वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 104
From जैनकोष
प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनय: संत्यशरणा: । तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं स्वयं विंदंत्येते परमममृतं तत्र निरता: ॥104॥
887- समस्त कर्म से रहित अंतस्तत्त्व की साधना के प्रयोग की शिक्षा-
समयप्राभृत ग्रंथ श्री कुंदकुंदाचार्य द्वारा रचित है, एक मुनि द्वारा रचित है और मुख्यतया मुनियों के संबोधन और साधना के लिए रचित है फिर भी जैसे जो बड़े लोगों के लिए काम होता है उसमें छोटे लोगों का भी प्रयोजन बनता है। तो सर्वसाधारण को भी इससे लाभ मिलता है। जब इस दृष्टि से देखेंगे तो ऐसा समझ में आयगा कि जैसे इसे केवल प्रयोगात्मक विधि से चलने के लिए कहा गया हो। जैसे समयसार की अंतिम गाथाओं में एक मुनिलिंग के लिए लतार सी दी है, अनेक प्रकार से समझाया है कि यह मुनिलिंग त्याग दो।...तो यह किसके लिए कहा? गृहस्थों को नहीं कहा, जो मुनिजन हैं उनकी बात चल रही है, उनको संबोधित किया है, इस तरह से काम न चलेगा। तुम वहाँ से उपेक्षा करो और अपने स्वरूप में आवो, आत्मसंयम प्राप्त करो। यह तो उनका साधन है, नि:शल्य निश्चिंत विधि से परमार्थसंयम में लग सकें एतदर्थ गुजारा करने का बाह्य साधन है निर्ग्रंथ भेष। जीवन का गुजारा चलाना है ना, इसी से तो संबंध है कि किस तरह से गुजारे की विधि रखें कि चिंता न हो, शल्य न हो। अधिकाधिक अध्यात्मभावना बने, यह ही तो है मुनिलिंग का प्रयोजन और ऐसा होता ही नहीं कि जो द्रव्यसंयम में न गुजरकर मात्र भावसंयम में बढ़कर मुक्त हो सके, जो भी मुक्त हुए वे निर्ग्रंथ लिंग से मुक्त हुये। पर कोई ऐसी दृष्टि रखे कि मैं मुनि हूँ, मुझे ऐसे चलना चाहिए...और की तो बात क्या, अगर कोई शत्रु कोल्हू में पेले तो भी उस पर रंच विरोध न रखना, मैं साधु हूँ, मुझे विरोध न रखना चाहिए, ऐसी समता भी बनी है तो भी वहाँ मिथ्यात्व का अंश संभव है। मैं मुनि हूँ। अरे मैं तो दर्शनज्ञान स्वरूप एक चिदानंद पदार्थ हूँ, यह प्रतीति में न रहे जिस भाव में और प्रतीति में बसा यह है कि मैं मुनि हूँ, मुझे ये सब काम इस-इस तरह से करने चाहिए तो दृष्टि की परीक्षा करो, कहाँ दृष्टि लगी है? पर्याय में दृष्टि है सो अनर्थ बनेगा इस तरह मुनिजनों को समझाया तो उसी प्रसंग की बात यहाँ इस गाथा में भी है। सबने सुना, हाँ सभी प्रकार के पुण्यकर्म और पापकर्म ये निषेध्य है। सामने आत्मा का स्वरूप जो सहज आनंदमय है अनादिसिद्ध है, अंत: प्रकाशमान है उस स्वरूप में कष्ट का विकार का नाम नहीं, जो है सो जानना। ऐसी तो एक इच्छा भी होती है सबकी कि जो सही है उसको समझना। तो यहाँ सही के मायने है जो अपने आप है, स्वयं है, स्वत: सिद्ध है, बस वह वही है और उसकी ही प्रतीति बने कि मैं यह हूँ।
