वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 20
From जैनकोष
यदग्राह्यं न गृह्णातिति गृहीतं नापि मुंचति।जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ।।20।।स्वरूपभावना–‘मैं क्या हूँ’ इस अंतस्तत्त्व को जान लेने पर फिर समाधि के साधना का जो उपाय है बहिर्जल्प का त्याग और अंतर्जल्पों का त्याग, ये दोनों ही बातें निभ जाती हैं। मैं ऐसा स्वसम्वेद्य तत्त्व हूँ, जो अग्राह्य को ग्रहण नहीं करता और ग्रहण किए हुए को छोड़ता नहीं है। जो तत्त्व मेरे में नहीं है वह कभी मुझमें आ ही नहीं सकता और जिस तत्त्व को मैंने स्वरसत: ग्रहण किया है, वह कभी मुझसे अलग नहीं होता। देखो यह अपना स्वरूप जो ग्रहण किए हुए को कभी नहीं छोड़ता उसने ग्रहण किया है सहज ज्ञानस्वरूप को। जो अनादि से अनंत काल तक शाश्वत तादात्म्य रूप में रहने वाला है वह कभी छूट नहीं सकता। जो मुझमें नहीं है ऐसे यह समस्त परभाव परतत्त्व उनको यह मैं अर्थात् अंतस्तत्त्व कभी ग्रहण नहीं करता। ऐसे अंतस्तत्त्व की जिन्हें दृष्टि नहीं है ऐसे पुरूष बाह्य निमित्तनैमित्तिक भावों के कारण ग्रहण करना और छोड़ना मानता है।
स्वभाव और वर्तमान प्रवृत्ति–मैं बाह्य पदार्थों को न तो ग्रहण किए हुए हूँ और उनका मैं छोड़ना वाला हूँ। छूटा तो वह है ही स्वभाव से। छोड़ने का व्यपदेश तब होता है जब उन्हें ग्रहण किए हुए हों। सो वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है कि किसी तत्त्व में किसी अन्य तत्त्वों का प्रवेश नहीं है। यह मैं आत्मतत्त्व तो सर्वपदार्थों को जानता तो रहता हूँ किंतु किसी पदार्थ से मेरा संबंध है नहीं। ऐसे अपने आपके ज्ञान के द्वारा संवेदन करने योग्य यह मैं अंतस्तत्त्व हूँ। मैं वस्तुत: क्या हूँ, इसका परिचय तब तक नहीं होता जब तक अहंकार और ममबुद्धि का त्याग न हो सके। अज्ञान की स्थिति में कोई संग्रह भाव को अपनाता है तो कोई त्यागभाव को अपनाता है। मैं इतने मनुष्यों को पालता पोषता हूँ, इतने घर दुकान की व्यवस्था बनाता हूँ, जैसे यह श्रद्धा मोह में भरे हैं इसी प्रकार अंतर में यह विकल्प जगना कि मैंने अमुक-अमुक चीज को त्याग दिया है, मैंने घर छोड़ दिया है, आहार का परित्याग कर दिया है, ऐसे त्यागसंबंधी विकल्पों को अपनाना यह भी मोह है।व्यामोह में ग्रहण त्याग का विकल्प–यथार्थ श्रद्धा सहित गृहस्थ यदि घर को अपना कह दे और घर की व्यवस्था मैं करता हूँ ऐसा वचन बोल दे तो श्रद्धा में कोई दोष नहीं है। ऐसे ही कोई यथार्थ श्रद्धा सहित त्याग की भी बात बोल दे तो श्रद्धा में वहाँ भी दोष नहीं है। किन्हीं पुरूषों को तो ऐसा व्यामोह पड़ा है कि वे पर को लपेटने का विकल्प रखते हैं और किन्हीं को तो ऐसा व्यामोह पड़ा है कि वे त्याग करने का विकल्प अपनाते हैं।