वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 45
From जैनकोष
जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि।
पूर्वविभ्रमसंस्काराद् भ्रांतिं भूयोऽपि गच्छति।।45।।
पूर्वविभ्रमसंस्कार की विडंबना- आत्मतत्त्व को जानता हुआ भी और सर्व से विविक्त आत्मतत्त्व की भावना करता हुआ भी पूर्वकालीन विभ्रम के संस्कार के वश से यह फिर भी भ्रांति को प्राप्त होता है। इस मोह पिशाच का कितना संताप है कि ज्ञानी भी कोई पुरुष हो गया, फिर भी यद्यपि इस समय में मोह नहीं है किंतु पहिले जो मोह किया था उसके संस्कार के वश से अब भी परपदार्थों में भ्रांत हो जाता है। जैसे लोग कहा करते हैं कि भला ज्ञान करने पर भी राग उठता और यह बंधन से अलग नहीं हो पाता, ऐसा कौनसा कारण है? वह कारण है पूर्वकालीन विभ्रम का संस्कार।
ज्ञान होने पर भी असावधानी से विडंबना- इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि एक बार ज्ञान परिणाम करने के बाद भी यह जीव सावधान न रहे तो फिर सम्यक्त्व छूट कर वहां ही अज्ञान दशा को प्राप्त हो जाता है। इस कारण यथार्थ परिज्ञान करके भी उस यथार्थ ज्ञान के लिए हमें सदा जागरूक और यत्नशील रहना चाहिए। जैसे जिस पुरुष ने पहिले नशा किया था, समय व्यतीत होने पर नशा हल्का हो जाय अथवा नशा उतर जाय उस काल में थोड़ी असावधानी करे या थोड़ी अटपट कल्पनाएँ या कोई खटपट करे तो पहिले की तरह उसका नशा शीघ्र आ जाया करता है। अथवा गरम किए हुए पानी को ठंडा किया जाय, अभी-अभी ठंडा हो रहा है और पानी का पुन: आग से संबंध हो जाय तो वह बहुत शीघ्र गरम हो जाता है। पहिले से ठंडा हुआ जल हो वह उतने शीघ्र गरम नहीं हो पाता। यह नया-नया ज्ञानी हुआ है, इसके बहुत खतरे हैं। जब तक ज्ञानभावना का अभ्यास दृढ़ न हो जाय तब तक इसको खतरा ही खतरा है।
ज्ञानी को खतरा व अज्ञान का गर्त- यह ज्ञानी पुरुष आत्मतत्त्व को जानता हुआ भी और सर्व से विविक्त इस आत्मतत्त्व की भावना करता हुआ भी पूर्वकालीन भ्रम के संस्कार के वश से फिर भी भ्रांति को प्राप्त हो जाता है। फिर जो अज्ञानी जीव हैं, स्वच्छंद होकर मनमाना विषयों में लीन हो रहे हैं, उनकी तो कहानी ही क्या कहें? जब ज्ञानियों को देखें वे इतने खतरे में पड़े हुए हैं तो पहिले से ही अज्ञानगर्त में डूबे हुए संसारी प्राणी की तो कहानी ही क्या कही जाय?
अंतत्त्व में तत्त्वबुद्धि पर खेद- भैया ! कोई तत्त्व तो नहीं है किसी भी बाह्यपदार्थ की प्रीति में। खूब परख लो कुछ भी तो संबंध नहीं है अपने आपके स्वरूप से अतिरिक्त अन्य पदार्थों में। खूब निरख लो- लेकिन क्या गजब हो रहा है? अत्यंत भिन्न यह आत्मा अपने ही प्रदेश में ऐसी कल्पनाएँ बना रहा है कि बाह्यपदार्थों के बंधन से छूट नहीं पाता है। एक दोहा है- जैन धर्म को पाय के बर्ते विषय कषाय। बड़ा अचंभा है यही जल में लागी लाय।। जैसे जल में आग लग जाय, ऐसी कोई खबर दे तो विश्वास कम होता है। लग जाय जल में आग तो अब काहे से बुझाना, ऐसे ही इस जैनतत्त्व को पाकर, इस सत्य पंथ को पाकर विषयों की प्रीति न घटे, विषयकषायों का रूप और बढ़ता जाय तो फिर कहां से कल्याण का पंथ मिले?
