वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 53
From जैनकोष
तद् ब्रूयात्तत्परान्पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो भवेत् ।येनाऽविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ।।53।।
अध्यात्मसुखसिद्धि के उपाय का वर्णन – इससे पहिले यह कहा गया था कि जिसने ज्ञान का योग पहिले-पहिले ही प्रारंभ किया है उसको अपने आत्मा में टिकना कठिन लगता है और उसे बाह्यपदार्थों में लगने में सुख भी मालूम होता है और अपने आप में रत रहने में उसे कष्ट मालूम होता है, किंतु जिसने अपने इस ज्ञानमय स्वरूप की बार बार भावना की है और इसका दृढ़ अभ्यास किया है, उसे बाहर में लगना कष्टदायी मालूम होता है और अपने आपके आत्मा में स्थिर होना, रत होना सुखदायी मालूम होता है । ऐसी बात सुनने पर जिज्ञासु अपनी जिज्ञासा प्रकट कर रहा है तो ऐसी सिद्धि बनाने के लिए हमें करना क्या चाहिए ? इसके समाधान रूप मानों यह उत्तर दिया जा रहा है कि उस बात को बोलो, उस बात की चाह करो, उस ही को दूसरों से पूछो और उस ही में लीन हो जावो, जिसके कारण यह आत्मा अविद्यामयस्वरूप को छोड़कर विद्यामयस्वरूप को प्राप्त हो जाए ।
निज का पर में अनधिकार – इस जीव का अन्य कोई साथी नहीं है । साथी कोई हो ही नहीं सकता । वस्तुस्वरूप प्रत्येक में अपना अपना है, अपना ही स्वरूप है, अपना ही परिणमन है, अपने में अपना ही अधिकार है । किसी भी जीव का किसी अन्य जीव पर अधिकार नहीं है, किंतु अपने स्वार्थभाव के कारण एक दूसरे से लगे हुए हैं व उनकी गोष्ठी बनी हुई है । इस गोष्ठी में कोई यह सोचे कि मैं अमुक को यों करता हूं या मेरे बल पर ही इन सबका जीवन है । इस बात को सोचना विचारना तो व्यर्थ की बात है । तुम तो केवल अपने परिणाम भर बनाते हो । विकाररूप बनाओ, शुभ बनाओ, अशुभ बनाओ, शुद्ध बनाओ, अपने परिणाम करने के सिवाय अन्य कुछ कार्य नहीं करते । प्रत्येक पदार्थ है, अपने स्वरूप से है, पर के स्वरूप से नहीं है, अपने में ही परिणमता है, किसी अन्य में परिणमन नहीं करता है । ऐसे अपने स्वरूपास्तित्त्व से सद्भूत प्रत्येक पदार्थ केवल अपना ही अपने आपका स्वामी है । जब ऐसा प्रत्येक जीव का, प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप है तो अब मेरा सुधार और बिगाड़ किस बाह्यपदार्थ से होगा ? मैं ही अपने भावों को बुरा बनाकर बिगाड़ कर लेता हूं और अपने ही भावों को शुद्ध बनाकर सुधार कर लेता हूं ।
हितकर वचन से लाभ – भैया ! जब हमको वचन व्यवहार में लगना पड़ रहा है तो ऐसी बात बोलें जिस बात के बोलने से अज्ञानमय भाव तो हटे और ज्ञानमय भाव हो जाय अर्थात् आत्मस्वरूप का कथन करें । धन्य है वह वातावरण, धन्य है वह समागम, धन्य है वह सत्संग, जहां रहकर इसका उपयोग विशुद्ध रह सके और केवल अपने आपके प्रतिबोध में संतुष्ट रह सके । ऐसी ही बात बोलना उचित है जिससे इस जीव का विद्यामय, आनंदमय स्वरूप प्रकट होवे । विषय और कषायों में लगने की बात बोलने वाले इस जगत् में अनेक हैं। घर के लोग, मित्र लोग, रिश्तेदारजन प्राय: सभी इसे विषय और कषायों में लगाने वाले हैं। कोई राग की बात में लगाते हैं तो कोई द्वेष की बात में लगाते हैं, उकसाते हैं । ऐसे पतन के गर्त में पटकने के वचन दुनिया में बोलने वाले अनेक हैं, किंतु ऐसे वचन दुर्लभ हैं जिन वचनों को सुनकर अशुभ संस्कार का संताप दूर कर लें और अपने अध्यात्मज्ञान सुधारस का भान कर सकें । ऐसी ही बात हम दूसरों की सुनें और ऐसी ही बात हम बोलने का यत्न करें।
