वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 41
From जैनकोष
आत्मविभ्रमजं दु:खमात्मज्ञानात्प्रशाम्यति।
नाऽयतास्तत्र निर्वांति कृत्वापि परमं तप:।।41।।
क्लेश का कारण भ्रम- जितने भी क्लेश होते हैं वे आत्मा के भ्रम के कारण होते हैं-- अर्थात् आत्मतत्त्व में यह मैं हूं, इतना भ्रम हुआ कि सारे क्लेश इस पर आ जाते हैं। कोईसा भी क्लेश हो, किसी की भी कहानी सुनो― यदि कोई अपना क्लेश कह रहा है तो पहिचानते जावो कि इसने अपनी दृष्टि में कहां भूल की है जिससे इसे क्लेश का अनुभव होता है। कोई पुरुष कहे कि मेरे तो बड़ा कष्ट है, अमुक में टोटा हो गया, उसमें अब मुनाफा नहीं है अथवा कोई पड़़ौसी बड़ा धन जोड़ने लग गया है, बड़ा कष्ट है। कह कौन रहा है? एक संज्ञी पंचेंद्रिय जीव। वह जितना है तितना ही है, उसमें से कुछ गया नहीं और न उसमें कुछ आया था, लेकिन परद्रव्यों में जो उसने यह दृष्टि बना ली कि मैं इतना वैभववान् हो गया हूं ऐसा जो भ्रम किया था उस भ्रम के कारण क्लेश हो रहा है।
आर्तभाव की भ्रममूलकता- जितने भी दु:ख हैं, इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग आदि के क्लेश हैं, वे भ्रम से हैं। कोई कहे कि मेरा अमुक बड़ा मित्र था, मेरा लड़का, मेरा कोई रिश्तेदार, स्त्री कोई भी विमुक्त हो गया है, गुजर गया है, मैं अकेला ही रह गया हूं, बड़ा कष्ट है। अरे कष्ट कहां है, तुम तो अकेले ही थे। जिस भव से आये, क्या दूसरे को साथ लेकर आये अथवा जावोगे, तो क्या किसी को साथ लेकर जावोगे? अकेले ही थे, अकेले ही रहते हो, कहां कष्ट है, लेकिन परपदार्थों में यह मेरा है― इस प्रकार की जो कल्पना बना रक्खी उसके कारण इस समय कष्ट हो रहा है। आत्मा के भ्रम से उत्पन्न हुआ क्लेश मिटेगा कैसे? आत्मज्ञान से। यह मेरा है, इस कल्पना के कारण होने वाला क्लेश मिटेगा कैसे? यह मेरा नहीं है, इतना ज्ञान होने से क्लेश मिट जायेगा।
ममताभाव का क्लेश- एक व्यापारी अचानक भाग्य साथ न देने से बहुत घाटे में पड़ गया और दूर किसी शहर मानों कलकत्ता वह चला गया अपना गुजारा करने के लिए। घर पर एक वर्ष का बालक और स्त्री को छोड़कर धन कमाने के लिए चला गया। वहां उसका अच्छा रोजगार लगा और उस रोजगार में धन की आय में इतना व्यस्त हो गया कि उसने 14 वर्ष तक घर आने का मौका न पाया। अब बच्चा बढ़कर 15 वर्ष का हो जाता है। मां कहती है बेटा ! तुम अपने पिता को लिवा लावो। 