वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 19
From जैनकोष
यत्परै: प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये।उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पक:।।19।।पूर्वशिक्षा का स्मरण–पूर्व श्लोक में यह बात बतायी गयी थी कि कल्याणार्थी पुरूष को चूंकि आत्मध्यान की प्रमुख आवश्यकता है और उसमें प्रथम ही बाधक वचनव्यवहार है। बहुत बोलना, बकवाद करना हित समाधि के इच्छुक पुरूष के लिए विघ्नरूप है। सो उससे किसी तरह छुटकारा पाना चाहिए। इसका विवरण बताया है, और एकदम सीधा यह दिया गया था कि देखो जो मुझे दिख रहा है वह तो जानता नहीं और जो जाननहार तत्त्व है चैतन्यस्वरूप, अंतस्तत्त्व वह दिखता नहीं और वचन व्यवहार जितने होते हैं वे किसी को देखकर ही होते हैं। तब फिर मैं किस से बोलूं ? बाह्यजल्पों का, वचनालापों का त्याग करने का एक सीधा उपाय बताया है।अंतर्जल्पपरिहार का एक उपक्रम–अब इस छंद में यह बतलाते हैं कि बाह्यविकल्पों का त्याग करके बड़ा भी बाह्य वचनव्यवहार का परिहार हो चुकने पर भी अंतरंग के जल्प उठा करते हैं, शब्द चला करते हैं अथवा कल्पनाएं चला करती हैं। उस अंतर्जल्प में विकल्पों से निवृत्त होने के लिए कैसी भावना करनी चाहिए ? इसका समाधान इस श्लोक में है। जगत में परपदार्थों के प्रति जितने संबंध लगाये गये हैं उन संबंधों में सबसे निकट आंतरिक संबंध होता है समझने और समझाने वाले का। इसलिए अन्य संबंधों में भेदविज्ञान कराने का यत्न न करके एक इस गुरूशिष्यत्व के विषय में भेदविज्ञान की चर्चा इस छंद में की है। और निकट संबंध ही जब कुछ नहीं है- यह ध्यान में आ गया तो बाह्य संबंध तो इसके कुछ है ही नहीं, यह स्वयं सिद्ध हो जायेगा।गुरूशिष्यत्व जैसे निकट संबंध में भेदविज्ञान–भैया ! लोक में झट संबंध होना, रिश्तेदार बने ऐसे जितने भी संबंध हैं उन सबकी अपेक्षा समझने और समझाने वाले का संबंध सुगम और शीघ्र होने वाला होता है। उसी के संबंध में कह रहे हैं कि भाई मैं दूसरों को समझाता हूँ ऐसी भी अंतर में श्रद्धा हो, प्रतीति हो, विश्वास हो तो वे केवल पागल की सी चेष्टायें समझना, क्योंकि यह मैं आत्मा निर्विकल्प हूँ, और यह मैं ही क्या सर्व जीव स्वरसत: स्वभावत: निर्विकल्प हैं, जैसे कि लोक में प्रसिद्ध है कि पंडित जी ने इन 10 बालकों को समझा दिया, सिखा दिया, ज्ञान दे दिया और उस बच्चे ने अमुक महाराज से खूब सीख लिया। जैसे यहाँ लोकव्यवहार में बोलते हैं―उसमें तात्त्विक दृष्टि नहीं रक्खी गयी है, किंतु जो कुछ फलित देखा गया है निमित्तनैमित्तिक संबंध के प्रसंग उसका ही वर्णन चलता है।किसी की परिणति का पर में अभाव–एक गुरु यदि अपना ज्ञान शिष्यों को दे दे तो बहुत काल तक शिष्यों को ज्ञान देने पर यह गुरु ज्ञान रहित हो जायेगा, किंतु ऐसा देखा नहीं जाता है। और तत्त्वदृष्टि से देखो तो यह समझाने वाला गुरु का आत्मा जितना यह ज्ञानानंदस्वरूप है तन्मय ही तो है और ज्ञानानंद का जो विस्तार है वही प्रदेश है। तो यह अपने प्रदेश में ही तो अपना परिणमन करता है। प्रदेश के बाहर कहां परिणमन करे ? फिर इस गुरु का यत्न पर के परिणमन में कैसे हो सकता है ? एक समझाना ही क्या कुछ भी बात किसी एक के द्वारा किसी दूसरे में हुआ नहीं करती। यह परमार्थ दृष्टि की चर्चा चल रही है। कोई परमार्थ की बात को व्यवहारदृष्टि से सुने तो तत्त्व न जमेगा।