनों के दर्शन में समय बीते।
बेचारी बेकार नाक का सदुपयोग–नाक बेचारी बेकार सी है। इसका सदुपयोग क्या बताएं ? हां इतना ही बहुत है कि ठीक-ठीक प्रकार से वायु का आना जाना रहे और उसका सदुपयोग क्या कहें ? यह नाक हमें तो बहुत बेकार लगती है। फायदा कुछ न पहुंचाए और जीवन को बरबाद कराने वाली यह नाक ही है। नाक के पीछे लड़ाई झगड़े हों, नाक के पीछे जायदाद खत्म कर दें। कितनी बरबादी का कारण है यह नाक ? हां सदुपयोग इसका यही है कि वायु का आना जाना ठीक प्रकार से रहे, धर्मात्माजनों के वातावरण को साधती हुई रहे।जिह्वा का सदुपयोग–रसना इंद्रिय पायी तो इसके काम दो होते हैं–एक तो रस का स्वाद लेना और एक वचन बोल लेना। वचन बोले तो कल्याणकारी वचन बोले, आत्महित साधक वचन बोले, बड़े विवेक के वचन बोले। वचन बोलने से ही फँसाव हो जाता और वचन बोलने से ही बचाव हो जाता। वचनों से ही उलझन है, वचनों से ही सुलझन है। बड़े विचार से बोलो। अनेक पर्यायें हुईं, मनुष्य भव को छोड़कर उन अनेक तिर्यंच पर्यायों में वचन बोलने की योग्यता नहीं मिली। गाय भैंस बांय बांय, मेंढ़क टर्र टर्र यों ही चिल्लाते हैं। वाणी मिलती है मनुष्य तो कितनी ही कलावों से बोल सकता है। तो इस वाणी का बहुत विचार-विचार कर ठीक-ठीक सदुपयोग करो। कम बोलना चाहिए। बोलना उससे चाहिए जिससे बोलने में अपना हित होता हो। गृहस्थों की अपेक्षा से आजीविका मिलती हो अथवा जीवोद्धार की बात मिलती हो। व्यर्थ के वचन बोलना यह अपने आपको निर्बल बना देने का साधन है और शल्य चिंताएं बना देने का साधन है।
जिह्वा के दुरूपयोग से दूर रहने की सावधानी–भैया ! मुख से निकले हुए वचन वापिस नहीं होते हैं। जो वचन निकल गए सो तीर के माफिक निकलेंगे। और जिसका लक्ष्य करके निकले उसमें जाकर उन्होंने प्रहार किया। अब वापिस नहीं हो सकते। किसी को खोटा बोलकर या राग भरा वचन बोलकर फिर सोचे कि मेरा यह वचन वापिस हो जाय तो वापिस हो नहीं सकता। जैसे धनुष खींचकर छोड़ा गया तीर वापिस नहीं आता है इसी प्रकार इस मुखरूप धनुष को खींचकर वचनरूपी तीर जो फेंका है तो उसका मुख धनुष के आकार का हो जाता है। ये दोनों ओंठ ऐसे पसर जाते हैं कि खींचे हुए धनुष का फोटो ले लो या उस मुख की फोटो ले लो, एक आकार मिलेगा। और उस धनुष में से जैसे तीर बिल्कुल सीधा जाकर आक्रमण करता है, ऐसे ही ये वचन निकलकर बिल्कुल सीधा प्रहार करते हैं। इस रसना इंद्रिय का, इस जिह्वा का यह सदुपयोग है कि प्रभु का गुणगान करें और आत्महित के वचन व्यवहार करें, यह इन वचनों का सदुपयोग है।स्पर्शन का सदुपयोग–इस स्पर्शन, शरीर का सदुपयोग यह है कि धर्मात्माजनों की सेवा, दीन दु:खियों की सेवा, दूसरों की आपत्ति को दूर करने का यत्न―ये सब इस शरीर के सदुपयोग हैं। सो इन इंद्रिय द्वारों से भला भी काम किया जा सकता है और बुरा भी काम किया जा सकता है। यह मोही जीव रागमोह के वश में होकर इन इंद्रियद्वारों से बुरा ही काम करता है। विषयों में गिरता है। यहाँ यह ज्ञानी खेद जाहिर करता है कि हाय इन्हीं सर्वविषयों को पाकर मैंने आत्मा को नहीं जाना।बीते समय की वापसी की असंभवता–सारी जवानी विषयभोगों में निकाल दी जाय और जवानी ढलने पर फिर कोई प्रार्थना करे कि मेरा वह समय वापिस हो जाय, मेरे किए हुए उद्दंडता के काम न किए की तरह हो जायें तो क्या यह हो सकता है ? ऐसा नहीं हो सकता है। जो बीता जैसा बीता वह बीत गया। सो जो गया, जो बीता वह तो बीता, अब भी रहा सहा संभाल लिया जाय, भविष्य का जीवन सुधार लिया जाय तो अब भी बहुत लाभ की बात है। ज्ञानीपुरूष ही अपने अपराध को जान सकते हैं। अज्ञानी तो अपराध भी नहीं जानता कि मैंने क्या अपराध किया ? उसे कितना ही समझावों उसकी समझ में आ ही नहीं सकता है। जब तक अज्ञान अवस्था है कि हां मुझसे यह अपराध हुआ है।ज्ञानद्वारा अपराध का ज्ञान–ज्ञान होने पर ही यह चिंतन हो पाता है कि मैं अपने सहज ज्ञानानंदस्वरूप की भावना प्रतीति से चिगकर, स्वरूप की प्रतीति न रखकर पंचेंद्रिय के विषयों में पतित रहा, गिर गया, और यही कारण अनादि काल से बना चला आ रहा है। जिस भव में गया उस भव के अनुकूल विषयों में रत बना रहा। उन विषयों को पाकर इसने आज तक भी अपने को कभी भी जान नहीं पाया। भैया ! अब देख लो अन्य के मोह में लाभ मिलेगा या आत्मस्वरूप की संभाल में लाभ मिलेगा बात सुनने की नहीं है किंतु भीतर ही भीतर साहस बनाने की बात है। कौन रोकता है ? घर कुटुंब के लोग चिल्लाते रहें और तुम हां हां भरते रहो और भीतर ज्ञानस्वरूप की भावना बनावो तो उसमें कोई छेड़छाड़ नहीं कर सकता है, कोई रोक नहीं सकता है। कर्तव्य यह है कि हम अपने आप में अपने में ही गुप्त रहकर इस गुप्त तत्त्व को गुप्त पद्धति से गुप्त लाभ के लिए करते रहें, इसमें किसी की रूकावट नहीं हो सकती।
अपराधपरिचय का फल–अपराध के चिंतन का फल तो यह है कि अब अपराध न हो। कोई अपराध किये जाय और अपराध का चिंतन भी करता जाय, आलोचना भी करता जाय तो वह कोई फायदेमय चिंतन नहीं है। कुछ तो फकर आए। अब यह ज्ञानी जीव विषयों से हटने पर और अपने स्वरूप में लगने पर तुल गया है। उसका दृढ़ संकल्प है कि जो भूल हुई है सो हुई, पर अब यह भूल न की जायेगी। इस तरह अपने अभीष्ट प्रयोजन के लिए ज्ञानी पुरातन अपराध का विचार करता है।