वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 72
From जैनकोष
जनेभ्यो वाक्, तत: स्पंदो मनसश्र्चित्तविभ्रमा: ।भवंति तस्मात्संसर्गं जनैर्योगी ततस्त्यजेत् ॥72॥
ज्ञानयोग की सिद्धि के लिये जनसंसर्ग का निषेध – पूर्व श्र्लोक में यह कहा गया था कि जिस पुरुष के निजआत्मतत्त्व को अचलस्वरूप की अचल धारणा रहती है, उसकी मुक्ति होती है । उस अचलस्वरूप की अचलधारणा कैसे हो ? इस संबंध में एक उपाय बताया जा रहा है कि जो योगीपुरुष आत्मस्वरूप का अचल अवलोकन करता है, उसे मनुष्यों के साथ संपर्क को छोड़ना चाहिये और संसर्ग न छूट सके, हो कोई स्थिति तो मनुष्यों के संबंध से रहित समस्त परपदार्थों के संपर्क से रहित ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व को निरखकर यह अनुभवना चाहिये । इसका किसी के साथ कुछ भी संबंध नहीं है ।
जनसंसर्गपरिहार की आवश्यकता – जनसंपर्क का त्याग इसलिए किया जाता है कि यदि मनुष्यों का संबंध रहता है तो वचनालाप भी कुछ करना पड़ता है, जहां वचनों का आदान-प्रदान हो, वहां फिर मन में व्यग्रता होने लगती है । मन में, चित्त में अनेक प्रकार के विकल्प क्षोभ उठने लगते हैं । जहां क्षोभ है, वहां शांति कहां है ? यह संसार विकट गोरखधंधा है । मोह के उदय में इस प्राणी को संपर्क बढ़ाने की ही सूझती है । चेतन अथवा अचेतन पदार्थों का संचय जितना अधिक हो उतना ही तो मेरा भी बड़प्पन है, उससे ही मुझे ये सारे सुख प्राप्त होंगे । इस प्रकार की भ्रमपूर्ण धारणा बनी हुई है, इन भ्रांत धारणाओं के विषयभूत जनसंसर्ग के परिहार में ही आत्मकल्याण है ।
मायामयों में व्यवहार – यह संसार है क्या ? मोह नींद के स्वप्न में देखा जाने वाला दृश्य है । कुछ भी यथार्थ नहीं है । जो पुरुष इस लोक में अपना बड़प्पन चाहते हैं, अपनी कीर्ति चाहते हैं तो प्रथम तो वह पुरुष ही अनित्य है, मायामय है और जो पुरुष बड़प्पन चाहते हैं, वे पुरुष भी तो मायामय हैं, अनित्य हैं और जो बड़प्पन चाहा जा रहा है, वह बड़प्पन भी मायामय है, अनित्य है और उसकी चाहरूपी तरंग भी मायामय है, अनित्य है । देखो तो कैसा विकट अचंभा घट रहा है कि यह मायमय अनित्य पुरुष मायामय अनित्य पुरुषों में, मायामय अनित्य कल्पित बढ़प्पन की मायामय अनित्य चाह कर रहा है । कुछ भी तो सार नहीं है, लेकिन जिसको अपने अपरिणामी शाश्वत ज्ञानानंदस्वरूप कारणपरमात्मतत्त्व की सुध नहीं है, उसे ये पंचेंद्रिय के विषयों के साधन और मन के विषयों के साधन महान् लगेंगे और जहां इतनी तृष्णा बनी, फिर वहां शांति समाप्त हुई है ।
कामनारोग व उसके चिकित्सक – भैया ! कामना रोग के रोगी सभी संसारी जीव हैं, इसलिए इस रोग की आलोचना समालोचना नहीं हो पा रही है । सभी उस मोह में डूबे हुए हैं । मोही मोहियों में दोष कहां देख सकते हैं ? इसी कारण यह सारा मानवसंसार धन परिग्रह, नेतृत्व इनके बढ़ाने की होड़ में लग रहा है, किंतु अपने पुराणपुरुषों की नीति को तो देखो कि चक्री से भी महान् वैभवशाली महापुरुषों ने भी आखिर उस सब वैभव को त्यागकर जब अपने आपको आकिन्ंचन्यरूप में देखा, तब शांति पाई ।