प्रत्येक यत्न का प्रयोजन अशांतिविलय–भैया ! एक नहीं अनेक ऐसे दृष्टांत हैं और घर-घर की घटनाएँ हैं। कोई परिवार का प्रमुख सोचता होगा कि मैं इन 10–20 लोगों पर दया करता हूँ, इन्हें पालता पोषता हूँ। अरे क्या कर रहा है वह प्रमुख ? उसके चित्त में किन्हीं कल्पनावों के कारण कुछ दर्द होता है, क्लेश होता है। बच्चे लोग सुखी रहें, इन लोगों की व्यवस्था अच्छी रहे तो कल्पनावों के उठने से जो अपने आपमें अशांति होती है उस अशांति को दूर करने का प्रयत्न करता है, किसी दूसरे का कुछ परिणमन नहीं करता।गुरु शिष्य की चेष्टा–यहां दृष्टांत में ली गयी है गुरु शिष्य की बात। चूंकि यह समाधितंत्र ग्रंथ है और अध्यात्मयोगीयों को समझाने के लिए इस ग्रंथ की रचना है और बाहरी संबंध एक दूसरे की परिणति समझाने और समझने की ही होती है इस कारण वही दृष्टांत लिया। दूसरे लोग जो मेरे व्यवहार में हितू कहलाते हैं―गुरूजन वे भी मानों इन शिष्यों के विनय से उनके चित्त में उनके उपकार की चिकीर्षा की एक वेदना होती है कि इन्हें खूब सिखा दें, पढ़ा दें, बता दें, तो ऐसी जो उन्हें एक करूणामयी वेदना हुई। उस वेदना के मिटाने का इलाज क्या था ? जो था वही चेष्टा की और समझाने वालों ने जो समझने की चेष्टा की। और भी जो मन, वचन, काय की चेष्टा की, वह भी इन शिष्यों ने अपनी कल्पना के अनुसार जो इच्छाएँ हुईं उन इच्छावों की पूर्ति की।प्रतिपाद्य प्रतिपादक में स्वतंत्रता का दर्शन–कोई किसी दूसरे का कुछ परिणमन नहीं करता है किंतु सब अपने आपके भावों के अनुसार अपने में ही अपनी चेष्टा किया करते हैं। यह बात इसलिए कही जा रही है कि ऐ योगियों ! तुम वस्तु के स्वतंत्र स्वरूप को निरखो। जब किसी के द्वारा आत्मा में कुछ परिणति नहीं होती, हमारे द्वारा किसी अन्य में कुछ परिणति नहीं होती, तब फिर पर के संबंध में कोई कल्पनाएँ बनाना या अंतर्जल्प करना यह विवेक कहा जा सकता है। इन अंतर्जल्पों को त्यागने के लिए यह एक उपदेश दिया गया है।व्यवहार के प्रयोजन के अपरिचय में विडंबना का एक उदाहरण–भैया ! व्यवहार की बात व्यवहार में है, पर यह निश्चय दृष्टि रखकर कथन चल रहा है। व्यवहार में तो लोग यों भी कह देते हैं कि हमने इतने लोगों को गधे से आदमी बनाया। बतावो यह भी कोई तथ्य की बात है। एक जगह कोई मास्टर बच्चों से ऐसा ही कह रहे थे कि देखो हमने 20 गधों का आदमी बना डाला। एक कुम्हार ने यह बात सुनी कि ये गुरूजी महाराज तो गधे से आदमी बना देते हैं। हमारे कोई लड़का नहीं है सो हम भी अपने गधे का लड़का बनवा लें। पहुंचा गुरूजी के पास, बोला आप बड़े दयालु हैं, आपने 20 गधों को आदमी बना दिया, एक मेरे गधे को भी आदमी बना दो। मास्टर ने सोचा कि यह तो बेवकूफ मालूम होता है, इस से फायदा उठाना चाहिए। मास्टर ने कहा कि अच्छा ले आना, मैं गधे का आदमी बना दूंगा। गधा वह ले आया। लीजिए साहब। मास्टर बोला-देखो 7 वें दिन ठीक 12 बजे दिन में आ जाना, तुमको आदमी तैयार मिलेगा। वह जानता था कि यह तो देहाती आदमी है। शहर के लोग भी ठीक समय की पाबंदी नहीं करते तो यह देहाती क्या करेगा ?