संतापहर वचन – नीतिशास्त्र में वचनों की शीतलता का ऐसा वर्णन किया गया है कि सज्जनों के वचनों में ऐसी शीतलता भरी हुई है जैसी शीतलता न तो किसी नदी के जल में है, न किसी चंदन में है, न किेसी बर्फ घर में है । कोई पुरुष चिंता से व्याकुल हो रहा हो, उसे बर्फ के घर में रखा जाय तो क्या वह बर्फ उसके चित्त को ठंडा कर सकती है ? नहीं कर सकती किंतु भेदविज्ञान के वचन ज्ञानरूप ऐसी सामर्थ्य रखते हैं किे बड़ी चिंताएं भी हों तो वे सब शांत हो जाती हैं ।
निरापद वचन – इस लोक में चिंता ही क्या है ? चिंता बनायी जाती है, चिंता योग्य बात कुछ नहीं है । न रहा धन ज्यादा, इससे कौन सी हानि है ? मिला हुआ धन चला गया तो इसमें कौन सी हानि है आत्मतत्त्व की ? अन्य-अन्य भी विपत्तियां सोच लो इष्ट वियोग हो गया, अनिष्ट संयोग हो गया तो इसमें कौन सी हानि इस आत्मतत्त्व की हो गयी ? लेकिन ज्ञानानंदनिधान आत्मस्वरूप को भूलकर जो बाह्यपदार्थों में मोह बुद्धि लगाये हैं बस इसी से दु:ख होगा । यह परिणाम ही दु:खस्वरूप है । उस दु:ख को मेट सकने वाले जो वचन हैं उन वचनों का सुनना और ऐसे वचनों का बोलना यह ही है अध्यात्मिकता में रमने का एक उपाय। जिस वचन से अज्ञान संस्कार मिटे और ज्ञान संस्कार बने, ऐसी ही बात बोलनी चाहिए ।
वचनसामर्थ्य – जैसे किेसी घर में इष्ट पुरुष का वियोग हो जाय तो बहुत से लोग समझाने आते हैं । उनमें से जो यों समझाते हैं अरे बड़ा अच्छा था, सबकी खबर लेता था, अब तो सूना-सूना हो गया, तो इन शब्दों को सुनकर उस गृहस्थ पुरुष को और दु:ख हो जाता है और कोई यों समझाता है किे सब जीव न्यारे हैं, कौन किेसका साथी है, अपने-अपने भाग्य से आते जाते हैं, किसी का किसी पर अधिकार नहीं है, ऐसी बात कोई सुनाए तो वह गृहस्थ कुछ धैर्य धारण करता है । तो देखो वचनों से ही वह पुरुष अधीर हो गया था और वचनों से ही उस पुरुष में धैर्य बन गया है । मनुष्य का धन एक वचन है ।
सद्वचनव्यवहार – नीति कहती है ‘वचने का दरिद्रता । अरे वचनों के बोलने में क्या दरिद्रता करना है ? थोड़ी इतनी हिम्मत बनाओ मन में कि कोई कषाय जगती भी हो तो उस कषाय को पी लो, छुपा लो व वचन ऐसे बोलो कि जिन वचनों को सुनकर आगे झगड़ा न बने और दूसरे सुखी हो जायें । थोड़ी ही देर बाद जो इतनी कषाय दबाई है सो ज्ञानभावना से अपने से उस कषाय को दूर कर लो । कषायों को रखने के लिए दबाने की बात नहीं कह रहे हैं किंतु वचनों से आगे विवाद न बढ़े ऐसी स्वरक्षा के लिए कषायों को दबाना ही चाहिए । बाद में ज्ञानभावना से कषायों को दूर कर लेना चाहिए । मनुष्य के पास मात्र एक वचन ही धन है । बड़े विशाल नेता ज्ञानी संत जन और करते ही क्या हैं ? एक वचनों से ही सही व्यवस्था और कल्याणमार्ग बना हुआ है । इस कारण वचन ऐसे बोलने चाहियें जिससे राग द्वेष मोह बढ़ाने वाली बात न आये, किंतु संतोष शांति और ज्ञानप्रकाश बढ़ाने वाली बात आये ।