लौकिक जनसंपर्क की कल्याणबाधकता – यह जनसंपर्क आत्मयोग के अभ्यास में बाधक है । यह ज्ञान ज्ञानरूप रहे, शुद्ध आनंद का भोक्ता रहे, इसमें बाधा देने वाला निमित्तरूप में यह जनसंपर्क है । जो आत्मस्वरूप में स्थिरता की चाह रखते हैं, उन्हें चाहिये कि वे लौकिक जनों के संसर्ग से अपने को प्राय: अलग रक्खें । जो पुरुष लौकिकता से परे हैं, संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हैं, आत्मकल्याण के इच्छुक हैं―ऐसे पुरुषों का संसर्ग तो इनके कल्याण में कदाचित् साधक है, पर जो मोहीपुरुष हैं, लौकिक जन हैं, अज्ञानअंधकार में भूले भटके हुए हैं, एक इस दृश्यमान मायामय पर्याय को ही जो यथार्थ सर्वस्व समझते हैं-ऐसे पुरुषों का संसर्ग तो क्षोभ का ही कारण होता है ।
मोहियों के संग का दुष्प्रभाव – आजकल प्राय: लोगों में धर्म की उत्सुकता क्यों नहीं जगती है ? इसका कारण यह है कि कुछ थोड़ा सोने का समय और एक आध घंटा व्यवहार धर्म की चर्या को छोड़कर शेष रात-दिन सर्वसमय मोहियों के संसर्ग में ही लोग रहा करते हैं । दूकान पर बैठें तो वहां भी मोहियों का झमेला है । रात दिन मोहियों का ही संसर्ग बना रहता है । एक आध घंटा मंदिर में, स्वाध्याय में अथवा व्याख्यान आदि सुनने में समय लगा भी तो यह आध घंटे का समय क्या प्रभाव डालेगा ? जब सारा संसर्ग इतना दूषित है तो यह थोड़ा सा सत्संग प्रभावहीन हो जाता है । इससे इस ओर दृष्टि देना चाहिये कि हमारा सत्संग निवास तो बढ़े और लौकिक जनों का संसर्ग कम हो । यदि ऐसा पुरुषार्थ किया, दृष्टि बनाई तो क्रम से धीरे-धीरे शांति का विकास हो जायेगा अन्यथा वही अशांति है ।
लौकिक जनसंपर्क व वाग्व्यवहार से विपत्ति – लौकिकजन जहां भी एकत्रित हुए हों, वहां परस्पर में कुछ न कुछ वाक् जंजाल लगता ही है । कभी मौनपूर्वक बैठने के लिये लौकिक जनों का संग नहीं हुआ करता है । वह बोलना अनाप-सनाप सरलतारहित मजाक और पीड़ाकारी बर्तवों से भरा हुआ, दूसरों को तुच्छता की निगाह से देखता हुआ वचनालाप हुआ करता है । जहां ऐसा वचनालाप हो, वहां अवश्य ही मन में स्पंद होता है । जो ज्यादा बोलने की आदत रखते हैं, उनके आत्मबल संतुलित नहीं रह पाता है और ज्यादा बोलने में कोई बात सीमा से हल्की बन गयी तो उसका पश्चाताप रहता है । कोई बात व्यर्थ की निकल गयी तो उसका अनुताप होता है । अधिक बोलने की आदत हमारे जीवन के सुधार के लिए नहीं होती है ।