888- आत्मसाधना के प्रयोग में समस्त कर्मों का निषेध-
देखिये बात में तो बात चलती है और प्रयोग में उस ही प्रकार की बात बनती है।गप्प से काम नहीं चलता, किंतु भीतर से एक ऐसी लगन हो और ऐसी एक करुणा हो कि मुझे अन्य बात से कुछ प्रयोजन नहीं, मुझे तो संसारचक्र से निवृत्त होना है, अथवा यह बात क्या? जो स्वरूप है जान गए बस उस ही रूप रहना, ऐसी जिसके मन में एक भावना बनी ऐसा पुरुष जानता है कि अपने स्वरूप की ओर रहना यह तो है सारभूत बात और इससे अतिरिक्त क्या है ! विकार, कोई प्रकार के रागद्वेष के संबंध रखने वाले परिणाम। वे सबके सब मेरे नहीं, मेरे हित के नहीं। मेरे को उनसे प्रयोजन नहीं, मैंने तो एक सहज आनंदधाम निरखा अपने आपके अंदर, बस जान गए, हो गया, वहाँ ही हमारा निवास हो, अन्य से प्रयोजन नहीं। ऐसा जिसने निर्णय किया, मायने पुण्य पाप, शुभ अशुभ सभी प्रकार के ये तो सभी भाव स्वरूपरमण से भिन्न हैं उन सबका इसने प्रतिषेध तो किया अपने भीतर की तैयारी में, पौरुष में। भले ही ऐसे पौरुष से पुण्यरस बढ़ता है, हां यह तो एक प्रसंग की बात है, मगर लक्ष्य जिसका एक स्वरूपरमण की ओरही है, उसने तो समस्त सुकृत और दुरित सबका निषेध कर दिया। निषिद्ध हो गया। वे मोक्ष के हेतु नहीं मोक्ष का हेतु तो ज्ञानाश्रय है, ज्ञान है।
889- समस्त चेष्टावों का निषेध कर नैष्कर्म्य अवस्था में आने वाले मुनिजनों के प्रति अशरणता की एक आशंका-
पुण्यपाप कर्म का जहाँ निषेध हो चुका अब कोई चेष्टा जहाँ नहीं है ऐसी स्थिति जब समझ में आयी तो एक आशंका हुई तो फिर ये मुनिजन करें क्या? इनको कोई सहारा नहीं रहा, आलंबन नहीं रहा, दिन काहे में कटे? क्योंकि अब तो नैष्कर्म्य की वृत्ति हो गई। कुछ नहीं करना, बस स्वरूप को देखना, स्वरूप को देखते रहना, बस जानना देखना, ज्ञाता द्रष्टा रहना, बस यह जानना देखना, ज्ञाता द्रष्टा रहना, बस यह एक स्थिति बताई जा रही है। अभी जंगल में बैठे हैं तो वहाँ कोई उनका साथी है क्या? उनका कोई वहाँ आश्रय नहीं आलंबन नहीं। अच्छा मुनि के बारे में अनेक लोग शंका करें तो ठीक है, वे तो पुरुष हैं, पर यहाँ तो बहुत से लोग सिद्ध भगवान के बारे में भी ऐसी बात छेड़ देते कि सिद्ध हो गए, अब उनका सारा दिन रात कैसे कटता होगा? उनके साथ परिवार नहीं,, दूकान नहीं, वहाँ उनको दूध, चाय वगैरह कुछ धरा नहीं, न बच्चे है, न परिवार है, न लोग हैं, कैसे उनका जी (मन) लगता होगा? अपने जी (मन) से तुलना करने की प्रकृति होती है प्राय: सभी की। तो जिस जिसने अपने स्वभाव का दर्शन किया उसकी प्रकृति होती है किसी भी जीव को देखकर पहले उनके ही