वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 101
From जैनकोष
एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमाना-
दन्य: शूद्र: स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव । द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकाया: शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण ॥101॥
836- भ्रमवश एक ही के दो रूपों की मान्यता-
ये पौद्गलिक कर्मवर्गणायें रूप, रस, गंध, स्पर्श वाली हैं, तो यह मूल में है एक ही कर्म, इसके जो दो रूप बन गए, पुण्यकर्म और पापकर्म उसका आधार भ्रम है। और बन कोई कैसे गए? जीव के विभाव का निमित्त पाकर बन गए तो इस दृष्टि से यों समझिये कि ये जीव के विभाव से उत्पन्न हुए हैं पुण्य और पाप, शुभ और अशुभ विभाव। कुछ अच्छा राग जगे उपकार का, दया का, भक्ति का, त्याग का, दान का, तो उससे तो उपजा पुण्यकर्म, उपादान दृष्टि से तो पौद्गलिक कार्माणवर्गणायें है, ये सब बातें पर के विसम्वाद में होती हैं, परसन्निधान बिना नहीं हुआ करती हैं। और, जो अशुभ राग हुआ, व्यसन, पापभाव, उसका सन्निधान पाकर पापकर्म उत्पन्न हुआ। तो पुण्यरूप और पापरूप दो प्रकार का यह भाव आया। तो पुण्यकर्म में पुण्य जैसी ही बात चल रही है, और पापकर्म में पाप जैसी बात चल रही है, मगर ये दोनों उपादानतया एक स्वरूप हैं और निमित्त दृष्टि से विभाव से उत्पन्न हुए हैं, ये दो है कहाँ? इसके लिए दृष्टांत दिया जा रहा है।
837- भ्रमवश एक ही जाति के विभिन्न आचरण का उदाहरणपूर्वक आख्यान-
एक उदाहरण देते हैं मानो कोई शूद्री चंडालिनी एक तुच्छ वंश वाली उसके एक साथ दो बच्चे उत्पन्न हुए। किसी गरीबी के कारण या कोई अन्याय के कारण। उसने दोनों बच्चों को उत्पन्न होते ही रात को जाकर एक वृक्ष के नीचे रख दिया और ढक दिया,अपने घर चली आई। सबेरा हुआ, लोगों का आवागमन शुरू हुआ तो सबसे पहले वहाँ से एक ब्राह्मण निकला। उसने उन दोनों बालकों को पेड़ के नीचे लेटा हुआ पाया, शरीर से वे दोनों बालक सुंदर थे। उसके कोई पुत्र थानहीं सो वह एक बालक को अपने घर उठा ले गया, उसका पालन पोषण किया। दूसरा पुरुष कोई चांडाल (शूद्र) वहाँ से निकला, उसने बालक को वृक्ष के नीचे लेटा हुआ पाया, उसे अपने घर उठा ले गया। उसका पालन पोषण अपने घर किया। दोनों ही बालक बड़े हुए। ब्राह्मण के घर पला हुआ बालक ऐसे वातावरण में पला पुसा था कि वह बीड़ी सिगरेट तक नहीं पीता था, मद्य मांस वगैरह को छूना भी बुरा समझता था, खाने पीने की बात तो दूर रही। आखिर उसका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। वह बालक अपने को ब्राह्मण समझता था। उसका आचरण पवित्र था।उधर चांडाल के घर पले हुए बालक की क्या स्थिति थी कि उसके घर जो आचरण पहिले से ही चला आ रहा था, बीड़ी सिगरेट पीना, मद्य मांस वगैरह खाना पीना, मद्य पीने की तो बात क्या, मद्य से प्रतिदिन स्नान करना....वह अपने को चांडाल समझता था। इस प्रकार से वे दोनों ही बालक भिन्न भिन्न जगहों में पलने पुसने के कारण भिन्न भिन्न प्रकार का अहंकार करते थे, उन दोनों का आचरण, उन दोनों की क्रियायें भिन्न-भिन्न हो गई। ठीक इसी प्रकार से ये पौद्गलिक कर्मवर्गणायें, मूर्तिक हैं। जैसा यह शरीर दिख रहा है, स्थूल है, मूर्तिक है, आँखों दिख रहा ऐसे ही कर्म भी हैं, जो कि सूक्ष्म हैं, मूर्तिक हैं, आत्मा के साथ रहते हैं वे कहलाती हैं कर्म वर्गणायें। सो आत्मा के विभाव का निमित्त पाकर कर्म वर्गणायें विभिन्न आचार प्रकृति वाली पुण्य पाप कर्मरूप बन गई।
838- पुण्य पाप विभावरूप एक होने पर भी अहंकारवश उनकी विधि चेष्टायें-