वाग्व्यवहार में सावधानी – भैया ! प्रयोजनवश ही बोलना चाहिये और वह बोलना भी हित मित प्रिय हो । इस बोल को ही लोग कहते हैं फूल झड़ते हैं और इस बोलने को ही लोग कहते हैं कि बाण निकलते हैं । नीतिकार कहता है कि अधिक शीतल वस्तु क्या है तो बहुत सी वस्तुवें बतायी गयी । चंदन है, नदी का जल है, कुवे का जल है अथवा किसी हिमगर्भ के भीतर बैठ जावो तो वहां शीतलता मिलती है और नीतिकार कहता है कि संत पुरुषों के वचन इतने शीतल होते हैं कि वे हार्दिक संताप को दूर कर देते हैं । इन बाह्य शीतल पुद्गल स्कंधों में यह सामर्थ्य नहीं है कि किसी के हार्दिक संताप को दूर कर दे । किसी पुरुष को लाख पचास हजार का टोटा पड़ गया हो, बड़ी स्थिति का हो तो उसके मन में बड़ा संताप बना रहता है । उसका मन ठिकाने नहीं रहता है । हार्ट पर भी आक्रमण हो जाता है, ऐसी स्थिति में बाहरी पदार्थ क्या करें ? कोई पुरुष धैर्य की बात कहे, और उसके लाभ के उपाय की बात कहे और कुछ ऐसा उपाय लगा भी दे तो चित्त में शांति आयेगी तथा संताप मिटेगा । वचन हार्दिक संताप को भी दूर कर देते हैं । ऐसे वचन तब निकाले जा सकेंगे जब वचनों पर संयम होगा । कम बोलने, विचार कर बोलने, प्रयोजनिक बोलने की जहां वृत्ति बनेगी, वहां उसका बोलना हित, मित, प्रिय निकल सकेगा ।
लौकिक जन संभाषण प्रतिषेधवचन – जो परमयोगी पुरुष हैं, जिनको केवल अपने ज्ञातादृष्टा की स्थिति रहने रूप अमृत के पान से ही प्रयोजन है, जिन्होंने अपने अंतस्तत्त्व में र्निविकल्प सामान्यस्वरूप प्रतिभासस्वरूप आत्मतत्त्व का दर्शन किया है ऐसे पुरुष का तो यह यत्न होता है कि लौकिकजनों का संसर्ग छोड़ें । लौकिक जनों के साथ संभाषण करने को भी आत्मतत्त्व के साधक के लिए सिद्धांत में मना किया गया है । प्रवचनसार में जहां चारित्र की अंतिम गाथा है वहां यह शिक्षा दी गयी है कि लौकिक पुरुषों का संसर्ग न करना चाहिए। कदाचित् कोई साधु किसी रोगादिक उपद्रव से उपद्रुत हो, ऐसी स्थिति में उनके धर्म के वत्सल साधु उपद्रत साधु की वैयावृत्य के प्रयोजन से लौकिक पुरुषों का संसर्ग कर सकते हैं, पर प्राय: लौकिक जनों का संसर्ग नहीं होता है । लौकिक जनों का मतलब है जो विषयवासनावों में रत हैं जिनका मोह ही एक उद्देश्य है, जिन्हें अपने आगे पीछे का कुछ पता नहीं है, अपने स्वरूप का मान नहीं है ऐसे विषय कषायों में लीन पुरुषों को लौकिक जन कहते हैं । उन लौकिक जनों के साथ संसर्ग को यह योगी छोड़े तो उसको कल्याण का मार्ग मिलता है ।
लौकिक जनसंपर्क की उत्सुकता के परिणाम – जरा संपर्क के विषय में कल्पना कीजिए– क्या बनना चाहते हो ? क्या दुनिया में लखपति करोड़पति बनना चाहते हो ? कुछ भी बन लो पर यहां पर हृदय में शांति मिलेगी क्या ? अरे जितने बड़े ऊँचे बन जावोगे कदाचित् पतन हो गया तो उतना ही अधिक विषादद होगा । मानों कोर्इ प्रधानमंत्री हो गया और लोगों ने अविश्वास करके या किसी प्रकार उसे पदच्युत कर दिया तो उसके चित्त से पूछो तो वह मुहल्ले में निकलने में भी सकुचाता है । लो देख लीजिए कल्पित बड़प्पन में उसकी क्या हालत हो रही है ? यह तो बड़प्पन की बात नहीं है । बड़प्पन की बात तो यह है कि हम अपने आपको आकिंचन्य केवल ज्ञानानंदस्वरूप जैसा मैं अपने स्वरूपास्तित्त्व में हूं वैसा ही अपने को देखें । सरल सात्त्विक वृत्ति में ही शांति का मार्ग मिलता है ।
