वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 52
From जैनकोष
सुखमारब्धयोगस्य बहिर्दु:खमथाऽऽत्मनि ।बहिरेवाऽसुखं सौख्यमध्यात्मं भावितात्मन:॥52॥
आरब्धयोग के अध्यात्मशमन में कठिनाई – पूर्व श्र्लोक में यह बताया गया था कि समस्त बाह्यपदार्थ या दृश्यमान जगत् मेरा कुछ नहीं है, इस कारण इस जगत् से प्रीति हटाकर अपनी इंद्रिय को नियंत्रित करो और परमविश्राम करके अपने आनंद सहित जो कुछ दिखता हो, वह मैं आत्मा हूं – ऐसी अनुभूति करो । वहां क्या दिखा ? ज्ञान और आनंद में दिखा अर्थात् अनुभव हुआ । यह बात सुनकर यह आशंका मन में हो ही जाती है कि जब ऐसा ज्ञान और आनंद मेरा स्वरूप है, सहजभाव है तो एक तो यों ही दु:ख न रहना चाहिए था और जब उस कल्याणमार्ग में कदम रखते हैं तो वहां पहिले क्यों ऐसा लगता कि इस आत्मा के कार्य में तो क्लेश हुआ ।
उसके समाधान में यह उपदेश दिया जा रहा है कि जिस किसी ने भी आत्मभावना का अभ्यास कुछ प्रारंभ किया तो उन समस्त जीवों को बाहर में सुख मालूम होता है और अंतर में बहुत ही रोष व दु:ख मालूम होता है ।
प्रथमाभ्यास में आंतरिक अस्थिरता – जैसे जिसे पानी में डुबकी लगाने का अभ्यास नहीं है, पानी में घुसे ही घुसे बहुत दूर तक अंदर ही अंदर तैर कर निकल जाने का जिन्हें अभ्यास नहीं है ऐसे पुरुष को जबरदस्ती पानी में डुबकी लगवायी जाती है तो वह बाहर उठना चाहता है । उसे पानी में क्लेश मालूम होता है और वह बाहर में अपना सिर निकालने में सुख अनुभव करता है । और जिसने अभ्यास कर लिया है वह तो खुशी खुशी अंदर- अंदर तैरा करता है, ऐसे ही समझो कि जिसने इस आत्मभावना का अभी-अभी अभ्यास प्रारंभ किया है ऐसे पुरुष को बाहर में तो सुख मालूम होता है और अपने आपमें दु:ख मालूम होता है । पद्मासना से बैठो, देखो कमर बिल्कुल सीधी करो, आंखें बंद करो, भीतर अपना चित्त लगावो । अरे करता है कोशिश पर दिल चाहता है कि कुछ देख तो लूँ, क्या है सामने ? चित्त चाहता है और वैभव संपदा में यह उपयोग दौड़ जाता है । भीतर सुन्नसा होकर कुछ मालूम करना चाहता है तो एक घबड़ाहट सी मालूम होती है । जिसने इस आत्मभावना का अभ्यास अभी अभी ही प्रारंभ किया है उसे बाहर में तो सुख लगता है और आत्मस्वरूप की भावना में दु:ख प्रतीत होता है । किंतु जिसने आत्मभावना को खूब किया है, आत्मतत्त्व के ध्यान के जो अभ्यासी हैं उनको बाहर में तो क्लेश मालूम होता है और अपने आपके आत्मा में सुख मालूम होता है ।
ज्ञानदृष्टि में अध्यात्मरमण की सुगमता – भैया ! अज्ञान के समान विपत्ति और कुछ नहीं है। लोक में भी यह धन वैभव संपदा कोई सुख की बात नहीं है । कदाचित् यह कहो कि पचासों आदमियों में कुछ इज्जत तो हो जाती है, अरे वे पचासों भी विनाशीक हैं, मायारूप हैं, अपवित्र हैं और उनमें चाहने वाली इज्जत भी मायामयी है, विनाशीक अपवित्र है। कौन सा लाभ हुआ ? धर्म की ओर दृष्टि नहीं है तो लाखों और करोड़ों की संपदा भी मेरे पतन के लिए है और वर्तमान में भी मेरा पतन है और धर्म दृष्टि है तो चाहे भीख मांगकर भी पेट भर लो । धर्म दृष्टि होने से वह आत्मा पवित्र है, शांति और संतोष का पात्र है । यों जिन्होंने आत्मतत्त्व को जानकर इसका अभ्यास कर लिया है उन पुरुषों को बाह्य पदार्थों में अपने चित्त को डालने में क्लेश मालूम होता है और अपने आपके स्वरूप में जाननरूप के उपाय से बसे रहने में आनंद मालूम होता है ।
