वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 46
From जैनकोष
अचेतनमिदं दृश्यंदृश्यं चेतनं तत:।
क्व रुष्यामि क्व तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यत:।।46।।
अभ्रांति की प्रयोजिका भावना- पूर्व श्लोक में यह बताया गया था कि यह जीव आत्मा के तत्त्व को जानता हुआ भी और सर्व से विविक्त ज्ञानमात्र की भावना करता हुआ भी पूर्वकालीन भ्रम के संस्कार से फिर से भ्रांति को प्राप्त होता है। यह जीव पुन: भ्रांति को प्राप्त न हो, एतदर्थज्ञान जग जाने पर हम ज्ञानमयी भावना ही बनाएँ, ऐसी स्थिति लाने के लिए इसमें कुछ भावना बतायी जा रही है। यह दृश्यमान सारा विश्व अचेतन है और जो चेतन है वह अदृश्य है। दृश्यमान् अचेतन में रोष तोष क्या करूँ, चेतन अदृश्य है उसमें रोष तोष क्या कैसे करूँ? इस कारण में तो मध्यस्थ होता हूं।
दृश्यमान् की अचेतनता- जो-जो आंखों दिखता है- नाम लेते जावो आंखों क्या दिखता है? 6 काय, चाहे जीव सहित हो, चाहे जीव रहित हो अर्थात् 6 कायपृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस अथवा जीवत्यक्त– 6 काय ये दिख रहे हैं। इनके अतिरिक्त और कुछ नहीं दिख रहा है। ये ईंट पत्थर दिख रहे हैं, ये जीवत्यक्त पृथ्वीकाय हैं, ये पहिले पृथ्वीजीव के शरीर थे, इनमें जीव था, पर इन जीवों ने छोड़ दिया है इन स्थानों को और जो काठ कुर्सी मेज आदि दिख रहे हैं- ये भी जीवत्यक्त वनस्पतिकाय है। जो कुछ भी दिखते हैं वे सब अचेतन हैं। जिस काल में जीव भी हो, इन शरीरों में उस काल में भी शरीर है वह तो अचेतन है और शरीर में रहने वाला जीव चेतन है। यह सारा दृश्यमान् लोक अचेतन है।
चेतन की अदृश्यता- जो चेतन है वह अदृश्य है, ज्ञानमात्र आनंद घन भावस्वरूप यह चेतन तत्त्व न आंखों दिखता है, न किसी इंद्रिय द्वारा गम्य है। इंद्रिय की बात तो दूर ही रहो, मन के द्वारा भी गम्य नहीं है, साक्षात् सीधा आत्मस्वभाव में अनुभव होता है, मिलन होता है, परिचय होता है तो वहां मन का काम नहीं रहता। यह मन उपयोग में आत्मदेव के निकट यों समझिये कि आँगन तक तो भेज देता है, इससे आगे जहां यह ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्त्व जिस भाव में विराज रहा है वह सहज भाव वहां तक मन की गति नहीं है। वहां केवल यह आत्मा अपने ही बल से, पुरुषार्थ से स्वरसत: पहुंचता है, तो इंद्रिय की तो कहानी ही क्या है? जो चेतन तत्त्व है वह अदृश्य है।
रोष तोष का अनवकाश- अब भला बतलावो जो दिखता है वह अचेतन है, जो चेतन है वह दिखता नहीं है। तो मैं किस चीज में रोष करूँ और किस चीज में तोष करूँ। अचेतन पदार्थों में रोष अथवा तोष करने से क्या फायदा है? वे तो अचेतन हैं। इन पत्थरों में रोष तोष करने से क्या लाभ है? अचेतन में तो नादान बच्चे ही रोष तोष करेंगे, किंतु ज्ञानवान् पुरुष इन अचेतन पदार्थों में रोष तोष नहीं करता है। बच्चे के सिर में किवाड़ लग जाय तो बच्चा रोता है और मां उस बच्चे को दिखाकर समझाकर किवाड़ में दो चार थप्पड़ लगा देती है। तूने मेरे ललन को मारा अब वह ललन शांत हो जाता, संतुष्ट हो जाता। इन अचेतन पदार्थों के किसी भी परिणमन से बालक अगर रुष्ट हो जाय, तुष्ट हो जाय तो हो जाय पर ज्ञानीपुरुष इन अचेतन पदार्थों के कारण न तो रुष्ट होता है और न तुष्ट होता है।
