वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 76
From जैनकोष
दृढ़ात्पबुद्धिर्देहादावुत्पश्यन्नाशमात्मन: ।मित्रादिभिर्वियोगं च विभेति मरणाद् भृशम्॥76॥
अज्ञानी का मरण भय –समाधिभाव में ही स्वायत्त परम सहज आनंद है । समाधि का आश्रय है सहज अंतस्तत्त्व । इसका जिनको परिचय नहीं है, उन्हें जीवन में व मरण में घोर संकट सहने पड़ते हैं । शरीरादिक पदार्थों में जिनकी बुद्धि दृढ़ हो रही है, ऐसे बहिरात्मा जब मरणकाल को देखते हैं, उस समय वे मरण से बहुत अधिक डरते हैं । आत्मा एक स्वतंत्र पदार्थ है और शरीर अनेक परमाणुओं का पुंज है । जब शरीर से इस आत्मा का वियोग होता है उस समय देखना चाहिये कि जैसे फटे-पुराने कपड़े को उतारकर कोई नवीन वस्त्र पहिन रहा है, तो उसमें दुःख की क्या बात है ? इसी तरह पुराने-जीर्ण शरीर को त्यागकर नवीन शरीर धारण करने को है तो उसमें दुःख न होना चाहिये । किंतु जब आत्मा में ज्ञान नहीं है तो मोह की तीव्रता के कारण वह शरीर को आत्मा समझ लेता है । अत: जब मरणकाल आता है, उस समय यह समझता है कि मेरा विनाश हो रहा है, ऐसा जानकर मरण से अत्यधिक डरता है ।
मरणभय के कारणभूत अहंंकार और ममकार –भैया ! इस पर्यायमुग्ध जीव को शरीर से न्यारा अपने आत्मा का स्वरूप तो समझ में आया नहीं । मैं आत्मा इस शरीर से जुदा हूँ, ऐसा तो उसके ध्यान में है नहीं, सो जो शरीर है सो ही मैं हूँ, ऐसा मानने पर शरीर के नाश में अपना नाश समझता है, एक बात तो यह है क्लेश के कारणों में । दूसरी बात यह होती है कि मित्रादिक अथवा जो धन कमाया, वह वैभव सब छूटने को है । छूटा जा रहा है, ऐसा भी देखते हैं, सो जिसने बड़ा श्रम करके धन कमाकर रक्खा हो और धन एकदम छूट रहा हो तो उसका क्लेश आयगा । इसी जीवन में कोई 100 रु. का नुकसान हो जाय तो कितना दुःख मानता है यह जीव । 10रु. गिर जायें तो उसका क्लेश ही होता है । भला जब सारी जिंदगी भर की कमाई छोड़े जा रहा है, कुटुंब छूटा जा रहा है, ऐसा देखते हुए में इस मोही मरने वाले को बड़ा क्लेश होगा ही ।समागम का आद्योपांत परिणाम क्लेश –भैया ! सच समझो कि जो कुछ कमाया जा रहा है, वह सब अपने आप अपने क्लेश का साधन जुटाया जा रहा है । कमाते जावो, कमाते जावो, पर किसी दिन तो इससे जुदा होना ही है । मरण-काल में सब छूट जाने को है, उस समय इसके चित्त में कितना संक्लेश परिणाम होगा । जिसने जिंदगी में कुछ कमाया नहीं, अपनी जिंदगी आराम से निभायी, जितनी आवश्यकता थी उतना कमाया, अब मरते समय उसको वह संक्लेश कहाँ से होगा कि हाय मैंने लाखों का धन कमाया अब यों ही छूटा जा रहा है । इस निगाह से देखो तो धन-संपदा, यह कमाया हुआ धन, सब महान् क्लेश के लिए होते हैं।
