वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 103
From जैनकोष
तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतु: ॥103॥
879- शांति के अभिलाषी को स्वयं के यथार्थ निर्णय की आवश्यकता- इस जीव का मुख्य भाव है, ध्येय है कि सही सत्य आनंद मिले। कुछ भी उपाय करे, कुछ भी पौरुष करे, किसी भी परिस्थिति में हो अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार सबकी यह भावना बनती है कि मुझको सही आनंद मिले। इसके लिए यह जानना जरूरी है कि वह मैं क्या हूँ जो यह चाह रहा है कि मुझको सत्य आनंद मिले और वह आनंद क्या है जो कि वास्तविक हो? तो जब मनन करते-करते ध्यान में जम जाते हैं कि मैं तो वह हूँ जो सहज हूँ, क्योंकि कोई भी सत् किसी दूसरे की कृपा से नहीं बनता। जो है वह स्वयं सत् है, तो मैं भी सत् हूँ। कितने ही लोग तो इसी बात की शंका रखते रहते कि मैं हूँ या नहीं हूँ, या एकदम विपरीत धारणा रखते कि मैं नहीं हूँ, जीव नहीं है, पर यह बात निभेगी नहीं। जिसमें तर्कणा हो रही, जिसमें मैं मैं का भाव बन रहा अहंप्रत्ययवेद्य, उसको मना कैसे किया जा सकता? मैं हूँ, जब मैं हूँ तो अपने आप हूँ, जो अपने आप हूँ सो मैं ही एक अकेला हूँ। प्रत्येक पदार्थ अपने एकत्व में ही रहता है, दूसरे का कुछ लेकर नहीं रहा करता। तो मैं हूँ, अपने आप हूँ, हूँ, अपने एकत्वस्वरूप में हूँ। वह क्या स्वरूप है? तो इस दृष्टि से जब अपने आपमें निरखेंगे कि मुझे तो अपने को यों देखना है कि जो स्वयं हो, परसंपर्क से नहीं, इस निगाह से चलेंगे तो मिल जायगा अपने को अपने आप। प्रयोगसाध्य बात है। ज्ञान द्वारा ज्ञान में ज्ञान का ही प्रयोग करना है। किसको निरखना?अपने को।तो फिर बाहरी निरखना सब छोड़ दीजिए। इस गंदी हालत में इस संसारी हालत में दो बातें एक साथ न बनेंगी, क्योंकि रागवृत्ति है ना साथ कि हम बाहरी पदार्थों को भी जानते रहें, उनमें उमंग बनाये रहें और हम अपने आपकी समझ भी बनायें। यों तो बात से समझ नहीं बनती। असली समझ बनती है अनुभव से और यह अनुभव, ज्ञानानुभव तब बनेगा जब ज्ञान में सहज ज्ञानस्वरूप ही बसता हो। तो जब किसी प्रकार इस सहज ज्ञानस्वरूप तक पहुँचे तो वह खुद यह समझ जाता है कि बस सारभूत बात इतनी ही है। यह मैं हूँ, इसमें कोई कष्ट नहीं, इसमें आपत्ति नहीं। स्वरूप से पर का प्रवेश नहीं। भले ही आत्मप्रदेश में, आत्मक्षेत्र में पर का निवास है, कर्म का निवास है, सभी द्रव्य हैं, पर निमित्तनैमित्तिकबंधन रूप से कर्म का योग है, तो रहो प्रदेश में जैसे चाहे, पर मेरे स्वरूप में पर का कुछ नहीं। स्वरूप प्रदेश से न्यारा तो नहीं, मगर स्वरूप में स्वरूप ही है, वह प्रदेश की दृष्टि नहीं कराता, वह तो एक सहज ज्ञान प्रतिभास की दृष्टि कराता है, इस सहज ज्ञानस्वरूप में इस मुझ का यह मैं हूँ, इस मेरे स्वरूप में दूसरा कुछ नहीं है, यह निर्णय किया अपने आपके घर का। 880- घटना के निरख में भी स्वभावदृष्टि का मार्गदर्शन-