स्वरूप की दृष्टि बनती। यहाँ यह स्वरूप है। तथा घटना में दृश्य ये बातें जब एकदम ही दिख रहीं तो उन्हें कहाँ फेंका जायगा? उनका भी निर्णय करना, अमुक जीव, अमुक जीव, ऐसा भोग, ऐसी स्थिति, यह भी निर्णय रखना, मगर जिसको जो लगन है, आँखेंखोलकर देखने पर बहुत जल्दी वह नजर आयगा। जिसको स्वभावदर्शन हुआ, स्वरूपदर्शन हुआ, अपना अनुभव हुआ और जानन बना स्पष्ट ज्ञानमात्र स्वरूप, तो अन्य जीवों को निरखकर याने जिस तरह संगप्रसंग है, पहले दृष्टि यह ही बनेगी कि यह भी ऐसा ही है। जैसा मेरा स्वरूप है वैसे ही यहाँ ये सब हैं। अच्छा, और जिसको स्वभावदृष्टि नहीं हुई, स्वभावदर्शन नहीं हुआ, भले ही कहने के लिए तो ऐसा है कि खूब उछलकर, नाचकर बड़े हावभाव से उस आत्मतत्त्व की बात की जा सकती, क्योंकि वह तो एक पार्ट है, वह किया जा सकता, ऐसा भी कर रहे दुनिया को भी बता रहे, खुद भी एक मुद्रा बना रहे, पर स्वरूपदर्शन अगर खुद को नहीं हुआ तो चूँकि वह पगा तो मिथ्यात्व में हैं ना, उसको तो अपनी करतूत पर, क्रिया पर अहंभाव है ना, तो ठीक किया, मैं ठीक कर रहा हूँ, बहुत अच्छा हो गया, इस प्रकार का जब भीतर में मिथ्यारूप पड़ा होता तो जगत के जीवों को देखकर पहली दृष्टि तो यह हो जायगी कि ये मोही, अज्ञानी, मूढ़ हैं। हालांकि मिथ्यादृष्टियों का समूह है संसार में, मगर पहले का क्या नजर आये ! केवल दो बातों पर बात कह रहे।जो स्वरूपरमणकरता है उसके जीवों के प्रति सबसे पहले यह प्रकाश आयगा कि बस यही स्वरूप है जो मैं हूँ, पीछे उनके बहुत विरुद्ध घटनायें घटती है उनको निरखकर फिर टिकेगा कैसे उनका भी निर्णय रखना है।
890- सहजपरमात्मतत्त्व के मिलने के अपूर्व आनंद के अनुभव में साधुवों को परमशरण का लाभ- यहाँ बात कही जा रही है कि निष्कर्म साधु का शरण क्या है ऐसी आशंका होगी किसको? जिसको स्वरूपदर्शन और रमण का आनंद नहीं मिला। सिद्ध में जैसे शंका कर ली, उन मोहियों को क्या पता कि आत्मा एक अकेला अपने स्वरूपमात्र है और उसकी तो यह ही स्वच्छ तरंग उछलती हुई निरंतर रहा करती है ज्ञाता मात्र, जो आनंद से परिपूर्ण है बस वही निरंतर चलता रहे, उनको फिर किसी प्रकार से कुछ बदल की आवश्यकता भी नहीं होती। निरंतर ज्ञानानंद अमृत यही झरता रहता है उनमें, तो ऐसे ही जिन्हें पता नहीं है उन मुनिराज का कि वे क्या आखिर जंगल में करते रहते? दिख रहा ऐसा कि जब ऐसी तत्त्व की बात कही गई तो बस नैष्कर्म्य। कुछ नहीं करना। कर नहीं सकते बाहर। बाह्य पदार्थ का कुछ कर नहीं सकते। करने का विचार करें तो वह अध्यवसान है और वह मिथ्या है, कर्मबंध का हेतुभूत है। सारी बातें एक ढंग से चलें तो क्या रहा नैष्कर्म्य? कुछ काम नहीं रहा। तो अशरण हो गए वे, उनको कोई सहारा न रहा ऐसी आशंका विषय साधन में मौज मानने वाले लौकिक जनों को होती है। 891- नैष्कर्म्यप्रवृत्त होने पर ज्ञानीजनों को ज्ञान में ज्ञान की प्रतिचरितता का शरण बताते हुए उक्त आशंका का समाधान-