14 वर्ष हो गए हैं, अमुक शहर में हैं, अमुक मुहल्ले में हैं, अमुक नाम है। यहां से लड़का बाप को लिवाने के लिए चला और उसी समय वहां से बाप चला अपने घर के लिए। रास्ते में एक बड़ी धर्मशाला में पास-पास के कमरे में अलग-अलग वे दोनों ठहर गये, पर बाप न बेटा को पहिचाने और न बेटा बाप को पहिचाने। अचानक हुआ क्या कि उस बेटे के पेट में बड़ा दर्द हुआ, वायुगोला उठा, और पिता के पास उस रोग की दवा भी थी, लेकिन उस लड़के की चिल्लाहट सुनकर जब बाप को नींद न आयी तो चपरासी को बुलाकर कहता है कि यह कौन लड़का रो रहा है, इसे धर्मशाला से बाहर करो। हम दो दिन के जगे भये हैं, नींद नहीं आती है। चपरासी कहता है कि रात्रि के 12 बज गए, इसे कहां निकालें? इसी हुज्ज में लड़के का पेट दर्द ज्यादा बढ़ा और दिल पर अटैक हुआ, पेट दर्द के मारे वह गुजर गया।
अब दूसरे दिन बाप घर पहुंचता है, सब कुशल पूछता है और वह कहता है कि लड़का कहां गया? स्त्री ने बताया कि लड़के को आपको ही तो लिवाने के लिये भेजा है। अब वह चला अपने लड़के को ढूंढ़ने के लिये। पता लगाते-लगाते उस धर्मशाला में भी पहुंचा। मैनेजर से पूछा कि यहां अमुक नाम का कोई लड़का तो नहीं आया? उसने रजिस्टर उठाकर देखा और कहा कि हां, अमुक नाम का लड़का दस दिन पहिले यहां आया था, अपने पिता को लिवाने जा रहा था। फिर क्या हुआ? उसके पेट में दर्द हुआ और दर्द के मारे गुजर गया। अब गुजरने का नाम सुनकर बेहोश होकर गिर पड़ा। भला बतावो कि जब लड़का सामने था, खूब देखता था तब तो प्रेम न उत्पन्न हुआ, तब तो उसे भगाने की ही पड़ी थी और जब मर गया, सामने नहीं है, किंतु इतना ख्याल भर आया कि वह मेरा ही पुत्र था तो इस कल्पना से वह बेहोश हो गया।
मोही जीव की चार आंतरिक चोटें- भैया ! दु:ख देने वाला दूसरे पदार्थ का संयोग-वियोग नहीं है, किंतु मेरा ही इस प्रकार का परिणाम शल्य की तरह दु:खी किया करता है। चीज हो तब भी दु:ख, न हो तब भी दु:ख। दु:ख का कारण तो भ्रम है, वस्तु का मिलना या विघटना ही दु:ख का कारण नहीं है। प्रथम तो इस मोही जीव की शरीर में आत्मबुद्धि हुई है कि यह मैं हूं। पश्चात् दूसरे के शरीरों में दूसरे आत्मा हैं-- ऐसी ही बुद्धि हुई। इसके बाद फिर धनसंचय की आवश्यकता जानी और उसमें अपनी पोजीशन समझी। उसमें ‘‘यह मेरा है’’ ऐसी बुद्धि हुई, पश्चात् सबसे कठिन समस्या मुश्किल से मिटने वाला एक राग है-- वह है यश का राग। इस यश के राग में ही वह सारा का सारा जीव लोक बहुत ही परेशान है।
पशु पक्षियों में भी शान का क्लेश- बछड़ें भी दो लड़ने लगें तो वे गम नहीं खाते हैं। वे लोहूलुहान भी हो जाते हैं, तो उनके भी यश पोजीशन की बात लगी हुई है, वे भी बछड़ों के बीच में अपने को कुछ जताना तो चाहते हैं कि हम कैसे बलवान् हैं, मैंने उस बछड़े को कैसे मार भगाया? उन संज्ञी पंचेंद्रिय जीवों के मन में भी यश, पोजीशन की तरंगे उठा करती है, नहीं तो गम न खाते। भैंसा भैंसा परस्पर में यदि लड़ जायें तो उनको बचाना बड़ा कठिन हो जाता है, यदि उनको बचाने जायें तो स्वयं को उनसे बचकर भागना पड़ता है। वे बड़े गुस्सैल जानवर हैं, तो उन जानवरों में भी शान, पोजीशन की बात पड़ी हुई है।