निरूपद्रव स्थान से बाहिर गमन की निरुत्सुकता – जैसे सावन के महीने में जब कि तेज मूसलाधार पानी बरस रहा हो, बिजली भी कड़क रही हो और कोई पुरुष ऐसे कमरे में बैठा हो जहां पानी नहीं चूता है, आराम की जगह है, उस पुरुष को बाहर जाना तो कष्टदायी मालूम होता है और कमरे में बैठे रहना सुखदायी मालूम होता है । इसी तरह जब कि संसार में सर्वत्र आपत्ति, धोखा, छल, स्वार्थ सारे उपद्रव बरष रहे हों और जिन उपद्रवों के बीच अपनी जान का भी खतरा हो ऐसे इस उपद्रव बरष रहे जगत में यदि मुझे कोई ऐसा आराम का स्थान मिल जाय – निज गृह, ज्ञायकस्वरूप भगवान् आत्मा के तत्त्व का परिचय, यह आत्ममंदिर, यह बैठने को मिल जाय जहां कि विपदा छू नहीं सकती है, संकट आ नहीं सकता है, तो ऐसे परम विश्राम की जगह में बैठा हुआ मनुष्य बाहर क्या जाना चाहेगा ? उसे बाहर क्लेश मालूम होता है और अपने अंतरंग में सुख मालूम होता है ।
आत्मानुभूति के अभाव में विश्व की बुभुक्षा ― वास्तव में तो आत्मा का अनुभव ही आनंद का कारण है, किंतु जिसने अपने आत्मस्वरूप का अनुभव नहीं किया उस पुरुष को आत्मभावना में तो क्लेश मालूम होता है और इंद्रिय विषयों में उसे सुख मालूम होता है । पूर्व संस्कार भी तो हैं ना, उसके कारण इसे विषयों के सुख रुचा करते हैं । इस जीव ने इस संसारचक्र में भ्रमण करते हुए निरंतर भ्रांति से क्लेश पाया । इसकी चाह यह रही कि मैं सारे विश्वपर एक छत्र तक राज्य कर लूँ । इस उन्माद के कारण यह सारे विश्व को अपनाना चाहता है ।
विषयचक्र में उलझन – भैया ! यह मूढ़ जीव अपनाता क्या है, पंचेंद्रिय के विषयों को भोगता रहता है । सो ये विषय तो नियत हैं, थोड़े हैं, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द – पांच प्रकार के ही तो काम हैं, एक ले लो मन का काम, इज्जत चाहिए, लोगों से दो बोल प्रशंसा के सुनने की धुन हो, लो यों 6 विषय हुए । यह जीव इन 6 प्रकार के विषयों में ही तो रात दिन लगा रहता है । 7वां काम और क्या करता है ? इसकी दिनचर्या देखो – सुबह हुआ, मन बहलाया, मंदिर भी आया तो मन बहलाने का काम किया, जो लोग दिखे उनमें कुछ इज्जत चाहने का काम किया । मंदिर से चला – अब भोजन का काम किया । रसना का विषय सेया । रसना के बाद घ्राण का विषय सेया । कुछ चाहिए इत्र फुलेल सूँघना । फिर आंखों का विषय सेया, फिर शब्दों का विषय सेया । देखो – वे ही विषय रोज-रोज भोगे जाते हैं, पर यह उन विषयों से अघाता नहीं है । रोज-रोज ही प्राय: विषयों को नवीन वस्तु मानता है ।
अज्ञान का नाच – भैया ! करे क्या यह ? अज्ञान की चश्मापाटी इसकी विवेक की आंखों पर जड़ी हुई है । सो यह अंधा होता हुआ कोल्हू के बैल की तरह उन्हीं 6 विषयों में चक्कर लगाता रहता है । यह कोई नया काम तो नहीं कर रहा है ? वही दाल रोटी कल खाया था, वही आज खाया और वही कल खावेगा तो भी वह नयासा ही मालूम पड़ेगा । खूब अच्छा नया सा स्वाद लगता है । यों ही इन पंचेंद्रिय के विषयों में इस जीव ने भ्रम से नई नई बातें समझीं और इतना ही नहीं कि केवल खुद ही विषयों में फंसा रहा, किंतु दूसरों को भी इन विषयों में फँसाने का यत्न कर रहा है । इस ही यत्न में अपना सारा समय व्यतीत कर डाला ।
