वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 42
From जैनकोष
शुभं शरीरं दिव्यांश्च विषयानभिवांछति।
उत्पन्नाऽऽत्ममतिर्देह तत्त्वज्ञानी ततश्च्युतिम् ।।42।।
अज्ञानी की पहुंच- अज्ञानी जीव अर्थात् जिसको शरीर में यह मैं हूं- ऐसी बुद्धि उत्पन्न हुई है वह बड़े घोर तप को भी करता है तो भी चूंकि उसके शुद्ध ज्ञानविकासमात्र मोक्षतत्त्व में प्रतीक्षा नहीं है- इस कारण सभी शरीरों को, दिव्यभोगों को चाहता है। धर्म करके, तप करके, व्रत आदिक करके मेरी पहुंच देवगति में उत्पन्न होगी, इंद्र बनेंगे और दिव्यभोग मिलेंगे, यहां तक ही अज्ञानी की पहुंच हुआ करती है।
अज्ञान तप में बैकुंठ के सुख का आशय- ऊर्ध्वलोक में सबसे ऊँचे स्थान में जहां तक कि मिथ्यादृष्टि जीव भी जा सकता है, तपस्या करके वह स्थान है बैकुंठ। बैकुंठ कहो या अपभ्रंश में बैकुंठ कहो, ग्रैवेयक कहो। ग्रैवेयक भी बैकुंठ का ही नाम है। बैकुंठ का भी अर्थ कंठ का स्थान है और ग्रैवेयक का भी अर्थ कंठ का स्थान है। तीनों लोकों की रचना में ग्रैवेयक कंठ के स्थान पर पड़े हैं। जहां कंठ का स्थान है, वहां ग्रैवेयक का स्थान भी है।
मिथ्यादृष्टि जीव भी तपस्या करके ग्रैवेयक तक में उत्पन्न होता है, वहां शुभ शरीर है, वैक्रयिक शरीर है। जहां हाड़मांस, मज्जा, धातु उपधातु नहीं हैं, जहां कभी पसीना नहीं आता, बदबू नहीं आती- ऐसे वैक्रियक शरीर हैं। जिस शरीर से अनेक शरीर रचनाएँ कर लें- ऐसे शुभ शरीर हैं और भोग भी दिव्य हैं। जहां तक याने ग्रैवेयक से नीचे कल्प तक देवांगनावों का संसर्ग है, वहां तक दिव्यभोग है और उससे ऊपर मानसिक, शारीरिक उपभोग है। उनको ये अज्ञानीजन तपस्या करके चाहते हैं।
पूंजी से बहुत कम मांग की पूर्ति- जैसे किसी के पास धन बहुत है, कोई लखपति है और वह किसी से 100 रुपये उधार मांगे तो जो चाहे दे देता है। हैसियत से अधिक कोई उधार चाहे तो उसे कैसे मिलेगा? इसी प्रकार तपस्या करके जिसने परिणाम विशुद्धि अधिक की है, पुण्य बांधा है, उससे कम निदान बांधे तो जल्दी मिल जाता है। जैसे कोई साधु तपस्या करके मांगे कि अमुक सेठ का पुत्र होऊँ तो तप करने के फल में उसके मांगने की पूर्ति हो जाती है। कहीं ऐसा नहीं है कि जो मांगे, सो मिल जाये। गांठ में अधिक पुण्य हो और थोड़ी चीज मांगे तो उसे वह चीज मिल ही जायेगी। पुण्य तो विशेष नहीं है और मांगे अधिक बात तो कहां से मिल सकेगी।
अज्ञानी और ज्ञानी की आकांक्षा- अज्ञानी जीव तपस्या करके इन चीजों को चाहता है, जब कि तत्त्वज्ञानी जीव इन सब झंझटों से छुटकारा चाहता है। चारों गतियों में से कोई भी गति मेरे न रहे। सर्व इंद्रियजातियों में से कोई भी इंद्रियजाति मेरी न रहे। कोई काय, योग, वेद, कषाय मेरे न रहें। तत्त्वज्ञानी जीव इन सब झंझटों से अपना अलगाव ही चाहता है। जब तक सहज ज्ञानस्वरूप निजआत्मप्रकाश का अवलोकन नहीं होता है, तब तक यथार्थ उद्देश्य बन ही नहीं सकता। इस निज कारणसमयसार के परिचय बिना यह कुछ चाहेगा तो क्या चाहेगा? इन्हीं सब लौकिक सुखों को। लौकिक सुखों में कोई सुख ऐसा नहीं है कि जो इस जीव के शांति का कारण हो।