इस मंदिर के सामने कबूतर बैठते हैं। कोई कबूतर बैठा है, उसके पास कोई दूसरा कबूतर आ जाये तो चोंच मारकर, पंख मारकर उसे भगा देता है। बाद में वह कुछ हिलडुलकर अपने में बड़ा बड़प्पन महसूस करता है। इस शान और पोजीशन ने इस समस्त जीवलोक को बरबाद कर दिया है।
छोटे शिशुवों में भी शान का क्लेश- dksकोई छोटा बच्चा गोद में चढ़ा हो और उसे मां की गोद से उठाकर नीचे धर दे तो वह अपना मान भंग समझता है। बोलना भी नहीं जानता, है भी वह छोटासा छ: माह का बच्चा, मगर नीचे बैठा देने पर वह रोने लगता है। उसे कोई अच्छी चीज भी खिलावो, खिलौना भी दे दो, पर उसका रोना बंद नहीं होता। वह खिलौने के अभाव में नहीं रो रहा हैं, वह भूख के कारण नहीं रो रहा हैं, बल्कि मानभंग जो कर दिया गया, उसकी चोट से रो रहा है। उसे गोद में ले लो, अभी उसका रोना बंद हो जायेगा। इस मान की कल्पना में पशु, पक्षी, मनुष्य सभी पड़े हुये हैं।
सर्वत्र मायाछाया- जितना यह सब असमानजातीय द्रव्यपर्याय है, वह मायारूप है। परमार्थ तो वह है जो खाली जीव हो, खाली पुद्गल हो। जीव और पुद्गल के संबंध में होने वाली यह जो अवस्था है, वह मायारूप है, पर मायारूपी मायारूप वालों में मायारूप पोजीशन रखना चाहते हैं, कुछ तत्त्व नहीं है। जैसे स्वप्न में कोई अपनी शान रखता हो तो उसकी शान बेकारसी है। है तो कुछ भी नहीं वहां। इसी प्रकार यहां पर भी कोई शान रखना चाहता हो तो बेकार की बात है। परमार्थभूत बात तो यहां कुछ भी नहीं है, पर कितना दु:ख हो गया, रात दिन कष्ट हैं। धनी सोचते होंगे कि गरीब सुखी हैं, गरीब सोचते होंगे कि धनी सुखी हैं, पर धनिकों को देखो तो वे भी दु:खी और गरीबों को देखो तो वे भी दु:खी। धनिक सोचते होंगे कि गरीबों को कोई चिंता नहीं है, सुखी हैं। गरीब सोचते हैं कि धनिकों के पास धन खूब है, सुखी हैं। परंतु सुख का कारण धन नहीं है। यह अपने आपमें जो असंतोष का परिणाम है, उससे क्लेश हैं। परपदार्थों में ‘‘यह मैं हूं’’ इस प्रकार आत्मा का भ्रम होने से ये सब क्लेश हो गए हैं, किंतु यदि मूल का आत्मभ्रम मिटे तो फिर वहां ये क्लेश हो ही नहीं सकते।
भ्रमविनाश में क्लेशविनाश- एक जंगल में स्याल स्यालनी थे। स्यालनी के गर्भ रह गया, सो भींत के समीप एक शेर के रहने के स्थान में बच्चे जन्माये। जब कोई डर की बात आये तो स्यालनी बच्चों को रुला देवे। स्याल पूछे कि बच्चे क्यों रोते हैं? स्यालनी ने कहा कि बच्चे शेर का मांस खाने को मांगते हैं। यह सुनकर शेर आदि कोई भी जानवर हो तो वह डरकर भाग जाये। इस प्रकार कितने ही शेर आये, पर यह सब सुनकर डरकर भाग जाते। सभी शेरों ने मिलकर गोष्ठी की कि वह जो ऊपर बैठा है, उसी की सारी बदमाशी है, उसने ही सबको परेशान कर रक्खा है। सब उसी भींत के पास आये। सोचा कि इसे कैसे मारें? सलाह हुई कि एक पर एक शेर चढ़ जाये और सबसे ऊपर वाला शेर उसे मार दे, यह ठीक है। नीचे कौन रहे? विचार हुआ कि यह जो लंगड़ा शेर है, वह ऊपर तो चढ़ नहीं सकता, सो उसे नीचे रक्खो और फिर एक के ऊपर एक चढ़कर उसे मारें। प्रबंध ऐसा ही हुआ।