अब उक्त आशंका का निराकरण करते हैं। जिन्होंने सुकृत दुरित समस्त कर्म तज दिये ऐसे मुनिजन अशरण नहीं हैं। देखिये बात बहुत की जा रही है, उसे अपने पर भी घटित करना चाहिए, क्योंकि जो एक कोई लक्ष्य होता है तत्त्व प्रतिपादन का, वर्णन का तो एक ऊँची विधि से चलता है, यहाँ पर भी साथ-साथ चलना है। इस शिक्षण से शिक्षा लेते रहें कि हमको भी तो ऐसी ही दृष्टि चाहिए ना और इस स्वरूपदर्शन से हमारा भी तो यह ही भाव चाहिये। तो स्थिरता नहीं है मगर हम भी अशरण नहीं। हमारे प्रतीति तो है, उस ओर अभिमुखता तो है। कोई व्यग्रता नहीं हो सकती ज्ञानी को, कि अरे आज कल दिन बहुत बड़े होते, कैसे कांटे दिन? बहुत समय है, चौबीस घंटे कैसे व्यतीत हों? अरे जब उसका यह निर्णय है कि बाहर में करने को कुछ है ही नहीं, भीतर में जो होना सोचल ही रहा है। वहाँ ज्ञान ज्ञानस्वरूप में रम रहा, यह तो सर्वोत्तम शरण है। अब और बात क्या रही? कौनसी आपत्ति है? कौनसी वेदना है, कौनसी बात है जिसमें मैं अशरणता का अनुभव करूँ? कैसी भी आपत्ति आये गृहस्थ को- इष्ट से भी इष्ट गुजर गया, अव्वल तो न गुजरे तो भी आफत और गुजर जाय तो भी आफत, जब तक इष्ट का प्रसंग है तब तक चित्त में वेदना नहीं रहती क्या? जिसे इष्ट माना उसका विकल्प करके वह कष्ट मानता, और वह गुजर जाय तो उसमें भी कष्ट मानता। कभी देखा होगा कि घर में कोई पुरुष बीमार है और जिसके प्रति यह संदेह हो रहा कि पता नहीं यह बचेगा या नहीं। कोई बड़ा कठिन रोग है, जब-जब डाक्टर आता तो अकेले में धीरे से पूछता- बताओ यह सचमुच बचेगा भी कि नहीं? यों वह बड़ी शल्य रखता। मरे के बाद उतनी शल्यनहींरहती जितनी कि जिंदा में। जिंदा में तो बहुत ही व्यग्रता रहती है। मरे के बाद दु:ख तो है मगर जिंदा रहते हुए भी उसके प्रति नाना प्रकार की कल्पनायें चलती थीं- पता नहीं यह जिंदा रहेगा भी या नहीं, पता नहीं इसका क्या होगा...अनेक बातों का शल्य बना रहा करता था। यह तो सब एक कल्पनाओं का जाल है। कल्पनाओं से दु:ख हो रहा। कल्पनायें तज दें, ज्ञानस्वरूप में रमें यही सच्चा शरण है।
892- सहजानंदस्वरूप परमात्मतत्त्व की भक्ति के प्रयोग में कुछ स्थितियों का दिग्दर्शन-