जिस किसी से राग हो, वह यदि बहुत सुभग है, प्रिय है तो जितना अधिक वह प्रिय होगा, राग का बंधन, राग का क्लेश उतना ही अधिक होगा। जिन लोगों के वैभव संपदा, परिजन, कुटुंब, इज्जत, पोजीशन- ये सारी चीजें हैं, उनको कितनी बड़ी बड़ी
विपत्तियां हैं, ये तो वही जान सकते हैं।
ज्ञानी के अहित से बचाव का यत्न- और भी देखो भैया ! जैसे कोई विडंबना हो जाने पर यह पुरुष उससे बचना चाहता है, प्रभु से मनोती भी मनाता है, कुछ धर्मध्यान में जी चाहता है- ऐसे ही तत्त्वज्ञानी पुरुष समृद्धि मिलने पर, प्रशंसा मिलने पर, हर प्रकार के लोक सम्मान मिलने पर यह उन्हें विपदा समझकर उनसे बचना चाहता है और नि:संग आत्मतत्त्व की शरण में आना चाहता है। दृष्टिभेद का सारा प्रताप है। कितने ही पुरुष, कितने ही साधुजन बड़ी ऊँची साधना करने के बाद भी रागद्वेष आ जाये तो ऐसा बंध बांधते है कि मैं अमुक का बैरी बनकर इसका घात करूँ, अपनी उतनी बड़ी साधना को यों ही खो देते हैं।
हमारी आपकी साधना- हम और आप भी धर्म के लिये जितना जो कुछ करते हैं, वह सब एक साधना है। उस साधना में हमारी कषायें मंद हों और उस साधना के एवज में हम दूसरों का कुछ न चाहें- ये दो बातें रहें तो हमारी यह धर्मसाधना है। पूजा करना, सामायिक करना, स्वाध्याय करना आदिक जो कुछ भी धर्मसाधना किया करते हैं, वह लाभदायक है। इस धर्मसाधना को करके कुछ भी चाह करना-यह बिल्कुल ही बेकार है। जैसे कोई इसलिये दर्शन करे, पूजा करे कि लोग समझे कि हां यह भी धर्मात्मा हैं। यदि इस उद्देश्य को रखकर श्रम किया तो जो उद्देश्य बनाया है, जो संस्कार बनाये हैं, वे ही तो उसके अंदर चलें, फिर तो उसे पुण्य का बंध नहीं होता है। मौन से स्तवन करने में, पूजन करने में इस दोष का प्रसंग नहीं आ पाता है। जैसे कि मानों बोलकर स्तवन कर रहे हों तो अभी अकेले ही थे, जल्दी जल्दी जैसा चाहे बोल रहे थे, अब आ गये दो चार बाबू लोग, सेठ लोग तो उनको देखकर बहुत संभालकर बोलने लगे, धीरे धीरे राग से बोलने लगे तो उसने प्रभु की पूजा को छोड़ दिया और बाबूजी की, सेठजी की पूजा शुरू कर दी, क्योंकि उन लोगों को अपने को अच्छा बताने की चेष्टा हो रही है।
मौन की प्रयोजकता- भैया ! सात स्थानों में जो मौन बताया गया है, उस मौन का बहुत मार्मिक प्रयोजन है। पूजा करने में भी मौन बताया है। कल्पना करो कि गिरजा जैसा रिवाज अपने मंदिरों में भी होता कि बेदी में पैर रक्खा तो सब के सब मौन से मंदिर में आयें, मौन से दर्शन करें, मौन से पूजन करें तो चाहे दसों बीसों पुरुष भी दर्शन, पूजन कर रहे हों तो किसी से किसी दूसरे को बाधा नहीं आ सकती। दूसरे उन पूजा करने वालों का भी यह भला होगा कि दर्शकों को देखकर मन में कोई मायाचार की बात न आ सकेगी कि अब संभालकर बोलने लगें तो उनमें भी कितने ही गुण हैं। अन्य स्थानों में भी मौन रक्खा है, सर्वत्र मौन में धर्मोन्मुखी मर्म है।