रागी-जीवन में विकट समस्या –एक तो यही प्राकृतिक विकट समस्या है कि यह मनुष्य जन्मता है तो पहिले तो रहता है बच्चा, फिर होता है जवान और फिर होता है यह बूढ़ा । इसने आराम के लिए बड़े साधन जुटायें, सब चीजें इकट्ठी कीं और अंत में आ गया बुढ़ापा, शरीर थक गया, बूढ़ा जानकर परिवार के लोग कुछ फिक्र भी नहीं करते, कुछ हमारे कर सकने लायक तो रहा नहीं, अब उसकी कौन खबर रक्खे । जिंदगी भर आराम की मंशा से बड़े-बड़े श्रम किये, बहुत धन जोड़ा, सब कुछ किया पर अंतिम स्थिति ऐसी आती है प्राकृतिक कि वह प्राय: कष्ट के लिए होती है । कोई धनी हो और वह बूढ़ा हो जाय, रोगी हो जाय, तो उसका वह धन उसके प्राणघात के लिये होता है । जिसका संबंध उस धन के साथ है या होगा या जिसे अधिकार मिलेगा, वह क्या यह चाहता है कि यह और जिंदा बना रहे । वे ही सारी चीजें उसके लिये अनर्थ के कारण होती हैं, पर व्यामोही पुरुष इस घात में लगा रहता है कि जितना अधिक संचय हो जाय, जितना अधिक जोड़ ले, जितनी बड़ी अपनी शान बन जाय, हम सबसे बड़े धनपति पुरुष हैं, जितनी बड़ी इज्जत धन के कारण हो सके कर लें, यों विकल्प रहता है । यह नहीं सूझता कि आखिर वह कल्पित सुख सबकी सब इकट्ठी कसर निकाल लेगा, एकदम महान् कष्ट का कारण बनेगा ।
फुट्टू देवी ऊँट पुजारी –भैया ! सब कष्टों का कारण शरीर में आत्मबुद्धि करना है, लोग मुझे समझें कि ये बहुत बड़े पुरुष हैं । किन लोगों में यह चाहा जा रहा है ? जो मोही हैं, मलिन हैं, अज्ञानी हैं, जिनको अपनी भी सुध-बुध नहीं हैं, ऐसे लोगों में मेरा नाम फैले यह सोचा जा रहा है । ऐसे पुरुषों में नाम फैलने की बात वही सोच सकता है जो खुद मलिन है, मोही है, शरीर को ही आत्मा मानता है । सो वहाँ जैसे एक कहावत है कि ‘फुट्टू देवी ऊँट पुजारी’ ऐसी हालत हो रही है । किसी जगह पर एक फूटा पत्थर पड़ा हुआ था, वह बन गया देवता और उसके पूजने वाले ऊँट बन गये । ऐसा हाल इन मोही-मोहियों का है, किनमें नाम चाहते हैं ? ये मोही मोहियों में ही नाम चाहते हैं । मेरा नाम हो, इसमें ‘मेरा’ शब्द कहने से किसको लक्ष्य में लिया है ? इस शरीर को, यदि इस चैतन्यस्वरूप आत्मा को लक्ष्य में लिया होता कि इस मेरे का नाम हो तो वह नाम की बात न सोचकर यों सोचता कि मेरा शुद्ध विकास प्रभु के ज्ञान में दीखा हुआ हो ।संक्लेश का मूल कारण अभेदाभ्यास –यह अज्ञानी जीव तीव्र मोह के उदयवश इस शरीर को ही आत्मा समझ लेता है । जब शरीर संबंधी स्त्री-पुत्र, मित्रादिक इन पर पदार्थों को मानता है कि ये मेरे हैं, तो जब उनके मरण का समय आता है तो अपना नाश समझ लेता है―हाय मैं मरा, हाय मैं मिटा ! और उस काल में अपने मित्र का वियोग देखता है, जिससेबड़ी सलाहें ली, जिसको अपने प्राणों की तरह देखा, जिसमें बड़ा खुलकर, गुप्त रहकर सब प्रकार का व्यवहार किया, ऐसे पुरुष जब छूट रहे हैं, उनको छोड़कर जब यह जा रहा है तो उस समय इसे बड़ा क्लेश होता है । ये सारे क्लेश तब न हों जब अपने जीवन में इन सब पर पदार्थों से मैं भिन्न हूँ, ऐसी अपनी भिन्नता का अभ्यास किया होता और किसी भी अवस्था में राग-द्वेष न करने का यत्न किया होता, ध्यान बनाया होता तो उनके मरणकाल में क्लेश न होता ।