ज्ञानीपन- जागरूक यदि यह मनुष्य रहे, ‘निज को निज पर को पर जान’ यह नीति उसकी बिल्कुल स्पष्ट हो, तब उसे आकुलता नहीं जग सकती है और फिर है क्या? जो हो रहा है ठीक है। कमायें, घर में रहें सब कुछ करें, पर करते हुए भी कोई प्रतिकूल घटना हो जाय, धन में कमी हो जाय, आय न हो, इष्ट का वियोग हो जाय, कैसी भी घटना हो जाय तो वहां चित्त फक्कड़ रह सके तब तो समझो कि यह ज्ञानी है। अर्थात् किसी भी विपदा में यह अपने में विषाद न माने, इसमें किंकर्तव्यविमूढ़ता न आये, हाय अब क्या करें, हमको कोई पंथ भी नहीं दिखता, ऐसा विह्वल न बन सके तो समझो कि वहां ज्ञान है।
परमार्थ शौर्य- भोग तजना शूरों का काम, भोग भोगना बड़ा आसान, संपदा मिले, मस्त हो रहे, यह शूरवीरता नहीं है। यह तो एक संसार की रीति है, बल्कि आत्मा की ओर से कायरता है। जिसे कि शौर्य समझते हैं, ये सर्व बाह्य पदार्थ तो इस आत्मा की दृष्टि में अत्यंत धूलवत् हैं। जैसे धूल से आत्मा का कोई हित संभव नहीं है, इसी प्रकार इस वैभव से भी आत्मा के हित का भी कोई संबंध नहीं है। रही बात एक शरीर की, इसको दो काम तो चाहिए क्या? भूख प्यास न रहे, और ठंडी गरमी से बचत हो। इन दो कामों के अतिरिक्त और क्या अटका है? इनका उपाय तो साधारण श्रम से भी हो जाता है। जब कीड़े मकौड़े भी अपना उपाय कर लेते हैं तो मनुष्यों से क्या उपाय न बनेगा? हो जाता है थोड़े में ही साध्य। और इनमें भी भूख प्यास शरीर की बाधा मिटा दें तो इससे कहीं शरीर की ओर से धर्म न मिल जायेगा। वहां तो इतनी गुंजाइश मिल जायेगी कि यह दुष्ट शरीर अपनी दुष्टता न बगरायेगा। ऐसी स्थिति में धर्म के पथ में यदि हम आगे बढ़ सकेंगे तो ज्ञानबल से ही बढ़ सकेंगे।
शरीर से स्वहित की निराशा- इस शरीर का नाम उर्दू में शरीर है। शरीर मायने शरारती। शरीफ इसका उल्टा शब्द है। इस शरीर के मायने है सज्जन, महानुभाव और शरीफ का उल्टा है शरीर। शरीर का अर्थ है शरारत करने वाला। तो यह शरीर दुष्टता न बगराये, इतनी ही इस शरीर की बड़ी कृपा मानेंगे। इससे ज्यादा और कुछ शरीर से आशा नहीं है। धर्ममार्ग में प्रगति करें तो उसमें ज्ञान ही हमें सहायक होता है। तो जब आत्मतत्त्व का परिज्ञान भी कर लेते हैं तिस पर भी पूर्वकालीन वासनावों से हम डिग जाते हैं, च्युत हो सकते हैं। तब हमें ज्ञान प्राप्त करके भी प्रमादी नहीं होना चाहिए, किंतु इस ज्ञान को बनाए रखने में हमें सावधान रहना चाहिए।
ज्ञानार्जन से हित की आशा- हम ज्ञानार्जन करें, स्वाध्याय करके ज्ञानार्जन करें, गुरुजनों से पढ़कर करें, धर्मात्मावों में चर्चा करके करें, हर संभव उपाय से हमारे उपयोग में ज्ञान की भावना बने। देखो जब पुस्तक लेकर, बस्ता सा लेकर जो पढ़ने जा रहा है उसके चित्त में ऐसा रहता है कि हम पढ़ने जा रहे हैं। उस समय वह बालकवत् कुछ तो निर्विकार हो ही जाता है, कुछ तो प्रसन्नता रहती ही है। बुजुर्गी का अनुभव करने में जो बोझ है वह बोझ हट जाता है। आप लोग ऐसा अनुभव भी करते होंगे जब पुस्तक उठाकर कापी लेकर, रजिस्टर लेकर पढ़ने के भाव से आते होंगे, उस समय 40-50 वर्ष का पिछड़ा हुआ वह बचपन थोड़ी झलक दे ही जाता है और उस झलक में आपके कितने ही विकार शांत हो जाते है। पढ़ते हैं इसके नाम में भी ज्ञान है, फिर पढ़ने की तो कहानी कौन करे?