अब 7 वें दिन वह देहाती दो बजे पहुंचा। बोला मास्टर जी हमारा आदमी दो। तो मास्टरजी बोले कि तुम दो घंटे लेट आए, वह गधे से आदमी बन चुका। दो घंटे पहिले तो यहीं था, यदि दो घंटे पहिले आते तो यहीं तेरा आदमी मिल जाता, पर इस समय तो वह जज बन गया है और फलां कचेहरी में न्याय कर रहा है। सो अब तो हमारे बस की बात नहीं रही। 12 बजे में आते तो यहीं मिल जाता। अब तो तुम कचेहरी चले जावो। तुम्हारे साथ आये तो ले आवो। मास्टर ने गधे को 20–25 रूपये में बेचकर अपना काम चलाया। अब वह बेचारा गधे का तोंबरा, रस्सी आदि गधे से संबंधित चीजें लेकर कचेहरी पहुंचा ताकि उसे देखकर खबर हो जायगी और हमारे साथ चल देगा। सो कचेहरी के मुख्य दरवाजे पर बैठकर कहता है―ओ, ओ, आवो आवो, अरे तुम क्यों हमसे नाराज हो गए हमको दो ही घंटे की तो देर हो गयी। वह बार-बार तोंबरा दिखाकर कहता है―ओह माफ करो- चलो –घर चलो। जज कुछ अर्थ न समझे। तो जज ने दरबानों को हुक्म दिया कि कान पकड़कर यहाँ से हटावो। दरबानों ने उसे कान पकड़कर वहाँ से हटा दिया।व्यवहार के तथ्य की ज्ञातव्यता–तो भैया ! व्यवहार में कितनी ही ऐसी बातें होती हैं। कुछ होती है निश्चय का प्रतिपादन करने वाली और कुछ होती हैं सद्भूत व्यवहार बताने वाली और कुछ होती हैं उपचाररूप। मास्टर का कहना व्यवहार दृष्टि से गलत नहीं था कि मैंने बीसों गधों को आदमी बना दिया, मगर अर्थ वहाँ क्या था कि जिसमें विवेक कम था, बुद्धि कम थी, पढ़े लिखे न थे―ऐसे मनुष्यों का नाम गधा रक्खा गया है, और लोग कहते हैं अपने बच्चों को-ऐ गधे। तो व्यवहार में तथ्य क्या है ? उस तथ्य से अनभिज्ञ पुरूष कुम्हार जैसे ही धोखे के पात्र बनते हैं।समागम के काल में विवेक की आवश्यकता–मैं दूसरों को समझाता हूँ दूसरे मुझे समझा देते हैं―ऐसा जो कथन है वह व्यवहाररूप तो है पर परमार्थ से बात ऐसी है नहीं। मैं जो कुछ करता हूँ अपने गुणों का परिणमन करता हूँ, इसके अतिरिक्त मैं और कुछ नहीं कर सकता हूँ। कई बातों की खबर तो लूट पीटने के बाद विदित होती है। और जब तक मौज में हैं, उदय भला है, अपना ऐश्वर्य चलता है, चला चलता है तब तक कुछ बातें नहीं भी समझ में आती हैं, पर चीज गुजरने के बाद ध्यान में आती है।जैसे जब तक इष्ट पुरूष अथवा स्त्री का समागम है तब तक यह ख्याल में ही प्राय: नहीं आता कि यह भिन्न जीव है, मैं भिन्न जीव हूँ। मेरा इस पर कोई अधिकार नहीं है और यह समागम बिछुड़ने वाला है, ऐसा ध्यान ही नहीं होता। और अचानक जब कभी ऐसा अवसर आ जाता है कि बिछुड़ जाता है तो 8, 10 दिन तो जरा परेशानी रहती है, और अपनी ओर से भी यदि कुछ परेशानी मिटा देवे तो रिश्तेदार नहीं मानते। उनका ऐसा यत्न होता है कि कम से कम इसे 13 दिन तो रोना ही चाहिए, पहिले से क्यों शांत हो ? कोई चौथे दिन आया, कोई छठे दिन आया चाहे रेल में ताश खेलते हुए आये हों पर उस फेरे वाले के यहाँ तो 10–20 कदम से रोते हुए आया करते हैं। तो जब वियोग हो जाता है तब तो कुछ पता हो जाता है कि ओह मेरा कुछ न था, ये संसार के मुसाफिर थे, यह तो होना ही था, 10 वर्ष बाद होता या अभी हो गया―ऐसा ज्ञान समागम के संबंध में भी रहे तो वह गृहस्थी गृहस्थ के योग्य तपस्वी कहलायेगा।