अज्ञानी का उद्देश्य व रमण- तपस्या करके, साधना करके कुछ बाहरी बातों की चाह कर लेना यह इस जीव के अकल्याण के लिए है। यह अज्ञानी जीव घोर तप करके भी शुभ शरीर और दिव्य भोगों को चाहता है। यह तो परलोक के चाहने की बात हुई, किंतु आजकल बहुत से संन्यासी जन कांटों पर पड़कर, औंधे लटककर कैसी ही तपस्या करके केवल यह चाहते हैं कि लोग 2-4 पैसे धर जायें, फेंक जायें। उन्होंने इस लोक के वैभव की चाह में ही अपने तप और श्रम में साधना को समाप्त कर दिया। क्या करें अज्ञानी जीव? ज्ञानी जिसमें रमते हैं उसका तो पता नहीं और रमने का स्वभाव इस आत्मा में पड़ा हुआ ही है। कोई जीव किसी बात में रमे बिना न रह सके ऐसा हो सकता नहीं है। अपना पता हो तो अपने में रम ले, न अपने का पता हो तो किसी परविषय में रमेगा, किंतु रमने की प्रकृति कैसे छूटेगी? इस ज्ञानी जीव को यदि आत्मस्वभाव का परिचय नहीं है तो रम नहीं सकता। अब बाहर में दृष्टि है तो बाहर ही बाहर रमेगा। उस अज्ञानी को बाहर में ही सारा सार दिखता है।
अटपट तमाशा- पहिले ऐसे सिनेमें आते थे जो बोलते न थे, केवल चित्र ही पर्दे पर आते थे। देख तो लो मगर कुछ अटपटासा लगता था। ओंठ तो चल रहे हैं लगता है कि एक दूसरे से बोल रहे हैं, मगर उसमें कुछ तो ऐसा लगता था कि यह तो कुछ खेलसा हो रहा है, कुछ अटपटासा काम हो रहा है। यों ही ज्ञानी पुरुष को यह सारा दृश्य अटपटासा दिखता है। कोई किसी को कुछ कहता ही नहीं है। जो कोई कुछ यत्न करता है या अपनी चेष्टा करता है वह अपने में ही करता है। कोई किसी में कुछ कर ही नहीं सकता। कोई किसी अन्य से राग कर ही नहीं सकता। सब अपनी-अपनी ढपली बजाते हैं, अपना-अपना ही विकार किया करते हैं। जैसे उस सिनेमा के चित्र में यह साफ दिख रहा है कि यह इससे कुछ कह ही नहीं रहा जो न बोलता हुआ सिनेमा हो। जैसा उसमें लगता है ऐसा ही इस संसार के सिनेमा में ज्ञानी को यों ज्ञात हो जाता है कि यों ही सब हो रहा है। कोई किसी का कुछ करता ही नहीं है। सब अपनी-अपनी चेष्टा करके समाप्त हो जाते हैं। ये सब उसे असार नजर आते हैं, फिर इनकी चाह ज्ञानी कैसे करे? तत्त्वज्ञानी जीव तो उन सब साधनों से, विषयों से छुटकारा चाहता है।
मनचाही बात की तुरंत सिद्धि का अभाव- भैया ! और भी विचारो क्या मनचाही बात यहां किसकी हो सकती है? लोक में ऐसा कोई पुण्य नहीं है, ऐसा कोई पुण्यवान् नहीं है जो मनचाही बात बोले और तुरंत सिद्ध हो जाय। बड़े दृष्टांत देंगे चक्रियों के और तीर्थंकरों के, उनका पुण्य इतना विशाल है कि जो उनकी चाह हुई तुरंत पूर्ति हो जाती है, पर वहां भी ऐसा नहीं है। सिद्धांत देखो- मनचाही बात तुरंत पूरी हो जाय ऐसा कभी हो ही नहीं सकता। पूरी हो जाय, इतना अंश अभी अलग रक्खो। तुरंत मनचाही बात हो जाय यह कहीं भी नहीं हो सकता। मन में चाहा कब और बाहर में परिणमन हुआ कब- इन दो बातों में बहुत अंतर काल पड़ा हुआ है। जैसे आपकी मनचाही बात तीन घंटे में बन जाय तो आप कहते हैं कि मेरी मनचाही बात तुरंत हो गयी। किसी की घंटा भर में हुई तो वह भी तुरंत शब्द कहता है। किसी की 10 मिनट में हो जाय तो वह भी तुरंत शब्द कहता है, पर यह बात है क्या? इसमें तो इतना अंतर पड़ा हुआ है और जिसके सेकेंड में भी हो जाय उसके भी तुरंत नहीं है। वेद्यभाव और वेदकभाव यह उभय एक समय में नहीं होता है एक ही विषय में जब चाहा तब बात नहीं, जब बात है तब चाह नहीं। आपने चाहा कि आज 100) की आय हो तो जिस समय यह चाह है क्या उस समय 100) की आय हुई? नहीं हुई। होती, तो इस प्रकार की चाह का ढांचा ही नहीं बन सकता, तो मनचाही बात तुरंत हो जाय, ऐसा पुण्य होता ही नहीं है।
