वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 77
From जैनकोष
आत्मन्येवात्मधीरन्यां शरीरगतिमात्मन: ।मन्यते निर्भयं त्यक्त्वा वस्त्र वस्त्रांतरग्रहम् ॥77॥
यथार्थ भेदभावना में निर्भयता –आत्मस्वरूप में ही जिसकी दृढ़ता से आत्मा की प्रतीति है, ऐसा अंतरात्मा पुरुष शरीर की अवस्था को―चाहे बालपन, वृद्धपन, युवापन अथवा मरण आदि किसी भी प्रकार की अवस्था हो, उस अवस्था को अपने से भिन्न मानता है और इस प्रकार मरण के अवसर पर निर्भय होता हुआ अपना लक्ष्य बनाए है । उस समय वह यों समझता है कि जैसे कोई पुरुष एक वस्त्र को छोड़कर नवीन वस्त्र ग्रहण कर लेता है उसमें वह कुछ भय नहीं मानता है । इसी प्रकार यह आत्मा एक शरीर को छोड़कर नवीन शरीर ग्रहण कर लेता है । जितने भी क्लेश हैं वे सब परवस्तुओं के लगाव से हैं । राग-द्वेष भाव के समान, अज्ञान-मोह भाव के समान अन्य कोई शत्रु नहीं है, यह ही एक शत्रु है दूसरा कोई शत्रु नहीं है ।चेतन तत्त्व का अन्य चेतन तत्त्व के साथ निमित्तनैमित्तिक संबंध का अभाव –देखो भैया, विचित्र बात कि अचेतन के साथ तो मेरानिमित्तनैमित्तिक संबंध हो जाता है, पर चेतन के साथ निमित्तनैमित्तिक संबंध भी नहीं हो सकता । कोई कहे कि उपदेश दे रहे हैं और उसे सुनकर लोग चेत जाते हैं, सावधान हो जाते हैं तो उन श्रोताओं के उपकार के लिये, सावधानी के लिये, ज्ञान-विकास के लिये, यह वक्ता का आत्मा निमित्त हुआ ना ? खूब ध्यान से निश्चय कर लो अपना निमित्त नहीं हुआ । उस श्रोता ने वक्ता के आत्मा से कुछ नहीं लिया, श्रोत्रइंद्रिय द्वारा भाषा वर्गणा का परिणमन ग्रहण किया, श्रोता की सावधानी में निमित्त वचन हुए, वक्ता का आत्मा नहीं । हाँ, उस वचन के लिये वक्ता का आत्मा निमित्त है, हर एक आत्मा के लिए दूसरा आत्मा निमित्त नहीं हो रहा है । खूब परखलो विचित्रता – कि कैसी उल्टी गंगा बहाई जा रही है, एक जीव का दूसरे जीव के साथ निमित्तनैमित्तिक संबंध तक तो होता नहीं और मान रहे हैं अपना सब कुछ कुटुंब और रिश्तेदार आदि को । श्रोतावों ने जो अपना सुधार किया उनके इस सुधार में जो सूत्र-उपदेश के वचन निमित्त हुए, तो देखो एक जीव के उपकार में ये वचन अचेतन निमित्त हो गये और वक्ता के वचन निकले तो उन वचनों में यह वक्ता का जीव निमित्त हुआ । तो अचेतन का चेतन से तो कदाचित् किसी रूप में निमित्त-नैमित्तिक संबंध है, पर चेतन का चेतन के साथ संबंध नहीं है, लेकिन मोही जीव इस तथ्य को भूलकर किसी भी चेतन के प्रति अपना मोह-परिणाम, ममता-भाव लगाये रहते हैं ।