परंतु यह सब प्लान स्यालनी ने सुन लिया। जब शेर स्याल के पास पहुंचने वाले थे तो उस समय स्यालनी ने बच्चों को रुला दिया। स्याल ने पूछा कि ये बच्चे क्यों रोते हैं? स्यालनी ने कहा कि ये बच्चे इस लंगड़े शेर का मांस खाने को मांगते हैं। अब डर के मारे लंगड़ा शेर नीचे से खिसक गया। सभी शेर धड़धड़ करके गिर गये और भाग गये। फिर शेरों ने तो बिल्कुल हिम्मत नहीं की कि वहां चलें और मारें। यह आत्मभ्रम भी लंगड़ा है। इस आत्मभ्रम के कारण रागद्वेष, शोक, क्रोध, मान, तृष्णा आदि सारे ऐब खड़े हो गये, सारे क्लेश आ गये। यह भ्रम नीचे से खिसके तो कोई क्लेश इस जीव में नहीं रह सकता।
सुख का सरल उपाय- सुख का उपाय कितना सरल है? भूखे रहने की बात नहीं कही जा रही है, कुछ भी छोड़ने की बात नहीं कही जा रही है। कपड़े उतारो, ठंड में मरो- ऐसी बात अभी नहीं कही जा रही है, पर इतनी सी बात का अंतर में निर्णय हो जाये कि मैं ज्ञान प्रकाशमात्र हूं और मेरे से अतिरिक्त बाहर मेरा कुछ नहीं है, मैं परिणमता हूं, अपने परिणमन से ही परिणमता हूं, दूसरे पदार्थ का मुझमें रंच प्रवेश नहीं है- यह बात सत्य है या नहीं? सत्य है, अब ऐसा विश्वास कर लीजिए, फिर तो मोक्ष जाने का प्रमाणपत्र आपको मिल चुका है। सम्यग्दृष्टि पुरुष निकट काल में ही सर्वसंकटों से मुक्त हो जायेगा।
हैरानी मेटने का उपाय- भैया ! शायद आप लोगों को होती होगी हैरानी कि मंदिर में आते हैं या प्रवचनसभा में आते हैं। वहां भी ठोकर लगती है वैराग्यभरी बातों की और दूकान में बैठते हैं तो वहां भी ठोकर लगती है ग्राहकों की और घर में जाते हैं तो वहां ठोकर लगती है स्त्री की या बहू की या बेटे बेटियों की कि अमुक चीज नहीं है। तो क्या करें? क्या हम ठोकर ही ठोकर खाने के लिये हैं? तो भाई हैरानी की कोई बात नहीं है। गृहस्थों को तो यों बताया है कि वे जल से जैसे कमल भिन्न है, उस तरह से घर गृहस्थी के बीच रहें। सबको एक तौल तौलोगे तो उलझन मालूम पड़ेगी। किंतु जो चीज प्रमुख है उसको तो अंतरंग में स्थान दिये रहो और जो बात प्रमुख नहीं है उससे ऊपर-ऊपर निपटते रहो तो कोई उलझन न मालूम पड़ेगी।