अब थोड़ी जब घटना देखने चलते हैं तो घटना क्या घट रही? जब थोड़े समय को चित्त लगा स्वरूप में, वहाँ विलास जगा, मगर घटना घट रही, प्रवृत्ति बन रही, घर जायेंगे, चर्चा में निरंतर न रहेंगे, और भी बातें होंगी, चल रही हैं, कल भी चलेगी, यह घटना क्या घट रही है? यह घटना है अपने ही पूर्व विभावों से बाँधे हुए जो कर्म हैं, जिनमें चार बंध पड़े थे- प्रकृति, स्थिति, प्रदेश, अनुभाग वे सब अच्छी तरह उसी दिन बँध गए थे।पड़े हैं, उदय में आये हैं। कर्मों में कर्मों का विपाक फूटा है, उसका प्रतिफलन हुआ है और वहाँ यह जीव स्वरूप की सुध छोड़कर बाह्य में लग गया। तो ये जो बाह्य घटनायें बन रहीं विचित्र, ये सब नैमित्तिक घटनायें हैं। देखिये- एक बात बहुत सुंदर उपदेश में यह निर्णय करके रखें कि जो सुनना है, जो कुछ बाँचना है, जो कुछ आगम में उपदेश है उस सबका प्रयोजन है स्वभावदृष्टि कराना, दूसरा कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि इस जीव का शरण मात्र स्वभावाश्रय है। अब तक इस जीव ने बहुत-बहुत पदार्थों का आश्रय किया, शुभविकल्प वाले, अशुभविकल्प वाले अनेक आश्रय बनाये और ऐसा करते-करते अनंतकाल व्यतीत हो गया, और आज बड़े सुयोग से यह दुर्लभ श्रेष्ठ मानवजन्म पाया, श्रेष्ठ मन पाया, आगम में कुछ प्रवेश भी है, बुद्धि विशुद्ध है, अंतस्तत्त्व का, कल्याण का सब भाव भी बना है, ऐसा सुंदर अवसर इन विषयकषायों में खो देना क्या बुद्धिमानी है? मनुष्य के इस भव का कितना समय तो गुजर गया, जो रहा सहा थोड़ासा समय किसी का 10 वर्ष किसी का 5 वर्ष का है इसका क्या सदुपयोग करना है। वह है यही कि जिस प्रकार बने स्वभावाश्रय बनाइये। बाहर में सब धोखा है। किसका?....विषय साधनों का, यहाँ ये सब विषयसाधन ही तो हैं। कोई मन का विषयसाधन है, कोई इंद्रिय का विषयसाधन है, इन साधनों का आश्रय करके कोई लाभ नहीं मिलने का। सब माया है। यहाँ कोई भगवान नहीं बैठे, सब मायारूप हैं, और भगवान भी हों तो भी वह अपने ही तो पौरुष से ज्ञानद्वारा ज्ञान में ज्ञान का प्रकाश पाकर उस ही में रमकर तो काम बना पायेंगे। यह उपदेश प्रभु ने दिया और यही काम प्रभु ने किया, इसलिए वे हमारे लिए भक्ति किए जाने योग्य हैं। हम सेवा, भजन, भक्ति में, उनके गुणगान में उमंग रखते हैं, वह सब भी किसलिए? एक ही बात रखें। सब बात स्वभाव का आश्रय बनाने के लिए है।
881- पुराणचरित्र व चारित्रग्रंथों के उपदेश में स्वभावदृष्टि की प्रेरणा- आगम में जितना भी उपदेश है उस सबका प्रयोजन है स्वभावाश्रय करना। प्रथमानुयोग के कथन में जहाँ गड़बड़ चर्चा दिखे वहाँ ध्यान आये कि स्वभावाश्रय के बिना इस जीव की दुर्गतियाँ होती हैं।जहाँ साधुचरित्र सुना तो वहाँ यह दृष्टि बनती है- ओह देखो इस स्वभावाश्रय के काम में सर्व कुछ न्यौछावर करके, सब त्याग करके, केवल एक स्वभावाश्रय के लिए ही इसने अपनी धुन बनाया, जीवन बनाया। चरणानुयोग के ग्रंथ पढ़े तो वहाँ भी यह दृष्टि मिलेगी कि देखो स्वभावाश्रय से विपरीत अवस्था क्या है? विभाव-विभाव का आश्रय, और विभाव होते हैं दो प्रकार के। (1) अबुद्धिपूर्वक और (2) बुद्धिपूर्वक। अबुद्धिपूर्वक विभाव तो वे कहलाते हैं कि जब इस उपयोग को आश्रयभूत कारण न मिले, याने कर्मविपाक को छोड़कर