समस्त मनचाही बात का अभाव- अब दूसरी बात देखो- मोटे रूप में ऐसा सोच सकते हैं कि हम जो चाहते हैं वह पूरा होता है। दिन भर में आपकी चाहें तो लाखों हो जाती होंगी। 24 घंटे में लाखों चाहें हो जाती हैं। कुछ तो आपकी पकड़ में आती हैं व कुछ हो जाती हैं और कुछ झक मारकर यों ही खिर जाती हैं। लाखों चाह होती हैं, कौन-कौनसी चाह पूरी हो। लेकिन यह अज्ञानी जीव चाह करता है और तपस्या करके भी लौकिक सुखों की चाह करता है।
ज्ञानी का अंत:प्रसाद व बाह्यपरिहार- जिसने निज ज्ञानस्वरूप के अनुभव का आनंद पाया है वह संसार के सर्व सुखों को हेय समझता है। यह सब कुछ सार नहीं है। जैसे जिस लड़के को नींद आ रही है और जमीन पर सोया हुआ है और उस लड़के का बाप मानों शास्त्र सुनने बैठा है। शास्त्र समाप्त होने के बाद घर जायेगा ना, तो वह लड़के को उठाता है चल रे। तो वह उसी नींद में एक दो थप्पड़ मार देता है- कहेगा कि हमको तो यही अच्छा लगता है, हमको नहीं जाना है। यह तो उसकी नींद की बात है, किंतु जिस ज्ञानी को अपने ज्ञानसुधारस के पान के अनुभव का आनंद आया है, ऐसे ज्ञानी को कर्मोदय की प्रेरणावश जाना भी पड़े घर में, दुकान में, लोगों में तो वह पसंद नहीं करता। हमको नहीं जाना है, बचना चाहता है, किंतु अज्ञानी जीव चाह-चाह करके इन पौद्गलिक वैभवों में, इन मायारूपों में अपने को लगाया करता है।
बिना हुमस का फेर- अहो, अंतरंग में ही थोड़ी उन्मुखता और विमुखता के जरा से फेर में इतना बड़ा अंतर आ जाता है कि एक तो संसार में रुलने का विस्तार बनाया करता है और एक अपने आपमें विश्रांत होने का यत्न किया करता है। उपयोग तो यही है और यह उपयोग आत्मप्रदेश से बाहर भी नहीं जाता, किंतु अपनी ओर उन्मुख रहे जिसे कहते हैं निशाना लगाना यह उपयोग अपनी ओर निशाना लगाये तो इसकी मुक्ति का मार्ग बनता है और अपने से बाहर की ओर निशाना लगाये तो यह संसार में रुला करता है। भीतर ही एक उपयोग पेंच को भिन्न-भिन्न दिशा के अभिमुख किये जाने का यह सारा विस्तार है कि वह संसार में रुलेगा या मुक्ति के निकट होगा। यह जीव केवल परिणाम ही कर सकता है, किसी परपदार्थ में कुछ परिणमन नहीं कर सकता है। केवल परिणामों से ही अपनी सारी चेष्टाएँ बनाया करता है और इतना ही नहीं यह बाह्य ढांचा, पौद्गलिक शरीर, ऐसे बंधन, ये सारे ऐब भी आ जाते हैं केवल एकभाव के करने पर। यहां उपयोग प्रदेशमात्र भी हुमसा नहीं है, फिर भी यह फेर हो जाता है।
चेतन प्रभु के विभाव से असमानजातीयद्रव्यपर्याय की सृष्टि- कैसे बन जाता है यह शरीर? कैसे बन जायेगा यह मनुष्य? कभी मनुष्य बना है, कुछ समय बाद गाय, बैल बन जाय, कुछ समय बाद सांप बिच्छू बन जाय तो अचरज होता है कि आकाशवत् निर्लेप ज्ञानानंदस्वभावमात्र यह आत्मा क्षण में ही क्या से क्या बन गया, कैसे बन गया? यह तो केवल भाव ही करता है। इसने भाव ही किया। अब निमित्तनैमित्तिक पद्धति में जो कुछ होने को है वह हो ही लेगा।