वस्तुत: दु:खी यहाँ एक भी नहीं। अपने को देखें, अपने स्वरूप में आवें, अपने स्वरूप को सम्हालें, अकेलापन दिखे- मोह विष का परिहार कर दें कि मेरा वह घर, मेरी वह फैक्टरी, मेरा वह परिवार, मेरा वह बड़प्पन...अरे भीतर में तो एक ऐसी वासना लिए बैठे हैं और थोड़ा बहुत धर्म भी करते हैं, सुन रखा, कर रहे हैं, पर यह धर्मामृत कहाँ आये, वहाँ तो जगह नहीं है। हृदय तो एक ठोस बर्तन बन गया, हृदय को उन वासनाओं से ऐसा ठसाठस भर लिया है कि उसमें अमृत की बूँद भरने की गुंजाइश नहीं रही। अरे उस बर्तन को रीता कर दो, उस हृदय को उस वासनाओं से रीता कर दो तो वहाँ यह ज्ञानामृत उपयोग, स्वभावदृष्टि, ये सब बातें आयेंगी। जितने भी सिद्ध हुए, जिन्होंने भी निर्वाण पाया है, उनका भी कल्याण हुआ है, एक अपने इस सहज स्वरूप के आश्रय से हुआ है, दूसरी दृष्टि नहीं उनकी हुई जिससे कि वे निर्वाण प्राप्त करें। परिस्थितियों की बात और होती है तथा एक उत्सर्ग की बात और होती। अपवाद की परिस्थिति में जो होता सो अपवाद के मायने बुरी बात नहीं, भली बात का भी नाम अपवाद है, जैसे व्रत, तप, संयम, समिति ये सब अपवाद कहलाते हैं, यह भला है, अपवाद का अर्थ यहाँ पाप, व्यसन, खोटी बात, मिथ्या बात यह नहीं, स्वभावदृष्टि के मुकाबले में बाह्य चेष्टावों को देखें तो अपवाद का अर्थ समझ में आयगा। जो चरणानुयोग की विधि बताई गई- ऐसे उठो, ऐसे बैठो, ऐसे निर्दोष समितियों का पालन करो...यह तो स्वभाव दृष्टि के सामने अपवाद है। कौन सी दृष्टि में? जहाँ एक यह भावना बनी है कि स्वरूपरमण ही एकमात्र कर्तव्य है, अन्य कुछ नहीं, तो इस दृष्टि के मुकाबले शुद्ध क्रियायें भी अपवाद हैं जब चरणानुयोग की विधि से देखते तो ये व्रत, तप सम्यक् हैं, फिर चरणानुयोग के सामने अपवाद क्या है? किसी समय मन डिग गया, वचन हिल गया, कोई दोष हो गया, वह अपवाद है। अब यहाँ चरणानुयोग की विधि से जो एक कर्तव्य करना हो रहा है तप आदिक का वह तो बन गई सही बात, और कोई दोष बन गया तो वह हो गया उसका अपवाद।
893- शुभोपयोग की हेयता व उपादेयता की स्थिति- मतलब यह है कि परमोत्सर्ग तो यही है कि अपने इस सहज स्वरूप की दृष्टि हो, वहाँ ही रमण हो किंतु परिस्थितिवश सब करना होता है, जैसे अभी आत्मस्वरूप में रमण हुआ नहीं और बाहर में राग परिणतियाँ उठ रहीं तो वहाँ छाँट करनी पड़ेगी कि इस पापभाव से भला पुण्यभाव है। तब वे दो चीजें आ पायीं सामने, हम नहीं रम सके अपने स्वरूप में तो वहाँ बात कही जाती है। इसी कारण शुभोपयोग को दर्शाया है उपादेय, या हेय और शुद्धोपयोग को कहा है अत्यंत उपादेय और अशुभोपयोग को कहा है अत्यंत हेय। ये तीन शब्द जो प्रवचनसार में अमृतचंद्रसूरि ने दिये, सो आप देखिये- श्रद्धा, आदर, दृष्टि, प्रयोग, आचार, दशा, इन सबका कैसा अनुमान हो रहा है। बताया है कि अशुभोपयोग तो अत्यंत हेय है और शुभोपयोग जिसके फल में देव, मनुष्य राज्य वैभव आदिक प्राप्त होते हैं इसको उत्थानिका में बताया हेय और अत्यंत उपादेय शुद्धोपयोग, इन