दुर्लभ वचन का सदुपयोग – इस जीव को अनादिकाल से भटकते हुए में अनंतकाल तो एकेंद्रिय में बीता, वहां तो बोलने के लिए जिह्वा ही नहीं मिली, दो इंद्रियां मिलीं, जिह्वा मिली तो भी कोई ठीक-ठीक भाषा न बोल सका, टेंटें, चेंचें ही कर सका । फिर यह जीव तीन इंद्रिय हुआ, चार इंद्रिय हुआ, असंज्ञी पंचेंद्रिय भी हुआ, पशुपक्षी बना, तब तक भी यह जीव वचनों का आदान प्रदान व्यवहार न कर सका । सुयोगवश आज हम आप संज्ञी पंचेंद्रिय हुए, मनुष्य हुए, श्रेष्ठ मन वाले हुए, जरा ध्यान तो दो कि हम कितनी अवनतियों से, गड्ढों से निकलकर आज श्रेष्ठ नरभव में आये हैं । इस समय भी यदि हमने अपने आपके आत्मा को सावधान न रक्खा, पूर्व की ही भांति विषय कषायों में रत रहा और इसी कारण हमारा वचन व्यवहार भी खोटा रहा, खुद विषय-कषायों में फंसे, दूसरे भी विषय-कषायों में फंसे, ऐसी प्रेरणा करने वाले वचनों का ही व्यवहार रहा तो फिर वही दशा होगी कि जैसे कि पशुवों के वचनों का आदान प्रदान नहीं होता है । इस कारण ऐसी ही बात बोलें जिससे कि अज्ञानभाव दूर हो और ज्ञानभाव प्रकट हो ।
स्वपरहितकर वचन – हम दूसरे से कुछ पूछें तो वह बात पूछें जिससे अज्ञानभाव दूर हो और ज्ञानभाव प्रकट हो । आत्मा की सावधानी की बड़ी जरूरत है । लेकिन प्राय: व्यामोहीजन बोलते हैं तो मान पोषण के लिए बोलते हैं । मान किसका कहां रहा ? यहां तत्त्वज्ञान की बात बोलना तो एक इस प्रकार है जैसे बड़ी गहरी स्थिति में हम आप फंसे हैं । ऐसी स्थिति में कुछ ऐसे तत्त्व पर दृष्टि देनी चाहिए, ऐसी बात बोलनी चाहिए जिससे कि स्वयं की और दूसरों की भी दृष्टि कल्याण के लिए बने, ऐसा सहयोग हो रहा है । कोई मैं समझा नहीं रहा हूं, मैं कुछ बढ़ चढ़ करके नहीं हूं किंतु एक कार्य हो रहा है कल्याण का, उसमें सहयोग हो रहा है । हम भी अपने आप को चेता सकें, श्रोता भी अपने आप को चेता सकें, ऐसी वाणी ऐसे वचन कहना आवश्यक है – इस समय इसलिए बोलना पड़ रहा है । ऐसी दृष्टि से बोलें, किंतु मैं सबको समझाने वाला हूं, वक्ता हूं, ऐसी मन में प्रतीति विश्वास रखकर मान कषाय के पोषण के लिए बोलने में हित नहीं है ।
समीचीन पृच्छना – इस ही प्रकार कुछ बात पूछें तो वह भी आत्महित की दृष्टि से पूछें। मैं कोई ऐसी बात पूछूँ जिससे दूसरा निरुत्तर हो जाय और लोग समझें कि हां यह भी कोई समझदार है, ऐसे आशय से पूछी हुई बात खुद के अंतरंग को पतन करने के लिए होती है, उसमें आत्मकल्याण नहीं है । बात भी कोई पूछे तो ऐसी पूछे कि जिससे अज्ञान का रूप तो मिटे और ज्ञान का रूप सामने आये ।
इच्छा की व्यर्थता – यह जीव यहां चाह बिना भी नहीं रह रहा है । कुछ न कुछ चाह बनाये हुये है । कोई किसी की इच्छा करता है, कोई किसी की इच्छा करता है । अरे, इच्छा उसकी करे, जिसके प्रसाद से अविद्या के रूप का परिहार हो और ज्ञानस्वरूप में हम पहुंच जाएँ । उसकी इच्छा करें कि जिसकी इच्छा करने से हम संतोष पा सकें । जगत् के इन वैभवों में कौन सा पदार्थ इच्छा करने के योग्य है ? जब वह चीज पास है, तब इच्छा का भाव नहीं है।