भेदविज्ञान से ही क्लेशविनाश की संभवता –सभी जीव जो जन्मते हैं, वे मरते अवश्य हैं । जिनके आयु का उदय है, उनकी आयु का क्षय अवश्य होगा । आयु के क्षय के बाद आयु का उदय मिले या न मिले, दोनों ही बातें संभव हैं, जैसे 14वें गुणस्थान के अंत में आयु का क्षय हो ही जाता है, उसके बाद फिर आयु का उदय नहीं मिलता है, सिद्ध हो जाता है तो यह संभव है कि आयु के क्षय के बाद नवीन आयु न मिले पर आयु, पर आयु मिली है आयु का उदय है तो उसके बाद आयु का क्षय अवश्य होगा । अब सुख, साता, आनंद तो भेदविज्ञान में है ही, इस जीवन में ही भेद विज्ञान करें, धनसंपदा से मोह न रखें, इसे अपना सर्वस्व न समझें । इसमें मोह-ममता करने से तो बहुत बड़ा ऋण चुकाना पड़ेगा, बड़ा क्लेश होगा । प्रथम तो इस जीवन में ही क्लेश होगा, कभी कुछ मिट गया तो उसे देखकर शोक करना होगा । और मरण-समय पर तो बड़े क्लेश का अवसर ही आ गया समझिये, सबकुछ एकदम छूटता दीख रहा है ।
प्राकरणिक शिक्षा –इस वार्ता से हमें क्या शिक्षा लेनी है कि हम अपने जीवन में इस बात का भेदाभ्यास बनायें कि मेरा आत्मा इस शरीर से भी न्यारा है, अन्य पदार्थों से तो न्यारा अपने आप ही बहुत पहिले है, चेतन और अचेतन ये समस्त समागम मेरे सुख के लिये नहीं हो सकते, जब ये मिले हैं तब भी सुख के लिए नहीं हैं । वियोग होने पर तो दुःख का आखिरी विस्तार हो जाता है पर जितने काल ये मिले हैं, उतने काल भी इनसे सुख नहीं है । स्त्री, पुत्र, वैभव, कुछ हो किसी से सुख नहीं है ।स्त्री समागम में क्लेश –स्त्री यदि कुरूपा है तो उसके कुरूपपने को देखकर यह सदा मन में जुगुप्सा बनाये रहता है और दुःखी रहता है । स्त्री यदि सुरूपा है तो नाना प्रकार की शंंकाएँ यह पुरुष मन में रखता है और व्यर्थ का ही कुछ भ्रम बनाये रहता है जिससे चित्त में अशांति बनी रहती है । स्त्री यदि आज्ञाकारिणी नहीं है तो उसका कष्ट भोगता है और यदिआज्ञाकारिणी है तो उसमें भी अधिक कष्ट भोगता है, फिर तो जगह-जगह अपनी स्त्री के गुण गाने पड़ते हैं, मेरी जैसी स्त्री दुनिया में कहीं नहीं हो सकती । ऐसा ही सभी लोग प्राय: सोचते रहते हैं । कितना कष्ट है – सुंदर समागम मिले तो उसका कष्ट और अमनोज्ञ समागम मिले तो उसका कष्ट ।पुत्रादिसमागम में क्लेश –स्त्री ही क्या, पुत्र की भी यही बात है । भला पुत्र हो तो क्या हुआ? तत्संबंधी राग की वासना जो चित्त में बनी रहती है उसकी मुदी चोट से इसे निरंतर पिसना पड़ता है और फिर अच्छे पुत्र के होने से जो मन में राग बसाया है, उस रागभाव की पकड़ के कारण इसको आत्मानुभव का अवकाश नहीं मिलता है । शुद्ध आनंद जिस स्थिति में है, जिस अनुभूति में है उस स्थिति के इसे दर्शन भी नहीं होते हैं, तो कौन-सा पदार्थ ऐसा है जो इस जीव के लिए सुख का कारण हो, किंतु यह मोही शरीर को भी अपना मानता है और बाह्य चेतन-अचेतन को भी अपना समझता है और इसी कारण अंतिम समय में इसे बड़े क्लेश भोगने पड़ते हैं ।