अचेतन पर रोषतोष के अनवकाश का कारण- कहां में रोष तोष करूं, ये अचेतन हैं, कुछ जानते ही नहीं हैं। गुस्सा करके इन्हें क्या मजा चखाया जा सकता है? गुस्सा आ जाय किवाड़ के ऊपर, आग लगा दो तो उसमें किवाड़ का क्या नुकसान है? आग लग गयी, खाक हो गया, उड़ गया सूक्ष्म स्कंध बन कर राख के रूप में, फिर भी उस किवाड़ को क्या नुकसान पहुंचा? दु:ख तो उसमें हुआ ही नहीं, क्योंकि वह अचेतन है, अपने को यह मालूम पड़े कि इस पर को दु:ख हो गया या यह राजी हो गया, तब ही तो अपने को रोष तोष करने की गुन्जाइश होगी, किंतु अचेतन न दुःखी होता और न राजी होता। ये दृश्यमान् सब कुछ अचेतन हैं।
चेतन पर रोष तोष के अनवकाश का कारण- जो चेतन है वह दिखता नहीं है। रोष और तोष करने में गुन्जाइश चेतनतत्त्व में तो है वह जानेगा, इसमें राग करें तो वह सुखी होगा, दु:खी होगा, सुविधा देगा, सुख देगा, कुछ चेष्टा करेगा। निमित्तरूप सही लोक व्यवहार में कुछ चेतनतत्त्व में कौन रोष तोष में ठीक ठीक सोचता है कि यहां रोष करना चाहिए। संतोष करना चाहिए, वह चेतनतत्त्व तो अदृश्य ही है, आंखों दिखता ही नहीं है। जो जानते हैं उनके लिए यह सामान्य स्वरूप रह जाता है केवल निस्तरंग शुद्ध ज्ञायकस्वरूप। ऐसे उस अदृश्य प्रतिभासमात्र चेतन में भी कौन रोष करता है, कौन तोष करता है।
देही जीव पर भी रोष तोष का अनवकाश- भैया ! कोई पुरुष किसी दूसरे पर क्रोध करता है तो क्या यह ख्याल करके क्रोध करता है कि यह शुद्ध ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व है। इस पर मैं नाराज होऊं, क्रोध करूं। क्रोध करने वाला तो सीधा जो कुछ उसे नजर आये- ये नाक, आँख, कान आदि का पुतला उसे ही देखकर क्रोध करता है, सो वहां भी यह केवल शरीर पर क्रोध न कर सकेगा। कोई शरीर पर क्रोध करता हो तो मर जाने के बाद फिर भी उस शरीर पर क्रोध करना चाहिये। सो सच जानो आत्मा पर भी कोई क्रोध नहीं करता। क्या कोई शुद्ध चैतन्यस्वरूप को जान-जानकर कुछ क्रोध कर सकेगा? यदि वह लक्ष्य में आ गया तो उस क्रोध करने वाले का क्रोध तो वहीं शांत, हो गया। किस पर रोष करूँ और किस पर तोष करूँ? यह ज्ञानी जीव जिस भावना के प्रसाद से फिर भी भ्रांति को नहीं प्राप्त हो, कोई भ्रम का संस्कार नहीं हो, यों भ्रांति को प्राप्त न होने के लिए ऐसी भावना करता है। कहां रोष करूं कहां तोष करूं।
भ्रमजाल का अवस्तुत्व- भैया ! भ्रम ही और क्या है? कुछ इष्ट लग जाना, कुछ अनिष्ट जंच जाना ऐसी जो आत्मभूमिका में तरंग उठती है बस वही विभ्रम है, वही बेहोशी है। जैसे पागल पुरुष पागलपन में बेहोशी में कभी मां को स्त्री कह दे, कभी स्त्री को मां कह दे और कभी मां को मां भी कह दे तो भी वह पागलपन में कह रहा है, समझकर नहीं कह रहा है। ऐसे ही जगत् के समस्त पदार्थ न इष्ट हैं, न अनिष्ट हैं, किंतु यह मोही पागल उन्मत्त हो रहा है। जिसे अपने आत्मस्वरूप की खबर नहीं है वह किसी पदार्थ को तो इष्ट मान लेता है और किसी पदार्थ को अनिष्ट मान लेता है, बस यही है उसकी मूर्छा, बेहोशी, विभ्रम। रोष और तोष करने के लायक जगत् में कुछ है ही नहीं। अचेतन में रोष तोष से लाभ नहीं होता, यदि चेतन का लक्ष्य होता तो रोष और तोष का परिणाम ही नहीं बनता। मैं किस पर रोष करूँ और किस पर तोष करूँ?