आनंद तो तब आता है कि जिस समय में इच्छा करें, उसी समय चीज मिले, किंतु ऐसा कहीं नहीं होता है । किसी को इच्छा और प्राप्ति के बीच में अंतर दो दिन का हो जाए, किसी को घन्टे भर का अंतर हो जाए, किसी को एक सैकिंड का ही अंतर हो, कितना ही अंतर हो, पर इच्छा और इच्छा की हुई चीज के लाभ में अंतर अवश्य रहता है । पास हो और फिर उसकी कोई इच्छा करे, यह तो होता नहीं है, फिर बाह्यपदार्थों की इच्छा करना व्यर्थ है ।
समीचीन इच्छा – भैया ! इच्छा उसकी करे, जिसके प्रसाद से फिर इच्छा का संताप ही न रहे, वह है आत्मस्वरूप । आत्मा की रुचि करो । अब तक बहुतों को प्रसन्न करने की चेष्टा की, स्त्री को, पुत्रों को, मित्रों को, समाज को और बहुतों को प्रसन्न करने की चेष्टा की, किंतु अपने आपको जब प्रसन्न नहीं कर सका तो क्या है ? यह जीव तो कितने ही प्रयत्न करे पर व्यवहार में भी यह दूसरों को प्रसन्न नहीं कर सकता है और फिर अपने आपका प्रसाद अपने आपको न मिले तो अन्य श्रमों से क्या लाभ है ? कोई पुरुष सबको प्रसन्न नहीं कर सकता ।
भगवान् तीर्थंकर के समय में भी, जबकि उनका तीर्थ चल रहा था, उपदेश चल रहे थे, अनेक भव्यजीव सम्यक्त्व का लाभ ले रहे थे, उस काल में भी आधे से अधिक लोग उनके विरोध में थे और कुछ ही लोग उनके समर्थन में थे । कौन किसको प्रसन्न कर सकता है ? सज्जन यदि सज्जनों को प्रसन्न कर सकते हैं तो दुर्जन तो अब भी उनके विरोध का आशय लिये हुए रहा करते हैं । दुर्जन यदि अपनी गप्पों सप्पों से दुर्जन का मन रमा सकता है तो सज्जनों का चित्त तो नहीं रमा पाया । कौन पुरुष ऐसा है, जो विश्र्व में सबको प्रसन्न कर सकता है ? किसको प्रसन्न करने की इच्छा कर रहे हो ?
सर्वलोकतोषकर यत्न का अभाव – बच्चों के पढ़ने की पुस्तकों में एक कहानी आती है कि एक पिता पुत्र घोड़े के साथ कहीं अन्य नगर को जा रहे थे । पिता घोड़े पर बैठा हुआ था, पुत्र पैदल चल रहा था । तो एक गाँव के लोग कहते हैं किे यह बाप कितना निर्दयी है कि अपने सुकुमार बच्चे को पैदल चला रहा है और आप घोड़े पर सवार है । गांव निकलने के बाद पिता बोला कि बेटा ! तुम इस घोड़े पर बैठ जावो, लोग मेरा नाम धरते हैं । बेटा बैठ गया ।
अब दूसरे गांव के लोग कहते हैं कि यह हट्टाकट्टा बेटा कितना अविनीत है कि अपने से बड़ी उमर वाले बाप को पैदल चला रहा है और खुद घोड़े पर सवार है । बेटा बोला कि पिताजी अब क्या करें ? मेरा भी लोग नाम धरने लगे हैं । अच्छा अब ऐसा करो कि दोनों ही घोड़े पर बैठ जावो, फिर कोई किसी का नाम न धरेगा । दोनों ही घोड़े पर बैठ गए। अब अगले गांव के लोग कहते हैं कि मालूम होता है कि यह घोड़ा मांगे का है, क्योंकि ये दोनों मोटे ताजे, हट्टे कट्टे इस दुर्बल घोड़े पर बैठे हैं । अब फिर सोचा कि क्या करें ? क्योंकि अब भी लोग नाम धर रहे हैं । अब सोचकर कि पैदल चलें, पैदल चलने लगे । अगले गांव में पहुंचे तो गांव के लोग कहते हैं कि ये दोनों ही मूर्ख हैं । अरे जब पैदल ही चलना था तो इस घोड़े को साथ क्यों लिए जा रहे हैं ।