सात्त्विक रहने का शांति संतोष में सहयोग – बुंदेलखंड में झांसी जिले में एक कटेरा नाम का एक ग्राम है । उसमें पहिले एक जैन रहता था, वह राजमान्य भी था । राजा उसका बड़ा आदर करता था, उसकी बड़ी हैसियत भी थी किंतु उसकी चर्या क्या थी – गुड़, नोन, तंबाकू की गठरी लेकर एक घंटा गांव में घूमना और उसे बेचना, यह उसका प्रतिदिन एक घंटे का प्रोग्राम था । बाद में सारा लेनदेन का काम करे, बहुत बड़ी जायदाद थी, सारी संपदा को संभाले । उसकी हैसियत इतनी थी कि राजा आदर करता था । कुछ लोगों ने पूछा कि सेठजी तुम एक घंटा गुड़, नोन, तंबाकू गांव में बेचने का काम क्यों करते हो ? तो उसका उत्तर था कि आज हम बड़े हैं दुनिया की लोगों की दृष्टि में, आज हम राव राजा कहलाते हैं, अच्छी हैसियत है, कदाचित् पुण्य का उदय विघटकर खोटा उदय आ जाये तो हमें दुःख तो न होगा फिर नमक गुड़ तंबाकू बेचने में । यह एक लौकिक बात है, अपने आपको शांति और संतोष में बनाए रहने के लिये और परमार्थत: तो यह बात बिल्कुल यथार्थ है कि अपने आपको पर से विविक्त माना जाय । इसी से शांति का मार्ग मिल सकता है ।
मैं मैं तू तू का परिणाम – जो बाहर में मैं मैं तू तू मेरा मेरा करता है उसको अशांति ही होगी । छात्रावस्था में एक माधुरी पत्र में कथानक पढ़ी थी कि रामू लड़का था, वह बड़ा नटखट था । वह एक पाव भर रसगुल्ले के लिए चले जा रहा था, रास्ते में एक धोबी कपड़े धोता हुआ मिला । उस लड़के ने धोबी के लड़के को रसगुल्ला खिला दिया । अब तो वह लड़का और भी रसगुल्ले खाने के लिए मचल गया । धोबी ने पूछा भाई तुमने इसे क्या खिला दिया ? उसने कहा रसगुल्ले । ये रसगुल्ले कहां मिलेंगे ? अरे यह जो बाग है ना उसमें चले जावो, चाहे जितने तोड़ लावो । तो धोबी बोला तुम्हारा नाम क्या है ? लड़के ने कहा मेरा नाम है कलपरसों । अच्छा भाई कलपरसों मेरे ये कपड़े देखते रहना, मैं थोड़े से रसगुल्ले उस बगीचे से तोड़ लाऊँ । वह तो चला गया बगीचे में और वह लड़का अच्छे- अच्छे कपड़े पहिनकर और अच्छे– अच्छे कपड़े लेकर चंपत हो गया । जब धोबी लौटकर आया तो चिल्लाने लगा कि अरे भाईयों कलपरसों मेरे कपड़े ले गया । लोगों ने सुना तो कहा अरे कलपरसों कोई कपड़े ले गया तो आज क्यों रोता है, आज रोने से क्या फायदा है ? वह लड़का आगे बढ़ता चला गया, आगे रास्ते में उसे एक घोड़े वाला मिला । उसके पास लोटा डोर थी । घोड़े वाले ने कहा कि यह लोटा डोर मुझे दे दो प्यास लगी है, मेरा घोड़ा पकड़ लो, मैं उस कुवें से पानी पी आऊँ । अच्छा भाई ! तुम्हारा नाम क्या है ? उस लड़के ने कहा कि मेरा नाम है कर्ज देने में । घोड़ा उस लड़के को पकड़ाकर घोड़ेवाला पानी पीने चला गया । उस लड़के ने क्या किया कि उस घोड़े पर बैठकर उसे उड़ा ले गया । अब वह आकर रोता है, चिल्लाता है – अरे भाई कर्ज देने में घोड़ा ले गया । अब लोगों ने कहा – अरे भाई कर्ज देने में घोड़ा ले गया तो क्या बेजा किया ?