शब्दों में कहो, अथवा इन शब्दों में कहो कि अशुभोपयोग अत्यंत हेय, शुभोपयोग कथंचित् उपादेय और शुद्धोपयोग अत्यंत उपादेय, इन शब्दों में कहो, शब्दों पर लड़ाई नहीं होती, होना ही न चाहिए, भाव उसका समझना उस परिस्थिति में उपादेय का इस तरह निर्णय है और उत्सर्ग विधि में बस एक स्वरूपदृष्टि ही उपादेय है, इसके अतिरिक्त समस्त विभाव उसके हेय है, तो ऐसा जिसके निर्णय बना और इस तरह की दशा में जो चलने लगें तो वे मुनिजन अशरण नहीं हैं। 894- पुण्यपापनिषेधक मुनिराजों के वास्तविक शरण का दिग्दर्शन- अच्छा तो परखो, सर्वचेष्टाविमुक्त मुनिराजों को किसका सहारा है? वहाँ न तो कोई मालिक बैठा, न नौकर है, न कोई साधन है, जंगल में जंगली जानवर बसे हुए हैं, कहते हैं कि वे मुनिजन अशरण नहीं हैं। अरे उस समय, उस स्वरूप उमंग के समय ज्ञान में प्रतिचरित हो गया ना। देखिये भेददृष्टि से बात कही गई। चीज तो है वहाँ अद्वैत एक, जो है सो, बस देखो। पर प्रतिषेध भेद बिना नहीं होता। प्रतिचरित होता है याने वह ज्ञानस्वरूप जो अनादि अनंत स्वरूप है, निरपेक्ष सहज स्वभाव है, शक्ति है उसके प्रति यह ज्ञानोपयोग जो जान रहा, समझ रहा, यही उसका प्रतिचरित होना कहलाता है, यही एक उनको बड़ा शरण मिला है, देखो ऐसी बात होती ना कि जहाँ कोई दूसरा तीसरा प्रेमी नहीं रहा बात करने को तो अकेला रहे तो घबड़ाहट हो जाती। तभी तो लोग कहते हैं कि देखो यह महाराज बेचारे अकेले ही बैठे रहते, इनके पास कोई आता जाता नहीं, इन बेचारे को कहाँ से अच्छा लगे।...वहाँ लोगों को इस तरह का विकल्प होता है, तो ऐसी एक आदत होगी लोगों की कि न मिले कोई दूसरा बात करने को तो उनका समय काटा नहींकटता। तो यही बात उन मुनियों की भी है। उन्हें कोई दूसरा न मिले बोलने को तो उनका दिन नहीं कटता। अच्छा, मगर थोड़ा यही अंतर देखना, यहाँ तो बोलने को मिलेगा कोई, मगर स्थिर न मिलेगा। आये 10-5 मिनट बोल दिया, चल दिया, फिर कोई दूसरा आया 2-4 मिनट को बोल दिया, चल दिया, वहाँ कोई स्थायी बोलने वाला नहीं मिल पाता। मगर उन मुनिमहाराज को तो स्थायी सहज परमात्मतत्त्व मिल गया निरंतर बोलने को जो कि उनसे एक सेकंड को भी चलित नहीं होता, भागता ही नहीं, खूब बात करें, खूब एकरस होकर मिल जुलकर करें, क्योंकि यह करने वाले में भी उमंग है कि मैं खूब बात करूँ अपने सहज भगवान से और यह भगवान भी यहाँ से हटकर जाता नहीं, तब फिर कौनसी बात में व्यग्रता रह गई? यहाँ तो ज्ञानीजन अपने आपके स्वरूप में प्रतिचरित होते हुए स्वयं अनुभव करते हैं किसका? परमामृत का। इस ज्ञानस्वरूप में निरत होते हुए मुनिजन अमृत का अनुभव करते हैं। 895- परमार्थ अमृतपान-