उत्कृष्ट वैभव –सबसे उत्कृष्ट वैभव है यथार्थ ज्ञान; धन, संपदा वैभव नहीं हैं, ये तो मोह की नींद में जिन-जिनको स्वप्नये आ रहे हैं उनकी यह परस्पर बड़प्पन की बात है । वैभव तो वह है जो शांति, संतोष उत्पन्न करे, यही वास्तविक अमीरी है । जो इस अमीरी को ला सके उसे उत्कृष्ट वैभव कहते हैं । यह सामर्थ्य यथार्थ ज्ञान में है । योगिराज साधुजन जंगल में अकेले विचरते हैं । उन्होंने राजपाट छोड़ा, आराम छोड़ा और वे जंगल में अकेले रहते हैं, उन्हें वहाँ संतोष मिला । धन, संपदा जब तक साथ थी तब तक अशांति रही, और धन, संपदा में उन्होंने संतोष न पाया, उसका परित्याग करके अकेले निर्जन वन में अपने आपसे जो मिलन हो रहा है उससे उन्हें शांति मिली । उत्कृष्ट वैभव यथार्थ ज्ञान है ।
अज्ञान में संतोष का अभाव –अज्ञान में संतोष हो ही नहीं सकता है । पर वस्तु के संबंध की बुद्धि रखकर कुछ भी करतूत कोई करे उन सब करतूतों में इसके भीतर मोह पड़ा हुआ है, पर वस्तु के साथ संबंध मानने की प्रतीति पड़ी हुई है, संबंध हैनहीं और मान रहे हैं । कोई पुरुष किसी भी दूसरे की स्त्री को अपना मानता फिरे और अपनी जैसा व्यवहार करे तो उसका क्या फल होगा ? दंड मिलेगा, ठुकाई-पिटाई होगी, ऐसे ही कोई भी पुरुष इन पर वस्तुओं को, धन, वैभव, घर, शरीर आदि दूसरी चीजों को अपनी मानता फिरे और उनके साथ अपनी जैसा व्यवहार करे तो उसका फलक्या होगा ? दंड । मगर इस दंड को देने वाला इस लोक में कोई नहीं है, प्रकृति दंड देती है । प्रकृति का अर्थ है कर्म कर्मोदय इसका दंड दे देता है । लोक में अन्याय कहीं नहीं । जो लोग इस जीवन में अन्याय करके कुछ संपदा प्राप्त कर लेते हैं अथवा इज्जत प्राप्त कर लेते हैं वे अन्याय करके नहीं प्राप्त कर पाते, उनका पूर्वकृत भाव वैसा था, वर्तमान में पुण्य का उदय है जो उन भावों से बाँध लिया गया था उस उदय में यह सब हो रहा है, अन्याय नहीं हो रहा है ।
परिणमनों में विधिविरुद्धतारूप अन्याय का अभाव –भैया ! यह पूर्व की कमायी है जो वर्तमान में मिल रही है । अब इस कमायी को पाकर, इस संपदा को प्राप्तकर खोटा भाव करे, अन्याय करे तो यह भी किसी प्रकार के कर्मोदय की प्रकृति का फल है, यह भी अन्याय नहीं है और इस अनीति के परिणाम से जो कर्म बँधा उसका फल आगे मिलेगा, वहाँ भी अन्याय नहीं है, निमित्त-नैमित्तिक भावपूर्वक कार्य हो रहे हैं इस कारण अन्याय नहीं कहना चाहिए । सब न्यायसिर हो रहा है । यह वस्तु-परिणमन की ओर से कहा जा रहा है, व्यवहार मार्ग में नहीं कहा जा रहा है । व्यवहार मार्ग में तो अब के इस आचरण को अन्याय कहा ही जाता है और वहाँ कानून और व्यवस्था बनायी ही जाती है पर निमित्त-नैमित्तिक भाव का उल्लंघन कहीं नहीं होता है । इस दृष्टि से किसी भी परिस्थिति को अन्याय नहीं कह सकते हैं, हो रहा है ऐसा । जो पुरुष शरीर में आत्मबुद्धि करता है, शरीर की अवस्था को अपनी अवस्था मानता है उसको मन को न रुचने वाली अवस्था के होने पर खेद होगा ही, किंतु