वह लड़का एक शहर किनारे पहुंचा, एक धुनिया के घर में पहुंचा । धुनेनी से कहा मां मुझे रात भर ठहर जाने दो । उसने कहा ठहर जावो भाई । तुम्हारा नाम क्या है ? मेरा नाम तू ही तो था । धुनिया गया था परदेश । लड़के ने क्या किया कि बनिया के घर से घी, आटा, दाल आदि उधार ले आया । अच्छे कपड़े तो पहिने ही था । कहा कि सुबह आपके पैसे चुका देंगे । बनिया ने पूछा, अच्छा भाई तुम्हारा नाम क्या है ? मेरा नाम है मैं था । उस लड़के ने रात को खाना बनाया और खा पीकर दाल का धोवन धुनिया की रुई में डालकर सुबह चला गया । जब धुनिया आया तो देखा कि सारी रुई भीगी हुई है । पूछा कि रात को यहां कौन ठहरा था ? स्त्री बोली कि तू ही तो था । अरे ठीक-ठीक बोल । हां वह तू ही तो था ? धुनिया को गुस्सा आया, सो पीटने लगा । बनिया ने देखा कि धुनिया अपनी स्त्री को पीट रहा है तो उसे दया आयी । बोला अरे इसे मत पीटो, जो रात ठहरा था वह तो मैं था । लो उस धुनिया ने उस बनिये को पीटा । तो इस मायामयी दुनिया में जो मैं मैं, मेरा मेरा करता है, उसे सिवाय रंज, शोक के डंडों के और कुछ न मिलेगा ।
यथार्थ अवगम से संताप का अभाव – भैया ! सर्वसमागम तो छोड़ कर जाना है और इन समागमों से चिपका हुआ मन बनाया जा रहा है । झूठी बात में शांति कैसे हो सकती है ? मिथ्या को अपना रहे हैं । जब तक सम्यग्ज्ञान का प्रकाश न होगा तब तक आनंद का रास्ता नहीं मिल सकता । सबको जरूरत है सम्यग्ज्ञान के प्रकाश की । चाहे गृहस्थ हो, चाहे साधु हो, चाहे सर्विस वाला हो, चाहे व्यापार वाला हो, कोई भी पुरुष हो, प्रत्येक पुरुष को यदि शांति चाहिए तो सम्यग्ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता प्रथम है । जिनको आज अपना मान रहे हो वे सदा रहने को नहीं हैं । जब वे न रहेंगे तो दुःखी होवेंगे ही । यदि सही मान्यता हो तो दुःख न होगा । जो समागम मिला है उसे यदि पहिले से जानते रहें कि ये सब विनाशीक हैं, भिन्न हैं, मिटेंगे तो मिट जाने पर भी क्लेश नहीं होता है, क्योंकि वह समझ रहा है कि यह तो मैं पहिले से ही जानता था । जो जानता था सो ही तो हुआ । अनहोनी तो कुछ नहीं हुर्इ । जब यह जीव मन के प्रतिकूल अनहोनी की बात समझता है तब इसे क्लेश होता है ।
स्वरूपदर्शन के पथ में – मुख्यतया तो यह उपदेश है कि जनसंपर्क सर्वथा छोड़ो और लौकिक जनों का संपर्क छोड़ो । रहना पड़े लौकिक संपर्क में तो इतना तो अपने स्वरूप को निरखो कि मेरा स्वरूप लौकिक संपर्क से रहित विशुद्ध ज्ञानानंदमात्र है । परमार्थ आत्मस्वरूप की कुछ भी निगाह यदि नहीं रह सकती तो फिर शांति की चर्चा करना बिल्कुल व्यर्थ है । जानमानकर जब हम स्वयं आग में कूद रहे हैं और वहां चाहें कि मुझे शीतलता मिल जाय तो कैसे मिल सकती है ? जब हम संकल्प विकल्प से अपने को अधीर बना रहे हैं और चाहें कि वहां शांति मिले तो यह कैसे हो सकता है, और संकल्प विकल्प से रहित केवल ज्ञानानंद स्वरूपमात्र अपने आपकी झलक तो कर लीजिए । अंतरंग में उसका यथार्थ श्रद्धान रहे, यदि श्रद्धाबल हमारा सही है तो हम कभी शांति के मार्ग में भली प्रकार सफल हो जायेंगे । यदि ज्ञानप्रकाश नहीं है तो जैसे अभी तक अनादि से दुःख में पड़े आये हैं वैसा ही दुःख मिलेगा, कभी उन्नति की बात न मिलेगी ।