आत्मा का यथार्थ ज्ञातृत्व–भैया ! परपदार्थ तो छूटे ही हुए हैं। न मैं उनका ग्रहण करता हूँ, न त्याग करता हूँ किंतु मैं जानता भर हूँ। पहिले मैं इष्ट बुद्धि सहित जानता था अथवा मैं उन्हें अपनाता हुआ जानता था, अब वहाँ न अपनाता हुआ यथावत् जानता हूँ, पर मैं जानने से अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं करता हूँ। जो अन्य पदार्थों को न ग्रहण करता है, न छोड़ता है, स्वत: ही विविक्त है, शाश्वत परिपूर्ण है ऐसा यह मैं आत्मतत्त्व हूँ। मरण समय में विषाद इस जीव को इस बात का अधिक होता है कि मैंने इतनी कमायी की, इतना संचय किया और यह सब एक साथ छूटा जा रहा है। यथार्थ ज्ञान वालों को ऐसा विकल्पमय क्लेश नहीं होता है। वे जानते हैं कि न मैंने कुछ परपदार्थों की कमायी की है और न परपदार्थ मेरे साथ हैं, जैसा मैं था वैसा ही हूँ और यह मैं पूरा का पूरा ही यहाँ से जाऊँगा, पूरा ही रहूंगा, अपने में अधूरेपन का विश्वास ज्ञानी को नहीं है।स्वरूपपरिचय बिना विडंबनाओं पर विडंबना–ये जितनी भी लोक संबंध की विडंबनाएँ बनी हैं वे स्वरूपपरिचय बिना निमित्तनैमित्तिक संबंध से बढ़ बढ़कर कुछ कल्पनाएँ करने से बन गयी हैं और ये कल्पनाएँ बन गयीं बड़ी हठपूर्वक। अनर्थ का इतना तीव्र आग्रह को गया है कि वह उसे त्याग नहीं सकता। किसी भी क्षण यह जीव ऐसा अनुभव करना नहीं चाहता कि मैं वास्तव में हूँ ही सबसे न्यारा, केवल निजस्वरूप मात्र हूँ, ऐसा रंग अंतर में चढ़ा हुआ है कि अकेला अनुभव नहीं कर पाता। मैं इतने वैभव वाला हूँ, इतने संग वाला हूँ, ऐसी पोजीशन का हूँ, ऐसा ही अनुभवन चलता रहता है। यह मैं एक असत्य की हठ। इस असत्य के हठ से किसी समय ऐसा धोखा होगा कि एकदम ऊंचे से जैसे नीचे गिरना होता है, ऐसा ही पतन होगा। आज श्रेष्ठ जन्म मिला है, मनुष्य हुए हैं, बड़ी कलावों से अपना व्यवहार किया करते हैं पर न रहा अपने सत्यस्वरूप का ध्यान और न की गयी कुछ भी अपने स्वरूप की उपासना, परभावों की ही हठ रही, ऐसी कुहठ का फल यह है कि यह मनुष्यभव से छूटकर न जाने किस निम्न हालत में पहुंचेगा।मन के दुरूपयोग का फल–भैया ! मन मिला है पर मन का सदुपयोग नहीं करना चाहते। मन का सदुपयोग यही है कि वस्तु के यथार्थ स्वरूप के चिंतन में इसे लगाया जाय और दूसरे नंबर का सदुपयोग यह है कि संसार के समस्त प्राणियों का भला होना सोचा जाय, सब सुखी रहें। तो मन का सदुपयोग न किया गया बल्कि दुरूपयोग किया, दूसरों का अहित विचारा, अपने स्वरूप की सुध लेने का भी ख्याल न रक्खा तो मानो प्रकृति कहेगी कि तुम्हें मन की क्या जरूरत ? दिया है तुम्हें मन तो मन का दुरूपयोग तुमने किया। फल यह होगा कि मन न मिलेगा, क्योंकि तुम्हें मन की जरूरत ही नहीं है। मन दिया है, पर सदुपयोग नहीं करना चाहते।