जितने भी जगत में पदार्थ हैं वे सब आश्रयभूत कारण कहलाते हैं और उस समय चूँकि कर्मविपाक तो निरंतर है, प्रतिफलन चलता है, अबुद्धिपूर्वक विभाव बन रहा, जैसे कि कोई चौथे, पाँचवें, छठवें गुणस्थान वाला सम्यग्दृष्टि स्वानुभव में भी लग रहा हो, केवल एक ज्ञानस्वभाव, वही उपयोग में है उस समय भी उसके अबुद्धिपूर्वक विभाव चल ही रहे हैं, बुद्धिपूर्वक नहीं हैं, क्योंकि उपयोग लगा है सहज ज्ञानस्वरूप में। एक होता है बुद्धिपूर्वक। इन बाहरी पदार्थों में उपयोग देकर, स्त्री, पुत्र, मित्र, धन वैभव, इज्जत आदिक में उपयोग देकर जो रागद्वेष बनते हैं वे बुद्धिपूर्वक विभाव कहलाते हैं।तो बुद्धिपूर्वक विभाव बनते ही हैं किसी बाह्य वस्तु का आश्रय करके। जैसे कि समयसार में बताया ‘‘नहि वाह्यवस्त्वनाश्रित्याध्यवसानमात्मानं लभते’’ बाह्यवस्तु के आश्रय बिनाअध्यवसान अपना स्वरूप नहीं बना पाते। यहाँ अध्यवसान का मतलब बुद्धिपूर्वक विभाव से है। तो फिर बंध का कारण क्या है? क्या यह बाह्य वस्तु है? कहते कि नहीं, बाह्य वस्तु बंध का कारण नहीं है। अध्यवसान ही बंध का कारण है। तो फिर बाह्य वस्तु का त्याग क्यों करवाते, यह प्रश्न भी किया उसी गाथा में। तो कहते हैं कि बाह्यवस्तुप्रतिषेध: अध्यवसानप्रतिषेधार्थ: अध्यवसान के प्रतिषेध के प्रयोजन से बाह्यवस्तु का प्रतिषेध कराया जाता है बस यह ही आधार चरणानुयोग का है। तो वहाँ यह बात मिलेगी कि हमारे यहाँ मंदकषाय और स्वभावाश्रय के लिए एक पात्रता समर्थता जगी है, उन बाह्य त्यागों को निरखकर तो वहाँ भी प्रयोजन लेना स्वभावाश्रय की उपासना का। करणानुयो के जो जो भी वर्णन हैं मोटे वर्णन, सूक्ष्म वर्णन, कर्मसिद्धांत के वर्णन, उनसे भी स्वभावदृष्टि का ही प्रयोजन निकालना, जैसे जब जीव का पर्याय का वर्णन होता है कैसे-कैसे देह, कैसी-कैसी अवगाहना वाले जीव, ऐसे-ऐसे कीट, ऐसे-ऐसे निगोद वहाँ यह ख्याल आयगा कि इन जीवों को स्वभावाश्रय नहीं मिला, बाहरी-बाहरी बातों में भटके उसका फल यह है कि इस-इस प्रकार से उनको पर्यायें ग्रहण करनी पड़ रही है। 882- द्रव्यानुयोग में निश्चय नयों के वर्णन में स्वभावदृष्टि की शिक्षा-
द्रव्यानुयोग में जो नयों द्वारा वर्णन होता है उन सब नयों के वर्णन में स्वभावाश्रय का ही प्रयोजन लेना। जैसे शुद्धनय स्वानुभव का, स्वाभावाश्रय का बहुत निकट वाला नय है, उससे अधिक निकट का और कोई नय नहीं। शुद्धनय का विषय क्या है? सब तरह से समझ चुकने के बाद वे सारे विकल्प जब छूट चुकते हैं और जब अखंड, वचन का अगोचर, सहज स्वभावमय वह पूर्ण वस्तु दृष्टि में होता है, वह है शुद्धनय, तो यही क्यों नहीं स्वानुभव कहलाया? इस शुद्धनय में भी विकल्प है उस नेतिसूचक ढंग का। तो शुद्धनय का प्रयोजन क्या है? स्वभावाश्रय, स्वानुभव यह ही उसका प्रयोजन है। परमशुद्ध निश्चयरूप से देखते हैं कि जीव चैतन्यस्वरूप है, ऐसा निरखने का प्रयोजन क्या है कि उस सहज चैतन्यस्वरूप में हमारा उपयोग जमें, उसका मुझे आश्रय बने। जब शुद्ध निश्चयनय से निरखते हैं तो जान जाते हैं- प्रभु केवल ज्ञानी, अनंत आनंदमय हैं। शुद्धनिश्चय