विविक्तत्व की साधना- जल में कमल रहता है, जल में ही उत्पन्न होता है, जल में ही उसकी डंडी है लेकिन जल से वह थोड़ा हाथ डेढ़ ऊपर उठा है, जल को छुवे हुए भी नहीं है, यों ही यह गृहस्थ इस घर में ही पैदा होता है, घर में ही रह रहा है, फिर भी घर से इसका उपयोग बिल्कुल अलग बना रहा करता है। यह सब ज्ञानी संत गृहस्थ की बात है, अथवा कमल का पत्र बहुत चिकना होता है, वह पानी के भीतर भी पड़ा हुआ है और कोई मनुष्य उसके पत्ते को पानी के भीतर डूबा दे तिस पर भी पत्र में पानी का प्रवेश नहीं होता। जैसे आम का पत्ता, महुवा का पत्ता ये पानी में छू जायें तो भी कुछ देर तक इन पर पानी झलकता है, चिपका रहता है किंतु कमलपत्र पर पानी इस तरह से ढलकता है जैसे कि पारा किसी जगह ढलकता रहता है। जल में रहता हुआ भी जल से भिन्न कमल है और कमलपत्र है। इसी तरह जिसने अपने आपमें इस कारण समयसार सहजस्वभावी आत्मतत्त्व का दर्शन किया है ऐसा पुरुष बाह्यपदार्थों में रमता नहीं है। वह अपने आपके व्रत की साधना में रहता है।
आनंद और क्लेश पाने की पद्धति- आत्मा के भ्रम से उत्पन्न हुआ दु:ख आत्मज्ञान से ही शांत हो सकता है। यहां ऐसे शास्त्र के उपदेश में चोटें नहीं लगती किंतु विश्राम मिल रहा है, शांति मिलती है, अनाकुलता जगती है। मोह ममता की वृत्ति जहां नहीं रहती है वहां ही आनंद हुआ करता है। तो एक आत्मज्ञान ही सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थ है। जो पुरुष इस आत्मज्ञान में प्रयत्न नहीं करते हैं वे दुर्धर तप भी तप लें फिर भी निर्वाण को प्राप्त नहीं होते। जिस बात की जो पद्धति है वह बात उसी पद्धति से होती है। एक किसी पुरुष ने एक देवता की आराधना की। देवता प्रसन्न होकर कहता है कि मांग लो जो मांगते हो। वह बोला महाराज मेरे एक भी पुत्र नहीं है सो एक पुत्र हो जाय। अच्छा ऐसा ही होगा। अब वह पुरुष घर आया। सोचा देवता ने कह तो दिया है कि पुत्र होगा। तो अब अपन क्यों पाप करें? क्यों मन मलिन करें? सो वह ब्रह्मचर्य से रहने लगा। दो चार वर्ष इसी तरह हो गये। आखिर पुत्र न हुआ तो वह देवता से उलाहना देने फिर आया। आपने पुत्र होने को कहा था क्या न होगा? तब देवता कहता है, अरे संसार की बात संसार के ढंग से है, मुक्ति की बात मुक्ति के ढंग से है।
संसार पद्धति व मुक्तिलाभ की रीति- कोई रत्नत्रय का पालन करके चाहे कि मैं संसार में भटक लूँ तो कैसे भटक सकता है? कोई मिथ्यात्व की वासना में रहकर चाहे कि मैं कर्मों से मुक्ति पा जाऊँ तो यह कैसे हो सकता है? संक्लेश पाना हो तो उसका उपाय है कि भ्रम किये जावो। और शांति चाहते हो तो उसका उपाय है कि सबसे विविक्त ज्ञानमात्र अपने आत्मा के परिचय में रहो। जो भावे सो करो। किंतु तत्त्व यह ऐसा ही है कि जितना क्लेश है वह सब आत्मा के भ्रम से है।