ज्ञान का महत्त्व- भैया ! ज्ञान के समान जगत् में और कोई दूसरा वैभव नहीं है। अन्य वैभवों को तो चोर लूट लें, डाकू छीन लें, राजा छुडा़ ले, और अनेक लोग इसकी घात लगाते हैं अथवा गुजर जाय तो यों ही छूट जाय, किंतु अर्जित ज्ञान एक ऐसा वैभव है कि इसे चोर चुरा नहीं सकते, डाकू छीन नहीं सकते, राजा ले नहीं सकता और मर जाने पर भी इसका संस्कार साथ जाता है। तो अब तुलना कर लीजिए कि विद्या का वैभव बड़ा है या इस क्षणिक वैभव का वैभव बड़ा है?
ज्ञान के अज्ञानी की विडंबना- एक कथानक है। एक पुरुष साधु जी के पास पहुंचा। बोला महाराज, मुझे आत्मा का ज्ञान नहीं है, मेरे पास ज्ञान नहीं है, मुझे ज्ञान दीजिए। तो गुरु ने कहा, अरे चले जावो उस यमुना नदी के अमुक घाट पर, वहां एक मगर उस घाट पर रहता है उससे कहो कि मेरे में ज्ञान नहीं है तो वह ज्ञान तुम्हें दे देगा। वह चला गया घाट पर, मगर भी मिल गया। उसने कहा- हे मगरराज, मेरे ज्ञान नहीं है, मेरे को ज्ञान दे दो। तो मगर संकेत करता है कि मैं बड़ा प्यासा हूं, तुम्हारे हाथ में लोटा डोर है, उस कुए से पानी भर लावो, मैं प्यास बुझा लूँ तब तुम्हें हम ज्ञान देंगे। तो वह बोला मुझे तो बड़े आचार्य ने भेजा है तुम्हारे पास कि वह तुम्हें ज्ञान देगा किंतु तुम तो बेवकूफ हो, पानी में डूबे हुए हो और कहते हो कि मुझे प्यास लगी है, कुए से पानी भर लावो, पानी पी लें तब ज्ञान दें। तो मगर की ओर से उत्तर मिलता है कि ऐसे ही बेवकूफ तुम हो। अरे ज्ञान ही तेरा स्वरूप है, ज्ञान ही तेरी बौडी है, तिस पर भी तू ज्ञान पूछने आया है कि मेरा ज्ञान गुम गया, मेरे को ज्ञान दो। अरे जो यह जान रहे हो कि मेरे में ज्ञान नहीं है वही तो ज्ञानमय तत्त्व है। जो अपने आपको मना करता है कि मैं आत्मा फात्मा कुछ नहीं हूं, जो इस प्रकार की जानकारी करता है वही तो आत्मा है।
आत्मज्ञान की सुगमता- भैया ! इस आत्मा के ज्ञान में कोई कठिनाई नहीं है, कोई श्रम नहीं है, कोई विलंब नहीं है, किंतु थोड़ा इस ओर अपने उपयोग को उन्मुख करना है, फिर तो यह विशद स्पष्ट सामने है। इतना ही न किया तो आत्मदर्शन होना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है। क्या साधारणतया इतनी बात का परिज्ञान नहीं है कि यह सारा जगत् धोखा है, सब पदार्थ विनाशीक हैं। अरे जब तक समागम भी है तब तक भी अनाकुलता का हेतुभूत नहीं है। जो लोग दिखते हैं ये सब भी स्वप्न की तरह दिख रहे हैं, सब माया स्वरूप हैं, परमार्थभूत कुछ नहीं हैं। यहां कोई ऐसा नहीं है कि जिसको पूर्ण प्रसन्न कर लिया जाय तो संकटों से छुटकारा हो जायेगा। है ही नहीं कोई ऐसा। किसी में शक्ति ही नहीं है ऐसी। ये सब कलाएँ तो अपने आपमें बसी हुई हैं। हम अपनी कला से अपने आपको प्रसन्न कर सकते हैं, सुखी कर सकते हैं, मेरे को शांत और सुखी करने की सामर्थ्य किसी अन्य जीव में नहीं है। क्या हमारे कुछ परिज्ञान है नहीं? है, पर उस परिज्ञान का हम मूल्य नहीं करते हैं। उसे हम भीतर में नहीं अपनाते हैं, अपने आप पर घटित नहीं करते हैं, सो जानते हुए भी मूर्ख बने हुए हैं।