स्वप्नविलास में परमार्थ का तिरस्कार – यह अपने आत्मा में विराजमान्, अंत:प्रकाशमान, आनंदनिधान, चित्स्वरूप बसा हुआ है किंतु इसको इस जीव ने नहीं देख पाया, क्यों नहीं देख पाया कि इसने अपने आपके कषायसमूहों को एकमेक कर डाला । जो मैं क्रोध कर रहा हूं वही तो मैं हूं । अपने आपकी की हुई बात गलत नहीं दिखायी देती है। यह अज्ञान बड़ा विकट अंधेरा है । अज्ञान के समान और क्या क्लेश कहा जायेगा ? स्वप्न में सैकड़ो आदमी प्रशंसा कर डालें तो स्वप्न देखने वाला स्वप्न के समय बड़़ा खुश हो रहा है, मगर वहां तो सब इंद्रजाल है, मायारूप है, केवल कल्पना की बात है । यों ही इन आंखों की जगती हालत में भी जो कुछ दिख रहा है, जो बर्तावा हो रहा है यह भी स्वप्न की भांति है, मायारूप है, यह भी परमार्थ कुछ नहीं है । ऐसे इस सहज चित्विलास के देखे बिना जगत् में यह जीव भटकता है ।
निजविश्राम का आग्रह – देखो अपने आपमें अपने विश्राम को पाकर निहारो तो जरा, यह मैं उत्तम ज्ञानस्वरूप आनंदममय हूं । अब इसको पाने की कुछ तरकीब करिये । उसके प्रथम उपाय के करते हुए में कष्ट मालूम होगा । लेकिन जिसे इस आत्मस्वरूप का परिचय हो जाता है उसके लिए यह अत्यंत सुगम हो जाता है । जिसे इसका परिचय नहीं है उसको यह अत्यंत दुर्गम रहता है । जब कभी भी सुखी होने का अवसर आयेगा तो इस ही उपाय से आयेगा, ज्ञानानुभव के उपाय से ही आयेगा । अन्य प्रसंगों में क्या लाभ है ? अपना ज्ञान अपने ज्ञानस्वरूप को निहारता रहे तो इसमें मुझे लाभ है और बाकी तो सब यों ही जानो जैसे कि लोग कहते हैं कोयला की दलाली में हाथ काले । अरे वहां कोयला की दलाली में फिर भी कुछ मिलता है पर इस समागम की दलाली में कुछ नहीं मिलता और गांठ का खोकर चला जाता है । जो बल था, विवेक था, दृष्टि करने की जो कला थी वह सब समाप्त हो जाती है । यहां विषयों के प्रसंग में उलटी हानि होती है ।
आंतरिक स्वच्छता की मूल आवश्यकता – हे आत्मन्, थोड़ा थोड़ा लोगों के कहने के अनुसार अथवा बताने के अनुसार कुछ धार्मिक प्रक्रिया करें, इसकी अपेक्षा तो यह प्रथम कर्तव्य है कि ज्ञानार्जन करके ज्ञानप्रकाश के अनुभव द्वारा अपने आपके आत्मा को स्वच्छ कर लिया जाये । कोई कारीगर या कोई चित्रकार भींत को स्वच्छ करने में महीनों बिताए और फिर किसी दिन चित्राम बनाया तो फिर वह चित्राम कितना मन को हरने वाला होता है। कोई ऐसे ही फूटी फफूड़ी भींत में चित्राम बनाए तो उसने समय भी खोया, श्रम भी बहुत किया, पर न चित्राम की वहां शोभा है और न उसमें कुछ स्थायीपन है । यों ही अपने मन को शुद्ध किए बिना धार्मिक धुन में हम श्रम भी कर डालें तो भी वहां कुछ लाभ नहीं मिलता है और ज्ञानार्जन से और ज्ञानानुभव से चित्त की स्वच्छता बढ़ायी तो वहां लाभ प्राप्त होता है।
भैया ! मत डरो, प्रथम ही प्रथम आत्मा के हित के प्रसंग में, ज्ञान के आचरण में कुछ कष्ट होता है, उस कष्ट से मत डरो―ऐसा होता ही है, क्योंकि संस्कार पुराने बेहूदे चले आये हैं । आज एकदम सत्य तत्त्व में निर्विघ्न कैसे प्रवेश हों ? मत डरो, किंतु यत्न यह करो कि कुमार्ग से हटकर हम सन्मार्ग में ही लग जायें ।
वासनानुसारिणी प्रवृत्ति ― भैया, क्या करें ? कितना ही सिखाया जाय अपने को, किंतु प्रवृत्ति ऐसी हो जाती है, जैसी कि वासना हमारी पहिले समय की भरी होती है । एक सेठ के तीन लड़के थे । मगर तीनों थे तोतले और अन्य नगर में एक और सेठ था, उसके तीन लड़कियां थीं । सगाई के खातिर उसने नाई को भेजा । पहिले सगाई नाई के माध्यम से हो जाया करती थी । खवासजू की भी पद्धति हटी तो बाबाजी देखने जाते थे, फिर चाचा का नंबर आया, फिर बाप का नंबर आया, अब तो वह भी पद्धति हटी । अब तो लड़का खुद ही सारी निगरानी करने जाता है । खैर, जब नाई आया तो सेठजी ने लड़कों को खूब सिखा दिया कि देखो तुम लोग चुप बैठना, सगाई होगी, कोई भी कुछ कहे तो तुम बोलना मत । वे चुप बैठ गए ।