विशदपरिज्ञान का उपाय अनुभव- भैया ! और विशेष बात क्या कहा जाय, यह तो आत्मतत्त्व की बात है- खाने पीने की बात भी हम क्या कोई भी किसी को समझा नहीं सकता। कोई बता ही दे, समझा ही देवे कि मिश्री कैसी मीठी होती है? कोई कहे कि मिश्री मीठी होती है। जिसने मिश्री कभी चखा ही न हो वह इसका अर्थ ही नहीं जान सकता है। युक्ति भी बताई जावे कि देखो तुमने कभी गन्ना चूसा है ना? हां हां बड़ा मीठा होता है। तो जितना मीठा गन्ने का रस होता है उससे कई गुणा मीठा निकला हुआ रस होता है। जितना मीठा रस होता है उससे कई गुणा पकाया हुआ रस (राब) होता है और जितना मीठा राब होता है उससे कई गुणा मीठा गुड़ होता है, क्योंकि घन बनता जा रहा है। जितना मीठा गुड़ होता है उससे कई गुणी मीठी शक्कर होती है, क्योंकि उस गुड़ का मैल निकलने पर शक्कर हुई और जितनी मीठी शक्कर होती है उससे कई गुणी मीठी मिश्री होती है, क्योंकि शक्कर में से भी मल निकल गया तब मिश्री बनी। अब समझे कि मिश्री कितनी मीठी होती है? वह तो कह रहा है कि हम नहीं समझे अभी तक। अरे तो मिश्री की डली मुख पर धर दो तो झट समझ जायेगा कि कैसी मीठी मिश्री होती है?
आत्मतत्त्व के विशदप्रकाश का उपाय आत्मानुभव- इसी प्रकार इस शुद्ध ज्ञानस्वरूप का अनुभव अनंत आनंद प्रदान करने वाला अनुभव होता है। समझे? नहीं, अभी तो नहीं समझे। देखो जितने देव हैं, जितने इंद्र हैं, जितने चक्रवर्ती हैं, जितने राजा महाराजा हैं, जितने भूतकाल में हो गये हैं और जितने भविष्यकाल में होंगे वे सब जितने सुख भोगते हैं, उन सब सुखों को एकत्रित कर लिया जावे, उनसे भी अनंतगुणा आनंद एक निज ज्ञानस्वरूप के अनुभव में होता है। समझे? नहीं अभी तो नहीं समझ पाये। तो समझाना किसी दूसरे के वश का नहीं है। खुद ही इतना विवेक रक्खा करें कि जगत् के समस्त बाह्यपदार्थ भिन्न हैं, उनसे मेरा कुछ संबंध नहीं है, न सुख होता है। सभी स्वतंत्र हैं, अपना-अपना परिणमन करते हैं। इतना सा ही विश्वास करके इतनी हिम्मत बना लीजिए कि बाहर कहीं कुछ हो, मैं किसी को भी अपने उपयोग में स्थान न दूंगा। किसी का ख्याल आता हो उस ख्याल को झट दूर करें। किसी का मुझे ख्याल आता हो तो उससे मुझे मिलेगा क्या? ये तो सर्व परद्रव्य ही हैं। कोई अपने उपयोग में किसी भी बाह्यपदार्थ को न आने दे, एक इस बात पर ही अड़ जाय। कोई पदार्थ इसके ख्याल में न आये, ऐसी स्थिति यदि बन सकती है तो स्वत: ही अपने आपमें उस ज्ञानस्वरूप की झलक होगी और वह खुद उस ज्ञानानुभव का आनंद पा लेगा। फिर दूसरे से पूछने की जरूरत भी नहीं है।
