वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 71
From जैनकोष
मुक्तिरेकांतिकी तस्य चित्ते यस्याचला धृति: ।तस्य नैकांतिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृति:॥71॥
जिस पुरुष के चित्त में अचल आत्मा की अचल धारणा रहती है उसको मुक्ति की प्राप्ति नियम से होगी, किंतु जिसे इस अचल आत्मा की अचल धारणा नहीं रहती उसकी मुक्ति नहीं है । आत्मा का स्वरूप अचल है, प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप अचल है । जो पदार्थ जिस असाधारण गुणस्वरूप है वह उस स्वरूप को त्रिकाल त्याग नहीं सकता । स्वरूप से स्वरूपवान् भिन्न पदार्थ नहीं है। जैसे गरमी से अग्नि कुछ भिन्न नहीं है, गरमी निकल जाय कदाचित् तो इसका अर्थ यह होगा कि आग ही खत्म हो गयी । इसी तरह पदार्थ का जो असाधारण स्वरूप है वह स्वरूप निकल जाय तो इसका अर्थ यह हो गया कि पदार्थ ही नहीं रहा । आत्मा का असाधारणस्वरूप है चैतन्यभाव । यह आत्मा चित्स्वरूप है । जैसा है वैसा बताने की जो पद्धति है वही असाधारणस्वरूप कहलाता है ।
प्रत्येक पदार्थ साधारण गुण से भी युक्त है और असाधारण गुणों से भी युक्त है । कुछ भी वस्तु यदि है । तो उसमें 6 बातें अवश्यंभावी है, प्रथम तो वह "है" । दूसरी बात वह अपने स्वरूप से हैं पर के स्वरूप से नहीं है । तीसरी बात वह निरंतर परिणमता रहता है । चौथी बात वह अपने में ही परिणमता है दूसरे पदार्थ में नहीं परिणमता है । 5 वीं बात वह पदार्थ है ना तो किसी न किसी आकार को लिए हुए रहता है और छठी बात यह है कि वह पदार्थ किसी न किसी के ज्ञान में आ ही रहा है । इन 6 बातों में से कोई भी एक गुण न हो तो इसका अर्थ यह है कि वह पदार्थ ही कुछ नहीं है ।
अस्तित्व और वस्तुत्वगुण का प्रसाद – जैसे चेतन आत्मा को ही उदाहरण में लो, इसके चैतन्यस्वरूप पर अभी दृष्टि न दो किंतु इसका अस्तित्त्व ही सिद्ध करना है – इतना ही प्रयोजन रक्खो तो इस आत्मा के बारे में देखते ही होगे कि यह आत्मा है, इसमें अस्तित्त्व है। यह सद्रूप है और फिर यह आत्मा अपने स्वरूप से है पर के स्वरूप से नहीं है । यह अपने ही गुण से है पर आत्मा के गुण से नहीं है और समस्त अचेतन पदार्थों के स्वरूप से नहीं है ऐसी दूसरी बात भी इस आत्मा में होती है । यदि यह दूसरा गुण न हो तो आत्मा का अस्तित्त्व ही क्या रह सकता है अर्थात् यह आत्मा पर के स्वरूप से हो अथवा अपने स्वरूप से न हो तो आत्मा क्या रहा ? आत्मा तो पुद्गल आदिक पर के स्वरूप से भी बन गया, अब कहां आत्मा रहा और स्वरूप से न हो तो आत्मा ही क्या ? इसमें यह दूसरी बात होनी भी आवश्यक है ।