कोढ़ में खाज –देखो भैया ! जिंदगी भर तो धर्म किया, जिंदगी भर श्रम किया, दान किया, दया की, परोपकार किया, नाम कमाया, वह सारा का सारा यश का सुख मरणकाल में इसकी कसर निकाल रहा है । यहाँ संक्लेश होता है मरण में । प्रथम तो जब यह जीव इस शरीर से निकलने को होता है, तो यह बताते हैं कि जैसे चाँदी का तार खींचने का यंत्र जिसे गती कहते हैं, होता है ना, उससे जैसे तार खींचा जाता है तो उस तार पर क्या गुजरती है, जो गुजरती है वह उसी पर गुजरती है, वह तो अचेतन है अनुभव नहीं करता है पर इस ही भाँति इस शरीर से जब जीव निकलता है तो उतने कष्ट पूर्वक निकलता है । प्रथम तो वह ही एक समस्या है फिर दूसरी बात शरीर को मान लिया है कि यह मैं आत्मा हूँ तो दुःख सहस्रगुणा हो जाता है । जिसके यह विवेक जग रहा हो कि यह शरीर शरीर है, यह मैं आत्मा हूँ, ये तो दो पदार्थ पहिले से ही थे, यह मैं अमर हूँ । यह मैं निकल रहा हूँ, पर अपने स्वरूप में बराबर बना हुआ हूँ ऐसी जिसकी बुद्धि हुई मरणकाल का कष्ट उसके अत्यंत हल्का हो जाता है, पर मरण का भी कष्ट है और साथ ही शरीर में आत्मबुद्धि भी बनी है तो जैसे एक कहावत है कि कोढ़ में खाज; पहिले तो क्लेश था कोढ़ का, अब उसी जगह खुजली भी हो गयी । तो शरीर से जीव के निकलने में बड़ा क्लेश है और ऐसे शरीर में आत्मबुद्धि हो गयी तो उसका कष्ट सहस्रगुणा हो गया ।मरणकाल में फोकट तृतीय कारण –मरणकाल में यह उद्दंड जीव फोकट की तीसरी बात यह भी देख रहा है, सोच रहा है कि मैंने अपने जीवन में कैसे कष्ट उठा कर लाखों का धन जोड़कर रखा था, कैसे कैसे लोगों को सताकर अपने आपके आराम को भी बरबाद करके यह इतना धन, वैभव, संपदा जोड़ रक्खीथी, अब यह सारा का सारा छूट रहा है, तीसरी बात यह देख रहा है । तो ये 3 प्रकार के कष्ट एकसाथ मरण के समय पर आ जाते हैं और यह अज्ञानी जीव मरण के समय में दुःखी हो जाता है ।मरणभयहारी चिंतन –भैया ! जब मरण के सब फंदे आ पड़ते हैं तब कर्तव्य क्या है ? मरण तो सब पर आयगा कि सारा का सारा छोड़कर जाना पड़ेगा ना, तो अभी से संभल जायें और अपना कर्तव्य परखें तो समझो कि कुछ अपनी भलाई है, सम्हालना क्या है ? वही एक बात करलो। क्या ? भेदविज्ञान । अपने स्वरूप की दृष्टि कर लो, यदि विज्ञान प्रबल होगा तो क्लेश नहीं हो सकता है । यह ज्ञानी तो यह समझ ही रहा है कि आनंदस्वरूप ही मेरा है । मैं कहाँ किसी पर से आनंद की आशा लगाऊँ, किसी पर से मुझे आनंद नहीं मिलता, न मिला है और न मिल सकेगा । आनंद तो मेरा स्वरूप ही है । मैं ही अपने आनंदस्वरूप को भूलकर बाहरी क्षेत्र में उपयोग लगाता हूँ तो दुःखी हो जाता हूँ । मुझे बाहर जानने से कुछ काम नहीं पड़ा है । बाह्य निमित्त से मेरे ज्ञान का विराम भी नहीं होता है । मैं स्वयं ज्ञानमय हूँ । जब अपने ज्ञानस्वरूप को जानूँ तो ज्ञान का उसमें विकासहै । ऐसा में स्वत:सिद्ध सनातन चेतन हूँ । मरण ही कहाँ है ?
आत्मा के मरण का अनवकाश –प्राणों के वियोग का नाम मरण है । मेरे प्राण हैं ज्ञान और दर्शन । पदार्थ का जो अभिन्न स्वरूप है जिसके मिट जाने पर पदार्थ मिट जायगा, उसको प्राण कहा करते हैं जैसे अग्नि का प्राण है गरमी । गरमी न रह जाय तो अग्नि मिट जाया करती है, ऐसे ही मुझ आत्मा का प्राण है ज्ञान-दर्शन । स्वभाव मेरे में से निकल जायगा तो मेरे प्राण न रहेंगे । मेरे प्राण हैं ज्ञान और दर्शन । ये प्राण मेरे से त्रिकाल भी दूर नहीं हो सकते । वह ही मेरा स्वरूप है । तब फिर मरण क्या चीज है ? यह ज्ञानी पुरुष तो निशंंक रहता हुआ अपने आपमें अपने ज्ञानानंद स्वरूप को अनुभवता हुआ एक चिन्मात्र के अनुभवरूप ही परिणमता रहता है । ये शारीरिकक्लेश अज्ञानी को लगते हैं, ज्ञानी ने अमृत पान किया है उसको कोई कष्ट न होगा और उसका कभी विनाश न होगा । अमृत है ज्ञान । जो न मरे उसे अमृत कहते हैं न ‘मृतं इति अमृतम्’ ऐसा कौन सा तत्त्व है जो मरता नहीं है, जगत में जो कुछ दिख रहा है, फूल हो, फल हो या कोई पानक हो ये सब मायारूप हैं, मिट जाने वाली चीजें हैं, जो मिट सकते हैं, मिट जाते हैं वे दूसरे को अमर कैसे करेंगे ? अमृत तो ज्ञानस्वभाव है, स्वभाव कभी नहीं मरता है, इस अमृत अमर ज्ञानस्वभाव का जो ज्ञान द्वारा रसपान करता है वह अमर है, अभी भी अमर है, शरीर से न्यारा हो रहा है, किंतु वह अमर है, क्योंकि उसकी दृष्टि में अमर हूँ, ऐसा भली भाँति समाया है ।
अविवेक और विवेक में लाभ व अलाभ –यह अज्ञानी जिस शरीरादिक में आत्म-बुद्धि की दृढ़ता ला रहा है, यह मैं हूँ और जब कल्पना में कुछ दूसरा बन गया है सो शरीर के पाने को अपना जन्म समझता है और शरीर से जुदा होने को मरण समझता है । ‘तन उपजत अपनी उपज जान, तन नसत आपको नाश मान ।’ इस कुबुद्धि से धैर्य सब खो दिया, अत: अधीरतापूर्वक उसने समय गुजारा है तथा मरणकाल आने पर बहुत से बंध करके अगले भव में खोटी गति पाकर दुःखी रहता है । सबका इलाज है एक―भेदविज्ञान करना―यह मैं ज्ञानमात्र हूँ, ऐसे ही लक्ष्य पर जम जावें, वही दृष्टि में रहे, इसके अतिरिक्त अन्य सब समागमों को भिन्न, अहित, मायामय समझो तो जीवन सुख से परिपूर्ण रहेगा और मरणकाल में भी न कोई भय होगा और न कोई शंका रहेगी ।