गृहस्थ के योग्य प्रथम तप–गृहस्थ की मुख्य दो तपस्याएं हैं उन्हें करना शांति के अत्यंत लिए आवश्यक है। पहली तपस्या तो यह है कि परिग्रह का परिमाण बनाना। मैं इतने से अधिक न रक्खूंगा। और जो भी आय हो उसके विभाग बनाकर इतना धर्म के लिए, इतना खाने पीने के लिए, इतना अमुक कार्य के लिए उसके विभाग बनाना और उन विभागों में गुजारा करना जितना अपने निकट है। उससे अधिक किसी धनी को देखे तो उसमें आश्चर्य न करना और न धन के कारण उनका महत्त्व समझाना –यह है उनकी पहिली तपस्या। अब आप सोच लो। ऐसा करना तो बड़ा कठिन हो रहा है। अरे तो कठिन तो होता ही है, संयम नहीं तो तपस्या नाम इसे क्यों दिया ? पर यह भी सोच लीजिए कि ऐसा यदि किया जाय तो उसमें शांति और संतोष मिलता है या नहीं ? तपस्या का फल आनंद है, संतोष है।तप में अंत: आनंद–कोई लोग ऐसा समझते हैं कि साधुजन बड़ा कष्ट सहते हैं गरमी में, धूप में ध्यान लगाते, शीत काल में बिना वस्त्र के ही बने रहते, जंगल में पड़े रहते, बड़ा कष्ट सहते। किंतु यदि साधु सच्चा है, आंतरिक योगी है तो इन तपस्यावों में उसे अद्भूत आनंद मिलता है। कैसे कि उस तपस्या का पहिला सुफल तो यों हुआ कि गंदे विचार विषय कषाय ये नहीं आ सके। और दूसरा सुफल यह हुआ कि जब विषय कषाय गंदे विचार आत्मा में नहीं आ सके तो ऐसी स्थिति में पर के विकल्प त्याग कर निज ज्ञानस्वरस का अनुभव बना सकें। बाहर से देखो तो वीतराग सहज आनंद से मानों लगातार घूँट ही पीते जा रहे हों, ऐसे आनंद से छका हुआ है आत्मा। तपस्या शांति और संतोष के लिए होती है। स्वच्छंदता व उद्दंडता असंतोष और अशांति के लिए होते है। और अंत में वह अपने को असहाय और रीता पाता है। प्रथम तपस्या तो यह हुई गृहस्थजनों की।
गृहस्थ के योग्य द्वितीय तप–दूसरी तपस्या यह है कि वर्तमान में जो कुछ मिला हुआ है समागम चेतन और अचेतन का उस सर्वसमागम के प्रति यह भावना रक्खें कि ये सब विनश्वर हैं, बिछुड़ जाने वाले हैं, मैं तो अपने आप जो हूँ सो ही रहूंगा―ऐसी प्रतीति और भावना रक्खें। यह दूसरा तप है गृहस्थजनों का। अब आप सोच लीजिए कि यदि ये दो तपस्याएँ बन सकीं तो कितना संतोष और आनंद होगा ? धनी बनने के लिए दौड़ क्यों लगायी जा रही है ? कुछ तो उत्तर दो मन में। बहुत धनी बनकर क्या काम निकल जायेगा ? वास्तविक उत्तर दीजिए। स्वप्न की बातों से समाधान नहीं करना है। क्या होगा अंत में ? लखपति, करोड़पति हो गए तो क्या हो गए ? लोग बताते हैं कि अमेरिका में जो फोर्ड कंपनी का मालिक था वह मजदूरों से ईर्ष्या करता था, ओह ये बड़े सुखी हैं। अपनी अशांति सब समझता था।नरजीवन में दो मुख्य आवश्यकतायें–देखो भैया ! शरीर की दृष्टि से इसके अंदर पहुँचती हैं कोई पाव डेढ़ पाव की रोटियां और बाहर में चाहिए थोड़े सात्त्विक वस्त्र। इन दो चीजों के अलावा और इसे क्या चाहिए ? और तो सब पुण्योदय के चोचले हैं, पुण्योदय को पाकर इतराना है। ऐसा आराम बन जाय, ऐसी कलावों से भोग भोगा जाय, यह सब पर्यायबुद्धि का विस्तार है। और अंतरंग की दृष्टि से इसे क्या चाहिए ? ज्ञान। ऐसा वातावरण, ऐसा संग, ऐसा उपदेश जो निजतत्त्व का, स्वभाव का स्पर्श करा सके, ज्ञानानंदस्वभाव का अनुभव करा सके―ऐसा चाहिए समस्त ज्ञान का वातावरण। अंतर को चाहिए ज्ञान की खुराक, बाहर को चाहिए पाव डेढ़ पाव की भोजन की खुराक। इसके अतिरिक्त अन्य सब बातें इसके लिए क्या आवश्यक हैं ?