द्रव्यत्व और अगुरुलघुत्व गुण के कारण ध्रौव्यव्यवस्था – तीसरी बात है आत्मा प्रतिक्षण परिणमता रहता है । यदि यह गुण न हो तो इसका अर्थ यह है कि आत्मा अपरिणामी है । जैसे कि अन्य लोग मानते हैं कि आत्मा में कभी कुछ भी परिणमन नहीं होता है । जिसमें परिणमन न हो, वह सत् ही नहीं है । कौन सा पदार्थ ऐसा है कि जो न बनता हो और न बिगड़ता हो और रहता अवश्य हो । ऐसा एक भी उदाहरण दो । प्रत्येक पदार्थ अपनी नवीन पर्याय बनाते हैं और पुरानी पर्याय का व्यय करते हैं । इसके आत्मा में परिणमनशीलता का होना भी आवश्यक हुआ । चौथी बात है कि यह आत्मा अपने ही स्वरूप में परिणमता है, पर के स्वरूप में नहीं परिणमता है । यदि यह बात न मानी जाए तो इसका अर्थ यह होगा कि आत्मा पर के स्वरूप से भी परिणमेगा । यदि यह जीव किसी शरीर आदिक के स्वरूप से भी किसी अन्य धन संपदा आदिक के स्वरूप से भी परिणमें तो फिर यह आत्मा क्या रहा ? इस कारण यह चौथा गुण भी सब पदार्थों में आवश्यक है ।
प्रदेशवत्त्व व प्रमेयत्त्व गुण के कारण वस्तुसिद्धि – 5वीं बात कही गयी है कि आत्मा का कोई न कोई आकार है । यदि आकार न हो तो किसी पदार्थ के अस्तित्त्व की कल्पना ही नहीं बन सकती है । मनुष्य तो हो, पर उसका आकार कुछ न हो, लंबाई, चौड़ाई, मोटाई कुछ न हो तो ऐसा भी बिना आकार का कोई मनुष्य है क्या ? पदार्थ है तो उसमें आकार अवश्य है । आकार बिना आत्मा में अस्तित्त्व नहीं है । छटवीं बात क्या है ? किसी न किसी ज्ञान के द्वारा वह प्रमेय है । कोई न कोई उस पदार्थ को जानता ही है । कल्पना करो कि कोई पदार्थ क्या ऐसा होगा, जो किसी के भी द्वारा ज्ञान में नहीं आ सकता है ? प्रथम तो यह आपत्ति है कि उस पदार्थ का अस्तित्त्व ही कौन समझेगा ? जब किसी के ज्ञान के द्वारा किसी भी प्रकार प्रमेय ही नहीं है तो कौन जानेगा ? दूसरी आपत्ति यह है कि ज्ञान का तो स्वरूप ही कुछ न रहा । ज्ञान उसे कहते हैं कि जो जान जाये । किसे जान जाये ? जो हो उसे जान जायें । ज्ञान में यह सार्मथ्य है कि जो कुछ भी सत् है उसे यह ज्ञान जान लेता है । यदि कुछ पदार्थ सही हो मगर ज्ञान में ज्ञात न हो तो उसका अर्थ यह है कि ज्ञान का स्वरूप ही नहीं है । यों अनेक युक्तियों से यह बात सिद्ध है कि प्रत्येक पदार्थ प्रमेय भी अवश्य है । ये 6 साधारणगुण सब पदार्थों में रहते हैं ।
असाधारणगुण से वस्तुस्वरूप प्रकाश – भैया ! साधारणगुणों को समझ लेने मात्र से पदार्थ का स्वरूप ज्ञात नहीं हुआ । यों तो सर्व एक सत्रूप हुए । यहां अर्थक्रिया नहीं उत्पन्न हो सकती है, किंतु सर्व एक सत्रूप होते हों―ऐसा नहीं । विशेषधर्म के बिना सामान्यधर्म कहलाता ही नहीं है । जैसे कोर्इ न बालक हो, न जवान हो, न बूढ़ा हो और हो मनुष्य तो क्या ऐसा कोई है ? नहीं है, लेकिन विशेष अवस्था उसकी अवश्य है । विशेष अवस्था बिना सामान्य बात आ ही नहीं सकती है । यों तो प्रत्येक पदार्थ अपने विशेषस्वरूप को लिए हुए है । आत्मा में वह विशेषस्वरूप चैतन्य है । अब आइए चैतन्यस्वरूप तक ।
अचल की अचल धृति – यह आत्मा का चैतन्यस्वरूप अचल है । यह कभी चलायमान् नहीं हो सकता । अनादिकाल से अब तक यह जीव शरीर से और कर्मों से संयुक्त चला आया है, फिर भी आत्मा न शरीररूप हुआ, न शरीर आत्मारूप हुआ । आत्मा चेतन ही रहा, शरीरादिक अचेतन ही रहे । यों आत्मा का चैतन्यस्वरूप त्रिकाल भी छूटता नहीं है । ऐसे इस अचलस्वरूपवान् आत्मतत्त्व की जो अचल धारणा रखते हैं, उन पुरुषों की मुक्ति अवश्य है । मुक्ति का मतलब है संकटों से छूट