दृष्टांतपूर्वक सृष्टि में विभाव की निमित्तकारणता की सिद्धि- जैसे बारातों में फटाका अनार आदि छोड़े जाते हैं तो वे तैयार किये हुए लाये जाते हैं। वहां तो केवल थोड़ी किसी जगह आग छुवा दी, फिर कैसे दगेगा वह, कैसा उसका विस्तार होगा अब सारी बातों में इस पुरुष की क्या करतूत है? कुछ नहीं। यह तो आग छुवा कर अलग हो गया, अब जो होना है निमित्त-नैमित्तिक पद्धति से स्वयमेव हो जाता है। छूट गया फटाका आकाश में चला गया, रंग बिरंगे आग की कणों में फैल गया। जो हो, उसमें अब यह पुरुष क्या करे? वह हो गया। ऐसे ही जानों कि इस जीव ने तो एक परिणाम भर बनाया, किसी भी प्रकार का परिणाम करे। अब परिणाम होने के बाद स्वत: ही जैसा निमित्तनैमित्तिक पद्धति में राग है, कर्म बंध हुआ, उदय हुआ, आहारवर्गणा हुई, उसके अनुसार शरीर बना, रूपक बन गया।
कैसा हो गया यह जीव पेड़ों के रूप में, कीड़ों के रूप में, मनुष्यों की शकल में, भिन्न भिन्न प्रकार से कैसे हो गया? सब जानवरों के अजायबघर में जावो तो कैसे विभिन्न जानवर मिलते हैं? जिनको कभी देखा न हो। कैसे बन गए ये सब मायारूप? बन गए। इसमें कारण है जीव का परिणाम। जीव परिणामभर करता है और उस परिणाम के फल में स्वयमेव ये सब मायारूप बन रहे हैं।
अज्ञानी और ज्ञानी की चेष्टावों के प्रयोजन- ये अज्ञानी जीव घोर तप करके भी शुभ शरीर और दिव्यविषयों की चाह करते हैं। जैसे आजकल भी बहुत से लोग ऐसे हैं कि जिनसे पूछो कि काहे के लिये तुम इतने व्रत करते हो, तपस्या करते हो? तो उत्तर मिलेगा कि अच्छी गति मिलेगी, देव बनेंगे, इन शब्दों में कहने वाले आज भी मौजूद हैं। ऐसे बहुत कम बिरले पुरुष होंगे, जिनसे पूछो कि भाई किस लिये तुम तप करते हो, व्रत करते हो, साधना करते हो? समाधान में यह उत्तर मिले कि मैं ज्ञानमात्र हूं- ऐसा ही अनुभव करना है, इसके लिये ये सब काम किये गए हैं। धर्म के जितने भी कार्य हैं, उन सब कार्यों का प्रयोजन परमार्थत: यह है कि यह आत्मा अपने ज्ञानस्वरूप का ज्ञान करता हुआ ही बना रह सके। इससे आगे मुझे और कुछ नहीं चाहना है और भी बहुत सूक्ष्मदृष्टि से पूछो उनसे कि क्यों जी, तुम आत्मस्वरूप को किसलिए जानना चाहते हो? तत्त्वज्ञानी पुरुष का यह उत्तर मिलेगा कि हम तो इस आत्मस्वरूप को जानते रहने के लिए ही जानना चाहते हैं, देवगति मिले- यह उत्तर उसका न होगा, मोक्ष का सुख मिले, यह उत्तर उसका न होगा, किंतु जो यथार्थतत्त्व है, वह यथार्थतत्त्व जानने में बना रहे, इतने ही प्रयोजन के लिए हम इसे जानना चाह रहे हैं।
कर्तव्यसूचना- यों यह तत्त्वज्ञानी जीव उन सब परभावों से अलग होना चाहता है, जिन परभावों की चाह यह देहात्मबुद्धि प्राणी अज्ञानी किया करता है। इस प्रकरण में जो अज्ञानी के प्रसंग की बात हो, यों समझना उसे हेय है। जो ज्ञानी के प्रसंग की बात है, वह उपादेय है, यों समझना। तपश्चरण के द्वारा इंद्रिय और कषायों पर विजय पाकर अपने ध्येय की सिद्धि करना चाहिए, न कि बाह्यपरिग्रहों के संयोग की इच्छा में ही डूबना चाहिए।