अब कहते हैं कि चार काम तो कर लिए – अकेला बाप बैठा, अकेला बेटा बैठा, दोनों मिलकर बैठे, दोनों पैदल चलें – ये चार काम तो हो गए । दो के अंग चार होते हैं – जैसे सत्य असत्य दो बातें हैं । तो एक उभय बन गया, एक अनुभय बन गया । अब 5वीं चीज क्या हो ? खैर ! सबको कोई प्रसन्न नहीं कर सकता और बाह्यदृष्टि करके सबको प्रसन्न करने का विकल्प बनाना अपने जीवन के क्षणों को व्यर्थ गवांना है ।
उत्तम चिंतना के लाभ – भैया ! अपना प्रसाद पाएँ, निर्मलता पाएँ, ऐसा मन बनाएँ कि जगत् के सभी जीव सुखी हों । किसी जीव को मेरे निमित्त से कुछ भी बाधा न हो, सब सुखी हों । कोई यदि मेरे पर शान जता कर सुखी होना चाहता है तो वह यों ही सुखी हो । कोई मुझे बुरा कहकर सुखी होना चाहता है तो वह यों सुखी हो जावो । मोहवश यह जीव बिना ही प्रयोजन दूसरों के दुख की बात सोचा करता है । यह एक महान् अज्ञान का अंधेरा है ।
अरे ! तेरे सोचने से बाह्य में कुछ हो नहीं जाता । जैसे अहाने में कहते हैं कि कौवे के कोसने से गाय नहीं मर जाती है । जब सोचने से पर में कुछ बात नहीं बनती और यहां हो गया सारा सोचना क्रूर, तो खुद का बुरा अवश्य हो गया । पाप का बंध हुआ, आकुलता का परिणाम हुआ और दुर्गति भी उसकी अब होगी । अच्छा सोच लिया तो यह अपना सुधार कर सकता है । पुण्य का बंध हुआ, वर्तमान में सुखरूप परिणमन हुआ और आगे इसे सुगति भी मिलेगी ।
कल्याणोन्मुख चिंतन का आग्रह – जब केवल भाव से, सोचने से ही हमारा भविष्य निर्भर है तो हम क्यों न ऐसा आत्मचिंतन करें कि जिस चिंतन से हम कल्याण के मार्ग में रहें और दुखों से दूर रहें । हम मन से सोचें तो सबका भला सोचें, हम इच्छा करें तो सबके कल्याण की इच्छा करें, निज के कल्याण की भी इच्छा करें । ऐसी चाह करें कि जिस चाह के प्रसाद से अज्ञान का रूपक दूर हो और ज्ञानमय अवस्था हमारी प्रकट हो । यह सब अंतर का काम है, गुप्त काम है, फल भी गुप्त रहता है । हम इस गुप्त वैभव के पाने के लिए बाहर में बनावट और दिखावा करते हैं तो कैसे सिद्ध होगा ?
आत्मचिंतन – अहा ! मुझे तो अनुभव चाहिए । ज्ञानभावना तो आनंद का और आनंद के अनुभव का साथी है । मै देह से भी न्यारा केवल ज्ञानमात्र हूं । ऐसा हूं ना, पहिले यह निर्णय कर लो । क्या मैं यह देह ही हूं ? इसका निर्णय कर लो । थोड़े से चिंतन के बाद इसका स्पष्ट निर्णय हो जाएगा कि मैं देह से न्यारा हूं, ज्ञानमात्र हूं, मैं अपने आप में पूरा हूं । जैसा प्रभु पूरा है, तैसा ही मैं पूरा हूं । मैं पूर्ण हूं और इस मुझ पूर्ण से जो भी बात बनती है वह भी पूर्ण बनती है । इस मुझ पूर्ण में से यह पूर्ण प्रकट होता है । यह पूर्ण विलीन भी हो जाए तो भी यह पूर्ण का पूर्ण बना रहता है । इस मुझ आत्मा का किसी अन्य से कुछ संबंध नहीं है, तब फिर मैं मोह की बात को क्यों सोचूँ, क्यों विचारूँ ? अपने ज्ञानस्वरूप की ही निरंतर भावना को रक्खूँ । मैं तो ज्ञानमात्र हूं, मैं ज्ञानस्वरूप हूं – ऐसा उपयोग बने तो इसे ज्ञानसुधारस का स्वाद आ सकता है । अन्य विषयों के स्वाद में कुछ लाभ नहीं है । एक निजज्ञानसुधारस का स्वाद लो, इसमें ही कल्याण है ।