सत्य का निर्णय, आग्रह और प्रवर्तन- एक बार सत्य निर्णय करके फिर उसके उद्यम में लगा जाय। गिरें कई बार तो गिरने दो। एक चींटी भींत पर से कितनी ही बार गिरे, फिर भी वह अपना साहस नहीं तोड़ती है और कितना ही विलंब हो जाय उस भींत के सिरे तक चढ़ने में, मगर अपना श्रम सफल कर लेती है। तो हम जो कुछ निर्णय करें, जो स्वाधीन सत्य निर्णय करें और उस पर सत्य निर्णय करके चलें तो क्या हम वहां तक पहुंच नहीं सकते? मिला है समागम घर का, स्त्री का, पुत्र का तो उस समागम का लाभ धर्म के रूप में लेना चाहिए। देखो प्रेम का प्रेम नहीं छूटा और काम का काम भी बन गया। हैं स्त्री पुत्र घर में, आप उनसे भी धर्म में रुचि की बात कहें, अपने से भी धर्म के रुचि की बात कहें और परस्पर ऐसा कार्य-क्रम बनाएँ कि जिससे उत्साह दिन दूना यह रहे कि चलो बढ़े चलो धर्ममार्ग में। देखिये गृहस्थी भी नहीं छूटी, संग भी बना रहा और धर्म का अनुपम लाभ भी उठाया गया। उस मित्रता को बदल दिया जाय धर्म के रूप में, यहां वहां के भ्रमण में दृश्य देखने में, तफरी करने में अपनी मित्रता को बेकार करते हैं। अब उस मित्रता को बदलकर धर्ममार्ग में चलना और चलाना, सत्य आनंद पाते और पहुंचाते हुए उस मित्रता को बदल दें, उस बंधुत्व को बदल दें। सब काम हो जायेंगे।
तपस्या का प्रयोजन- भैया जान समझ करके भी अभी बहुत खतरा है कि कहीं भ्रष्ट न हो जायें, कहीं फिर पाया हुआ ज्ञान छूट न जाय, इसके लिए बड़ी सावधानी रहनी चाहिए। साधुसंत जन क्यों तपस्या करते हैं? क्या शरीर को कष्ट दे करके मुक्ति होती है? जब जान लिया उन्होंने कि आत्मा का यह ज्ञानस्वरूप है जाननमात्र और यह जानन स्वभाव स्वयं अनाकुलता को लिए हुए है। केवल ज्ञातृत्व में कहीं भी रंच आकुलता नहीं है। जब यह परिज्ञान कर लिया तब उन्हें और करने को क्या रहा? बस यह परिज्ञान बनाए रहें तो मुक्त होने लगें। क्यों तपस्या किया करते हैं, क्या है उनकी तपस्या का प्रयोजन? सुनिये- बड़े आराम से पाया हुआ ज्ञान बड़ी सुकुमारता के वातावरण में उपार्जित किया हुआ आत्मज्ञान, यथार्थज्ञान, कभी थोड़ी विपदा आ जाने पर नष्ट हो सकता है, क्योंकि विपदा झेलने का अभ्यास नहीं है, थोड़ी विडंबना, विपदा आने पर यह सब कुछ अपने ज्ञान की बात भूल सकता है और उस काल में फिर यह संसार गर्त में डूब जायेगा।