माध्यस्थ्यभावना- अब यह मैं आत्मा मध्यस्थ होता हूं अर्थात् न हर्ष करता हूं और न विषाद करता हूं, केवल उनका जाननहार रहता हूं। जो पुरुष केवल जाननहार ही रहे। बस देख लिया, यहीं तक सीमित रहे, किसी पदार्थ की बुद्धि में न फंसे न बोले तो वह पुरुष बंधन से दूर होता है और अलिप्त रहता है।
बोलने से साधु की विवूचन- एक राजा जंगल में साधु के पास बैठ गया। साधु की समाधि खुली तो राजा निवेदन करता है कि महाराज, मेरे कोई पुत्र नहीं है, आशीर्वाद दीजिए। साधु कहता है कि तथास्तु, ऐसा ही होगा। अब राजा तो घर चला आया। कुछ दिन बाद साधु को ख्याल हो आया कि राजा को वचन दिया था कि पुत्र हो जाएगा, देखें तो संसार में इस समय कोर्इ मर तो नहीं रहा। मरता हो तो उसे रानी के उदर में भिजवाऊँ। कोई नहीं मर रहा था। सोचा कि ओह, कहीं मेरे वचन झूठ न हो जायें, चलें खुद ही मर जायें और रानी के पेट में चलें। सो साधु खुद मरा और रानी के उदर में पहुंचा। पेट में बहुत दु:ख हैं, संकुचित शरीर से रहना पड़ता है। सो वही तय कर लिया कि हम बोल गये थे राजा से, सो फंस गये। लेकिन अब उदर से निकलने पर कभी बोलूँगा नहीं, बोलना बुरा है। उस राजा से बोल गया तथास्तु, तो मैं फंस गया। तो जब उत्पन्न हुआ तो बोले नहीं। 8-9 वर्ष का हो गया, गूंगा ही रहा। राजा ने घोषणा करा दी कि जो मेरे राजपुत्र को बोलता कर देगा, उसे बहुत सा इनाम मिलेगा।
बोलने से चिड़िया व चिड़ीमार की विवूचन- अब कुछ दिन बाद वह राजपुत्र बाग में घूम रहा था। उसी बाग में एक चिड़ीमार चिड़िया को पकड़ने के लिए अपना जाल बिछाए हुए था। उस जाल को समेटने लगा, जब कोई चिड़िया न दिखी। उसने जाल समेटकर घर जाने का इरादा किया, इतने में एक चिड़िया बोल गयी, सोचा कि अभी चिड़िया है, फिर जाल फैलाया, कुछ दाने बिखेर दिए, फिर छिप गया। चिड़िया आकर उस जाल में फंस गयी। यह सब दृश्य राजपुत्र देख रहा था, उससे न रहा गया, वह बोल गया, जो बोले सो फंसे। अब राजपुत्र के मुख से इतने शब्द निकलते ही चिड़ीमार के हर्ष का ठिकाना न रहा।
अब वह उस जाल को वहीं छोड़कर सीधा राजा के पास पहुंचा और बोला कि महाराज ! आपका पुत्र बोलता है। राजा ने कहा कि बोलता है? चिड़ीमार ने कहा कि हां बोलता है। अब राजा ने उसे 5 गांव इनाम में दिए। अब आया राजपुत्र। उससे राजा ने कहा कि बोलो बेटा कुछ। वह काहे को बोले? गूंगा का गूंगा। राजा को गुस्सा आया कि चिड़ीमार भी हमसे हंसी मजाक करते हैं। अब उस चिड़ीमार को फांसी का हुक्म दे दिया।