जाना । जिनको अपने अचलस्वरूप की सुध है, वे संकटों से कभी अवश्य छूट जायेंगे । यह आत्मा चैतन्यस्वभावी अपनी अतीत समस्त पर्यायों को चैतन्यात्मकता से रचे हुए बनाये था और चैतन्यात्मता से रचे हुए अपनी पर्यायों को बनावेगा। अन्य अचेतनों से इसका संबंध नहीं हो सकता है । यों सबसे ही विविक्त स्वतंत्र अपने स्वरूपास्तित्त्वरूप आत्मा को जो अपनी धारणा में लेता है, उसके संकट अवश्य छूट जाते हैं । अरे अभी इतना ध्यान में लाये कि मेरा स्वरूप अचल चैतन्यमय है, इसका किसी अन्य पदार्थ से रंच भी संबंध नहीं है – ऐसे विविक्त आत्मतत्त्व के दर्शन से यही अंदाज कर लो कि सारे संकट समाप्त हो जायेंगे ।
व्यामोही की कल्पित शान – यह व्यामोही जीव बाह्यपदार्थों के संग्रह में, व्यामोह में अपनी शान समझता है और उसी में सारा यत्न लगाते रहने पर तुला हुआ है । है क्या उसमें ? रंच भी सार नहीं है । प्रथम यह बतलाओ कि किसको प्रसन्न करने के लिए, किसे राजी रखने के लिए इतनी मन, वचन, काय की चेष्टाएँ की जा रही हैं ? ये कुछ सारभूत नहीं हैं ।
सबको प्रसन्न करने की चेष्टा का व्यामोह – एक सेठ जी थे । उसके चार लड़के थे, 5 लाख की जायदाद थी । बड़े आराम से सबको एक एक लाख रुपये बांट दिये । खुद भी एक लाख रुपया ले लिया । अब सेठ ने चारों लड़कों को बुलाया और कहा कि देखो बेटा ! अपन लोग बड़े आराम से न्यारे हो गये । कोई अड़चन नहीं पड़ी । अब इस खुशी में अपनी बिरादरी के लोगों को जीवनवार कर दो । बेटों ने कहा कि अच्छा पिताजी । सबसे पहिले छोटे लड़के ने अपने बिरादरी के लोगों की जीवनवार की । तो उसने सात आठ प्रकार की मिठाइयां बनवायी थीं । बिरादरी के लोग खाते जायें और परस्पर में कहते जायें कि मालूम होता है कि सेठ जी ने इस छोटे लड़के को सबसे ज्यादा धन दे दिया है, तभी तो खुश होकर इसने सात आठ मिठाइयां बनवायी हैं । लो उसने खिलाया पिलाया, फिर भी उन बिरादरी के लोगों ने इतनी- इतनी बातें कहीं । उसके बाद दूसरे लड़के ने सब बिरादरियों को जीवनवार दिया तो उसने दो ही मिठाई बनवायीं । बिरादरी के लोग खाते जायें और परस्पर में बातें करते जायें कि यह लड़का बड़ा चालाक निकला । इसने तो दो ही मिठाई खिलाकर टरका दिया । इसने छोटे लड़के से भी ज्यादा धन रख लिया होगा । अब उसके बाद तीसरे लड़के ने जीवनवार किया तो उसने मिठाई का नाम ही न रक्खा । सीधे दाल साग पूड़ियां बनवाईं । तो बिरादरी के लोग खाते जायें और कहते जायें कि यह लड़का तो उन दोनों से भी चालाक निकला, इसने तो मिठाई का नाम ही नहीं रक्खा, रख लिया होगा उन दोनों से ज्यादा धन । अब सबसे बड़े चौथे लड़के ने पंगत की तो उसने पक्की चीज का नाम ही नहीं रक्खा सीधे दाल, चावल, कढ़ी आदि बनवाया । तो बिरादरी के लोग जींवते जायें और कहते जायें कि यह तो सबसे बड़ा लड़का है, इसी के हाथ में चाभी रहती थी । इसी का सारा जाना हाल है । सबसे ज्यादा धन इसी ने रख लिया होगा, मगर इसने पक्की चीज का नाम भी नहीं लिया ।