आत्मतत्त्व की वाणी, पृच्छना व इच्छा से हित प्रेरणा – आत्मा का सहज शुद्ध आनंद पाने के लिए क्या करना चाहिए ? इस विषय में यह श्र्लोक कहा गया है । सर्वप्रथम परस्पर के कल्याणमार्ग की प्रेरणा के लिए वचन व व्यवहार आया करते हैं, उस वचन व्यवहार में ऐसी सावधानी रखे कि वह बात बोले, जिस बात से यह जीव अविद्यामयस्वरूप को त्यागकर विद्यामय अवस्था को प्राप्त हो और ऐसी ही बात का उत्तर मांगे, जिस बात से ज्ञान की दिशा मिले । हम ऐसी इच्छा को करें, जिसके प्रसाद से अज्ञानभाव से निवृत्ति और ज्ञानभाव में प्रवृत्ति की प्रेरणा मिले ।
आत्मतत्त्व के स्पर्श की तत्परता का प्रसाद – अब यह बतला रहे हैं कि सर्व प्रयत्नपूर्वक उसी में तत्पर रहें, जिसमें अज्ञानभाव की निवृत्ति हो और ज्ञानभाव की प्रवृत्ति हो। उसी आत्मतत्त्व में लीन हो । निज अंतस्तत्त्व में लीन होने के उपाय में सर्वप्रथम अपने शरीर के व्यापार को रोकें । बाह्यवचनों को रोकें, अंतर्जल्प को रोकें, भीतर में जो चाह की तरंग उठती है उसको दूर करें और अपने उपयोग को इस ज्ञानस्वभाव में ही लगावें, ऐसी स्थिति में जाने वाला भी यह ज्ञानी होगा और जानने में आ रहा होगा वह भी ज्ञानी होगा । जहां ज्ञाता और ज्ञान दोनों एक हो जाते हैं वहां इस जीव को स्वानुभव जगता है और उस स्वानुभूति से अविद्या का संताप दूर होता है और ज्ञान का प्रसाद प्रकट होता है ।
ज्ञानभावना का प्रताप – कल्याण के इच्छुक पुरुषों को उस तत्त्व की भावना में लीन होना चाहिए जिस भावना के प्रसाद से अज्ञानावस्था को छोड़कर यह ज्ञानावस्था को प्राप्त होवे । ज्ञान में ज्ञान वह ज्ञान है जो ज्ञान ज्ञान के स्वरूप का ज्ञान किया करे और ऐसे ज्ञानानंद की स्थिति ज्ञानमय अवस्था कहलाती है । मैं समस्त परद्रव्यों से भिन्न हूं, केवल ज्ञानानंद स्वरूप मात्र हूं, भाव मात्र हूं – ऐसी अंतर में बार बार की गई भावना के प्रसाद से जो एक जाननमात्र परमविश्राम की अवस्था होती है उस ही को विद्यामय अवस्था कहते हैं । इस अवस्था की प्राप्ति का उपाय है अपने आप को ज्ञानमात्र भाते रहना ।
ज्ञानभावना के उपाय – यह ज्ञानभावना उसकी बना करती है जो इस तत्त्व की अंतर से चाह किेया करे । जिनको इस सहज आत्मतत्त्व की चाह होती है वे कभी किसी दूसरे से पूछते हैं तो आत्मतत्त्व की बात को पूछते हैं । आत्मतत्त्व की इस जिज्ञासा और पृच्छना करने वाले पुरुष अन्य समय में भी कुछ बोलते हैं तो इस आत्मतत्त्व की बात बोलते हैं । यों कल्याण के उपाय में बोलने से शुरू होकर और तत्त्व में लीनता तक की बात इस श्लोक में कही गयी है ।