किसी भी अवसर में व्यग्र न होने के अर्थ तपस्या का अभ्यास- तब क्या करना? जान-जानकर शरीर का क्लेश सहना, अनशन करना। कहीं ऐसा न हो कि दुर्भाग्य से कभी भोजन का मौका ही न मिले और भूखे रहना पड़े तो वहां ज्ञान को हम खो न बैठें, संक्लेश में हम आ न जायें। उनकी सावधानी बनाये रहने के लिए यह अभ्यास है। जैसे कोई सोचे कि सेना को इतना एक्सरसाइज कराने में क्यों इतना व्यय किया जा रहा हैं करोड़ों, अरबों रुपयों का? अरे युद्ध तो किसी दिन होगा? जिस दिन युद्ध होगा उस दिन हो जायेगा, कर लिया जायेगा युद्ध। अरे कर कैसे लिया जायेगा? युद्ध उसके लिए तो वर्षों शिक्षा की आवश्यकता है। जब उस शिक्षा में निपुण हो जायेंगे तब तो युद्ध में सफल हो सकेंगे। क्यों सोचें काहे को क्लेश सहें, क्यों तपस्या करें, क्यों अनशन करें? अरे आयेगा दिन कोई दुर्दिन ऐसा कि न मिलेगा भोजन, मुश्किल से मिलेगा, उस दिन देख लिया जायेगा। और आयेगा ही ऐसा क्यों दिन, क्योंकि हम तो पुण्य के ठेकेदार हैं, कैसे आयेगा वह दुर्दिन कि जिस दिन खाना ही न मिलेगा और जब ऐसा दुर्दिन आयेगा निपट लिया जायेगा, उस पर संभावित एक दिन के संक्लेश के या कष्ट के बचाव के लिए हमें वर्षों, महीनों कष्ट सहने की क्या जरूरत है? वर्षों के इस यथा शक्ति कष्ट के अभ्यास के बिना हम दुर्दैव से पाये हुए उस विपदा में अपनी समझ को खराब नहीं कर सकते।
अनेक यत्न के बाद फलित कार्य की सिद्धि- कोई सोच तो ले ऐसा कि भांवर पड़ना, विवाह होना तो एक मिनट में होता है, तब फिर क्यों महीनों से उसमें हम फंसे। तैयारी कर रहे हैं, निमंत्रण दे रहे हैं, लोग आ रहे हैं, पूजनविधि कर रहे हैं, खबर भी कर रहे, अरे एक मिनट की तो बात है, ठीक समय पर बुला लिया दूल्हा को, बस एक मिनट में कर दिया भांवर, हो गया विवाह। करे कोई ऐसा विवाह, तो विवाह का फिर सारा मर्म ही नष्ट हो जायेगा। जब इतने नटखट करके, पंचों को बुला करके, आमंत्रण करके, इतना सजावट करके उस एक मिनट का काम करते हैं तो जीवनभर का एक दूसरे का निभाना ऐसा बंधन पड़ता है। यदि एक एक मिनट के काम बन जायें तो एक ही दिन बाद कहो कि तलाक हो जाए, हट जावो, कोई प्रयोजन नहीं है।
समाधिमरण की लब्धि में अर्थ आजीवन अभ्यास- समाधिमरण होता है अंतिम समय में, पर समाधिमरण की बात सीखने के लिए जीवन भर धैर्य रक्खे, शांति से रहे, ज्ञानार्जन करे, तत्त्वचिंतन करे, उदारता रक्खे, ये सब बातें की जाया करती है। हमारी भलाई के लिए मरण समय का जो एक सेकेंड है, उसमें कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए, संक्लेश न हो जाए, ज्ञानभावना से न डिग जाएँ, इतने प्रयोजन के लिए जीवनभर हमें सीखना पड़ता है, सीखना चाहिए। हम ज्ञानभावना में बहुत दत्तचित्त रहें।