जो शरीर की अवस्था को अपने आत्मा से भिन्न मानता है, ऐसा पुरुष निर्भय रहता है । कुछ भी परिस्थिति हो घर की, संपदा की, परिजन की, यह तो वहाँ ज्ञाता-दृष्टा रहता है यह तो अपने ज्ञातृत्व-भाव में आनंद लिया करता है, कहीं कुछ हो, कर भी क्या सकता है यह दूसरे में । यह स्वरूपदृष्टि से कहा जा रहा है । इस कारण यह ज्ञानी सदा अपने आप में प्रसन्न रहा करता है ।
परिणाम पर लाभ-अलाभ की निर्भरता –भैया, खोटे परिणाम होना इस जीव पर एक विपत्ति है और कोई दूसरी विपत्ति नहीं है । गरीबी आ जाय, दूसरे लोग भी सताने लगें; लोग विश्वासघात कर जायें जो कोई जो कुछ कर जाय वह उनकी प्रवृत्ति है, किंतु खोटा परिणाम उत्पन्न न हो, किसी का अहित करने की भावना न जगे, हितरूप भावना हो तो वहाँ कोई नुकसान नहीं है । भले ही कोई धन लूट ले जाय, छीन ले जाय, टोटा पाड़ दे, धोका देकर नुकसान कर जाय, जो चाहे हो जाय, अपने परिणामों में, अपने आशय में यदि दुष्टता नहीं आती तो समझ लीजिए कि अपना कुछ नुकसान नहीं है, और परिणामों में खोटा आशय आ जाय, दूसरे को तुच्छ मान लिया जाय, अपनी बड़ाई करने के लिये, अपना यश रखने के लिये दूसरे की इज्जत उतारनी पड़े, कुछ खोटा भाव करके यह अपना यश बढ़ायें या संपदा बढ़ायें, तो कुछ नहीं बढ़ाया, घाटे में ही रहा ।
परिणाम पर लाभ-अलाभ की निर्भरता पर दृष्टांत –जैसे महान श्रुतज्ञान उत्पन्न करने के लिये यह मनुष्य अध्ययन कर-करके श्रुतज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकता, पढ़कर, यादकर, रटकर अध्ययन करके यह श्रुतकेवली नहीं बन सकता, श्रुतकेवली तो एक आंतरिक तपस्या के बल पर होता है, श्रुतकेवली सम्यग्दृष्टि पुरुष होता है, वह परमार्थजीव-स्वभाव को, अंतस्तत्त्व को दृष्टि में रखकर उसकी उपासना में लगता है तब उस स्वभाव में केंद्रित किये गये उपयोग के कारण श्रुतज्ञान इतना विस्तृत हो जाता है । ऐसे ही यह यश है या अन्य सुख है । ये सब भी प्रयत्न से, श्रम से नहीं किये जा सकते; किंतु दया, दान, उपकार, मंद कषाय, भक्ति आदि से मंद कषायों के कारण जो प्रकृतिबंध हुआ है उस प्रकृति के उदय होने पर ये लौकिक-लोकोत्तर वैभव सब स्वयं उपस्थित हो जाते हैं ।
यथार्थ ज्ञान की महनीयता –सबसे उत्कृष्ट वैभव है तो यथार्थ ज्ञान है और सबसे उत्कृष्ट व्यवसाय है तो यथार्थ ज्ञान करना है । जो जीव एक निर्णय करके केवल ज्ञानार्जन के लिए ही उतारू होते हैं, इस ज्ञान के समक्ष, इस ज्ञानार्जन के समक्ष किसी भी जड़ धन-संपदा का मूल्य नहीं आँकता है, ऐसे ज्ञानार्जन की धुनवाला पुरुष, ज्ञानार्जन करके एक उत्कृष्ट वैभव प्राप्त करता है, यही अंतिम पुरुषार्थ है । ऐसे ज्ञानी ने अपने आत्मस्वरूप को पकड़ा, सहज शुद्ध, सहज बुद्ध इस अंतस्तत्त्व का कैसे ग्रहण किया उसे यह दिखता है जैसे कपड़े के भीतर पुरुष शरीर है, वह अलग है ।