तृष्णा में शांति की अपात्रता – भैया ! एक दृष्टि की बात कह रहे हैं । घर-घर में पड़ौस-पड़ौस में कषायों की अपनी-अपनी विभिन्नताएं हैं । किस-किसको प्रसन्न करने के लिए मन, वचन, काय की चेष्टाएं की जा रही हैं । कुछ अपनी सुध लो, धन से श्रद्धा हटावो, धन से बड़प्पन है, इससे ही जीवन है ऐसी श्रद्धा को बिल्कुल दूर करो । जब कीड़ा मकौड़ा जानवर पशुवों के भी अपने-अपने कर्मोदय के अनुसार उनका भी जीवन चलता है तो हम आप लोगों को क्या सुविधा न होगी ? अच्छा बतावो तो सही कि कितना धन मिल जाय तो फिर आगे तृष्णा न रहेगी ? कोई नाम लेकर तो बतावो । भले ही कोई आज अपनी परिस्थिति को देखकर उससे चौगुनी बात कह लेगा कि इतना धन हो जाय तो फिर हम कुछ भी तृष्णा न करेंगे, आगे की आशा न रक्खेंगे, किंतु कदाचित् हो जाय उतना धन, तो तृष्णा और बढ़ जाती है । एक उक्ति में कहते हैं "तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा ।" तृष्णा जीर्ण नहीं हुई किंतु हम लोग ही जीर्ण हो गए, अपना ही बुरा हो गया, पर तृष्णा नहीं मर सकी । तो जिसको बाह्यपदार्थों में तृष्णा लगी हुई है वह पुरुष कैसे मुक्ति का पात्र हो सकता है ?
अपना प्रयोजन – भैया ! शांति के अर्थ का यह कर्तव्य है कि हम सबसे भिन्न विविक्त अपने आपके आत्मतत्त्व को निहारें । साधुजनों को तो केवल एक अपने उद्धार का ही काम पड़ा हुआ है और गृहस्थजनों को मान लो, दो काम पड़े हैं, अपनी आजीविका बनाना और उद्धार का काम करना । धर्म धारण करना, इतना ही तो काम है । एक जीव की जीविका और दूजे जीव उद्धार । कहां विडंबना है गृहस्थ को भी, कुछ विडंबना नहीं है, परंतु न सही ढंग में आएँ और अपने को विपत्तियों में जानबूझकर डालें तो उससे तो आकुलता न मिटेगी । उसको नियम से मुक्ति प्राप्त होगी जिसके चित्त में इस अचल चैतन्यस्वरूप अंतस्तत्त्व में अचल श्रद्धा है । मैं केवल जाननमात्र हूं―ऐसी श्रद्धा है तो ऐसी श्रद्धा में मुक्ति नियम से होने वाली है किंतु जिसको अपने आत्मस्वरूप की भावना ही नहीं है, जिसको जो कुछ बतावो वैसा ही मान ले या अपने मन से इस शरीर को ही निहार कर आत्मा मान ले तो ऐसे चखायमान् चित्त में मुक्ति की बात संभव नहीं हो सकती है । इसलिए एक ही निर्णय है मुक्ति चाहते हो तो इस सहज चैतन्यस्वरूप की प्रतीति करो, और यदि इस आत्मस्वरूप की धारणा नहीं हो सकती है, शरीर को आपा माने, घर के वैभव को अपना मान ले, मैं कुछ अपना नाम कर जाऊं, ऐसी भावना है तो मुक्ति नहीं हो सकती है, यह पूर्ण नियम है ।
एक साधै सब सधे – एक इस आत्मतत्त्व को साध लीजिए तो समृद्ध हो जावोगे । एक इस अंतस्तत्त्व की रुचि होने पर भी यदि अवशिष्ट राग वश बंध होता है तो पुण्यबंध होता है जिसके उदय के काल में सर्व वैभव आता है । जिसको इस अंतस्तत्त्व की रुचि है उसके ऐसी विशुद्धता बढ़ती है कि भव भव के बांधे हुए कर्म भी क्षण मात्र में एक साथ खिर जाया करते हैं । लौकिक आनंद और पारलौकिक आनंद इस सहज आत्मतत्त्व की दृष्टि में भरा हुआ ही है । एक हिम्मत की आवश्यकता है और हिम्मत भी कुछ नहीं, उल्टा जितना चल चुके हैं उतना लौटने की आवश्यकता है । करना कुछ नहीं है । जो खोटा कर्म किया है, जो खोटा कदम बढ़ाया है बस उतना लौटने की जरूरत है । इससे आगे और कुछ भी काम करना इसे आवश्यक नहीं है । यों समझो कि स्वतंत्र निश्चल निष्काम आत्मतत्त्व के श्रद्धान में, आचरण में, सर्व प्रकार की सिद्धि स्वयमेव पड़ी हुई है – ऐसा समझकर एक आत्मस्वरूप के जानने की रुचि करें, अभ्यास करें तो उस पुरुषार्थ के प्रताप से सर्वसमृद्धि हो सकती है ।