कर्णेंद्रिय के दुरूपयोग का फल–कर्णइंद्रिय प्राप्त हुई है, पर कर्णइंद्रिय पाकर भी यह व्यामोही जीव इसका सदुपयोग नहीं करना चाहता। सुनेगा तो कलह की बात, राग की बात गप्पसप्प। धर्मवार्ता अथवा आत्महित जिनवचनों से संभव है, उन वचनों में कर्णइंद्रिय को नहीं लगाता, धर्म वचन नहीं सुहाते, कौतूहल की बातें भली लगती है, तो प्रकृति का यह निर्णय होगा कि तुमको कर्णेंद्रिय की भी जरूरत नहीं मालूम होती क्योंकि मिले तो कान, पर कानों का सदुपयोग नहीं किया। अब कर्णेंद्रिय की तुम्हें जरूरत नहीं है। कर्ण भी खत्म हो जायेंगे। अब पंचेंद्रिय न रहें ऐसी स्थिति हो सकती है।नेत्र के दुरूपयोग का फल–आंखें पायीं, पर आंखों का सदुपयोग नहीं किया जाता है दुरूपयोग ही किया जाता। जैसे कि सुंदररूप निहारना, जो इष्ट पदार्थ हो उसे ही देखना, कैसा कैसा इस चक्षु इंद्रिय का विषय है कि छोटे लोग जो कुछ पैसे ही कमा पाते हैं तो चाहे वे भर पेट खाना न खायें पर लगन लगी है सिनेमा के देखने की। ऐसी लगन लग गयी है कि सिनेमा देखे बिना उन्हें चैन नहीं पड़ती। जिसमें जिसकी बुद्धि लगी है वह उसी में अपने उपयोग को लगाता है। जिसके रागबुद्धि लगी है वह राग भावों में ही अपना उपयोग लगाता है और जिसको आत्महित साधना की बुद्धि लगी है वह देवदर्शन, धर्मात्मावों का संग, स्वाध्याय इन्हीं में अपना उपयोग लगाता है। जिसकी रागभावों में बुद्धि है उसको प्रकृति का यह फैसला है कि तुम्हें मिले थे नेत्र, पर मालूम होता है कि इन नेत्रों की तुम्हें जरूरत नहीं है। सो अब नेत्रइंद्रिय भी तुम्हें न मिलेगी। ऐसे घटते घटते यह जीव एकेंद्रिय तक हो जायेगा। आत्मा की असावधानी में और एकेंद्रिय में भी सबसे अधिक निकृष्ट जीव हैं निगोद जीव। सो ऐसा निगोद तब बनने का प्रसंग होगा, यदि आत्मा की सावधानी न रक्खी। स्वरूपदर्शन की असावधानी का फल–देखो भैया ! अपने स्वरूप से यह स्वभावत: अपने स्वरूपरूप है। इसमें जो नहीं है वह कभी आ नहीं सकता और जो है वह कभी छूट नहीं सकता। मुझमें न द्रव्यकर्म है, न शरीरादिक पुद्गल हैं। और स्वभावदृष्टि से देखो तो इसमें न रागद्वेषादिक भावकर्म है। धन वैभव तो प्रकट विराने हैं, ऐसे इन समस्त भिन्न तत्त्वों का मेरे स्वभाव में ग्रहण नहीं है। ऐसे सबसे विविक्त इस चैतन्यस्वभाव को जिसने नहीं पहिचाना उसकी संसार में ऐसी ही अवस्थाएं चलती है, जैसे कि हम किसी दीन पुरूष को निरखते हैं। जिनकी स्थिति बहुत खोटी है ऐसे बेचारे पशुवों को देखते है―रोगी हैं, काटे छेदे जा रहे हैं, कषाइयों के वश में हैं, उनको देखकर कुछ तो ध्यान करना ही चाहिए कि अपने आत्मा की सावधानी न रक्खें तो उसका यह फल है कि ऐसी अवस्था मिलेगी।व्यामोह में करूणा का कारण–भैया ! होता तो है कुछ ध्यान किसी दुःखी सताये हुए पशुओं को देखकर करूणा तो आती है, वह करूणा इस बात की सूचना देती है कि इसने उस जीव के साथ अपनी तुलना की है अन्यथा इसे करूणा नहीं आ सकती। ऐसा ही तो मैं जीव हूँ जैसे कि ये सूकर आदिक हैं। ऐसी भीतर में घुसी हुई धारणा पड़ी है उस जीव के तब तो सताये हुए पशु को निरखकर अंतर में वेदना जगती है। उस अंतर वेदना के संबंध में यह भावना करनी चाहिए कि यह सब भूल जो है ज्ञान भावना से शून्य होने पर है।