विभाव क्या चीज कहलाती? याने जीव के ऐसे भाव जो जीव के स्वरूप में नहीं, स्वभाव नहीं, निरपेक्ष नहीं, किंतु पूर्वबद्ध कर्म का कर्मरस उपयोग में झलका, प्रतिफलित हुआ, उस ही में यह मुग्ध हो गया। कोई मुग्ध हो गया तो उस समय अच्छी भी बातें सूझी बुरी भी। व्यसन और पाप के परिणाम भी हुए, और जिसे लोग धर्म कहते हैं- दान, पूजा, प्रतिष्ठा, परोपकार ऐसे भी भाव हुए, ये सब भाव विभाव हैं, स्वभाव नहीं हैं। स्वभाव भाव तो मात्र ज्ञाता द्रष्टा रहना है, चैतन्य स्वरूप मात्र रहना है। चेतना ही चेतना, उसके अतिरिक्त बाकी सब विभाव हैं। देखो इन विभावों से उत्पन्न हुए ये कर्म सब विकृत ही तो हैं और पौद्गलिक कर्म वर्गणाओं का ही तो पुंज है। ये दोनों पुण्यकर्म, पापकर्म ये विभावों से उत्पन्न हुए सो परिणति से ये दोनों एक हैं मगर पुण्यरस में जैसा अहंकार है कि मैं यह हूँ या कुछ भी बात बनती है तो उसमें उस तरह की चेष्टा बनती है। पापरस में दूसरे प्रकार की चेष्टायें बनती हैं, तो ये पुण्य और पाप हैं तो दोनों एक ही रूप, मगर जुदे जुदे रस होने के कारण यह अज्ञानी जीव उनको जुदा जुदा दो रूपों में देख रहा और पुण्य की बड़ी महिमा गा रहा। कहते ना कि इसके बहुत बड़ा पुण्य है, यह बड़ा पुण्यवान जीव है, यों लोग उस पुण्यवान की प्रशंसा करते और जो पुण्य वाला जीव है वह विकल्पों में रह रहा। जो कम जानता है वह व्यक्त रूप में कम विकल्प कर पाता, जो अधिक समझदार बनता है वह बहुत-बहुत विकल्पों को व्यक्त कर रहा है, ये सब बातें देखते तो जाते ना? देखो छोटे लोगों के (किसानों के, मजदूरों के) हार्टफैल बहुत कम सुने जाते हैं और बड़ेबड़े अधिकारियों के, बड़ेबड़े धनिकों के हार्टफैल बहुत अधिक देखे जाते हैं। ये लोग विकल्प अधिक करते हैं इसलिए इनके हार्टफैल हो जाते हैं, और जो गरीब हैं, मजदूर है, खुश रहते, गाते हैं, कुछ चिंता नहीं, शल्य नहीं। हालांकि शल्य सब जगह है, अज्ञान सब जगह है, पर लौकिक हिसाब से जो कुछ बात देखी जा रही है उस रूप की बात कह रहे, उसके हार्टफैल होते, तो पुण्य से कौनसा बढ़ावा मिल गया और पाप मेंपुण्य की अपेक्षा से बिगाड़ क्या बना? बिगाड़ है पाप में अधिक, पाप के फल में दुर्गति होती है मगर पुण्य भी तो दुर्गति दिलायेगा। पुण्य का उदय आया तो उससे किया अन्याय, आपे में न रहे, वैभव पाकर इतरा रहे तो परंपरया ये भी तो दुर्गति में जायगा।
839- पुण्यकर्म व पापकर्म दोनों की दु:खरूपता के परिचय में विभेष का नि:सरण-
पुण्य तो भला तब माना गया जब कि पुण्य विपाक में अच्छे प्रसंग मिलें, और उनमें धर्म की ओर रुचि बने, धर्म का प्रभाव बने, इस कारण पुण्य को ठीक कहा जाता है, पर परमार्थ से पुण्य और पाप ये दोनों बेड़ियां ही तो हैं। अगर किसी को सज़ा दे दी जाय तो उसे चाहे सोने की बेड़ी पहना दी जाय, चाहे लोहे की पहना दी जाय, पर आखिर बेड़ी तो बेड़ी ही है। बताओ कैदी को सोने की बेड़ी से कुछ फायदा है। बंधन परतंत्रता के लिये तो दोनों ही बेड़ी बराबर हैं। तो ऐसे ही यह पौद्गलिक कर्म जो दो भेष लेकर यहाँ उपस्थित हुआ है और इस दर्शनमोही जगत को अपनी लीलायें बताता है, जिससे दर्शक लोग पुण्य की ओरआकर्षित होते हैं और पाप को जान तो लेते हैं, छोड़ न सकें वह बात अलग है, मगर चित्त में एक बार तो आ ही जाता है कि यह पाप है, यह मेरे लिए भला नहीं है, ऐसे जो दो रूप आये कार्माणवर्गणाओं में, ज्ञानी उन दोनों को एक रूप समझ रहा। ये सब संसार के कारण हैं। ये सब जन्ममरण की बातें हैं। यहाँ ही सुख दु:ख पाने की बातें हैं, ये सब बेकार हैं, विडंबनायें हैं, मेरा आनंद तो आत्मा के उत्थान में है, आत्मा का स्वभाव है आनंद। इस सहज स्वभाव का आश्रय नहीं है इस कारण ये पाप अधिक रुला रहे हैं, मैं इस सहज स्वभाव का आश्रय करूँ तो जैसे सहज स्वभाव की पहिचान में कर्ताकर्म भेष छोड़कर वे दोनों निकल गए थे ऐसे ही मैं स्वभाव की रुचि करूँ तो पुण्य पाप के भेष में वे कर्म भी भेष छोड़कर निकल जायेंगे। कर्म नष्ट न होगा। वह तो भेष छोड़कर निकल जायगा। जीव और पुद्गल नष्ट न होंगे, वे तो भेष छोड़कर निकल जायेंगे। जैसे नाटक में पार्ट अदा करने वाला लड़का कहीं पार्ट अदा करने के बाद मर तो न जायगा, वह तो अपना पार्ट छोड़कर, भेष बदलकर चला जायगा ऐसे ही ये कर्म भी अपना भेष बदलकर, छोड़कर निकल जायेंगे।