सेठ ने उन्हें खूब सजा दिया । कोट, कमीज, टोपी, श्रृंगार, आभूषण से खूब सजा दिया। नाई ने जब उन्हें देखा तो नाई उनकी बड़ी प्रशंसा करने लगा । वाह ! ये लड़के तो इंद्र के जैसी मूर्ति हैं । इनके गुणों को क्या कहा जाए ? ये तो बड़े भाग्यवान् हैं, बड़े सुहावने हैं । इतने में एक लड़का कहता है कि ऊँह ! अभी टंडन मंडन (चंदन वंदन) तो लगाई नहीं है, नहीं तो बड़े टुन्डर (सुंदर) लगते । प्रशंसा के शब्द सुनकर वह फूला न समाया । दूसरा लड़का बोला कि पिटा (पिता) ने कई ती कि बोलो नहीं, टुप (चुप) रहो । तीसरा लड़का कहता है कि अरे ! टुप टुप। ओह, जैसी उन सेठ के तोतले लड़कों में योग्यता थी, वैसा ही परिणमन किया । कहां तक बाहरी रूप सजाया जाए ? जो बात है, वह प्रकट हो ही आती है।
गुप्त की गुप्त साधना ― हे मुमुक्षु आत्मन् ! धर्म तो करना है शांति के लिए, दिखावे के लिए धर्म नहीं करना है । दिखावे के लिए किया गया धर्म अधर्म ही है । धर्म कहां रहा ? जिस वृत्ति में बाह्य पदार्थों पर दृष्टि है, उस वृत्ति को धर्म कैसे कहा जाए । खुद समझने के लिए धर्म है । अपने ही आप में गुप्त रहकर गुप्त ही गुप्त इस आनंद को पाया जाए तो यह धर्म हुआ और कुछ दिखावे की बात की जाए तो उससे समय भी खोया, श्रम भी किया, धन भी खोया, लाभ के बदले अलाभ मिला ।
सम्यग्दृष्टि की नि:स्पृहता – जीव विषयों के सुख की चाह करता है, मनुष्य भी करता है, यह प्राकृतिक बात है । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष दुकान जाता है तो किसलिए जाता है ? लूटने के लिए जाता है या दो पैसे कमाने के लिए जाता है ? क्या उसकी चाह यह नहीं है कि मैं दुकान जा रहा हूं तो कुछ आमदनी हो जाए ? है चाह । सम्यग्दृष्टि के यथापद चाह रहती है, किंतु धर्मधारण करके विषयों के समागम की इच्छा बनाए, इस धर्म एवज में पैसे का लाभ हो अथवा अन्य लाभ हो – ऐसी कामना करे तो यह अधर्म हो गया ।
वैसे तो सभी को चाह रहती है किे ज्ञानी गृहस्थ भी दुकान पर जाता है तो क्या यह नहीं मन में सोचता कि कुछ आय बने, पर वह वहां लोकव्यवहृत नहीं किेया गया है, पाप नहीं किया गया है, किंतु वह एक मध्यम बात हुई है । न पुण्य हुआ, न पाप हुआ अथवा जैसा आशय है, उस आशय के अनुसार बात बनी । पर धर्म धारण करके एक पैसे की भी इच्छा की जाए तो वहां सम्यक्त्व धारण नहीं हो सकता ।
ज्ञानोन्मुख भाव – भैया ! पूजा भजन करके धन, स्त्री, पुत्र आदि मांग लेवे, इसे क्यों दोष में शामिल किया है ? सुनिए, सम्यग्दृष्टि पुरुष धर्म को धारण करके सांसारिक सुखों की इच्छा को दूर करता है । सुख नहीं चाहता । वैसे चाहता है सुख किसी पद तक और वह भी निवृत्ति की इन भावनाओं को रखकर, पर धर्म के एवज में लौकिक प्राप्ति नहीं चाहता है । जिससे आग बुझाई जाती है, वह जल ही यदि ज्वाला देने लगे तो फिर शमन का उपाय ही क्या ? जिसने इस लौकिक भावना का अभी अभी ही अभ्यास किया है, उसे अंतर की यह तपस्या बड़ी कठिन मालूम होती है और जो भावना बहुत कर चुका, उसे सब सरल विदित होता है । हुआ जो कुछ है होओ, किंतु निर्णय एक रक्खो कि आत्मज्ञान और आत्मभावना में ही हमारा हित है । इन बाह्य पत्थर, धन, वैभव, चांदि और सोना आदि में सर मारने से हमारा आत्महित नहीं है ।