अमृत का अर्थ क्या है? अमृत लावो, जहाँ से मिले वहाँ से लावो, सदा को अमर हो जायें। और अधिक मिल जाये तो थोड़ा सा स्टेनो भाई को भी दे देना, ताकि ये भी उसे पीकर अमर हो जावें (हँसी) तो भाई यहाँ बाहर में खूब खोज कर लो, कहीं न मिलेगा वह अमृत । तो क्या कहीं न मिलेगा? हाँ मिलेगा, कहाँ मिलेगा, कौन है? अरे अमृत शब्द का ही अर्थ जान लो तो मिल जायगा। पहले शब्द का ही अर्थ ले लो, फिर मिलने में देर न लगेगी। अच्छा तो क्या है अमृत का अर्थ? दृष्टि नहीं गई लोगों की कि अमृत अर्थ क्या है। लौकिक जन खोजते हैं बढ़िया द्रव्यमयी कोई चीज, यहाँ अमृत का अर्थ है न मृतं इति अमृतम् जो मरे नहीं उनका नाम है अमृत। अब इस मरे में सब आ गया। जो हटे नहीं, जिसका वियोग न हो, जो अपरिपूर्ण नहीं, अधूरा न रहे उसी को ही तो सत् कहते हैं। घर में कोई बच्चा बात नहीं मानता तो झट कह बैठते- मर जा तो क्या मरे का इतना ही अर्थ है? तो ऐसा कौनसा ऐसा तत्त्व है जो मरता नहीं, जिसका कभी वियोग नहीं होता, तथा जो कभी अधूरा न रहे और कहीं गुमता नहीं, वह कौनसा तत्त्व है? वह है मेरा सहज ज्ञानस्वरूप, सहजसिद्ध परमात्मतत्त्व। अब ज्ञानपात्र द्वारा उस अमृत का पान तो कर लीजिए, अमृत का अनुभव होगा, कैसा आनंद आयगा। अनुभव वाला तो बता पायगा नहीं। आया तो किसी में। कैसे आया वह आनंद? तो वह बताया नहीं जा सकता। ऐसा कार्यरहित अविकार स्वरूप देखिये- केवल स्वरूपदृष्टि से सामर्थ्य, शक्ति स्वभाव अविकारी है। अविकार स्वभाव याने केवल प्रतिभास, केवल प्रकाश, केवल जानन, वहाँ कुछ तरंग भी नहीं, इसे जाना, उसे जाना, इसमें कुछ तरंग भी नहीं और मात्र जानन होता ना कुछ? अभी यह बल्ब है सफेद या मानो बल्ब में ही रंग लगा हो या उस बल्ब के आगे हरा, लाल कागज लगा दिया तो रोशनी हरी, लाल दिख रही, पर उस रोशनी में, रोशनी स्वरूप अलग और हरा पीला रंग अलग। यह ध्यान में नहीं आता क्या? और जानते नहीं क्या? अरे जानते नहीं हो तो फिर उसे झट हटाकर क्यों सफेद प्रकाश कर देते? तो है उसमें प्रकाश स्वरूप, वह अवक्तव्य ज्योतिमात्र, उसे सफेद भी नहीं कह सकते। बहुत सूक्ष्मता से पता चलेगा, ज्योति है, पर सफेद से समानता होती है सो कह देते हैं सफेद, किंतु ज्योति तो प्रकाशमात्र है तो ऐसे ही जो हमारा यह ज्ञान चल रहा तरंग वाला, इसमें नहीं समझ सकते कि ज्ञान इसका नाम और यह कीचड़ है राग का नाम। और सोचना होगा, भीतर में निरखो ज्ञानमात्र। जो उस अमृत तत्त्व में निरत हो गए, अनुभव कर रहे वे अशरण नहीं हैं। अशरण तो ये सब हैं जिनका कुटुंब, वैभव, बड़ा आरंभ, यह क्रिया, वह क्रिया यह उपयोग जुट रहा है, यों ममता मिथ्याभाव में जो फंस रहे हैं, ये हैं अशरण, परंतु ये अपने आत्मस्वरूप की ही धुन रखने वाले ज्ञानी जीव ये अशरण नहीं हैं।