बोले सो फंसे का विवरण- अब चिड़ीमार फांसी के तख्त पर लटकाया जाने वाला था। राजा ने उससे पूछा कि तुम कुछ चाहते हो? चिड़ीमार बोला कि महाराज ! मैं आपके लड़के से 2 मिनट बात करना चाहता हूं। अच्छा कर लो भाई। चिड़ीमार कहता है कि राजपुत्र ! मुझे मरने का अफसोस नहीं, किंतु अफसोस हमें इस बात का है कि लोग यह कहेंगे कि चिड़ीमार ने झूठ बोला था, इससे फांसी पर लटकाया गया। तुम और अधिक नहीं तो उतनी ही बात कह दो, जितनी बात तुमने बाग में कही थी।
अब राजपुत्र ने उतनी ही बात क्या, सारी कहानी सुना दी। मैं पहिले साधु था, वहां राजा से बोल गया, सो फंस गया, फिर बाद में चिड़िया बोल गयी, सो वह फंस गयी, फिर यह चिड़ीमार राजा से बोल गया, सो यह फंस गया। इसको फांसी का हुक्म हुआ। इसलिए जो बोले वह फंस जाए। राजा ने अपने पुत्र को बोलता हुआ देख लिया, फिर तो चिड़ीमार को फांसी से उतार दिया।
स्वरूप की अबद्धता और बाह्यदृष्टि का बंधन:- भैया ! यह जगत् है, इसमें केवल देखे जाने इतने में तो सार है, किंतु यहां बोले, इष्ट और अनिष्ट परिणाम करे तो उससे अवश्य फंस जाएगा। ये हम सब आप किस बात में परेशान हैं? यह बताओ। जान भी लिया धर्म का मर्म और स्वतंत्र स्वतंत्र सब जीव हैं- ऐसा पहिचान भी लिया, अपनी स्वतंत्रता पर अपने को दृढ़ विश्वास भी है। काहे की परेशानी? लेकिन परेशानी सब पर है। छोड़कर भाग नहीं सकते, व्यवहार बंधन लगा है, कहां जायें?
अभी हम ही चौमासे को छोड़कर कहीं भाग नहीं सकते। हम भी बंधन में हैं। तुम घर को छोड़कर कहीं भाग नहीं सकते। तो बंधन तो है, मगर बाह्यदृष्टि से उपयोग को ओझल करें और जरा अंतर में प्रवेश करें तो जो बंधा है, वह बंधा रहे, शरीर बँधा है तो बँधा रहे, एक क्षेत्र में पड़े हैं तो पड़े रहें, किंतु स्वतंत्र अबद्ध प्रतिभासमात्र इस चित् प्रतिभास का जो अवलोकन करता है, वह कुछ भी बद्ध नहीं है, अबद्ध है।
भाव का प्रताप- भैया ! यह जीव भावों से ही तो बंधा है और भावों के बल से ही मुक्त है। जैसे शिखर पर फहराती हुई ध्वजा अपने आपके ही अंग से अपने में उलझ जाती है और अपने स्वरूप में विस्तृत अवयवों से सुलझ जाती है। हां, वहां पर वायु का बेढंगा चलना तो उसके उलझने में निमित्त और वायु के निमित्त का हट जाना उसके सुलझने का निमित्त है। इसी तरह हम आप जीव भावों से ही तो बँधे हैं और भावों से ही मुक्त हुवा करते हैं। हां उसमें निमित्त विधि का है, कर्म का है। देखो इस समय हवा नहीं है और इसी के न होने से कुछ परेशानी अनुभव की जा रही है, ऐसी दृष्टि में भी जरासी हिम्मत करके बाह्यदृष्टि को त्याग करके मैं शरीर तक भी नहीं हूं, मैं केवल एक ज्ञानप्रकाशमात्र हूं, यदि बन सके ऐसा अनुभव तो कहीं भी गर्मी नहीं है।