नय से शुद्ध पर्याय को देखते हैं और निश्चयनय होने के कारण अभेद विधि से देखते हैं। ये सिद्धप्रभु केवली है, अनंत ज्ञानी हैं, अपनी शुद्ध अभिन्न षटकारकता से यह ही तो निरखा जा रहा है, उसका प्रयोजन क्या? चूँकि वह प्रयोजन स्वभाव के अनुरूप है तो वहाँ कुछ अधिक सुगमता मिली कि उस अनुरूपता की वजह से उस पर्याय से हटकर स्वभाव में पहुंचें, वहाँ दृष्टि जमे, क्योंकि वहाँ भी निरखा तो यों ही जा रहा कि इस द्रव्य का यह परिणमन, इस स्वभाव की यह परिणति। जैसे किसी भी बच्चे से पूछो कि तू किसका बालक है। तो उत्तर में जो मिलता है उस चर्चा में वह प्रधान बन गया। यह अमुक का बालक है। पूछने वाले को आवश्यकता इसके बाप के परिचय की पड़ी, कुछ काम उससे ज्यादह इसके चित्त में आया होगा। तो यहाँ इस निगाह से ही निरखा जा रहा है कि यह स्वभाव के आश्रय पर्याय बनी, स्वभाव की परिणति है तो वहाँ पर्याय गौण होकर स्वभाव मुख बनता, वहाँ भी प्रयोजन स्वभाव का आश्रय करना है। अशुद्ध निश्चयनय से भी देखा गया कि यह जीव रागी है, यह परिणमन रागी है, इसका ही इस तरह का ज्ञानविकल्प चल रहा है, वह ज्ञानविकल्प इसी द्रव्य की ही तो परिणति है। यहाँ साथ-साथ लगी हुई है स्रोत की सुध। तो यह एक विधि है कि पर्याय गौण होकर स्वभाव के लिए दृष्टि पहुँचती है। दूसरी बात यह है कि अशुद्ध निश्चयनय से देखा तो अशुद्ध पर्यायमय, लेकिन केवल एक ही को निरखा, आश्रयभूत पदार्थपर दृष्टि नहीं है, निमित्तभूत पदार्थपर दृष्टि नहीं है। तो जहाँ यह परसंबंध की दृष्टि नहीं रही तो यह विभावों का ताँता कैसे उनका लंबा हो सकेगा? उसको मौका मिलता है फिर अपने स्वभाव के प्रकाश का।
883- व्यवहारनय व उपचार का विश्लेषण-
व्यवहारनय से देखो, व्यवहारनय घटना दिखाता है। एक बात यहाँ यह जानना कि निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों ही प्रमाण के अंश हैं और प्रमाण के अंश होने से जिस तरह निश्चयनय का विषय सत्य है, व्यवहारनय की बात भी सत्य है, पर बात क्या बन गई। जो कहीं-कहीं व्यवहार को असत्य कहा है? तो उत्तर यही है- एक होता है उपचार। वह उपचार नयों में नहीं है, किंतु कुछ प्रयोजन के लिए है। उपचार कहते हैं व्यवहारनय की बात को इस भाषा में पेश करना जो उपादान उपादेय की भाषा बने, इसको कहते हैं उपचार। तो उपचार में जो कथन होता है उसे भी व्यवहार शब्द से कहा गया है। जब यह व्यवहार शब्द आये तब तब वहाँ यह दृष्टि लाना चाहिए कि यह उपचार वाला व्यवहार है या व्यवहारनय वाला व्यवहार है? प्रमाण के अंशरूप वाला व्यवहार है या उपचार वाला? उपचार वाला व्यवहार है तो जिस भाषा में बोल रहे हैं उपचार, उसमें उस भाषा में उपादान उपादेय का अर्थ लगायें तो मिथ्या है। उसमें तो केवल प्रयोजन की दृष्टि रखें और अपने काम में लगें। जैसे कोई कहता है कि घी का घड़ा, वही एक प्रसिद्ध दृष्टांत है, अब इस बात को सुनकर कोई ऐसी मूर्खता तो नहीं करता कि जैसे ताँबा, पीतल, लोहा आदि धातुओं का घड़ा होता वैसा हीघी से निर्मित घड़ा होता। सभी को मालूम है कि प्रयोजन से कही गई यह बात है, जिसमें घी रखा वह। यदि ऐसा उपादान उपादेय से कोई कहे, यह ताँबे का, यह मिट्टी का और यह घी का घड़ा है, तो वह भाषा मिथ्या है, उसका ज्ञान मिथ्या है। प्रयोजन देखना है और काम करना है, घी को खाया पिया और जहाँ का तहाँ रख दिया, तो उपचार भाषा कहलाती है एक संक्षिप्त (Short) भाषा और संक्षेप में बनेगी वह उपादान उपादेय वाली भाषा, सो अगर इसी तरह अर्थ समझें तो मिथ्या है और केवल प्रयोजन निकालें तो ऐसा चलता ही रहता है।
