वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 100
From जैनकोष
ग्लपितनिर्भरमोहरजा अयं स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लव: ॥100॥
831- नकली असली व आंतरिक नाटक- अब जो कि कर्म शुभ और अशुभ के भेद से दोपने को प्राप्त हो गया था उसको एक ही रूप करता हुआ अर्थात् एक ही श्रेणी में करता हुआ अब ज्ञानामृत का प्रवाह प्रकट होता है, जो इस मोहभाव को दूर कर देता है। इस कलश में अथ शब्द कहने से कितनी ही स्फूर्तियाँ आती हैं। इससे पहले जो नाटक देख रहा था यह मानव चलने फिरने, लड़ने-झगड़ने, आदिक का, वह जानता था कि यह सब इसका असली नाटक चल रहा है और जो उसकी फिल्म उतार ली जाती है रील में तो वह उसका नकली नाटक हो गया, लेकिन लोगों की दृष्टि, लोगों की उमंग नकली नाटक पर विशेष रहती है, असली नाटक जो रात दिन के 24 घंटे में गुजर रहा उसको देखने की उमंग नहीं जगती है। तो जैसे ये दो प्रकार के नाटक हैं- असली नाटक और नकली नाटक, ऐसे ही इन दोनों प्रकार के नाटकों से परे एक तीसरा नाटक जो अपने ही आत्मप्रदेशों में चल रहा है, उसकी तो यह जीव कुछ खबर ही नहीं रखता। 832- जीव के नाटक की भूमिका-
पहिले तो जीव अजीव का परिचय किया था, फिर नाटक शुरू किया गया। तो कर्ता कर्म के भेष में नाटक चल रहा था। यह जीव कर्ता के भेष में आया और ये पौद्गलिक कर्मवर्गणायें कर्म के भेष में आयीं तो आवो, दो ने अपना भेष बनाया, मगर यह अज्ञानी कर्ता अपने को अलग नहीं समझता था। यह कर्म मेरा है ऐसा ही मानता रहा, तो उन दोनों का परस्पर संबंध हो गया कर्ता और कर्म। कर्ता कौन बना था? कर्ता वह जीव था जिसने अपने उपयोग में छाये हुए, प्रतिबिंबित हुए कर्मरस को जुदा नहीं जाना और उसे आत्मारूप से अनुभव किया और आत्मारूप से अनुभव करने के कारण उसके अनुकूल अपनी क्रिया बनी। कौन है कर्ता? जिसने अपने अंदर में उन दो का भेद नहीं समझा- जीव और कर्म, जीव और पुद्गल और उस कर्मपुद्गल का रस विपाक जो इसके उपयोग में प्रतिफलित हो गया उसी को अपनाकर रह गया, यह ही मैं बड़ा अच्छा, इसी में ही प्रीति जग गई, अपने स्वरूप में रुचि तो नहीं हुई, किंतु अपने में जो कर्मरस झलका उसमें रुचि जगी। ऐसे जीव कितने हैं? अनंतानंत। उन्हें अपनी खबर ही नहीं कि मैं वास्तव में कुछ हूँ। जो निरंतर बाहरी साधनों पर दृष्टि रहती है, यह मकान, वैभव, इज्जत, कुटुंब और बाहर ही बाहर उपयोग चलता है और वहाँ ही इष्ट अनिष्ट लगा करता है, यह सब भीतर के अपराध का फल है।
833- कर्मलीला के प्रसंग की रुचि छोड़कर भागवती स्वानुभूति की उपासना में भलाई-
मोही ने यहाँ भेद नहीं कर पाया कि मैं तो यह चैतन्यरस मात्र हूँ और यह सब जो झलक रहा है क्रोध, मान, माया, लोभ, इच्छा, यह सब कर्मरस की छाया है, कर्मलीला है, इसमें बढने से तो मैं बरबाद ही होता हूँ। जो इनमें नहीं पड़े वे बने भगवान। भगवान की भक्ति करें और उस समय में इतना ध्यान रखें कि प्रभु ने इस कर्मलीला से अपने को निराला समझ लिया था और उसकी बिल्कुल उपेक्षा कर दी थी तो यह भगवान बने। मैं ऐसा नहीं कर पा रहा था, संसार में चल रहा था, अब मैं करूँगा यह ही। दूसरा काम मेरे करने को इस जीवन में क्या है? इन सारे अनंत कालों में भी कुछ नहीं है। इस आत्मोद्धार के काम के सिवाय बाकी सब काम जो जीवन में किए जाते हैं व्यर्थ हैं, इस जीवन में करने का एक यह ही काम है कि अपना असली स्वरूप जानकर वहाँ ही रुचि करूँ, मरकर किसी दूसरी जगह जन्म पाऊँगा तो वहाँ भी वास्तव में करने का यह ही काम है, दूसरा काम मेरे करने के लिए है ही नहीं। बड़ा संकट है इस जीव पर। जो एक व्यर्थ का अध्यवसान बन गया, लगाव बन बैठा।