बोल की संभाल का आद्य स्थान – प्रथम ही प्रथम तो इस कल्याणार्थी का कर्तव्य है कि वह कम बोले और ऐसी बात बोले कि जिसके प्रसाद से यह अज्ञानमय आशय को छोड़कर ज्ञानमय अवस्था को प्राप्त हो । ऐसी अटपट बातें बोलने से क्या लाभ है जिससे यह उपयोग और विक्षिप्त रहा करे, यत्र तत्र डोले । व्यर्थ के जो संग हैं, अत्यंत भिन्न जो परतत्त्व हैं उन परतत्त्वों में रुचि जगे, प्रीति उत्पन्न हो, ऐसे वचनों के सुनने से आत्मा का हित नहीं हैं, इसलिए बात वह बोलें जिसके बोलने से कुछ लाभ तो मिले । अलाभ की बात बोलने से, आत्मा के अहित बात बात बोलने से, अन्य बातें करने से आत्मा का बल हीन हो जाता है और जहां आत्मबल हीन हुआ वहां नाना प्रवृत्तियां बन जाती हैं, उससे फिर यह विडंबना को प्राप्त होता है । सो ऐसी ही बात बोलें जिससे ज्ञानावस्था मिले ।
वाक्संयम – भैया ! सबसे पहिले बोलने पर कन्ट्रोल कराया गया है । जिसे कल्याणमार्ग में बढ़ना है उसे प्रथम बोलने का संयम रखना चाहिए । जो उस ही तत्त्व की बात बोलने का अभ्यास रखता है वह किसी से पूछे तो उस ही को पूछेगा, उस ही की चाह करेगा तत्पश्चात् वह आत्मतत्त्व में लीन हो जाता है । मैं आत्मा शुद्ध ज्ञानमात्र हूं, इसमें विधि की भी बात कहना व्यवहार है और निषेध की भी बात कहना व्यवहार है । मैं कषाय रहित हूं यह भी बताना पड़ता है उस तत्त्व के अपरिचितजनों को बोध कराने के लिए । यह मैं जो हूं यह ही केवल बताइये, ऐसा कोई प्रश्न करे तो वहां निषेध की बात नहीं कही जा सकती है । मैं कषाय सहित हूं यह तो बात है ही नहीं किंतु कषाय रहित हूं, यह भी स्वरूप को छूने वाली बात नहीं है । स्वरूप तो सहज ज्ञायकस्वभाव है, वह जिसके अनुभव में आया हो उसे तो इतने शब्द सुनते ही बोध हो जाएगा । जिसे अनुभव नहीं हुआ है वह ऐसे शब्द सुनकर भी आंखें निकालकर सुनेगा, क्या कहा जा रहा है ?
रुचि के अनुसार दर्शन – इस आत्मा के अनुभव की बात यत्नसाध्य है । अपने अंत:ज्ञानमय पुरुषार्थ के द्वारा साध्य है । उस ही तत्त्व में लीन होना चाहिए जिसकी लीनता के प्रसाद से यह आत्मज्ञान अवस्था को प्राप्त हो । जिसको जिस बात की रुचि होती है वह किसी भी प्रसंग में हो बात उस ही की छेड़ता है । जैसे किसी का इष्ट पुत्र खो जाए तो नगर भर में कितना खोज किया करता है । जगह-जगह पूछता है । इस ही तरह जिसको आत्मतत्त्व की रुचि जगी है और यह निर्णय हुआ है कि वास्तविक आनंद तो एक ज्ञानमात्र अनुभूति में है, ऐसा वह पुरुष जिसे एक ज्ञानभाव दृष्ट हुआ है वह इस ज्ञानभाव के जानने के लिए ही तो चर्या करता है, पूछता है और उसकी बाट जोहता है । इसे वाद विवाद की मन में नहीं रहती है । मैं किसी को अपने मन की बात समझा कर ही रहूं, अमुक लोग मेरी बात मानें, कही हुई बात गिर न जाय – ये सारे विकल्प अज्ञानमय अवस्था के हैं । इस ज्ञानी पुरुष को तो ज्ञाता दृष्टा रहने की प्रकृति पड़ी हुई है ।
अंतरात्मत्वदर्शन – ज्ञानी संत सहज भाव से उपदेश कर सकते हैं यदि जान बूझकर याने मैं लोगों को ऐसा सुनाऊँ कि लोग यह समझें कि हां यह बहुत ऊँची बात कह रहा है, ऐसा आशय मन में हो तो वहां सहज यत्न नहीं हो सकता है । वहां तो सूचक बात भी प्रकट नहीं हो पाती है जो सहज ज्ञान का संकेत करे । समयसाररूपी माला के द्वारा निज समयसार परमदेव को पूजिए, पर यह जान जाइये कि यह अभिन्न समयसार की माला एक सहज क्रियारूपी हाथ से बनाई जा सकती है । बनावट अथवा जान बुझक्कड़ी