जीव का वास्तविक बंधन:- भैया ! ज्ञान के अनुभव में ठंड अथवा गर्मी लगी हुई है क्या? जैसे शरीर में आसक्ति होने पर शरीर में ठंडी अथवा गरमी का अनुभव किया जाता है, इसी प्रकार राग और द्वेष के उत्पन्न करने में निमित्तभूत बाह्यपदार्थों के उदय होने पर जो रागतरंग उत्पन्न होती है, उसमें यह अज्ञानी जीव मैं रागी हूं- ऐसा अनुभव करता है या मैं द्वेषी हूं- ऐसा अनुभव करता है। अंतर के सहजस्वभाव का परित्याग करके जो मायारूप हैं, वास्तविक सत् नहीं हैं, नैमित्तिक है, अतएव पर हैं, उनमें यह मैं हूं- ऐसा अनुभव किया तो यह इस जीव का दृढ़ बंधन है।
माया का मायारूप बंधन- घर का बंधन बंधन नहीं है, क्षेत्र का बंधन बंधन नहीं है, किंतु अपनी आत्मभूमिका में कर्मोदय का निमित्त पाकर जो तरंग होती है, वह अपरमार्थ है, मायास्वरूप है, मेरा निजतत्त्व नहीं है। फिर भी उसे अपना लेना ही समस्त विषयों के बंधन मूल है। किसी को इष्ट मान लेना, किसी को अनिष्ट मान लेना, बस यही बंधन है और इस ही परिणाम पर रोष और तोष निर्भर होता है। मैं किस पर रोष करूँ और किस पर तोष करूँ? मैं तो अपने आपमें ही मध्यस्थ होता हूं।
मध्यस्थता का मर्म- मध्यस्थ किसे कहते हैं? जो न राग की ओर जाये और न द्वेष की ओर जाये। मध्यस्थ गवाह होता है। गवाह का दर्जा जज से भी बड़ा है, लेकिन स्वार्थ की करामात है कि गवाह डेढ़-डेढ़ रुपये में बन जाया करते हैं। गवाह कहो, साक्षी कहो, प्रभु का स्वरूप कहो, पक्षपात रहित कहो- एक बात है। गवाह किसी पुरुष का नहीं हुआ करता, किंतु स्वरूप का, घटना का गवाह हुआ करता है, किंतु न्यायालय ही उल्टी बात सिखा देता है। जज पूछता है वादी से अथवा प्रतिवादी से कि तुम्हारा गवाह कौन है? इसका अर्थ हुआ कि तुम्हारी जैसी जो कहे- ऐसा आदमी कौन है?
वह झट कह उठता है कि जज साहब ठहरो, मैं अभी पाँच मिनट में गवाह लाता हूं, मेरा गवाह बाहर है। वह झट बाहर गया और किसी भी देहाती को समझा दिया कि आप ऐसा कह देना और उसे डेढ़ दो रुपये दे दिये। वह देहाती अगर समझदार है, चतुर है, तब तो कह देगा और यदि जज ने और कुछ पूछ लिया व वह देहाती चतुर नहीं है तो कह देगा कि हमें इस संबंध में तो कुछ नहीं बताया, लो सारी बात बिगड़ जायेगी। होते हैं कोई ऐसे सरल लोग। जिनमें विकार न हो ऐसे पुरुष होते हैं। मध्यस्थ, साक्षी, दर्शी, ज्ञाता ये सब बहुत उत्कृष्ट तत्त्व हैं। मैं तो मध्यस्थ होता हूं।