इष्टसिद्धि में ताना भी कारण- मंदसौर में एक श्रृंगारबाई नाम की महिला थी, वह बहुत प्रसिद्ध हो गयी। जब विवाह होकर अपने घर आयी तो जैसे पीहर में भी वह रोज कुछ न कुछ किसी पुस्तक का स्वाध्याय किया करती थी। वैसे थी तो मामूली पढ़ी लिखी, पर वह मंदिर में दर्शन करने के बाद कोई पुस्तक उठाये और चौकी पर रखकर 10-5 मिनट बांचा करती थी। यह उसका रोज रोज का काम था। सो वहां जो बूढ़े आदमी दर्शन करने आएँ, वे नाम धरने लगे कि देखो आज की कुड़ियां, अभी 10 दिन हुए, विवाह होकर आयी और शास्त्र लेकर चौकी पर बैठ गयी। अब तो वह प्रतिदिन इसी प्रकार से करने लगी, दर्शन के बाद कोई शास्त्र लेकर बैठ जाए और पढ़े।
एक दिन गोम्मट्टसार ग्रंथ लेकर बैठ गयी। सो अधिक अवस्था का एक जानकार आदमी जब देखता है कि यह बहू गोम्मट्टसार लिए बैठी है तो उसने ताना मारा कि देखो आज की बहूएँ अब यह गोम्मट्टसार पढ़ेंगी, पंडितानी बनेंगी। यह बात उसके घर कर गयी।
उद्योग का फल- अब वह श्रृंगारबाई उदास होकर घर आयी तो उसका पति पूछता है कि क्या बात है, क्यों इतनी चिंता है? तो वह सारी बात बता देती है। कहती है कि मुझे लोग कहते हैं कि आज की कुड़ियां, बहूएँ गोम्मट्टसार पढ़ेंगी और पंडितानी बनेंगी। तो मेरे मन में आया कि मैं गोम्मट्टसार के पूर्ण ज्ञान को प्राप्त करूँ। पति बोला कि यह कौनसी बड़ी बात है? तुम जितना चाहो, उतना समय अध्ययन में लगावो, सिर्फ इतनी सी बात है कि हमें रसोई बनानी नहीं आती, फिर भी कोई बात नहीं। झाडू, गोबर, बर्तन मांजने आदि के सारे काम हम कर लेंगे। तुम केवल रसोई बना दिया करो और जितना चाहे खूब पढ़ो। उसने उसको साहस दिया। उसने अध्ययन तीन चार वर्ष तक एक एक अक्षर धीरे धीरे पढ़कर भी कर डाला, क्योंकि अधिक पढ़ी लिखी न थी, मगर हिम्मत और साहस से थोड़ा ही थोड़ा रोज-रोज पढ़कर तीन चार वर्ष के बाद गोम्मट्टसार ग्रंथ की इतनी बड़ी विदुषी हुई कि जिसको क्या कहा जाय? यह कोई 60 वर्ष पुरानी बात होगी। कहीं बहुत बड़ी सभा लगी थी, उस समय संसार के पंचपरिवर्तन के स्वरूप की चर्चा चली तो लोगों ने कहा कि इस पंचपरिवर्तन के स्वरूप को तो विस्तार से श्रृंगारबाई ही बता सकती है। लोगों ने प्रेरणा की कि आप उसकी चर्चा सुनाएँ। तो उस श्रृंगारबाई ने उतनी बड़ी सभा में घंटों तक उसकी चर्चा सुनायी।
सुयत्न के लिये प्रेरणा- तो उद्यम करने पर क्या नहीं आ सकता है? जिस प्रतिभा में इतनी योग्यता है कि हजारों और लाखों के व्यवसाय की रक्षा कर सके, आय रख सके, हिसाब रख सके उस प्रतिभा में क्या इस विद्या के ग्रहण करने की योग्यता नहीं है? है। हम एक प्रण से एक ज्ञानार्जन के लिए अधिकाधिक यत्नशील बनें और इस ज्ञान के अनुभव से अपने जीवन को सफल करें। फिर जो ज्ञान पायें उसको बिछुड़ने न दें। उसकी बार-बार भावना बनाएँ। ज्ञान के अनुभव से उत्पन्न हुए ज्ञान के अनुभव में जो आनंद है वह आनंद अन्यत्र कहीं है ही नहीं। ऐसा ज्ञानमात्र अपने आपको बनाकर अपने को कृतार्थ करें।