मुक्ति का अपरनाम आत्मोपलब्धि – किसी भी तत्त्व का वर्णन विधि और निषेध इन रूपों में हो सकता है । इस प्रकरण में मुक्ति की बात कही जा रही है तो मुक्ति शब्द निषेधपरक शब्द है आत्मोपलब्धि शब्द विधिपरक है । बात एक है चाहे आत्मोपलब्धि कहो, चाहे सर्वथा निर्लेप निष्कलंक विशुद्ध विकास कहो या मुक्ति कहो । मुक्ति का अर्थ है छुटकारा पाना अर्थात् जो अन्य चीजें साथ लगी थीं उनका प्रतिषेध हो जाना, दूर हो जाना और आत्मोपलब्धि का अर्थ है जैसा सहज आत्मस्वरूप है वैसा विकसित हो जाना ।
आत्मोपलब्धि का मार्ग –आत्मविकासरूप कार्य की सिद्धि किस प्रकार होती है इस संबंध में एक मुख्य सूत्र है ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: ।’ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और समयक्चारित्र काएकत्त्व मोक्ष का मार्ग है । सम्यग्दर्शन का अर्थ है आत्मा का यथार्थ विश्वास । सम्यग्ज्ञान का प्रयोजन है यथार्थ सहज आत्मा का परिज्ञान और सम्यक्चारित्र का मतलब है ऐसे ही विशुद्ध आत्मस्वरूप में रम जाना । विश्वास, ज्ञान और चारित्र इन तीनों बिना किसी भी कार्य की सिद्धि नहीं होती है । लौकिक कार्यों को ढूँढ़ लो, जैसे रसोई बनाना है तो रसोई बनाने की बात भी विश्वास ज्ञान और आचरण बिना नहीं हो सकती है । विश्वास है कि इस तरह रसोई बन जायेगी और ज्ञान है कि इस विधि से इस चीज से रोटी बनती है । जो विधि उसे ज्ञात है वैसा कर लेगा तो रोटी बन जायेगी । किसी को ऐसी शंका तो नहीं होती कि आज आटे से रोटी बनेगी अथवा न बनेगी । कोई यह तो नहीं सोचता कि आज कहो रेत से रोटी बन जाये । तो श्रद्धान् बिना कार्य की सफलता हो ही नहीं सकती ।
यथार्थ के अविश्वास में यथार्थ की असिद्धि – एक ठाकुर साहब एक जगह बैठे हुए थे । उनके पास एक बनिया भी बैठा था । बंदूक लिए हुए थे ठाकुर साहब । बनिया की तरफ बंदूक कुंदा था और उसकी नली दूसरी तरफ थी, जिस ओर कोई भी न बैठा था । वह बनिया बोलता है कि ठाकुर साहब यह बंदूक अलग रख दीजिए । ठाकुर साहब ने कहा क्यों ? बनिये ने कहा कि कहीं ऐसा न हो कि गोली निकल भागे । ठाकुर साहब बोले कि तुम्हारी तरफ तो बंदूक की नली भी नहीं है, फिर गोली कैसे निकल भागेगी ? बनिये ने कहा कि सौ बार नली से गोली निकल जाती है, कहीं एक बार इस कुंदे से गोली निकल भागे तो । सो आप इसे अलग ही रख दीजिये । तो इस प्रकार के भी अविश्वासी पुरुष होते हैं । ऐसी ही तो कोई अविश्वासी महिला हो तो क्या रसोई बन सकती है ? आटा भी धर दे, विश्वास भी हो, पर उसकी विधियों का ज्ञान न हो तो चीज कैसे बन सकती है ? ज्ञान भी हो, करे कुछ नहीं और देखती रहे तो क्या रोटी बन जायेगी ?