मकान, दूकान, धन वैभव परिवार गोष्ठी, ये मेरे हैं इस तरह का जो लगाव बना भीतर में, चित्त में यह तो एक विकट विपत्ति है। जो लोग इस दुर्गा की उपासना न करें वे बड़ी भारी विपत्ति में हैं। दुर्गा के मायने है स्वानुभूति। दुर्गा नाम की देवी कोई अलग नहीं। जो बड़ी कठिनाई से पाई जाय वह है दुर्गा। अपने आपमें वह शक्ति है जो स्वानुभव में जगने वाली शक्ति है। वह इन कर्म शत्रुओं का विध्वंस कर देती है। वह शक्ति है स्वानुभूति। ज्ञान की ओरसे देखो तो यह सरस्वती है, और इसका फल क्या हो रहा। कषायों का विध्वंस बन जाता। उसकी ओरसे देखो तो यह ही स्वानुभूति महाकाली है, लेकिन अनेक संन्यासी शक्ति के रूप में दुर्गा की उपासना करते हैं, अरे वह है कहां। क्या चीज है? अपने आत्मतत्त्व को पहिचानें तो इसमें ही वह शक्ति है, बस वही उपासना के योग्य है और उसकी उपासना में ज्ञानविकास होता है, कर्म का विध्वंस होता है। ज्ञानविकास की ओरसे देखें तो यह स्वानुभूति सरस्वती है और कर्मविध्वंस की ओरसे देखें तो यह स्वानुभूति काली है। तो यह स्वानुभूति कैसे प्राप्त हो, इसका उद्यम करें, बाकी तो जो कुछ मिला है, जो पुण्यबंध हुआ उसका फल है। कमाने से क्या मिलता? आपके विशुद्ध परिणामों का फल है कि ये सब चीजें प्राप्त हुई।
848- बहुरूपिया के मूलरूप की पहिचान में बहुरूपियापन का नि:सरण- हां जो नाटक चलरहा था, जिस नाटक में अटकने से स्वानुभूति नहीं हो पा रही थी उस नाटक का वर्णन इससे पहले कर्ता कर्म अधिकार में किया गया। इस जीव ने अभी तक यह प्रतीति नहीं रखी कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ मेरे में ज्ञान (जानन) परिणमन होता रहता है, बस मैं जानता हूँ, यह तो प्रतीति मैं नहीं लाया यह जीव और मैं करता हूँ, इस पर पदार्थ पर करता हूँ, अमुक को करता हूँ, ऐसा करने का विकल्प करता है। तो इस बहुरूपियों को पहचान लिया गया, जैसे कर्मवर्गणायें तो एक शुद्ध पुद्गल के रूप में है। जहाँ जीव के शुभ अशुभ भाव का निमित्त पाया वहाँ वे कर्म बन बैठे। कर्म बने, यह बहुरूपियापन हो गया। यह जीव तो विशुद्ध चित् प्रतिभास मात्र है स्वरूपत:, मगर कर्मरस से यह जीव आकर्षित हो गया तो यह नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव इन सब रूपों को धारण कर रहा है, इस कारण यह मोही अज्ञानी जीव बहुरूपिया बन गया। जब इसने पहचान लिया कि यह तो असल में यह है तो जैसे जब कोई बहुरूपिया आपकी दूकान पर आफीसर या पोस्टमैन वगैरह कुछ बनकर आता है और आप उसे पहिचानकर कह देते कि आप तो अमुकलाल हैं तो झट वह वहाँ से आगे बढ़ जाता, वह जानता है कि यहाँ से मुझे कुछ मिलने का नहीं है, इसने मेरी पोल जान ली है, वह अब शिथिल हो गया क्योंकि उसके बहुरूपियापन का अहंकार रहा नहीं, तो जिसने रूप धारण किया वह उस रूप की ओरसे ही शान के साथ बात कर सकता। वह ताकत तो उसमें अब रही नहीं इससे वह भाग जाता है। बस यह ही बात तो इस कर्ता कर्म की हुई। जब ज्ञानी पुरुष ने जान लिया कि यह चित् तो चित् ही है, चित्प्रतिभासमात्र है और ये ये कर्म कार्माणवर्गणा जाति के पुद्गल स्कंध हैं, जब उन बहुरूपियों की असली मूल स्थिति जान ली तोये कर्ता कर्म भेष छोड़कर इस रंगभूमि से निकल भागते हैं। अब उसके बाद क्या होगा? उसका जिक्र चल रहा है। वे दो आपस में पार्ट अदा कर रहे थे एक दूसरे के प्रति- अज्ञानी जीव और पौद्गलिक कर्म और परस्पर व्यवहार चल रहा था और एक दूसरे के निमित्त से अपनी अपनी लीला का बढ़ावा दे रहे थे, लेकिन यह पार्ट से निकल गया, खेल हो गया। 835- एक के दो भेषों में एकता के परिचय के प्रभाव की सूचना-
अब दो का तो परस्पर का नाटक उठ गया सो सिलसिला में वह एक पौद्गलिक कर्म अब वही शुभ और अशुभ के भेष में इस रंगभूमि में आता है अपना नाटक दिखाने के लिए, यह भी भेष है, इसे भी पहिचान लेगा ज्ञानी और अब जान लिया तो यह भी भेष न रहेगा, पर ये कर्म अब शुभकर्म, अशुभकर्म, पुण्यकर्म, पापकर्म ऐसे दो रूप रखकर आये। इसका वर्णन इस अधिकार में आयगा कि कैसे ये दो हैं और कैसे ये एक हैं? इस कलश में यह बतला रहे कि यों पुण्यकर्म, पापकर्म इन रूपों में आया यह दो बनकर, मगर जब एक ज्ञान का प्रवाह चला, भीतर से ज्ञान का एक प्रकाश फैला, प्रवाह चला तो उस प्रवाह मेंमोहरज दूर हो गई। तब यह सम्यक् ज्ञान प्रकट हो गया कि ये दोनों एक है- पुण्यकर्म और पापकर्म, ये दो मूल से कोई भिन्न-भिन्न दो व्यक्ति नहीं हैं, दो पदार्थ नहीं है किंतु वे तब एक पौद्गलिक कर्म ही तो है। इस तरह पुण्यकर्म और पापकर्म में दोनों को एकता से देखते हुए अब ज्ञान प्रकट हुआ है। यह एक सूचना रूप कलश है।