पुराण महापुरूषों की कृति–बड़े-बड़े राजा महाराजा, चक्री, बड़े वैभवसंपन्न समस्त, समस्त वैभवों को त्याग देते हैं। यहाँ तक कि वस्त्रों का भी त्याग करा देते हैं, उसकी भी क्यों ममता होना, क्यों चिंता होना, कहां लंगोट सुखाएं, कहां सुखाकर धरें ? एक अध्यात्मयोगी को बाह्य विषय का इतनी भी चिंता अखरती है। योग में बढ़ने पर सब कुछ छूट जाता है, तो बड़े-बड़े राजा महाराजा लोग भी जिंदगी के सारे अनुभव पा चुकने के बाद यह निर्णय करके गए कि छोड़ो परिग्रह, छोड़ो समागम और एक ज्ञानवासना से ही अपने संस्कार बनाओ। अब समझ लीजिए कि इन बाह्य पदार्थों से हमारा क्या पूरा पड़ेगा ? फिर बाह्य पदार्थों से अपना बड़प्पन मानना या मैं अमुक घर मकान दुकान को बनाता हूँ―ऐसी बुद्धि बनाना इसे उन्मत्त चेष्टा कहें या न कहें।प्रतिपाद्य प्रतिपादक में स्वतंत्रता का निर्णय–आचार्यदेव यहाँ यह बतला रहे हैं कि मैं दूसरों के द्वारा समझाया जाने वाला हूँ, मैं दूसरों को समझाता हूँ-ऐसा संबंध समझना यह भी उन्मत्त चेष्टा है। बतलावो प्रकृत की हो तो बात है, लोक व्यवहार में लो हम समझाने बैठ गए और आप सब समझने बैठ गए और दिखता भी ऐसा है। मानो हम तो समझा रहे हैं और आप समझ रहे हैं, पर बात कुछ और ही है। में अपने भावों के अनुसार, इच्छा के अनुसार अपनी चेष्टा करता जाता हूँ और आप अपने भावों के अनुसार अपनी चेष्टा करते जाते हैं। न आप में मैंने कुछ किया, न मुझमें आपने कुछ किया, फिर भ्रम क्यों हो गया लोगों को कि यह समझाते हैं और हम लोग समझते हैं। उस भ्रम का कारण हो सकता है तो एक मात्र निमित्त-नैमित्तिक संबंध। क्या मैं जंगल में भी ऐसी बातें किया करता हूँ जैसी अब कर रहा हूँ ? क्या आपको ऐसी उम्मीद है, या जो हमारे साथ जाते हैं उनसे पूछ लो। यदि हम ऐसा करें तो लोग हमें सरासर पागल कहने लगेंगे। या आप लोग क्या कभी इस तरह से कान लगाकर ऐसी दृष्टि लगाकर कभी बैठते हैं ? तो आपका निमित्त पाकर हम अपनी चेष्टा करते हैं और हमारा निमित्त पाकर आप अपनी चेष्टा करते हैं। इतना मात्र निमित्तनैमित्तिक संबंध देखकर आगे बढ़ गए, पर न मैं आपको समझाता हूँ और न आपके द्वारा मैं समझाया जाता हूँ। यदि कर्तृत्व मानें तो यह उन्मत्त चेष्टा है। मैं तो निर्विकल्प हूँ, इस भावना के बल से अंतरंग जल्प का भी परित्याग होता है।