विश्वास, ज्ञान व आचरण के बिना लौकिककार्य की भी सिद्धि का अभाव – भैया, विश्वास, ज्ञान और आचरण बिना कोई लौकिक काम नहीं होता है । चाहे व्यापार का काम हो, उसमें भी विश्वास, ज्ञान और व्यापार विषयक आचरण चाहिये । पाप का काम करना हो तो उसमें भी पाप का विश्वास, ज्ञान और वैसी ही कोशिश होनी चाहिये । उसमें प्रवृत्ति हो जायेगी, पर वह है मिथ्या । भला ज्ञान करना हो तो भली बात में भी विश्वास, ज्ञान, आचरण चाहिये । यदि आत्मा की उपलब्धि करना है तो उसका भी विश्वास, ज्ञान और आचरण चाहिये । जो स्वभावत: सहज जैसा है, वैसा जानना अति आवश्यक है, क्योंकि मुक्ति होने पर हम क्या रह जायेंगे, इसका ही पता न हो तो मुक्ति का उद्यम ही क्या करेगा कोई ? किसे छूटना है, किससे छूटना―यह कुछ पता ही न हो और बहुत सी बकवाद करता फिरे तो किसी की भी तो मुक्ति नहीं हो सकती है । ऐसे ही यथार्थज्ञान बिना भी मुक्ति नहीं हो सकती है और आचरण बिना भी मुक्ति नहीं हो सकती है ।
यथार्थ विश्र्वास व ज्ञान के बिना आचरण से कार्यसिद्धि का अभाव – मान लो, न विश्वास है, न सही । वस्तु का ज्ञान है और आचरण भी कर लिया जाये तो उससे कार्य की सिद्धि नहीं होती है । जैसे एक पुरानी घटना सुनते आये हैं कि किसी समय ललितपुर में उधार का बड़ा व्यापार चलता था और कहावत भी प्रसिद्ध है कि "झांसी गले की फांसी, दतिया गले का हार। ललितपुर तब तक न छोड़ो, जब तक मिले उधार ।" सो कुछ देहातों के बजाज लोग ललितपुर के बाजार के लिये चले जा रहे थे । जाड़े के दिन थे । जंगल में शाम हो गयी और वहीं ठहर गये । वहां ठंड लगी तो चारो तरफ से जरेटा बाड़ आदि बीनकर ले आए और एकत्रित कर चकमक से आग जलाकर आग में जरेठा बाड़ आदि डाल दी, फिर उसमें फूंक मार कर वहीं हाथ पैर पसारकर बैठ गये । रातभर उन्होंने तापा और सुबह चल दिये । ये सारे काम उस पेड़ पर चढ़े हुए बंदर देख रहे थे । अब दूसरी रात आई तो बंदरों ने सोचा कि इतने ही हमारे आपके जैसे हाथ पैर उन मनुष्यों के भी थे, उन्होंने जैसा जाड़ा मिटा लिया था, वही काम अपन भी करें तो अपन लोग भी जाड़ा मिटा सकेंगे । बंदर तो बड़े ही फुर्तीले होते हैं, सो दौड़-दौड़कर इधर-उधर से खूब जरेठे बाड़ आदि एकत्रित कर ली ।
भैया ! अब भी जाड़ा न मिटा तो उनमें एक बंदर बोला कि ऐसे जाड़ा कैसे मिटे ? अभी तो इसमें लाल लाल चीज तो डाली ही नहीं । लाल–लाल चीज लाने के लिये उसकी खोज में चले । वहां बहुत से पटबीजने उड़ रहे थे, उन्होंने कुछ पटबीजने पकड़कर उस ढेर में डाल दिये । इतने पर भी जाड़ा न मिटा तो एक बंदर बोला कि उन लोगों ने उसे मुख से फूंका भी था । बिना इसके फूंके जाड़ा कैसे मिटे ? सब बंदरों ने फूंका भी, पर जाड़ा न मिटा । एक बंदर बोला कि अरे बेवकूफों ! जाड़ा ऐसे कैसे मिटेगा ? वे मनुष्य तो हाथ पैर फैलाकर यों बैठे भी थे । इन्होंने ऐसा भी किया, पर जाड़ा न मिटा । तो यों आचरण तो सब कर लिये, पर ठंड न मिटी । यों ही समझो कि जिन्हें आत्मतत्त्व का परिचय नहीं हुआ है और देखे दिखाये अथवा बड़े पुरुषों द्वारा सुने हुए की अभिरुचि से धर्म के नाम पर सब कुछ भी कर डालें, जेसे कि बड़े पुरुष किया करते हैं, इसी प्रकार यदि हम आप तप, व्रत, संयम और परित्याग आदि बातें भी कर डालें तो भी अंतस्तत्त्व के परिचय के बिना मुक्ति का मार्ग कहां से प्राप्त होगा ?