कपड़े में रहकर भी कपड़े के स्वरूप में नहीं है, अपने स्वरूप में है । ऐसे ही इस देह के भीतर रहकर भी यह मैं इस देहरूप नहीं हूँ, न मुझरूप देह है । ऐसे देह से स्पष्ट पृथक् निजआत्मतत्त्व को ग्रहण करने वाले ज्ञानी जीव किसी भी अन्य पदार्थ की अवस्था से अपने को उस रूप नहीं देखते हैं । खोटा परिणाम हो तो उसे ज्ञानी हानि समझता है । विशुद्ध परिणाम जगे तो उसे यह लाभ समझता है । इसके समक्ष जड़ धन-संपदा का कोई मूल्य नहीं है ।
परपरिणति के यथार्थ ज्ञाता के खिन्नता का अभाव –जैसे जीर्णवस्तु को छोड़कर नवीन वस्त्र को धारण करने में कोई पुरुष क्लेश नहीं मानता है । ऐसे ही प्रवर्तमान शरीर छोड़कर नवीन शरीर को ग्रहण करने में किसी भी ज्ञानी ने खेद नहीं माना, अटक नहीं माना है, इसी कारण वह निर्भय होता हुआ आत्मस्वरूप को देखता-मानता रहता है । अंतर्यामी पुरुष स्व और पर के भेद का यथार्थ ज्ञानी होता है, इस कारण पुद्गल का कोई-सा भी परिणमन हो उन परिणमनों को देखकर खेदखिन्न नहीं होता है । अज्ञानी जीव तो मकान की एक ईंट खिसक जाय तो उसके चित्त में भी कुछ खिसक उत्पन्न हो जाती है ।
निगोद की कवायद का अभ्यास –अज्ञानी जीव किसी चेतन पर इतना मोह कर लेता है कि वह उसके सुख में अपने को सुखी समझता है और उसके दुःख में अपने को दुःखी समझता है यों कह लीजिये कि उसकी श्वास में इसकी श्वास है । ठीक कर रहा है यह अज्ञानी, क्योंकि इस भव को छोड़कर आगे निगोद पर्याय मिलेगी तो निगोद पर्याय में यही काम करना पड़ेगा ना, वहाँ एक श्वास में सभी की श्वास है, एक जीव जन्मता है तो अनंत निगोद जन्मते हैं, एक जीव मरता है तो अनंत जीव मरते हैं । शरीर एक है, स्वामी जीव अनेक हैं ऐसी स्थिति होती है निगोद में । सो निगोद में जायगा तो वहाँ यह कवायद करनी पड़ेगी कि श्वास में श्वास मिले, जन्म में जन्म मिले, मरण में मरण मिले सो यह अभ्यास यह अज्ञानी पुरुष कर रहा है । अपना इष्ट मानेगा स्त्री पुत्र परिजन को । उनके सुख में सुखी है, उनके दुःख में दुःखी है । ये सब कवायदें निगोद में करनी पड़ेगी उसका ही अभ्यास हो रहा है ।
ज्ञानी का ज्ञातृत्व –ज्ञानी जीव तो अपने पाये हुए शरीर से भी अपने को न्यारा निरख रहा है । कैसा विशुद्ध ग्रहण है ज्ञानी का । जैसे बहुत सी मिली हुई चीजों में से चुंबक की सूई लोहे की सूईयों को समेट लेती है, ईंट आदि सब टुकड़े पड़े रह जाते हैं, ऐसे ही यद्यपि यहाँ सब कुछ भरा पड़ा है, पर यह ज्ञानी अपने भावरूपी उपयोग-दृष्टि के चुंबक से इन सब में से केवल स्वरूप को ग्रहण कर लेता है । ऐसी जिसकी दृढ़ स्वरूप-दृष्टि है वह मरणकाल में भी भय नहीं करता है और निर्भय रहता हुआ ज्ञाता द्रष्टा रहता है ।