884- द्रव्यानुयोग में व्यवहारनय के वर्णन में स्वभावदृष्टि की शिक्षा-
व्यवहारनय जो प्रमाण का अंशभूत है वह एक घटना बतायगा याने जैसे यह राग हुआ तो राग प्रकृति का उदय, आत्मा में नहीं बना लेकिन जैसे अन्यत्र निमित्तनैमित्तिक भाव परखा गया यहाँ भी निरखें कि उस उदयकाल में उसका प्रतिफलन होना, ज्ञेय होना, यह एक तो अनिवारित बात है। अब उस प्रतिफलन में चूँकि ऐसा ही अशुद्ध उपादान है तो उसमें यह अपना ज्ञानविकल्प बनायगा। तो वहाँ निमित्तनैमित्तिक भाव जानकर और उस निमित्तनैमित्तिक भाव के ज्ञान से स्वभाव दृष्टि से ज्ञान की शिक्षायें लें जैसे कि समयसार में भी अनेकों जगह बताया है कि ‘‘ये कर्मोदयविपाकप्रभवा भावा न ते मम स्वभावा:’’ ये रागादिकभावकर्मोदय के विपाक से उत्पन्न हुए हैं, ये मेरे स्वरूप नहीं हैं। नैमित्तिक भाव जानकर स्वभावदृष्टि के लिए उमंग यों लगती है कि मेरे स्वरूप के भाव नहीं हैं, सहज भाव नहीं हैं, आगंतुक हैं, औपाधिक हैं, नैमित्तिक हैं, परभाव हैं ये। नैमित्तिक हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि निमित्त ने अपनी परिणति से किया हो। कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ की परिणति को नहीं करता और साथ ही यह बात है कि कोई भी विकार निमित्त के सन्निधान बिना होता नहीं।जब ये दोनों बातें एक साथ हैं कि निमित्तसन्निधान बिना विकार होता नहीं, निमित्त उपादान की परिणति को करता नहीं, तो वहाँ ऐसे ही तो स्वभावदृष्टि का अवसर मिला कि भाई ये नैमित्तिक हैं। निमित्त के सन्निधान बिना होते नहीं, इसलिए ये तो निमित्त की ओर जावो, उस खाते में ही पटको इन रागादिकभावों को और अपने को शुद्धस्वभाव में अनुभव करो, स्वभावाश्रय करो। जितना भी उपदेश है वह स्वभावाश्रय करने के लिए है, परंतु विषयों का आश्रय करने के लिए नहीं है।
885- साधु संतों की भक्ति सेवा में भी स्वभावदृष्टि की शिक्षा-
अब एक बात और परखिये कि ज्ञानियों को स्वभावाश्रय का मार्ग तो मिला, किंतु कुछ पदों में वे स्वभावाश्रय में, या इसके अनुभव में, या इसकी चर्चा में, या इसकी दृष्टि में कितने क्षण रहेंगे? तो प्रतीति तो रहती है सदा, मगर उपयोग कितने क्षण रहेगा? तो फिर यह ज्ञानी पुरुष करता क्या है? उसकी चर्या तो देखो- स्वाध्याय किया, सत्संग किया, पूजन किया, ध्यान किया और चूँकि विभावों से उसकी उपेक्षा है ही, जहाँ देखा कि इसको गरीबी का कष्ट मिला, इसकी यह तकलीफ मिटाता है, दान किया, धर्म से दान किया, ये सब कार्य ज्ञानी कर रहा है। तो कर रहा है ज्ञानी क्या करे? जब स्वभाव का उपयोग नहीं है तो दो बातें सामने आयीं। या तो अशुभ भाव करे या शुभ करे। उनमें से छाँट की अपेक्षा उसने यह ठीक समझा कि अशुभभाव से शुभभाव अच्छे हैं। और देखो अशुभोपयोग को प्रवचनसार में अत्यंत हेय बताया और शुभोपयोग को हेय कहा व शुद्धोपयोग को अत्यंत उपादेय बताया। ये शब्द वाले प्रवचनसार में, चाहे इस शब्दों से कहे और चाहे शुभोपयोग को कथंचित् हेय या कथंचित् उपादेय कहें क्योंकि अत्यंत हेय अशुभोपयोग को कहा उससे यही धुन निकलती है। परिस्थिति में ज्ञानी को ऐसा करना ही होता है। तो ज्ञानी ने शुभोपयोग यों किया। अब धर्मबुद्धि वाले बहुत से लोग हैं। जिन्होंने ज्ञानी को देखा कि यह क्या करता है- ‘‘महाजनो येन गत:स पंथा:।’’ अज्ञानी की बात देखो- जो बड़े ध्यान में रहता, पूजा भी करता, व्रत भी करता, उपवास भी करता ये सब ज्ञानी की क्रियायें देखी, दूसरों ने भी देखी, उनको भी धर्म की चाह थी, पर लक्ष्य उनका नहीं बन पाया सहज स्वभाव के आश्रय का।
886- ज्ञान व सम्यग्ज्ञान का प्रकृत विश्लेषण-
भैया, एक तोहोता है ज्ञान, एक होता है सम्यग्ज्ञान। देखिये- ज्ञान बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता और सम्यग्दर्शन बिना सम्यग्ज्ञान नहीं होता। इस ज्ञान और सम्यग्ज्ञान का अंतर क्या? जैसे बहोरीबंद...में भगवान शांतिनाथ की बहुत बड़ी प्रतिमा है उसे तो मैंने भी आँखों नहीं देखा, पर सुना है, पुस्तकों में पढ़ा है, उसकी नाप तौल भी पढ़ने को मिल गई, तो वह भी ज्ञान हमें सही हो गया, जैसी प्रतिमा है वैसा ही हम जान रहे हैं, मगर जब वहाँ जाकर साक्षात्रूप में उस प्रतिमा के दर्शन करें तो बताओ इन दोनों प्रकार के ज्ञानों में अंतर है कि नहीं? एक तो कहलाता अनुभवसहित ज्ञान और एक कहलाता अनुभवरहित ज्ञान, मगर यह उल्टे मार्ग का ज्ञान तो नहीं था। तो ऐसेही जो और धर्मात्मा पुरुष हैं, जिन्हें स्वभाव का अनुभव नहीं हुआ न वे लक्ष्य प्रतीति में एकदम जमे, फिर भी वे ज्ञान तोकरते हैं। सुनी है आत्मा की बात और ज्ञानियों की बात देखी, उस क्रिया में भी लगता है तो, उससे भला एक तीर्थ प्रवृत्ति तो बनी। तो प्रवृत्ति में क्रिया का निषेध नहीं बना, किंतु श्रद्धा में क्रिया का निषेध है। तो जिसने अपने स्वभाव का परिचय पाया, उस पुरुष का यह निर्णय है कि कर्म जितने हैं पुण्य, पाप, शुभ, अशुभ याने स्वभाव से हटकर जो कुछ भी परिणतियाँ हैं वे बंधन के साधन हैं, और यह ही कारण है कि इस ज्ञानी की दृष्टि में यह निर्णय बना है कि मोक्ष का हेतु तो ज्ञान ही है। इस सहज स्वभाव का आश्रय ही मोक्ष का मार्ग है। और जो उस सहज स्वभाव का रुचिया है, इस स्वभाव का जहाँ विकास मिला है, प्रभु अरहंत, इसके प्रति उमंग जगती है, इस सहजस्वभाव की जिसे दृष्टि मिली है ऐसे यहाँ के साधुसंत त्यागीजन, ज्ञानीजन उनके संग के लिए उमंग मिलती है और अपनी शक्ति माफिक हर प्रकार की सेवा के लिए उमंग रहती है, वह सब भी किसलिए? स्वभावाश्रय के लिए। कहाँ-कहाँ क्या होता, यह अपने-अपने उपादान की बात है, और जिस जिसने विकास कर पाया, उन सबका उद्देश्य स्वभाव का आश्रय करना है। तीर्थप्रवृत्ति रहे और भीतर में स्वभाव के आश्रय की बात रहे।