देहों की अवगाहना से वैराग्य का शिक्षण–जब जीवों की विशेष अवस्थाएँ जान रहे हो ऐसे ऐसे मगर हैं, मच्छ हैं–स्वयंभूरमण समुद्र में सबसे बड़ी अवगाहना का मच्छ है, एकेंद्रिय आदिक में ऐसी-ऐसी अवगाहना वाले जीव हैं। इन सब पाठों को पढ़कर यह सोचना चाहिए कि एक निज ज्ञानस्वभाव की भावना के बिना जीवों को ऐसी-ऐसी देहों में जन्म लेना होता है। सूक्ष्म निगोद जीव का अंगुल के असंख्यातवें भाग शरीर होता है और उसमें एक प्रदेश बढ़े, दो प्रदेश बढ़े इस तरह से एक-एक प्रदेश बढ़ बढ़कर एक बड़े मच्छ की अवगाहना बराबर हजार योजन लंबा, 500 योजन चौड़ा और 250 योजन मोटा, इतना देह तक पा लेता है। जघन्य अवगाहना से इस अवगाहना तब बीच में कितनी प्रकार के शरीर हुए, अंगुल के असंख्यातवें भाग बराबर शरीर पर एक-एक प्रदेश बढ़ते बढ़ते इतनी बड़ी अवगाहना तक कितने विकल्प होंगे, उतनी प्रकार के शरीरों में इस जीव ने इस ज्ञानभावना के बिना भव धारण किया।आत्मभावना का प्रसाद–वह कौनसी भावना है, कौनसा वह आत्मस्वरूप है जिसके प्रसाद से सब संकट मिट जाते हैं, उसका ही वर्णन इस श्लोक में है। मैं वह परिपूर्ण चैतन्यस्वरूप हूँ जो न ग्रहण किए हुए को तो ग्रहण नहीं करता और ग्रहण किए हुए को छोड़ता नहीं है, किंतु सर्व प्रकार से सबको यथावत् जानता रहता है। ऐसा अपने आपके द्वारा सम्वेद्य मैं आत्मतत्त्व हूँ। ऐसे आत्मस्वरूप की भावना के बल से यह जीव बाह्य वचनव्यवहार को छोड़ता है और अंतरंग में उठने वाले जल्पों का परित्याग करता है, परविषयक किसी भी प्रकार की कल्पना को नहीं होने देता है। और तब समाधिजात आनंद को अनुभवता है।जोड़रहित तोड़रहित निर्विकल्पभाव की प्रसिद्धि–यह मैं आत्मतत्त्व परिपूर्ण पुष्ट हूँ। जो इसमें है वह यहाँ से कभी छूटता नहीं है और जो इसमें नहीं है वह कभी भी आ सकता नहीं है, ऐसा ज्ञानानंद स्वभावमात्र यह मैं आत्मा अपने आपके ज्ञान द्वारा ही सम्वेदन करने के योग्य हूँ। इस श्लोक में यह निर्विकल्प स्वरूप का वर्णन इसलिए किया गया कि इससे पहिले श्लोक में बहिर्जल्प और अंतर्जल्प का त्याग करने का उपाय में प्रतिपाद्य प्रतिपादक का भी कुछ संबंध नहीं है। यह बताकर स्व को निर्विकल्प प्रसिद्ध किया था। अब वह निर्विकल्प आत्मतत्त्व किस प्रकार है इसका वर्णन इस छंद में इस रूप में किया है कि न तो इसमें कोई जोड़ होता है और न इसमें से कुछ तोड़ होता है। जो निर्विकल्प पदार्थ होता है वह जोड़ और तोड़ दोनों से रहित होता है। ऐसे इस निर्विकल्प स्वरूप को बताकर अब यह दिखा रहे हैं कि ऐसा आत्मानुभव होने से पहिले इस आत्मा की क्या-क्या अवस्था हुई है ? पूज्यपाद स्वामी इस विषय में अब कह रहे हैं।