करके यह समयसार की फुलमाला नहीं गूँथी जा सकती है । जब आत्मा में ज्ञानभाव की दृष्टि का परमयोग बनता है तो उस परमयोग के प्रसाद से ही यह समयसार वश में किया जाता है । मेरा प्रभु मेरे वश में हो जाय, इसका यत्न है ज्ञानमय पुरुषार्थ । वश में हो जाय इसका अर्थ यह है कि मेरी दृष्टि में यह निरंतर बना रहे । मेरे अंक से यह दूर न हो सके । ऐसे परमयोग के प्रसाद से अपने वश में करने वाले इस समयसार परमदेव को समयसार की फूलमाला से ही पूजा जा सकता है, उपासित किया जा सकता है । यों अपनी बहिरात्मदृष्टि को तो मिटाना चाहिए और अंतरात्मदृष्टि को प्रकट करना चाहिए ।
भेदविज्ञान का एक प्रकार – भैया ! ज्ञान में, यथार्थ परिचय में अंतर नहीं होता है । वस्तुस्वरूप के परिचय के विषय में ज्ञानियों ज्ञानियों में अंतर नहीं होता है । साधु तो पूरा भेदविज्ञान करे और श्रावक उससे आधा भेदविज्ञान करे और अविरत सम्यग्दृष्टि चौथाई भेदविज्ञान करे, ऐसी बात नहीं है । भेदविज्ञान तो जो सम्यग्दृष्टि अविरत के है वही भेदविज्ञान प्रमत्तविरत साधु के है । प्रमत्तविरत साधु के संग में रहने वाले जो शिष्य आदिक हैं उनमें उन्हें पूरा भेदविज्ञान रहता है और यहां सम्यग्दृष्टि अविरत जो कि बाल बच्चों में पड़ा हुआ है पूरा भेदज्ञान उसके भी रहता है । साधु जानते हैं कि यह शरीर भी परिग्रह है, मेरा नहीं है, ये शिष्यजन भी परिग्रह हैं, मेरे नहीं हैं, और यह मन भी परिग्रह है, मेरा नहीं है और शब्द वचन आदिक भी परिग्रह हैं, मेरे नहीं हैं । शिष्यों को उपदेश भी किया जाय तो उपदेश रूप में ये सूत्र वचन भी परिग्रह हैं, मेरे तत्त्व नहीं हैं । ऐसे एक ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व के सिवाय अन्य समस्त विभावों में जो भेदविज्ञान करते हैं ऐसे साधुसंत पुरुष के जैसा परम भेदविज्ञान है वैसा ही परम भेदविज्ञान अविरत सम्यग्दृष्टि पुरुष के भी होता है ।
आत्मवेदियों में चारित्रकृत अंतर की संभवता – भैया ! अंतर तो केवल उस ज्ञान में स्थिर होने का है, चारित्र होने का है । स्वरूप संबोधन में अकलंकदेव ने चारित्र का लक्षण कहा है कि उत्तरोत्तर होने वाली जो दर्शन और ज्ञान की परिणतियां हैं उन परिणतियों में स्थिर होना, उनका स्थिरता से आलंबन हो इसका नाम चारित्र है अथवा सुख और दु:ख में मध्यस्थ होना इसका नाम चारित्र है । चारित्र का लक्षण कहीं फलित रूप से कहा है, कहीं परिस्थिति रूप से कहा है । अंतर चारित्र का होता है, पर सम्यक्त्व और प्रयोजनभूत मोक्षमार्ग का ज्ञान यह प्रत्येक सम्यग्दृष्टि के होता है । इसमें मनुष्यों की बात तो दूर रहे, जिन पशुवों और पक्षियों को सम्यग्दर्शन होता है उनके भी आत्मप्रयोजक भेदविज्ञान वैसा ही है जैसा कि साधुसंत पुरुषों के होता है । वे मुख से कुछ बोल नहीं सकते हैं पर जैसे हंस की चोंच में दूध और पानी जुदा जुदा हैं―ऐसे ही प्रत्येक ज्ञानियों के उपयोग में आत्मतत्त्व और अनात्मतत्त्व जुदा जुदा हैं । उसी तत्त्व की भावनाओं में लगो, जिस भावना के प्रसाद से अज्ञानमय अवस्था छूटती है और ज्ञानमय अवस्था प्रकट होती है ।