ज्ञान के अभ्युदय में आनंद का विकास- भैया ! ज्ञानस्वरूप ज्ञानानंद को प्रकट करता हुआ ही उत्पन्न होता है। एक कहीं उदाहरण दिया है कि एक बहू थी, उसके गर्भ था। बच्चा होने का समय था, सो वह बहू अपनी सास से कहती है कि सासू जी मैं सोने जा रही हूं, बच्चा हो जाय तो मुझे जगा लेना, कहीं ऐसा न हो कि बच्चा हो जाय मुझे पता ही न पड़े। तो सास कहती है अरे बच्चा उत्पन्न होगा तो तुझे जगाता हुआ ही उत्पन्न होगा। यों ही यह ज्ञान का अनुभव जब उदित होगा तो उस अनंतआनंद को जगाता हुआ ही उदित होगा। फिर पूछने की जरूरत नहीं है कि मैंने ज्ञान का अनुभव किया या नहीं किया, मुझे आनंद आया या नहीं आया। ज्ञान और आनंद का बड़ा मैत्री भाव है। आनंद के बिना ज्ञान का विलास नहीं और ज्ञान के बिना आनंद का विलास नहीं।
अज्ञानचेष्टा व ज्ञानकला का प्रताप- जो रागद्वेष ममता से भरी हुई कल्पनाएँ है उन्हें ज्ञान नहीं कहा करते हैं वे सब अज्ञान की चेष्टाएँ हैं। जो ज्ञान निज के स्वरूप को जाना करे, ऐसे ज्ञान की वृत्ति का नाम ही परमार्थत: ज्ञान परिणमन है। ऐसा आत्मज्ञान जिसके जगा तो नहीं है किंतु मैं साधु हूं, मैं मुनि हूं, मैं व्रती हूं, मुझे ऐसा तप तपना चाहिए, मुझे ऐसा करना चाहिए, ऐसी वृत्ति रखता हो और अनुभव के अनुसार न चलता हो ऐसा ज्ञानहीन पुरुष तप तप करके भी निर्वाण को प्राप्त नहीं होता। हंस को कौन सिखाने आता है कि तू ऐसी चाल चल। इसी प्रकार इस ज्ञानी पुरुष को कौन सिखाने आता है कि तू ऐसी चेष्टा कर। ज्ञान के होने पर मन, वचन, काय कैसे चलना चाहिए? यह स्वभावत: उसके कला प्रकट हो जाती है।
ज्ञानकला पर योग्यवृत्ति का स्वत: श्रृंगार- एक राजा मर गया। राज्य रानी को दे दिया गया। उसका पुत्र छोटा था। वह राजपुत्र जब बड़ा हुआ तो उसकी मां ने सोचा कि अब राज्य का कार्यभार पुत्र को सौंप देना चाहिये। मां ने अपने पुत्र को दसों बातें सीखा दी कि बेटा ! राजदरबार में यदि ऐसा पूछा जाये तो ऐसा उत्तर देना, ऐसा पूछा जाये तो ऐसा उत्तर देना। राजकुमार बोला कि मां ! इनमें से यदि एक भी प्रश्न न पूछा गया तो क्या उत्तर दूंगा? मां ने कहा कि बेटा ! अब तू जरूर किसी भी प्रश्न का उत्तर दे लेगा। जब तेरे में यह समझ है कि यदि इनमें से एक भी प्रश्न न पूछा गया तो क्या उत्तर दूंगा? तो तू जरूर उत्तर दे लेगा। राजपुत्र को राज दरबार में बुलाया गया। बादशाह ने पूछा कुछ भी नहीं, किंतु दोनों हाथ उस राजकुमार के पकड़ लिये और बोला अब तू क्या करेगा? राजपुत्र बोला कि महाराज ! अब तो मैं पूर्ण रक्षित हो गया। शादी में पति पत्नी का केवल एक हाथ पकड़ लेता है तो उस पति को उस पत्नी की सारे जीवनभर रक्षा करनी पड़ती है। आपने तो हमारे दोनों ही हाथ पकड़ लिये, फिर मेरी तो पूर्णरूपेण रक्षा हो गई। राजपुत्र के इस मर्म भरे उत्तर को सुनकर बादशाह प्रसन्न हुआ और उसको राज्यभार सौंप दिया। तो ऐसे ही जब इस आत्मज्ञान की कला प्रकट हो जाती है, तब योग्यवृत्तियां स्वयं हो जाती हैं। आत्मज्ञान का कितना महत्त्व है? हमारे आपके लिये यह आत्मज्ञान ही हितकर है।