अंतस्तत्त्व के अपरिचय से क्लेशों का विस्तार – भैया ! जिसे निजसहजअंतस्तत्त्व का परिचय है, वे पुरुष गृहस्थावस्था में भी रहते हुए अपने पद के अनुकूल शांति के मार्ग पर चल रहे हैं । मोक्ष का मार्ग कहो अथवा शांति का मार्ग कहो । कहां है अशांति समयग्ज्ञान में ? कोई विकल्प हो, कष्ट हो, यदि ऐसी दृष्टि हो जाये कि मैं आत्मा तो ज्ञानमात्र हूं, इससे आगे मेरा कुछ नहीं है । तेा वहां संकट कहां रहेगा ? संकट तो यह मुफ्त में मोल लिये हुए हैं । वास्तव में बात कुछ और है, मिथ्याधारण, विकल्प, अहंकार व ममकार जो बनाये हैं, उनके कारण क्लेश हैं और फिर इनका विस्तार क्रोध, मान, माया, लोभ, हिेंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह―ये सब भी अहंकार और ममकार के विस्तार हैं । सो इन चक्रों में भी फंसना पड़ता है । किसी का भी तो गुजारा इस प्रकार की सच्ची बात की परख बिना नहीं चल सकता ।
शांति की प्राप्ति का एक ढंग – साधु हो तो क्या ? गृहस्थ हो तो क्या ? सुख-दुःख का ढंग सबका एक सा है और आनंद पाने का ढंग भी एकसा है । जैसे सभी जातियां भिन्न-भिन्न हैं―हिंदू, मुसलमान, बौद्ध, ईसाई, जैन पर यह तो बताओ कि उत्पन्न होने और मरने का ढंग भी जुदा-जुदा है क्या ? ऐसा तो नहीं है । मूल में देखो तो सबमें एक सी बातें गुजरती हैं । ऐसे ही संसार और मुक्ति का भी यह सब उत्तर है । शांति और संतोष का भी यही उत्तर है । शांति का मार्ग केवल एक यही है, जैसा कि यह आत्मा अपने आप परमार्थस्वरूप है, उसकी झलक हो जाये और इतना ही मात्र मैं हूं – ऐसा विश्वास बन जाये तो शांति का मार्ग मिलेगा । गृहस्थ को भी यह चाहिये, साधु को भी यह चाहिये, इसके बिना शांति किसी को नहीं मिल सकती है । इससे इस अचलआत्मा का अचलविश्वास होना चाहिये, इससे ही मुक्ति का मार्ग है ।
हितमार्गगमन का अनुरोध – भैया ! इस आत्मा का यथार्थ विश्वास न हो, अपेन स्वरूप पर दृष्टि कम हो, व्यर्थ के मोह के कचड़े में अमूल्यजीवन गँवा दिया तो भविष्यकाल में दुर्गति ही होगी । क्या बीतेगा ? सोच लो, वही बात इसके फल में पाता रहेगा । सो अमूल्यजीवन में लाभ पाना है तो अपना आचरण सत्य बनाओ । धन जोड़ना, संपदा के पीछे अपना ईमान खोना, दूसरों पर अन्याय करने का भाव करना और अपने को सुखी समझकर, बड़ा समझकर अपने को स्वच्छंद बनाना आदि से तो केवल दुर्गति ही मिलेगी । परिग्रह से दूर रहो, कुशील से दूर रहो, अहिंसा का आदर करते हुए, अपनी उपासना का परिणाम रखते हुए सदाचार से रहें तो जो उत्तम संस्कार पा लिया जायेगा, वह साथ जायेगा । दुराचार से रहें तो खोटी वासना प्राप्त होगी और खोटा संस्कार प्राप्त होगा, वह खोटा संस्कार साथ जायेगा । इसलिये बड़े चेत की जरूरत है । विवेक की ऐसी भावना करने वाले पुरुष का जन्म सफल है ।